चिरइ चुरमुन और चीनू दीदी / पंकज सुबीर
इस कहानी में जो चिरइ चुरमुन हैं वह ही 'हम' हैं। 'हम' का मतलब वह जो कहानी सुना रहा है। यहाँ पर 'मैं' की जगह पर 'हम' इसलिये सुना रहा है कि यहाँ कहानी किसी एक की नहीं है बल्कि हम काफ़ी सारों की है। हम ही यहाँ पर प्रथम पुरुष हैं। हम काफ़ी सारे जो उस समय वैसे तो चिरइ चुरमुन में गिने जाते थे, लेकिन हक़ीक़त ये थी कि हम उस समय चिरइ चुरमुन थे नहीं। 'हम' का मतलब इस छोटे से क़स्बे के सरकारी अस्पताल (प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र) के कैम्पस में रहने वाले हम कुछ बच्चे। हम अस्सी के दशक के मध्य में अपना बचपन छोड़ रही पीढ़ी के चिरइ चुरमुन थे। हमारे पास गोपनीय सूचनाओं का सर्वथा अभाव था। चंदामामा, नंदन अब हमें अच्छी नहीं लगती थीं और सत्यकथा, मनोहर कहानियाँ पढ़ने की हमें मनाही थी। गृहशोभा, मनोरमा तक हमसे दूर रखी जाती थीं। दूर इसलिये रखी जाती थीं कि हम उनमें से प्रश्न उत्तर, उलझाव सुलझाव या डॉक्टर से पूछिये टाइप के स्तंभ पढ़ कर घर के बड़ों से प्रश्न पूछने लगते थे। बहुत कुछ ऐसा था जो हम सब जानना चाहते थे। बड़ों की बातों में कुछ खुला अधखुला-सा जो हमारे बीच आता था वह हमें बड़ा रहस्यमय लगता था।
हम बच्चे कुछ बड़े हो गये थे। कुछ बड़े का मतलब बहुत बड़े भी नहीं। 'हम बच्चे' जिनमें शामिल थे मनीष, क़मर हसन, सुरेश, मोहन, शोएब, राजेश, कालू, सुशील, दयानंद, सुधीर आदि आदि। इनमें से कुछ ख़ास की बात उनकी विशेषताओं के चलते की जाए तो क़मर हसन जो कि हमारे हिसाब से हम सबमें कमीनेपन और हरामीपन में सबसे अव्वल था। घुँघराले बालों से ढँके उसके दिमाग़ में ऐसे-ऐसे विचार जन्म लेते थे जिनके बारे में हम सोच भी नहीं सकते थे। फिर शोएब, जो कि अगर नहा ले तो हम सबमें सबसे गुड लुकिंग और डेशिंग लगता था। मगर शोएब गुड लुकिंग लगने को लेकर बहुत लापरवाह था। कभी-कभी तो आठ दस दिन बाद गुड लुकिंग लगता था, जब वह नहाता था। मनीष, जिसको फ़िल्मों के बारे में ढेर सारी जानकारी थी, कुछ संकोची होने के कारण बहस में हस्तक्षेप की तरह अपनी बात कुछ देर से ही रखता था और अक्सर किसी फ़िल्म के उदाहरण को अपने पक्ष में प्रस्तुत करता था कि उस फ़िल्म में तो ऐसा ही हुआ था। फिर दयानंद, जिसे हम सबसे लालची मानते थे, जो एक बार दो रुपये का नोट लकड़ी से निकालने के चक्कर में खुले हुए सेप्टिक टैंक में भी गिर चुका था। सुरेश जिसे लड़ाई-झगड़े का बड़ा शौक़ था, लड़ाई ख़ुद करने का नहीं बल्कि लड़ाई देखने का। वह चाहे फ़िल्मों में लड़ाई हो या असल की लड़ाई हो। लड़ाई देखने के दौरान सुरेश का चेहरा, उसके हाथों का एक्शन देखने लायक होता था। बाक़ी बचे मोहन, सुशील, सुधीर और राजेश जो बिना किसी अतिरिक्त विशेषता के थे, मगर हमारी टोली के सदस्य थे। रहा कालू तो उसकी एक मात्र विशेषता ये थी कि वह किसी भी एंगल से काले रंग का नहीं था, बल्कि अच्छा ख़ासा गोरा था। तो ये थे वह 'हम बच्चे'।
हम टेक्नोलाजी विहीन बच्चे थे। इतने विहीन कि हमारे घरों में टेलीफोन तक नहीं थे। हमारे पूरे क़स्बे में दो टेलीफोन थे, एक थाने में और एक पोस्ट ऑफिस में। हमारी दुनिया में तो टीवी भी दो साल पूर्व आया था। इँदिरा गाँधी ने देश में एशियाड करवाया था (तब यही कहा जाता था कि इँदिरा गाँधी ने करवाया है, तब भारत कुछ भी नहीं करवाता था।) और जिसके चलते हमारे क़स्बे में टीवी आ गया था। जो हमें उस समय तक केवल तीन चीज़ें प्रमुखता से दिखाता था पहली कृषि दर्शन में खेती के उन्नत तरीक़े, दूसरी समाचारों में प्रधानमंत्री की यात्राएँ एवं तीसरी चीज़ देश भर के प्रमुख शहरों का तापमान। इनमें हमारी वांछनीय गोपन सूचनाओं का सर्वथा अभाव था। खेती हमें करना नहीं थी और देश के शहरों के तापमान से हमें कुछ लेना देना नहीं था। इंदिरा गाँधी के बाद बने नये-नये प्रधानमंत्री सुंदर लगते थे सो हम उनको देख कर ज़ुरूर ख़ुश होते थे और उनकी तरह हम लोग भी 'हम करेंगे' , 'हमने किया' बातचीत में बोलने लगे थे। हाँ ये टीवी सप्ताह में दो बार चित्रहार में फ़िल्मी गाने और एक बार संडे को फ़िल्म भी दिखाता था, जिनको देखने के लिये हम सब कुछ छोड़ सकते थे। तब सब के घरों में टी वी नहीं होता था। हमारे कैम्पस में केवल हमारे घर ही टीवी था। सारे बच्चे हमारे घर ही टीवी देखते थे।
