चित्रों की ज़बान / संतोष श्रीवास्तव
प्रोफ़ेसरजतिन ने कॉफ़ी की हल्की-सी घूँट भरी और किताब का बुक मार्क लगा पन्ना खोला-
फूल बनकर हम महकनाजानते हैं। मुस्कुरा के ग़म भुलाना जानते हैं...
सुजाता को जतिन की कविता के शब्द उसके चेहरे का फ़लसफ़ा खोलते से लगे। वह जो जिस्म की बेहिसाब पीड़ा में भी मुस्कुराती रहती है, पहले तड़प-तड़प कर फिर असहाय होकर और अब पूरी ज़िन्दादिली से उसने वह पीड़ा आत्मसात कर ली है। हालाँकिअब उसके हाथ इसके इशारों पर चलने से इंकार करते हैं... इस इंकारी ने पैरों पर भी कब्ज़ा कर लिया है और आहिस्ता-आहिस्ता ज़बान की ओर भी बढ़ रही है। अब अगर कोई उसका कहा मानता है, उसके इशारों पर चलने को आमादा रहता है तो सिर्फ़ प्रोफ़ेसर जतिन... उसका प्यारा दोस्त जतिन... जिनके बीच दिल का, इंसानियतका बड़ा गहरा और बेमिसाल रिश्ता है।
"सुजाता, अपनी पीड़ा में भी मुस्कुराते रहने की कला का एक इंस्टिट्यूट खोल लेते हैं।"
"मुझे पीड़ा कहाँ है जतिन... मुझे अब उसकी आदत हो गयी है... अब वह मेरे शरीर का एक हिस्सा है जैसे तुम..." लटपटाये बोलों ने जतिन को भी मुस्कुराने के लिए बेबस कर दिया।
आज से आठ साल पहले मिले थे दोनों साहित्यिक मंच पर। जतिन के कविता संग्रहका लोकार्पण था और सुजाता को उसके काव्य पाठ के दौरान कैनवास पर चित्र बनाने थे। चित्रकारी में अपनी धाक जमा चुकी मशहूर चित्रकार सुजाता दास ने जतिन की कविताओं को सुनते हुए जो चित्र बनाए वह हाथों-हाथ महँगे दामों में बिक गये। कार्यक्रम के बाद दोनों टैक्सी के इंतज़ार में फुटपाथ पर खड़े थे। टैक्सीरोकते हुए जतिन ने कहा-"चलिए, घर छोड़ देता हूँ आपको।" वह बिना कोई तकल्लुफ़ के टैक्सी में बैठ गयी। थोड़ी दूर रेंग कर टैक्सी सिग्नल पर रुक गयी। फुटपाथ पर खाने पीने की सामग्री और अंग्रेज़ी जासूसी उपन्यासों के ठेले थे। मुम्बई हर वक़्त भीड़ भरी होती है। यह बात दीगर है कि दिन का हर प्रहर अपने-अपने तरीके की भीड़ लिये होता है। यहाँ रूककर किसी को देखने की फुरसत नहीं। सबअपने में मशगूल... भीड़ में रहकर भी तनहा...
"कॉलेज में लैक्चरर है न आप?"
"जी हाँ... पी-एच.डी. भी कर रहा है।"
"यानीटीचिंगलाइन में चिपके रहनेकी फुल गारंटी।"
सुजाता का घर आ गया था। जतिन ने अपना कविता संग्रह उसे भेंट किया।
"आइये... एक-एक कप कॉफी हो जाए।"
जतिनमना नहीं कर पाया। टैक्सी वहीँ छोड़ दी। सुजाता के घर में प्रवेश करते ही जतिन को एहसास हो गया कि निश्चय ही वह एक कलाकार के घर में प्रवेश कर रहा है।
"वाह... बहुत कलात्मक घर है आपका..." जतिन ने दीवारों पर लगी पेंटिंग्स, फ़ैब्रिक पेंट से चित्रित सोफ़े के कुशन कवर, परदे, जापानी इकेबाना शैली का कोने में रखा लंबा गुलदान, परदों पर रुनझुन करती घंटियाँ और दूसरे कोने में रखे एक्वेरियम को देखा।
"शुक्रिया... शुक्रिया... जब कला की तारीफ़ होती है तो मज़ा आ जाता है... आपकी कविताएँ पढ़कर चित्र बनाऊँगी।"
तब तक कॉफी आ गई थी-"मेरी केयरटेकर मीना... इसे कहना नहीं पड़ता कॉफी के लिए।"
"यानी कि आप अकेली..."
