चिमगन पर्वत और चारवाक झील / बुद्धिनाथ मिश्र
27 जून की सुबह सहयात्रियों में काफ़ी गहमागहमी थी। आज ताशकन्द शहर के बाहर चिमगन पर्वत पर आरोहण, वहीं से तियानशान पर्वत के हिम-मण्डित शिखरों के दर्शन और चारवाक झील के किनारे मध्याह्न भोजन और सैर-सपाटे का कार्यक्रम था। बहुत से मित्र चारवाक को भारतीय दार्शनिक चार्वाक से गँठजोड़ कर बैठे, जबकि यह चारबाग था। एक ही शब्द उज़्बेक उच्चारण की भिन्नता के कारण अलग लगते हैं। जैसे हाकिम > खाकिम, बाज़ार > बोज़ोरी, दुनिया >दुनियो, सेब वृक्ष>सेबज़ोर। होटल से जब तीन एसी बस में बैठकर हमारा कारवाँ चला तो रास्ते में इस तरह के बहुत सारे शब्द मिले। कुछ ही दूरी पर मोलिया मुअस्ससी (फ़ाइनेन्शियल इन्स्टीच्यूट) था। इसमें ‘मोलिया’ हमारे ‘मूल्य’ का ही अपभ्रंश है। किशमिश, बादाम, छुहाड़े, अखरोट को हमलोग मेवा कहते हैं, वहाँ फल को मेवा कहा जाता है और मेवा को ‘कुरुक मेवा’ यानी ‘सूखा फल’। ‘जुवा’ का अर्थ शस्त्रास्त्र है( संस्कृत के ‘आयुध’ के आसपास) और ‘जुवाखाना’ का अर्थ ‘शस्त्रागार’ है। वहाँ ज़िला को ‘दाहा’, लकड़ी के पुल को ‘तख्तापुल’ और नया को ‘यंगी’ (अंग्रेज़ी का ‘यंग’) कहते हैं।
आज फिर से उसी रास्ते पर चलते हुए, आधुनिका की तरह अपने नवयौवन और सुरूप पर इठलाती इमारतों को गौर से देखा। कितना भव्य है नगर के मेयर का कार्यालय! हमारे शहरों में महापौर का कार्यालय इसकी चमक के सामने कितना मरियल लगता है! लगता ही नहीं कि यह नगर के सबसे बड़े अधिकारी का कार्यालय है या किसी बड़े बाबू का। न जाने कितनी ऐसी बातें हैं, जो अंग्रेज़ों के जमाने से हमारे यहाँ चली आ रही हैं। चूँकि हम उन्हें उसी रूप में देखने के आदी हो गये हैं, इसलिए हमें बुरा भी नहीं लगता। बुरा उन्हें लगता है, जो उन्हें पहली बार देखते हैं। ताशकन्द न तो कभी अंग्रेज़ों का गुलाम रहा और न ही भारत की तरह औपनिवेशिक वसीयत को सँभालकर रखने की उसमें कोई प्रवृत्ति है, इसलिए ताशकन्द पुराना शहर होकर भी चिर-नूतन है। यह शहर परिवर्तन के हर अवसर से लाभ उठाकर अपने को सँवारा है, स्वतन्त्र भारत की तरह पुरानी चीजों को निहारकर समय गँवाया नहीं है।
ताशकन्द बराबर अपना रूप बदलता रहा है, इसलिए इस समय हम जिस ताशकन्द को देख रहे हैं, वह मात्र 21 साल का युवा शहर है। मेयर भवन के पास ही कितना विशाल है अन्तरराष्ट्रीय कान्फ़रेंस हॉल! अपना विज्ञान भवन (दिल्ली) उसके सामने फ़ीका है। पूरा शहर नया-नया और सुसज्जित है। चौड़ी-चौड़ी सड़कें, दोनो ओर घने चिनार के पेड़ों की अन्तहीन हरी पंक्ति, हर सड़क के पल्लू में बँधे छोटे-छोटे रंग-बिरंगे फूल सचमुच बच्चों की तरह खिलखिलाकर हँस रहे थे।