शाम के ठीक सात बजे 'टीऽऽऊँ मीऊँ मीऊँ' की धुन के साथ दूरदर्शन का गोला घूमना शुरू हो जाता था। सात से नौ बजे तक हम बच्चे लगातार टी वी देखते थे। बीच-बीच में विज्ञापन भी आते थे वाशिंग पावडर निरमा, वाशिंग पावडर निरमा या सुपर रिन की चमकार ज़्यादा सफ़ेद। उनमें ही कुछ विज्ञापन ऐसे होते थे जो हमें समझ में नहीं आते थे कि ये किस चीज़ के हैं जैसे एक विज्ञापन में समुद्र के किनारे हाथ में हाथ डाले आदमी और औरत दिखते थे और पीछे से आवाज़ आती थी 'इनकी ख़ुशी का राज़ डीलक्स निरोध' या एन फे्रंच हेयर रिमूवर का विज्ञापन जिसे देख कर हम बच्चों को ये समझ नहीं आता था कि क्रीम लगाने से त्वचा रेशम-रेशम कैसे हो गई। इन विज्ञापनों के बारे में बड़ों से जानकारी लेने के चक्कर में हम सब एक-एक करके फटकार खा चुके थे। हम नहीं समझ पाते थे कि वह विज्ञापन महीने के किन ख़ास दिनों की बात कर रहा है। बड़ी अजीब-सी चीजें थीं जो न समझ में आती थीं और न कोई समझाने को तैयार था, उल्टे जिससे पूछो, वह चमाट मार कर कनपटी अलग गर्म कर देता था। बाद में जब हम बच्चे इकट्ठे मिलते तो चमाट खाने वाला बच्चा बाकियों को सावधान कर देता 'ओय कोई भी उस विज्ञापन के बारे में मत पूछना रे, उसमें कुछ गड़बड़ है।' जैसे मनीष के साथ हुआ था। उसकी बुआ शादी के बाद पहली बार उन लोगों के घर आईं हुईं थीं। एक दिन मनीष की मम्मी ने यूँ ही अपनी ननद को छेड़ते हुए पूछ रहीं थीं 'क्या बात है बहुत ख़ुश नज़र आ रही हो, ज़रा हमें भी तो बताओ कि इस ख़ुशी का राज़ क्या है?' मनीष ने आव देखा न ताव तुरंत अपनी बुआ की तरफ़ से उत्तर दे दिया था 'इनकी ख़ुशी का राज़ डीलक्स निरोध'। किसी भी बच्चे को जिस-जिस प्रकार से भी पीटा जा सकता है उन सारे तरीकों से घर के सारे सदस्यों ने उस दिन मनीष पर हाथ साफ़ किया था। इस पूरे काण्ड की जानकारी मिलने पर हम हैरत में पड़ गये थे कि ये तो टीवी पर बताया गया था कि ख़ुशी का राज डीलक्स निरोध है तो फिर मनीष को क्यों पीटा गया और वह भी इस क़दर।
सावन के महीने में हम नानी के गाँव जाया करते थे। जहाँ और बातों के अलावा एक और चीज़ का लालच होता था और वह होता था नानी से कहानी सुनने का लालच। नानी के गाँव में तो ख़ैर तब तक भी बिजली नहीं पहुँची थी इसलिये टीवी पहुँचना तो दूर की बात थी। जो कुछ मनोरंजन था वह नानी की कहानी से ही होता था। सावन की काली अँधेरी रात, गाँव और हम बच्चे। बच्चे, जो माँ के साथ रक्षाबँधन पर नानी के गाँव आये हुए होते थे। उस समय स्कूलों की छुट्टियाँ भी तो ऐसी होती थीं, दस-दस, पन्द्रह-पन्द्रह दिनों की और जो स्कूल की छुट्टी नहीं भी हो तो मास्साब से कह दिया जाता था कि बच्चे सावन में नानी के गाँव जा रहे हैं, आठ दस दिनों में लौटेंगे। तब हमें भी नहीं पता था कि हम नानी से कहानी सुनने वाली आखिरी पीढ़ी हैं जो बाद में दुर्लभ प्रजाति होने वाली है। गाँव में सावन की रात और उस पर नानी की कहानी। जिसमें कमरे के देशी कवेलुओं पर बरसती बारिश और कमरे के बाहर टर्राते मेंढ़क तथा जाने कौन-कौन से जीवों की आवाज़ें मिलकर बैकग्राउंड म्यूज़िक का काम करती थीं। ढिबरी की रौशनी में कमरे की गोबर से लिपी मिट्टी की दीवारों पर अजीब-अजीब आकृतियाँ बनती थीं। इन सबके बीच चलती रहती थी नानी की कहानी। लाइट एंड साउंड शो की तरह। कुछ कहानियाँ तो बार-बार सुनी जाती थीं फरमाइश कर-कर के। जैसे ही किसी कहानी की फरमाइश होती नानी कहतीं 'थुब (रुक) जा मोड़ा (लड़के) , मोय याद कर लेन दे।' और थोड़ी देर याद कर लेने के बाद शुरू हो जाती थी फरमाइशी कहानी। बिल्कुल विविध भारती के फरमाइशी कार्यक्रम की तरह। कब नानी की कहानी ख़त्म होती थी और हम बच्चे कब सो जाते थे ये पता ही नहीं चलता था। पता तब चलता था कि सुबह हो गई है और नानाजी सारे बच्चों को सार (गाय भैंसों को बाँधने की जगह) बुला रहे हैं, ताज़ा-ताज़ा निकल रहा धारोष्ण दूध पीने के लिये।