"जतिन साहब... मैंने शादी नहीं की, करूँगीभी नहीं। वैसे अब उम्र भी नहीं रही शादी की। इस महानगर में मेरा एकांकी जीवन रहा कहाँ। इतना बड़ा कुनबा है मेरा चित्रकारों, साहित्यकारों का। और आप?"
"मैं भी अकेला... तलाकशुदा... गनीमत है उसने बाप नहीं बनाया।"
" तो ये बात है, वैसे आपकी कविताओं में आपका दर्द झलकता है जतिन साहब... दूसरी शादी कर डालिए वरना... सॉरी, आपके पर्सनल मैटर में दखल देने का मेरा कोई इरादा नहीं था। जतिनने विदा होते-होते इस चुलबुली, बातूनी लड़की को अपने दिल के करीब पाया। यह क्या हुआ पहली ही नज़र में... कुछ ऐसा ही सुजाता को महसूस हुआ। उस रात जतिन उसकी पलकों की खुलती बंद होती गति में बार-बार झलका... दिल की धड़कनों में उसके नाम की गूँज भी सुनी सुजाता ने, सुबह उठते ही फ़ोन लगाया-
"अरे, मैं भी लगा ही रहा था।"
वह शरमा गई।
"नींद आई?"
"यानी कि आप भी जागते रहे मेरी तरह?"
"शाम को मिलें... पीरामल पार्क में।"
"ओ.के... छै: के आसपास?"
समझदार है जतिन... पीरामल पार्क आर्ट गैलरी से फर्लांग भर की दूरी पर है। अगले हफ़्ते वहाँ सुजाता के चित्रों की एकल प्रदर्शनी है और उसकी तैयारी में वह रोज़ दोपहर अपनी चित्रकार दोस्त रुख़साना ख़ान के साथ दोपहर तीन से छै: बजे तक वहीँ रहती है। रुख़सानाका पति ठीक 6.30 पर उसे लेने आताहै। आधाघंटा वे कैंटीन में चाय नाश्ते के साथ गपशप करती हैं। लेकिन अब रोज़ छै: के आसपास सुजाता पैकअप कर लेती है। पीरामल पार्क सुजाता और जतिन की मुलाकातों का साक्षी बन गया।
"मेरी प्रदर्शनी की थीम नृत्य उत्सव है। मैंने सेमी रियलिस्टिक स्टाइल में नृत्य का एक संसार ही चित्रों में बसा दिया है जिसमें अजन्ता, एलोरा के भित्ति चित्रों के लुक में मानव आकृतियाँ नृत्य का उत्सव मना रही हैं। इन्हें परम्परागत नृत्य मत समझना। मैं इनके ज़रिए संगीत के मार्ग से होकर ईश्वर से साक्षात्कार का मिथक तैयार कर रही हूँ।"
"यानी कि तुम्हारे चित्र इस बात का प्रतीक हैं कि हमारे जीवन में संयोग कभी नहीं घटते। फिर मेरा तुम्हारा मिलन?"