शहर से बाहर निकलने पर सेब, खुबानी, अंगूर के बगीचों का निर्बाध सिलसिला शुरू हुआ और उसके बाद कपास के खेतों का। गधों को गाड़ी में जुते हुए और हल में जुते हुए देखना हमारे लिए कौतूहल भरा दृश्य था। बहुत-से किसान गधे पर सवार भी थे। सड़क के दोनो ओर जगह-जगह पर तरबूज और खरबूज के ढेर लगे थे, बिक्री के लिए। हमलोग होटल में ही खाने को इतना कुछ पा जाते थे कि कभी इन्हें खरीदकर खाने का लुत्फ़ उठा ही नहीं सके। कुछ मित्रों ने शहर में घूमते हुए भुट्टे जरूर खरीदे। रास्ते में जगह-जगह कारखाने थे, मगर उनका कचरा नदी में नहीं बहाया जाता था। किसी भी समाज के विकसित होने का यही मानदंड भी होना चाहिए कि वह अपने जल-स्रोतों को कितना शुद्ध और पवित्र रखता है। गाँवों की आबादी बहुत कम, इसलिए घर दूर-दूर बने हुए थे। ज्यादातर स्त्रियाँ हृष्ट-पुष्ट थीं। अमेरिका-प्रायोजित ‘ज़ीरो फ़ीगर’ की हवा वहाँ नहीं चली है, इसलिए लड़कियाँ छरहरी होने पर पैसा लुटाती नहीं दिखीं। मातृत्व के प्रति सम्मान बहुत अधिक है, मगर अधिक बच्चे जनने पर जोर नहीं है।
चिमगन या ग्रेटर चिमगन ताशकन्द से सौ किमी दूर है। बीच में एक छोटा-सा शहर ‘गज़लकन्द’ भी आता है। जी हाँ, गज़लकन्द, यानी गज़लों का शहर! मतलब साफ़ है कि वहाँ शायरों का वर्चस्व होगा। उसपर कभी बाद में बात करेंगे। चिमगन पहाड़ चटकल पर्वत-शृंखला का हिस्सा है, जो समुद्र तल से ३३०० मी. ऊपर है। शुरू में ही गाइड ने कह दिया था कि सामान्यतः चिमगन दिन में गर्म और रात में ठंढा रहता है, लेकिन मौसम का कोई ठिकाना नहीं। यह आपके भाग्य पर है कि आप त्यान शान पर्वत शिखरों को देख पायेंगे कि नहीं, क्योंकि बादल रहने पर आपको कुछ भी नहीं दिखेगा। बसों में हमलोग अपनी ही बातचीत, हँसी-ठिठोली में इतने मस्त थे कि यह विचार शायद ही किसी के मन में आया होगा कि चिमगन पहुँचकर क्या होगा! ताशकन्द प्रदेश के निवासियों के लिए चिमगन पहाड़ बहुत ही रोमांटिक स्थल है, क्योंकि बीसवीं सदी से ही यहाँ लोग पर्वतारोहण करते रहे हैं। जाड़े के दिनों में स्कीइंग और गर्मी के दिनों में रॉक क्लाइम्बिंग के लिए प्रसिद्ध है यह जगह। सोवियत संघ के समय यह त्यान शान पर्वत के पश्चिमी भाग में लोकप्रिय स्की रिजॉर्ट था। हमलोग जब वहाँ पहुँचे तो आकाश मेघाच्छन्न था। चिमगन शिखर 1600मी. ऊँचा था, जहाँ पहुँचने के लिए रोपवे था। किराया 600 सोम(उज़बेक रु.) था, मगर उसका भुगतान हमें नहीं करना था। ट्रैवेल एजेंसी ने पहले ही भुगतान कर दिया होगा। रोपवे की ट्राली में दो व्यक्ति एक साथ बैठ सकते थे। उन्हें गिरने से बचाने के लिए मात्र एक छड़ को आगे की ओर से फँसा दिया जाता था।