उन्हीं दिनों में हम सावन पर नानी के गाँव गये थे। इस बार नानी ने बाक़ी कहानियों से हट कर एक अलग कहानी सुनाई थी। नानी ने अपनी ही शैली में कहानी को शुरू किया 'एक बार एक राजा हतो (था) और बाक़ी (उसकी) एक रानी हती (थी) । राजा सिकार पर गओ थो, तो उते (उधर) बाने (उसने) रानी को पेली बार देखो। रानी उते नद्दी पर सपड़ (नहा) रइ थी। राजा का घोड़ा जैसे इ उते गओ तो राजा को बिते (उधर) रानी दिख गई। राजा का घोड़ा उतेइ (उधर ही) थुब गओ। रानी उते ऐसेइ (ऐसे ही) सपड़ रइ थी।' 'ऐसेइ? ऐसेइ कैसेइ नानी?' ऐसेइ शब्द पर हम बच्चे उलझ गये। नानी प्रश्न पर चिड़ गईं 'अरे गोंई तुम बीच-बीच में बोलते हो, ऐसेइ मतलब उबानी (नग्न) । अब कोई कुछ बोला तो कहानी भँइ पर ख़तम हो जायगी।' कह के नानी कुछ देर के लिये चुप हो गईं, हम समझ गये कि प्रश्न नहीं करना है कहानी के बीच में अब।
हिम्मत करके मैंने कहा 'हूँ नानी' हुंकारा पाते ही नानी की कहानी फिर से शुरू हो गई। 'राजा ने रानी को सपड़ते देखी तो बाको (उसको) रानी ख़ूब पसंद आ गई। बाको नाम चम्पा हतो। गुपचाप (चुपचाप) नद्दी पर बासन-लत्ते (बर्तन कपड़े) धोने के बहाने से आ जाय हती और इते गुपचाप देखकर उबानी होकर सपड़ने लगती थी। बड़े बूढ़े केते (कहते) थे कि जा (इस) चम्पा के लच्छन ठीक नइ हैं, गाँव के दूसरे मोड़ा मोड़ी भी जाके कारन बिगड़ रय हैं। मगर दिखबे दिखाबे में ख़ूब हती वो। ऐसी हती कि मैदे को दूध में उसन के बनाई हो। भक-भक चिलकती (चमकती) हती। राजा ने जब चम्पा को सपड़ती देखी तो देखतो ही रे गओ। बाको घोड़ो भी फत्तर (पत्थर) को हो गओ और बाक़ी हालत भी फत्तर जैसी हो गई। चम्पा सपड़ के बाहर हीटी (निकली) तो इते राजा ठाड़ो हतो। बाने, बाको देखो और बाने बाको। चम्पा तो पेल सेइ बदमास हती, बाके अंदर तो वैसेइ आग भरी हती और राजा तो फिर राजा हतो। बाने चम्पा को उठाई और घोड़ा पर बिठा के सरपट कर दइ। इते आके फिर बाने चम्पा के बाप मतारी को ख़बर करी, बिनन के तो भाग ही खुल पड़े हते, बे क्या केते। बस तो इते (इधर) राजा के इते आके वह चम्पा, चम्पा रानी हो गइ।' एक विचित्र-सी रानी की कहानी चल रही थी। नानी की भाषा में वह रानी एक 'ख़राब रानी' थी। ख़राब क्यों थी ये बात नानी ने बहुत खोल कर नहीं समझाई। बस ये कहा कहानी में कि वह रानी बदमासी करती थी। उसके अंदर आग भरी थी। आग? हम बच्चे हैरत में पड़ गये कि किसी इन्सान के अंदर आग कैसे भरा सकती है, मगर नानी से प्रश्न पूछा नहीं जा सकता था, कहानी के बीच में ही ख़तम हो जाने का डर था, तो मन मसोस के रह गये।
'इते आके चम्पा रानी बन गइ, मगर बाके लच्छन नइ सुधरे। राजा भोत दिना से शादी बियाह में लगे हते सो उते राजपाट को नुसकान (नुकसान) हो रओ हतोे। थोड़ेक दिना में राजा अपने राजपाट में लग गए और चम्पा इते महल में अकेली हो गई। पर चम्पा तो ठेरी चम्पा बाने इते भी गुपचाप-गुपचाप बाको जाल फैलाबो सुरू कर दओ। बाके अंदर तो आग भरी हती, बाये राजपाट को सुख से का लेबो देबो हतो। ऊँसे (एसे) ही कछु दिना बीत गये। एक दिना की बात राजा सिकार पर जा रओ हतो, बाने चम्पा रानी से भी कई सिकार पर चलने की, पर रानी नइ गई। बाने कछू ऊँसोइ बहाना बना दओ। राजा लोग तब पूरे धूम धाम के साथ सिकार पर जात हते। उनके साथ पंडित, हकीम, सिपाही, खाना पकाबे