"प्रोफ़ेसर साहब... हमदोनों तो एक दूसरे के साथ के कर्ज़दार हैं। जो पूर्वजन्म में न हो सका वह इस जन्म में हो रहा है।" जतिन देखता ही रह जाता सुजाता की वाचालता को। वह फिर जोश से भर गयी-
"मेरे चित्रों में नृत्य करते मानव की हर साँस जीवन के अस्तित्व की व्याख्या करती है। अपने आप उनके चेहरे पर मैं भावों को उकेरने लगती हूँ और जतिन... वह भाव मेरे अंदर सकारात्मक तरंगें प्रवाहित करने लगते हैं।"
जतिनने स्वयं भी उन चित्रों में ऐसा ही कुछ पाया। नृत्य करती आकृतियाँ बेहद जोशीली हैं और रंगों से भी जोश की आशा नज़र आती है।
"मैं इस प्रदर्शनी में बिके चित्रों का आधा पैसा लड़कियों के अनाथालय में दूँगी।"
"क्या बात है। तुम तो बड़ा वज़नदार जज़्बा लेकर काम कर रही हो।"
सुजाता ने पार्क के लचीले लॉन में पैर फैला लिये। पार्क की दीवार से सटे हरसिंगार और चंपा के पेड़ों पर शाम उतर आई थी। चिड़ियों का चहचहाना बढ़ता जा रहा था।
"मेरा बचपन अभावों में बीता। मेरे पापा की दुर्घटना में मृत्यु के बाद हम बेसहारा हो गये थे। मेरी माँ घरेलू महिला थीं... नौकरीकर सकने के बिल्कुल अयोग्य। आर्थिकदुर्दशा में उन्होंने लंबे-लंबे पंद्रह वर्ष गुज़ारे और जब मैं इस लायक हुई कि उन्हें सुख दे पाती तो वे चल बसीं।" सुजाता की आवाज़ रुंध गयी! जतिन ने उसकी हथेलियाँ अपने हाथों मेंलेकर थपथपा दीं। पार्क में भीड़ बढ़ने लगी थी।
"चलो... घर छोड़ दो मुझे। आदत बिगाड़ दी है तुमने। अच्छी ख़ासी अकेली घर लौट जातीथी लेकिन अब।"
"बंदा हाज़िर है।"
जतिन ने सुजाता को उसके चित्रों के माध्यम से ही जाना... उसके अंदर की ऊर्जा, जोश... कुछ कर दिखाने का जज़्बा... उसका अभावों से भरा बचपन जब उसकी माँ ज़िन्दग़ी में अकेली हो गयी थीं और आर्थिक संकट मुँह बाये था... कुपोषण... दूध तक को तरसती और पापा के दुर्घटना मुआवजे के लिए वकीलों के चक्कर काटती... एक-एक कर पूरे दस बरस तक कोर्ट की ठोकरें खाती माँ। और जब चाचाओं ने मिलकर उसका पुश्तैनी मकान हड़प लिया था। अपने ही घर में शरणार्थी हो गयी थी सुजाता अपनी माँ के साथ... सुजाता ने बाक़ायदा चित्रकलाइंस्टिट्यूटज्वॉइन कर लिया था। पढ़ाई के साथ-साथ चित्रकला की क्लासेज़ के लिये स्कॉलर-शिप की जद्दोजहद और मंज़िल तक पहुँचने की ज़िद्द भरी कोशिश... सब कुछ सुजाता के बनाए चित्रों में मौजूद है। इसी जद्दोजहद में सुजाता ने अपनी ज़िन्दग़ी अपनी शर्तों पर जीने का फ़ैसला कर लिया।
"एतराज़ नहीं किया माँ ने?" जतिन ने पूछा।
"एतराज़ करती भी तो किस बिना पे? उनके पास मुझे ब्याहने के साधन नहीं थे, अपने पास रोक रखने की कोई ठोस वज़ह न थी। मैंने ज़िन्दग़ी का फलसफ़ा ढूँढ लिया-चित्र ही ओढ़न चित्र बिछावन... समझे।"
जतिन हँस दिया-"और ऐसे में उस सिरफिरे करोड़पति का तुम पर दिल आ गया जो रहने के लिए इतने पॉश इलाके में ये खूबसूरत फ़्लैटदे दिया।"
"मुझ पर नहीं मेरी कला पर। वह सिरफिरा कवि है। उसकी कविताओं पर मैंने चित्रकारी की। नीलामी में वे लाखों में बिके। अनुबंध हो गया हमारे बीच... उसने नीलामी का फिफ्टी परसेंट रख लिया और मुझे ये घर आजीवन रहने के लिये दे दिया।"
"कमाल है एक सिरफिरे कवि ने घर दे दिया, दूसरे सिरफिरे कवि ने दिल... तुम्हारे तो ठाठ हो गये यार।"
"हम हैं ही ऐसे।" सुजाता ने अकड़कर हँसते हुए कहा।
दीपावली के बाद जतिन अपने विद्यार्थियों के पी-एच.डी. के काम में जुट गया और सुजाता रुखसाना के साथ कलाकुंभ की तैयारी में। कलाकुंभ दक्षिण भारत में प्रति दो वर्ष में आयोजित किया जाता है। इस बार प्राकृतिक सुषमा से समृद्ध केरल में यह आयोजित हो रहा है। तीन महीने तक चलने वाले इस आयोजन में पूरे विश्व से कई प्रमुख चित्रकार हिस्सा लेंगे। सुजाता को अपनाबेस्ट साबित करना है और एक तरह से इन दिनों जतिन का पी-एच.डी. में व्यस्त रहना अच्छा ही है। वह पूरी एकाग्रता से कलाकुंभ की तैयारी कर पाएगी। बहुत बड़ी चुनौती ही उसके सामने। इतनेसारे देश-विदेश के चित्रकारों के चित्रों के संग उसके चित्रों का प्रदर्शन, वह भी इतने बड़े स्केल पर...!