रोपवे स्वचालित था। बलिवेदी की तरह दो लोगों को एक साथ खड़ा कर दिया जाता था। पीछे से ट्राली आती थी और तीस सेकेंड रुककर आगे बढ़ जाती थी। इसी आधे मिनट में आपको उछल कर उसमें झूले की तरह पाँव लटकाकर बैठना है और आपरेटर को छड़ फँसाना है। मेरे साथ मुम्बई के देवमणि पांडेय थे। ट्राली जब ऊपर उठी, तब नीचे देखकर भाई की हालत खराब । किसी तरह दिलासा देकर और ऊपर आकाश की ओर देखते रहने की हिदायत देकर भी जब स्थिति नियन्त्रण में मैने नहीं देखा, तब मनोरंजक बातों में उसे तबतक उलझाये रखा, जब तक कि हम शिखर पर पहुँच नहीं गये। उतरते समय भी वही मुसीबत! आधे मिनट में ट्राली से कूदकर रोपवे के रास्ते से अलग हट जाना था, वरना ट्राली आपको आहत कर सकती थी। इस आपाधापी में हमारी टीम की कुछ महिलाएँ सन्तुलन खोकर गिर भी गयीं। उन्हें हल्की चोट भी आयी। ऊपर दो पेशेवर फोटोग्राफर खड़े थे, जो हर ट्राली का फोटो खींच लेते थे, और जबतक लोग वहाँ का लुत्फ़ उठाकर वापस जाने का मन बनाते थे, तबतक फोटो तैयार कर सम्बंधित पर्यटक को वे एक हज़ार सोम में बेच देते थे। जिनके पास सोम नहीं था, उन्होने 20 रु. देकर फोटो पा लिया। खुशी इस बात की हुई कि वहाँ भारतीय रुपये का भी स्वागत होता था। विदेशों में ऐसा सुखद अनुभव बहुत कम ही हमें होता है।
पर्वत शिखर से उस हरी-भरी घाटी को देखना मुग्धकर था। हमलोग उस सुरम्य घाटी का दृश्य निहार ही रहे थे कि बादल हमारे सिर पर मँडराने लगा और बरसने भी लगा। वह बरसना सावन की झींसी की तरह नहीं था, पानी की बौछारें थीं, जिनसे बचने के लिए मात्र एक छोटा-सा टिन का शेड था, जो चाय की दूकान का था। वहाँ इतने लोग जमा हो गये थे कि चायवाला खुद एक कोने में दुबक गया। उसी छोटे-से शेड में क्या स्त्री, क्या पुरुष, सभी एक दूसरे से सटकर बौछारों से बचाव करते रहे। कुछ लोग जो पीछे रह गये , ट्राली में बैठकर वर्षा में तन-मन भिंगोने के लिए बाध्य थे। वहाँ से त्यान शान (=गगनचुम्बी) पर्वत का हिममंडित शिखर बहुत पास था। त्यान शान पर्वतमाला चीन, भारत, पाकिस्तान, कज़ाकिस्तान, उज़बेकिस्तान और किर्गिज़स्तान को जोड़ती है। हमलोग पर्वतराज हिमालय के देश के थे, इसलिए हमारे लिए वह पर्वत शिखर कोई खास नहीं था , मगर अपने देश के पर्वत के प्रति, चाहे वह छोटा हो या बड़ा, आदर-भाव हर नागरिक में होता है। जापान का फूजी पर्वत भी हमारे लिए कोई खास नहीं था, मगर जापानी उसे कितना सम्मान करते हैं, यह वहीं जाकर देखा जा सकता है। नीचे उतर कर हमलोग थोड़ी देर तक, दो-चार दूकानों वाले उस नन्हे-से बाज़ार में घूमे- फिरे, राइडिंग की, घुड़सवारी की और अन्त में थककर पिज़ा-बर्गर की एक बन्द दूकान के आगे फ़र्श पर बैठ गये।
सहयात्रियों की थकान मिटाने के लिए धनंजय सिंह, अनिल खम्परिया और देवमणि पांडेय ने तबतक शेरो-शायरी जारी रखी, जबतक सभी नीचे उतर नहीं गये और सबको गिनकर तीनो गाइडों ने चलने का एलान नहीं कर दिया। नाथद्वारा की आशा पांडेय ओझा जितनी शालीन और सुन्दर है, उतनी ही फोटोग्राफी की शौकीन। पूरी यात्रा में उसने 14हजार से ज्यादा फोटो खींचे। यह विडम्बना ही थी कि जिसे कैमरे के आगे होना चाहिए था, वह हमेशा कैमरे के पीछे रहती थी। सचिव जयप्रकाश मानस ने पूरी यात्रा में कहीं सहयात्रियों को अनुभव ही नहीं होने दिया कि वास्तविक टूर मैनेजर कौन है। वे और उनकी टीम अन्य लोगों की तरह ही पूरी मस्ती से सबके साथ हँसी-मज़ाक करती रही।