बारे, दास दासियाँ सब जात हते। राजा गओ तो सिकार पर भोत दिनन के लिये हतो, पर एक दिना बाके साथ गए पंडित ने कई कि राजा साब आज तो जा तरफा दिशाशूल (किसी विशेष दिन किसी विशेष दिशा में यात्रा करने की मनाही) है उते जाने में ख़तरो है। इते आपकी पत्री में भी कछु ख़राब जोग बन रय हैं। वापस चलें तो भोत अच्छो है। पंडित की घरवाली को मोड़ा मोड़ी होबे बारो थो सो बाये वापस लौटनो हतो बाने वापस लौटबे की कहानी बना दइ। राजा शुगन विचार को ख़ूब मानतो हतो सो गुपचाप से भुनसारे में वापस आ गओ। इते आके जब वह अपने महल में गओ तो बाने का देखी की रानी और सेनापति तो साथ-साथ हैं। बाने रानी और सेनापति को साथ में देखो तो बाके तो आग लग गई, बाने झट से अपनी तलवार निकाली और खट से सेनापति की गरदन काट दइ। चम्पा रानी ने सेनापती की कटी मुंडी देखी तो बाके होस उड़ गय, पेले तो इते उते दौड़ी फिरी और फिर घबरा के क़िले पर से कूद गई। राजा बाए पकड़बे दौड़ो मगर पकड़ नइ पाओ। बाके बाद से राजा सब राज पाट छोड़ के संन्यासी हो गओ। लोग जने केते हैं कि उते क़िले में आज भी चम्पा रानी घूमती है और हर आनन जानन बारों को बुलाती है। बाके डर से रात को कोई भी क़िले में नइ जात है।'
हम बच्चे फिर हैरान परेशान हो गये कि रानी और सेनापति को साथ देख लिया तो उसमें मार डालने की क्या बात थी। हमने हिम्मत करके प्रश्न किया मगर नानी का उत्तर वही रहा 'सो जाओ रात हो रइ है।' कन्टेन्ट के हिसाब से देखा जाये तो कहानी हॉरर कहानी थी, जिसमें आख़िर में रानी का भूत आता था, मगर हम बच्चे कहानी को सुनने के बाद डरने के बजाय हैरत में थे। हममें से एक ने फिर से हिम्मत की और पूछा कि नानी, रानी में अगर आग भरी थी तो वह ज़िंदा कैसे थी। नानी कुछ कहतीं उससे पहले ही बाहर बैठे नानाजी के बड़बड़ाने की आवाज़ आई 'कछु समझ भी है कि नइ है? मोड़ा मोड़ी को कौन-सी कहानी सुनाबे की है और कौन-सी नइ सुनानी है।' नानाजी की आवाज़ आते ही कमरे में मानो कर्फ़्यू लग गया, नानाजी का बड़ा ख़ौफ़ रहता था उन दिनों। नानाजी की आवाज़ सुनते ही नानी भी एकदम से चुपा गईं। हम समझ गये थे कि ये जो आग है ये भी एनफ्रेंच की तरह की कोई चीज़ है। इसके बारे में यदि ज़्यादा पूछा गया तो चमाटे पड़ने की संभावना है। रानी के अंदर की उस आग को अपने-अपने दिमाग़ में लगा कर हम सो गये।
कहानी की अगली सुबह हम बच्चे सुबह होने की जैसे प्रतीक्षा ही कर रहे थे। दूध पीया और लोटे उठा कर भागे जंगल की तरफ। नानी के घर में उस समय शौचालय नहीं था। जैसा कि उस समय अमूमन गाँवों में होता था, सुबह होते ही पूरा गाँव जंगल या खेतों की तरफ़ निकल जाता था, शौच करने के लिये। हम क़स्बे से जाते तो हमारे मन में इस जंगल में शौच करने को लेकर भी एक अतिरिक्त एडवेंचर होता था। क़स्बे में तो घर में ही शौचालय बना हुआ था सो वहाँ ये सुख नहीं था। सावन की ताज़ा-ताज़ा उगी हुई घास पर बैठे हैं लोटा लेकर, दुनिया जहान की बातें कर रहे हैं, हँसी मज़ाक कर रहे हैं। हम बच्चे अलग-अलग बैठने की बजाय एक साथ ही बैठते थे। एक साथ मतलब थोड़ी-थोड़ी दूरी पर ताकि सबको एक दूसरे के चेहरे दिखते रहें। उससे चर्चा करने में आसानी रहती थी। हाँ उस बीच अगर कोई बड़ा बूढ़ा उधर से गुज़रता तो फटकारता हुआ जाता 'ऐ मोड़ा होन जा बख़त तो चुपाय के बैठा करो। लच्छन नइ सिखाए क्या बाप मतारी ने।' उस दिन भी रात की कहानी को लेकर बहुत सारी बातें हुईं। हमने उन बातों में अपनी टीवी की एनफ्रेंच और महीने के उन ख़ास दिनों वाली बात भी जोड़ी। कड़ी से कड़ी जोड़ने की बहुत सारी कोशिशें हुईं लेकिन बात कुछ बनी नहीं। हाँ इतना ज़रूर हुआ कि बड़े मामा के लड़के ने बताया कि ये आग वाली बात वह एक बार और भी सुन चुका है। एक दिन छोटे चच्चू को कलुआ की माँ (मामा के हरवाहे की पत्नी) के घर से निकलते देख अम्मा (नानी) ने ख़ूब हंगामा किया था और घर बुला कर कलुआ की माँ को डाँटते हुए कहा था 'काय री कित्ती आग भरी है री तेरे भीतर?'। उस दिन छोटी चाची दिन भर ख़ूब रोईं भी थीं। खाना भी नहीं खाया था उनने।