रुख़साना अपने पति के साथ चार दिन पहले हीकोच्चि के लिए रवाना हो गयी थी ताकि वहाँ का इंतज़ाम देख सके। शाम को रुख़साना का फ़ोन था-"सुजाता बहुत बड़ा इम्तिहान है हमारा... यहाँ तो ऐसी तैयारियाँ हो रही हैं कि पूछो मत।"
"बताओ तो सही।" सुजाता व्याकुल थी।
"सात जगहों पर प्रदर्शनी का इंतज़ाम है, कुछ चित्रों को पब्लिक प्लेसेज़ में भी रखा जाएगा ताकि आम आदमी भी चित्रकारों से रूबरू हो सके।"
"सबके चित्र पहुँच गये क्या... मैं सोमवार की फ़्लाइट ले रही हूँ।"
"ओ.के... तुम्हारा नाम लिस्ट में आ गया है।"
सुजाता ने जतिन को फ़ोन लगाया-"नर्वस हो रही हूँ यार।"
"अरे! मेरी शेरनी और नर्वस? ... नो चांस। काम में मन लगाओ। मैं रात दस बजे पालक की खिचड़ी लेकर पहुँच रहा हूँ।"
"अचार, दही भी... मीना कल आयेगी गाँव से। चलोरखती हूँ।" वह कुछ ताज़ा चित्रों को फाइनल टच देने लगी। फिर नहाई... अभी स्कर्ट का बक़ल लगा ही रही थी कि फिर रुख़साना का फोन...
"अब क्या?"
"क्या करूँ सुजाता... मुझे तुम्हारी कमी बुरी तरह महसूस हो रही है। एक से बढ़कर एक नामी कलाकार आ रहे हैं। कोच्चिके किले के परेड ग्राउंड में इंस्टॉलेशन का काम पूरा हो चुका है।"
"ओ.के. ... मियाँ के साथ नहीं है क्या?"
"वो बात ले रहा है। तुम मेरी एक्साइटमेंट नहीं समझ सकतीं। मुजीरिस समुद्र के किनारे पुराने बंदरगाह में जो प्राचीन क़िला है न, उसके दरबार हॉल का रीकंस्ट्रक्शन किया गया है। इसी कलाकुंभ के लिये। पेपर हाउस, पुराना डच स्टाइल का बड़ा बंगला और सोलह हज़ार वर्ग फीट का उसका कोर्टयार्ड आर्टिस्टों के स्टूडियो तथा रहने के लिए इस्तेमाल किया जायेगा। हम वहीँ रुके हैं।"
"रुख़साना... तुम्हारा मियाँ नहा चुका होगा। उसके लिए कबाब ऑर्डर करो।" औरफोन रख दिया सुजाता ने।
रातसाढ़े दस बजे जतिन और सुजाता पालक खिचड़ी का मज़ा ले रहे थे।
" बहुत विशाल, भव्य रूप में आयोजन किया गया है कलाकुंभ का। रुख़साना बता रही थी। '
"परसों तुम्हारी फ़्लाइटहै... सब तैयारी हो गयी?"