वहाँ से आधे घंटे की यात्रा के बाद हम चारवाक झील पहुँचे। यह ‘चारवाक’ शब्द फारसी के ‘चारबाग’ का उज़बेकीकरण है। विशाल झील के चारो ओर कभी चार बाग थे, जिसके आधार पर इसका नामकरण हुआ। झील में पानी त्यान शान पर्वतमाला की बर्फ़ पिघलकर विभिन्न स्रोतों से एकत्र होता है। सोवियत संघ के जमाने में सरचिक नदी पर 168 मी. ऊँची स्टोन डैम बनाकर इसे दो वर्गकिमी का विशाल जलाशय में परिवर्तित किया गया था। इस बांध से बिजली पैदा की जाती है। यह झील भी देशी और विदेशी पर्यटकों के लिए आकर्षण का केन्द्र है। यहाँ के एकान्त का आनन्द उठाने के लिए कई होटल हैं, जिनकी छतें हरे रंग की और बीच में उठी हुई हैं। हमारे लिए मध्याह्न भोजन की व्यवस्था यहीं के एक रेस्तराँ में की गयी थी। उसका मेनू भारतीय पर्यटकों की रुचि को ध्यान में रखकर बनाया गया था। तीन बज रहे थे, इसलिए सबको भूख जोर की लग गयी थी। सभी टूट पडे। मेरे टेबुल पर विवेक मिश्र, लालित्य ललित, हरि सुमन बिष्ट, एकान्त श्रीवास्तव और नागपुर विश्वविद्यालय के प्रो.प्रमोद शर्मा बैठे। मैने अनुभव किया कि भोजन में साथ बैठे लोगों के अनुसार खाने का जायका भी बदल जाता है। ताशकन्द का सलाद मुझे ज्यादा अच्छा लगता था, इसलिए आधा पेट सलाद से ही भर लेता था। यहाँ की दाल और खीर स्वादिष्ट थी। इसलिए भाइयों ने उसपर ज्यादा जोर दिया। रेस्तराँ के अन्दर एक सोवेनियर शॉप भी थी, जहाँ से मैं एक किताब खरीदना चाहता था, जिसका मूल्य 10 हजार सोम था;मगर मेरे पास उस समय ‘सोम’ नहीं था, इसलिए मन मसोस कर रह गया।
अब सभी लोग झील के किनारे घूमने निकले। पानी कुछ ठंढा था, मगर कुछ मित्रों ने उसमें घुसकर स्नान का भी आनंद लिया, कुछ ने स्टीमर पर चढ़कर भी झील की शान्त लहरों में हलचल पैदा की। झील का तट समुद्र तट की तरह ही बालुका-मय था, जिसपर बच्चे खेल रहे थे। कुछ तम्बू भी लगे थे, जिसमें स्थानीय परिवार पिकनिक मना रहा था। लौटते समय मेरे साथ-साथ जयपुर के मीठेश निर्मोही थे। मैने उन्हें दिखाया कि वहाँ खेत में जंगल के रूप में जो घास उग आयी थी, वह अपनी बथुआ ही थी। बथुआ की साग मुझे बहुत पसन्द है। मन हुआ कि पाव भर उखाड़ लूँ, मगर यहाँ उसे बनायेगा कौन? एक बार फिर मन मसोस कर रह गया। धीरे-धीरे शाम हो चली थी और हमारे दल के सभी सदस्य, दिन भर की उड़ान के बाद थके पंछियों की तरह, अपनी-अपनी बसों में बैठकर होटल तुरान की ओर लौट रहे थे। मैं खेतों की क्यारियों में अनायास उगी बथुआ साग को उसी सतृष्ण दृष्टि से देखता हुआ आगे बढ़ रहा था, जैसे बच्चे आइस्क्रीम की दूकान के आगे से निकलते हैं।