इस घटना से भी हम किसी नतीजे पर नहीं पहुँच पाये थे, मगर ये ज़ुरूर पता चल गया था कि वह जो आग रानी के अंदर भरी थी वह ही कलुआ की माँ के भी अँदर है। एक हैरत की बात ये लगी कि कलुआ की माँ के घर तो छोटे मामा गये थे, जले तो वह ही होंगे फिर मामी क्यों रोईं। नदी पर नहाते समय ये तय हुआ कि यहाँ से घर लौटते समय हम सब कलुआ के घर जाएँगे। उसकी माँ को देखने, शायद वहाँ से ही कुछ सूत्र मिल जाये। वैसे भी कलुआ के घर हमारा आना जाना था। लौटते समय हम बच्चे योजना के अनुसार कलुआ की माँ के घर गये थे, उन्होंने ख़ूब आवभगत की थी हमारी। चना, गुड़, सत्तू और गुड़ की मीठी चाय भी पिलाई। सब कुछ मिला मगर हम जो देखने गये थे वह हमें नहीं मिला। हममें से एक दो ने कलुआ की माँ के हाथ से गुड़ चने की प्लेट पकड़ने के बहाने उनको छूकर भी देखा, डरते डरते। डरते-डरते इसलिये कि कलुआ की माँ की आग हमें जला न दे और फिर अम्मा हंगामा न कर दें पिछली बार की तरह। मगर कलुआ की माँ में हमें कहीं आग का कोई निशान नहीं दिखा था। उनके हाथ तो बिल्कुल हमारी ही तरह ठंडे थे।
और फिर नानी के गाँव से हम वापस क़स्बे लौट आये अपने अनुत्तरित प्रश्नों को लेकर। इस बार जब हम गाँव से लौटे तो हमारे पास अपने कैम्पस के दोस्तों के साथ डिस्कस करने के लिये एक नया विषय था, आग का विषय। मगर अफ़सोस की हमारी टोली का सबसे बड़ा से बड़ा बंदा भी इस आग के बारे में कुछ नहीं जानता था कि ये आग क्या होती है। ज़िंदगी फिर से पुराने ढर्रे पर आ गई थी। वही स्कूल-विस्कूल और वही टीवी-वीवी। हम उसी प्रकार दूरदर्शन की संडे वाली फ़िल्में देखते हुए बड़े होने लगे। फ़िल्में हम केवल मारधाड़ के लिये देखते थे। साँस रोक के इंतज़ार करते थे कि कब 'ढिशुम ढिशुम' शुरू होगी। हीरो कब गद्दार (विलन को हम लोग गद्दार कहते थे।) की पिटाई शुरू करता है। जैसे ही शुक्रवार को संडे की फ़िल्म के नाम की घोषणा होती हमारी टोली इस बात की खोज में लग जाती कि फ़िल्म में बुटबाज़ी (मारधाड़) है कि नहीं और है तो कितनी है। हीरो और हीरोइन की चिपका चिपकी हमें बिल्कुल पसंद नहीं आती थी, हमें समझ ही नहीं आता था कि ये लोग ऐसा कर क्यों रहे हैं। क्यों अचानक पेड़ के पीछे से हीरोइन अपने होठों पर हाथ रखे निकलती है और पीछे हीरो शरारत से मुस्कुराता हुआ आता है। ऐसे ही एक संडे को एक फ़िल्म दूरदर्शन पर आई जिसका नाम था आप आये बहार आई, फ़िल्म में बड़ा अजब-सा कुछ हुआ। हीरो, हीरोइन और गद्दार तीनों एक रेस्ट हाउस में ठहरे थे। हीरो और हीरोइन दोनों को पता नहीं था कि गद्दार के मन में गद्दारी है। हीरोइन रात को उठकर हीरो के कमरे में आई, कमरे में अँधेरा था केवल एक तरफ़ आग (फायर प्लेस) जल रही थी। हीरोइन चादर ढंक कर सोते हुए हीरो के पैरों के पास बैठ कर प्यार मोहब्बत के डॉयलाग बोलने लगी। हीरो ने उसे चादर में खींच लिया और उसके बाद कैमरा कमरे में एक तरफ़ जलती हुई आग पर चला गया। आग के बाद एकदम हीरोइन के ज़ोर से चीखने की आवाज़ आई। हीरो जो हक़ीक़त में कमरे में नहीं था बल्कि, बाहर झील के पास बैठा था वह हीरोइन की चीख सुनकर वहाँ से दौड़ता हुआ आया। हीरोइन दौड़ती हुई कमरे से बाहर आई और हीरो के गले लग के रोने लगी 'मैं लुट गई, मैं लुट गई।' और बात की बात में दोनों गाना गाने लगे कि 'मुझे तेरी मुहब्बत का सहारा मिल गया होता, अगर तूफाँ नहीं आता किनारा मिल गया होता।'