"हाँ... वह बड़ा बॉक्स चित्रों का है और मेरे कपड़ों की अटैची थोड़ी छोटी ली है इस बार... काम चला लूँगी... लगेजज़्यादाहैवी होगा तो मुसीबत हो जाएगी।"
"तब भी... लंबा टूर है तुम्हारा... विदेशी चित्रकारों के बीच चर्चाएँ, वार्ताएँ, सेमिनार, प्रेज़ेंटेशन और लाइव परफॉरमेंस के लिए कुछ अच्छी ड्रेसेज़ तो चाहिए न।"
"रख ली हैं प्रोफ़ेसर साहब।" सुजाता ने लाड से जतिन की ओर देखा और प्लेटें उठाकरकिचन की ओर चली गयी। इस बीच जतिन ने टेबल साफ़ कर दिया... "हुकुम प्रिंसेज़" वह बेडरूम में आकर बालों कोखोलकर कमसिन अदा में मुस्कुराई-"हमारे बालों को सहलाकर हमें सुला दो।"
जतिन उए बाँहों में भरते हुए बिस्तर पर आ गया। सुजाता उसकी बाँह पर सिर रखकर लेट गयी। जतिन की उँगलियाँ धीरे-धीरे उसके बालों को सहलाने लगीं-"तुम चित्रकार हो सुजाता, कवि के भावों को रंग-रेखाएँ देती हो... लेकिन मैं एक कवि हूँ... कवि होना ऐसा है जैसे ख़ुद को, अपनी कोमल चमकको उधेड़कर अपना लहू दूसरों के दिल में उड़ेल देना।"
"प्रोफ़ेसर... सोने दो न।" सुजाता ने अलसाई आवाज़ में कहा और उसकी बाँह से सिर हटाकर तकिये पर रखकर उसने आँखें मूँद लीं। जतिनके अंदर एक टीस-सी उठी अपनी इस चंचल, भोली और साफ़ दिल महबूबा के लिए। वहजानता है सुजाता से ठोस और प्रौढ़ रिश्ते की वज़ह यही टीस है जो उसे बार-बार उसकी ओर खींचती है।
बहुत उत्साह में भरकर लौटी है सुजाता केरल से, थक नहीं रही बताते-बताते...
"कोच्चिमें 150 साल पुराने दरबार हॉल में मुझे अपने चित्रों के प्रेज़ेंटेशन के लिए जो कोना मिला... हटती नहीं थी दर्शकों की भीड़ वहाँ से, फ्रांस के कलाकारों ने मुझे पेरिस में इन्वाइट किया है प्रदर्शनी के लिए... ये देखो सारी तस्वीरें, विडियो शूट भी किया है... कम्प्यूटरपे कॉपी पेस्ट करती हूँ, देखोगे?"
जतिनउसकी चमकती आँखों में डूब गया-"पूछोगी नहीं, कैसे रहा तुम बिन... इतने दिन..."
"अरे मेरे रोमियो... एक मिनिट... मीना कॉफी बना लाओ बढ़िया सी... साथ में कुछ नमकीन भी दो।" वह सोफ़े पर आराम से बैठ गयी-"हाँ... अब बताओ।"
"तुम लकी हो सुजाता... तुम्हें मैं मिला, मीना मिली और वह सिरफिरा कवि मिला।"
"वेरीफ़नी... जैसे हमारा तो कोईवजूद ही नहीं। प्रोफ़ेसर साहब आपकी इस लकी चित्रकार सुजाता दास ने अब तक 15 नेशनल अवार्ड हासिल किये हैं और फ्रांस से आमंत्रण भी। साथ ही मंच पर कविताओं के साथ उसी वक़्त चित्र बनाना मेरी पहचान बन गया है। और हाँ, तुम्हें उस सिरफिरे का यह घर खटकता है तो चलो होटलों में रहते हुए ज़िन्दग़ी गुज़ार लेटे हैं। जैसे सीमोन और सार्त्र ने गुज़ारी थी।"
"बिगड़ गयी हो तुम।"
"नहीं, मैं बहुत सुलझी हुई हूँ। वरना माँ की तरह मैं भी आम गृहस्थिन बनकर उस पुश्तैनी घर के मोह में चाचाओं की ज़्यादती सहते-सहते चल बसती। आसानी से हासिल नहीं हुआ है मुझे ये मुकाम। बरसों मैंने एक वक़्त की रोटी खाकर केवल दो जोड़ी कपड़ों में गुज़ारा किया है। पेइंग गेस्ट रहते हुए मकान मालिक के संग साझा टॉयलेट साफ़ किया है। दिन भर आर्ट गैलरियों की ख़ाक़ छानकर अपनी पहचान बनाई है। सब कुछ उतना आसान नहीं है प्रोफ़ेसर साहब... जबकि अपनी कमज़ोर हड्डियों का गाहे बगाहे उठता दर्द... बचपन का कुपोषण, कैल्शियम की कमी... क्या-क्या गिनाऊँ?"
"कैल्शियम रोज़ लेती हो न?"
"लेती हूँ... पर जर्जर इमारत चूने मिट्टी का लेप ज़्यादा दिन नहीं सह पाती। पूरी गिराओ तब मलबे से नया सर्जन होता है। पक्का और मज़बूत।"
सुजाता की आशंका निर्मूल न थी। उसका दुबला पतला कमज़ोर शरीर देख जतिन चिंतित हो जाता। कुछ सालों के बाद वह सुजाता के साथ आकर रहने लगा था। बेहद खुशगवार पलों को जीते हुए दोनों ने मान लिया था कि उन्हें एक दूसरे के लिए जीना है, एक दूसरे का होकर... समाज उनके इस रिश्ते को भले ही कबूल नहीं कर पाया पर यह भी तो हक़ीक़त है कि कलाकार होते ही ऐसे हैं। दोनोंने अपने ढंग से अपना घर सजाया था। हर दरवाज़े, हर खिड़की पर खूबसूरत चित्रकारी और कविता की दो पंक्तियाँ उसके साझे ज़ीवन का ऐलान करती थीं। कभी सुजाता के चित्र नहीं बिक पाते... घर चलाने में वह अपना शेयर नहीं दे पाती तो जतिन उसके चित्र ख़रीद लेता। यह ख़ामोश समझौता हर उस समझौते से बढ़कर है जो दो व्यक्तित्व एक दूसरे में समाहित होने के लिए करते हैं।
जतिन से मिलन की वह दसवीं सालगिरह थी जब अक़्सरबीच पर लहरों से खेलते हुए सुजाता को लगा था जैसे समन्दर उसके हाथ पैरों से कुछ खींच ले रहा है। दबाव बढ़ता गया। घबराकर वह किनारे पर आकर बैठ गयी।
"क्या हुआ?"
"पता नहीं जतिन, अचानक जैसे हाथ पैरों की ताकत कम होती-सी लग रही है।"
"और भागो लहरों के पीछे... लो ये नारियल पानी पियो... अभी सब ठीक हो जाएगा।"
लेकिनठीक नहीं हुआ। बढ़ते दर्द और हाथों की शिथिलता ने उसे जता दिया कि कहीं कुछ गंभीर घटा है क्योंकि हाथ अब ब्रश उठाने से इन्कार करने लगे हैं, पैर सैंडिलों में अपने आप नहीं आते, उन्हें उठाकर सैंडिल में फिट करना पड़ता है-"मुझे क्या हो गया जतिन... ऐसा क्यों हो रहा है मेरे साथ?"
"डोंट वरी डियर... स्पेशलिस्ट को दिखाते हैं, सब ठीक हो जायेगा।"
सुजाता पीड़ा, तनाव और असहाय-सा महसूस करने लगी जबकि असहाय शब्द उसके शब्दकोश में नहीं था। एक दहकते सवाल ने उसकी नींद उड़ा दी कि कल क्या होगा? जतिन भी तनाव में था... कैसे सम्हाले सुजाता को? कल में झाँकने की उसकी कोशिश, चिंता आज को हाथ से सरक जाने दे रही है। उसने सुजाता के हाथ पैरों की मालिश करते हुए कहा-"तुम्हारे लिये डॉक्टरों की पूरी टीम जाँचकी तैयारी में जुटी है। कुछक़सर रखेंगे क्या? न मैं, न तुम्हारे चाहने वाले, अकेला समझने की भूल न करना कभी।" भरी-भरी आँखें मुस्कुराई, जाँच के तीसरे दिन रिज़ल्ट सामने था। रोंगटे खड़े कर देने वाला रिज़ल्ट जैसे आरी से चीर डाला हो सुजाता को... एम.एन.डी.ए... मोटर न्यूरॉन डिसीज़...
"फिर से पढ़ो जतिन, क्यातुम जानते हो इसका मतलब क्या है?"
"रिलैक्स... रिलैक्स... राणा सांगा के शरीर में तलवार के सत्तर घाव थे फिर भी..."