दूसरे दिन हमारी टोली के पास दो और ज्वलंत विषय थे चर्चा करने के लिये। हमारी टोली अस्पताल के पीछे के सुनसान इलाके में गिलकी बीड़ी पीने एकत्र हुई तो चर्चा इसी बात पर थी। गिलकी बीड़ी हमारा ही आविष्कार था, गिलकी की सूखी हुई बेल का बीड़ी के बराबर टुकड़ा तोड़ कर उसे एक तरफ़ से सुलगा कर बीड़ी की तरह पीना। बेल का सूखा तना अंदर से स्पंजी होता था और बीड़ी की तरह काम करता था। इस काम में गिलकी, लौकी, कद्दू, ककड़ी किसी की भी सूखी हुई बेल का उपयोग किया जा सकता था, लेकिन आविष्कार के आधार पर हम उसे गिलकी बीड़ी ही कहते थे। तो चर्चा में सुरेश का कहना था कि हीरोइन झूठ बोल रही थी कि मैं लुट गई मैं लुट गई, जबकि वह जब कमरे में गई थी तो कोई ऐसा सामान लेकर ही नहीं गई थी जिसको कोई लूटे। सुधीर का कहना था कि दोनों जने मिल कर गाना भी झूठा गा रहे हैं कि अगर तूफाँ नहीं आता, जबकि कहीं कोई तूफान आता हुआ फ़िल्म में नहीं दिखाया है। मोहन को इस बात पर हैरानी थी कि हीरोइन बार-बार ये क्यों कहती रही कि अब मैं आपके लायक नहीं बची। हाँ मनीष ने अलबत गंभीर टिप्पणी की थी ये कह कर कि हीरोइनी (मनीष हीरोइन को हीरोइनी ही कहता था उसको लगता था कि हीरो का स्त्रीलिंग बनाने के लिये ई की मात्रा आख़िर में जुरूरी है जैसे मास्टर की मास्टरनी, डॉक्टर की डॉक्टरनी आदि आदि) जब बिस्तर पर गई तो वहाँ हीरो तो सो नहीं रहा था, वहाँ तो प्रेम चोपड़ा था। प्रेम चोपड़ा ने ही ज़रूर कुछ ऐसा किया जिसे हीरो हीरोइनी तूफान कह रहे हैं। जब हीरोइनी कमरे से बाहर आकर हीरो के गले लगी थी तो उसकी मेक्सी (उस समय नाइटी नहीं कहलाती थी) की एक तरफ़ की बाँह फटी हुई थी। इस गंभीर टिप्पणी पर हम सब सहमत थे, क्योंकि प्रेम चोपड़ा हर फ़िल्म में ग़लत काम ही करता था। सहमत होने के अलावा कोई और चारा भी तो नहीं था। हम सब में सबसे हरामी माना जाने वाला क़मर हसन अपनी गिलकी बीड़ी को पूरी कर चुका था उसका कहना था कि कैमरे को ग़लत समय आग की तरफ़ घुमा दिया गया, अगर थोड़ी देर और पलंग पर टिकाये रखते तो पता चल जाता कि कौन-सा तूफान आया था। जैसे ही गद्दार ने हीरोइन को ऊपर खींचा वैसे ही सालों ने कैमरा आग की तरफ़ कर दिया। बहरहाल हुआ ये कि हमारे और बहुत सारे सवालों की ही तरह ये सवाल भी अनसुलझा रह गया कि आप आये बहार आई में आख़िर वह कौन-सा तूफान आया था।
इसी बीच हम लोगों के साथ एक बड़ी शर्मनाक घटना हुई। हालाँकि हम लोगों की नज़रों में वह शर्मनाक घटना न होकर धार्मिक घटना थी, लेकिन, बड़े लोगों का मानना था कि वह अत्यंत शर्मनाक घटना थी। जिसके बाद हम लोग कुछ दिनों तक किसी को मुँह दिखाने के क़ाबिल भी नहीं रहे थे। हुआ दरअसल ये था कि हमारे क़स्बे में कुछ दिनों के लिये साधुओं की एक टोली आई हुई थी। हमें नहीं मालूम कि वह साधु कौन थे, कहाँ से आये थे, किस धर्म के थे, किन्तु, वह साधु पूरी तरह से नग्न रहते थे। एक दो दिन के लिये वह हमारे शहर में आये थे। हम अक्सर स्कूल आते जाते उनको शहर में घूमते देखते थे। लोग उनकी ख़ूब आवभगत करते थे। आगे-आगे साधु चलते थे और उनके पीछे-पीछे उनके भक्तों की टोली जय-जय कार करती हुई चलती थी। हमें ये खेल बहुत पसंद आया। एक दिन संडे को जब अस्पताल का पूरा कैम्पस सूना पड़ा था (वैसे भी हमारे उस छोटे से अस्पताल में मरीज़ आते ही कहाँ थे) । तो हम लोग चुपके से स्टोर रूम के पीछे के बरामदे में इकट्ठे हो गये। ये बरामदा दोपहर बाद सन्नाटे में डूब जाता था। बस वहाँ पर हमने साधु-साधु का खेल शुरू कर दिया। हममें से आधे लोग साधु बन गये (ठीक उन्हीं साधुओं की तरह) और बाक़ी के हम उनके भक्त बन गये। भक्त वही लोग बने थे जिनका ज़मीर उनको साधु बनने की इजाज़त नहीं दे रहा था। वैसे तो हमारी प्लानिंग ये थी कि सभी लोग ही साधु बनेंगे और इसके लिये सभी सहमत भी थे। लेकिन, कुछ लोगों ने यहाँ बरामदे में आने के बाद हौसला छोड़ दिया और साधु बनने से एकदम साफ़ ही इनकार कर दिया। खेल नहीं बिगड़े इस कारण बहस नहीं करते हुए उनको भक्त बना दिया गया था।