"मैं राणा सांगा नहीं सुजाता हूँ... मुझे पता है चंद रोज़ बाद मैं चलने फिरने, बोलने, काम करने की ताकत खो दूँगी। मुझे ज़हर ला दो जतिन।" सुजाता जतिन से लिपट कर सुबक-सुबक कर रो पड़ी। जतिन भी सुबकने लगा। उनकी पीड़ा का गवाह चाँद धीरे-धीरे ख़ुद भी रोशनी खोने लगा। इलाज़ शुरू हो चुका था। डॉक्टरी की टीम अच्छे से अच्छा उपचार देने की कोशिश में लगी थी। महँगी दवाईयाँ, महँगी फिजियोथैरेपी, जतिन आयुर्वेदिक दवाइयाँ भी देना चाहता था। कहीं से पता किया योगकेन्द्र। आश्वासन मिला, एक महीने में ही रिज़ल्ट सामने आ जायेगा। आर्थिक मदद के लिए कई सांस्कृतिक संस्थाएँ सामने आईं। योगकेन्द्र में सुजाता ने बड़ी मेहनत से... पूरा दम लगाकर ब्रश पकड़ा और डूबते सूरज के पीले उजास में दरख़्त से टूटा एक पत्ता बनाया जो सूखा ज़र्द न था बल्कि हरा था और जो उसकी मनःस्थिति का प्रतीक था।
कहीं से किसी भी तरह के उपचार को न लेने की जैसे शरीर ने ज़िद्द ठान ली... वह बिस्तर पर लुंज-पुंज-सी पड़ी रहती। जतिन ने ब्रश रंग सामने से हटाना चाहा पर सुजाता ने रो दिया-"शायद इन्हें देख-देखकर अच्छे होने की इच्छा बलवती होती रहे।"
महीनों गुज़र गये। अब सुजाता स्पष्ट बोल नहीं पाती... हाथ पैर तो कब के जवाब दे चुके थे... लेकिन चेहरे की उदासी अब मुस्कान से सजने लगी है जिसे देख-देखकर जतिन दूसरे कमरे में जाकर रो पड़ता है... इतनी वेदना! इतनी पीड़ा! ... क्यों हुआ ऐसा? क्यों? "
"सुजाता, मैंवॉलिंटरी रिटायरमेंटले रहा हूँ।" यूनिवर्सिटी से लौटकर जतिन ने घोषणा की।
"करोगे क्या घर पर रहकर?" चौंकने की बारी सुजाता की थी।
"तुम्हारे साथ अधिक से अधिक समय गुज़ारूँगा। हम जीने के नये रास्ते खोजेंगे। जहाँ हाथ, पैर और ज़बान की ज़रुरत नहीं पड़ती। जहाँ एहसास ख़ुद चलकर हमारे पास आयेंगे और हमसे बतियाएँगे।"
सुजाता की आँखें छलक आईं। क्या करे अपने इस पागल प्रेमी का जो उसकी अपाहिज ज़िन्दग़ी के साथ अपनी ज़िन्दग़ी तबाह किये जा रहा है... कहाँ से खुशियों के फूल लाकर इस फरिश्ते के चरणों में अर्पित कर दे। इतना प्यार देना था प्रभु तो ज़िन्दग़ी सेहरक़तें क्योंछीन लीं। उठने के प्रयास में वह बिस्तर पर ढह गई... "देखो, तुम्हारी मदद के बिना दिनचर्या कठिन संघर्ष है... थाली से एक निवाला उठाकर मुँह तक पहुँचाने में पूरा दिन गुज़र जाता है... रहने दो न मुझे यूँ ही... इस बहाने बिज़ी तो रहूँगी।"
जतिन ने उसे हुलसकर सीने से लगा लिया-"मत कहो कुछ... अपने चित्रों के ज़रिए सब कुछ तो कह डाला तुमने। दुनिया भर की अच्छाईयाँ, बुराईयाँ... समाज के हर तबके का दर्द, ख़ुशी अब चुप भी रहोगी तो क्या फ़र्क पड़ेगा।"
विस्फारित आँखों से सुजाता मोम-सी पिघलने लगी। लौ की जलन सहने को तैयार... अपनी पूरी ताकत से जतिन को उजाला सौंपती... थरथराती।