साधुओं ने अपने कपड़े उतार कर एक तरफ़ रख दिये और बरामदे में गंभीरता से टहलना शुरू कर दिया। क़मर हसन साधुओं का सरदार बना हुआ था। बाक़ी के लोग उनके पीछे-पीछे जय जय कार करते हुए भक्तों की तरह घूम रहे थे। भक्त गण पीछे से गुलतेवड़ी, ज़ीनिया और गेंदे फूलों की पंखुड़ियाँ साधुओं पर उछाल रहे थे। कुल मिलाकर बहुत ही भक्तिमय माहौल बना हुआ था। अभी हमारा खेल चल ही रहा था कि अचानक कम्पाउण्डर आ गये, उन्होंने हमारे साधुओं को देखा तो ग़ुस्से से चिल्ला पड़े 'क्या हो रहा है ये सब?'। बात की बात में और लोग भी एकत्र हो गये। हममें से भक्तों का तो कुछ नहीं, लेकिन साधुओं का बुरा हाल था, क्योंकि, साधु तो साधु अवस्था में थे। सारे साधु रो रहे थे और भक्त सिर झुकाए खड़े थे। लेकिन बाद में जब हम सबकी अपने-अपने घरों में पिटाई हुई तो उसमें साधु और भक्तों को समान रूप से मारा गया, उसमें किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया गया। क़मर के अब्बा ने उसे पछीट-पछीट (धोबी जिस प्रकार कपड़ों को पटक-पटक कर धोता है उस प्रकार) कर मारा था। हमारे कई सारे सवालों में एक सवाल ये भी बढ़ गया था कि हम ग़लत कहाँ थे, हमने तो साधुओं की नक़ल की थी। जब वे असली साधु लोग इसी प्रकार की अवस्था में शहर में घूम रहे थे तो पूरा का पूरा शहर उनकी जय-जय कार, उनका स्वागत कर रहा था और हमने जब वह किया तो हमें सज़ा मिली। हमने तो धार्मिक काम किया था, उसमें ऐसा क्या हो गया कि हमें इस प्रकार जानवरों की तरह मारा गया।
अपने बहुत सारे अनसुलझे सवालों के साथ ही हम बड़े हो रहे थे। इन सबमें ही उलझते उलझाते हम सबने मिडिल पास कर लिया था। अब हमारा स्कूल भी बदल गया था। इस बीच हम भी बहुत बदल गये थे। हम सबकी देह में कल्ले फूट रहे थे। मगर मन से हम अभी भी वही थे चिरइ चुरमुन। नये स्कूल में नये-नये साथी मिले। बहुत से बच्चे गाँव के भी हमारी कक्षा में थे, जो गाँव के मिडिल स्कूल से मिडिल पास करके आगे पढ़ने शहर आये थे। नये स्कूल में हमें बहुत कुछ सीखने को मिल रहा था। सरकारी अस्पताल के उस कैम्पस को ही दुनिया मान कर चलने वाले हम लोगों के सामने एक नया आसमान धीरे-धीरे खुल रहा था। हमारा सबसे हरामी माना जाने वाला क़मर हसन भी यहाँ आकर दूध पीता बच्चा ही साबित हो रहा था। हमारे ये नये दोस्त हमें अनाड़ी कहते थे। हैरत से पूछते थे 'हें...? तुमने अभी तक असली बीड़ी नहीं पी? हें ...? तुम असली वाली गाली नहीं बकते...?' नये स्कूल में हमने गिलकी बीड़ी की जगह असली बीड़ी का स्वाद लिया। हमारा सरकारी स्कूल खँडहर समान था जिसका नाम था 'शासकीय बालक उच्चतर माध्यमिक विद्यालय'। बालक इसलिये कि इसमें लड़कियाँ नहीं पढ़ती थीं उनका अलग स्कूल था क़स्बे में जिसका नाम था 'शासकीय कन्या उच्चतर माध्यमिक विद्यालय'। ये हमारे साथ एक बड़ी चोट हुई थी कि स्कूल में हम केवल बालक ही बालक थे। हमारे स्कूल के ठीक पीछे खेत थे, दूर-दूर तक फैले हुए खेत। दोपहर की रिसेज में हम लोग अपने नये दोस्तों के साथ खिड़की से कूद कर पीछे चले जाते थे और वहाँ असली बीड़ी का मज़ा लेते। वहीं बैठते-बैठते धीरे धीरे हमने गालियाँ भी सीख ली थीं। अभी तक तो हमारे लिये गाली का मतलब साले और ज़्यादा से ज़्यादा कुत्ते ही हुआ करता था मगर यहाँ तो हमने तरह-तरह की गालियाँ सीखीं। हमारे नये दोस्त हमें न केवल गालियाँ सिखा रहे थे बल्कि उनके मतलब भी समझा रहे थे। उन गालियों का मतलब सुन कर हमारे दिमाग़ में कुछ रासायनिक परिवर्तन होते थे जिनका असर हमें अपने शरीर पर भी महसूस होता था।
हम बाक़ायदा दीक्षित किये जा रहे थे और हमें दीक्षा देने का काम कई सारे गुरु कर रहे थे। उनमें से भी कैलाश पीरिया हमारा मुख्य गुरु था क्योंकि उसका अनुभव और ज्ञान सबसे कहीं ज़्यादा था। वैसे तो उसका नाम कैलाश राठौर था लेकिन कैलाश पीरिया होने का भी एक कारण था। वह ये कि उसका पिता शराब बहुत पीता था और इस कारण वह अपने पिता से बहुत चिढ़ता था। जब भी कोई उससे उसके पिता के बारे में पूछता तो एक ही जवाब देता था 'मुझे क्या मालूम, पी रिया होगा कहीं बैठ कर।' बस ये पीरिया ही उसका सरनेम बन चुका था। यहाँ तक कि उसके पिता को भी क़स्बे के लोग अब पीरिया ही कह के बुलाते थे। कैलाश पीरिया ने ही हमें भाँति-भाँति की गालियाँ बकना तथा ठीक प्रकार से उनका उच्चारण करना सिखाया था। ग्रामर के मामले में वह किसी उर्दू के उस्ताद की तरह सख़्त था, ज़रा भी तलफ़्फ़ुज़ की ग़लती वह बर्दाश्त नहीं करता था। गाली में क्रिया और कर्ता का ठीक प्रयोग यदि नहीं किया गया तो वह उखड़ पड़ता था। सारी गालियाँ उसकी अपनी ही ईजाद की हुईं थीं। पीरिया की गालियों की एक विशेषता ये थी कि उन गालियों में महिलाएँ नहीं होती थीं, उसकी सारी गालियाँ पुरुष प्रधान थीं। हाँ गालियों में जानवरों का प्रयोग उसने बहुत हुनरमंदी के साथ किया था। उसकी गालियों में जानवर, पुरुषों पर अत्याचार करते थे। इन जानवरों में सूअर, कुत्ते और गधे प्रमुख होते थे। पीरिया ने ही हमारे उन प्रश्नों के भी उत्तर हमें प्रदान किये जो हमें परेशान करते थे। आग के बारे में भी उसने हमें विस्तार से बताया, हालाँकि हमारे पल्ले कुछ नहीं पड़ा। ऐसा ही कुछ आप आये बहार आई के साथ भी हुआ, पीरिया ने हमें उस तूफान के बारे में पूरी जानकारी दी और बाक़ायदा एक्शन के साथ दी, किन्तु, हम तो अज्ञानता के महासागर से आये थे। हमारे प्रश्नों को सुन कर हमारे नये दोस्त खी-खी करते थे। हम शरमा जाते थे अपने अल्पज्ञान पर। कभी-कभी हम सोचते थे कि अगर हम इस वाले स्कूल में नहीं आये होते तो हमारा क्या होता।
हम बहुत कुछ जान चुके थे मगर अभी भी एक धुंध-सी जमी हुई थी जो छँटने का नाम ही नहीं लेती थी। बुज़ुर्गों ने कहा भी है कि कानों सुनी और आँखों देखी में बड़ा फ़र्क़ होता है। हमारे सब कुछ जान कर भी न जान पाने को लेकर पीरिया बहुत परेशान रहता था। वह अलग-अलग तरीक़ों से हमको समझाने की कोशिश करता था, मगर बात वही की वही रहती और फिर अचानक वह दिन आया जब सूरज चकाचौंध करता हुआ हमारे सामने निकल पड़ा। सारी की सारी धुंध छँट गई और हमें सब कुछ साफ़ साफ दिखाई देने लगा। उस दिन जब हम लोग रेसिज में स्कूल के पिछवाड़े अपने दैनिक ज्ञानार्जन के कार्यक्रम के लिये गये तो उस दिन कुछ और ही हुआ। उस दिन पीरिया ने अपने मोज़े में फँसा कर रखी हुई एक पतली-सी जर्जर किताब निकाली। पुस्तक पर लिखा हुआ था 'असली सचित्र...' और बाद की लिखावट को किसी ने काट दिया था। वह पुस्तक बारी-बारी से हम सबके हाथों में से गुज़री। जिसके हाथ में पुस्तक आती थी उसके ज्ञान चक्षु 'भकाक' से खुल जाते थे और पुस्तक अगले के हाथों में पहुँच जाती थी। हम अस्पताल कैम्पस वालों की हालत तो ऐसी थी कि उसे शब्दों में बखान भी नहीं किया जा सकता। दिमाग़ रासायनिक परिवर्तन से ऊब चूब हो रहा था और शरीर उस रासायनिक परिवर्तन के परिणामों के चलते। सब के देख लेने के बाद पीरिया ने उस पुस्तक को अपने हाथ में ले लिया और उसके सभी अध्यायों की बाक़ायदा संदर्भ सहित व्याख्या करनी शुरू कर दी। साथ ही हर चित्र पर विशेषज्ञ की हैसियत से अपनी विशेष टिप्पणी भी दी। हम अस्पताल कैम्पस वाले अज्ञानियों की तरह मुँह खोले बैठ कर सुन रहे थे। दिव्य ज्ञान उसी खुले मुँह से धीरे-धीरे हमारे अंदर समाता जा रहा था और वह सारी चीज़ें खुलती जा रही थीं जो अभी तक हमारे लिये पहेली बनी हुई थीं। आग, बदमासी, आप आये बहार आई, तूफान जैसे कई-कई सवाल एक-एक करके हल होते जा रहे थे। रीसेज का समय भी बीत चुका था मगर हम वहीं बैठे थे और बैठे रहे स्कूल का समय ख़त्म हो जाने तक। तब हमें नहीं पता था कि सन्निपात क्या होता है, किन्तु, जो कुछ हुआ था वह यक़ीनन सन्निपात ही था।
उसके बाद वह ही पुस्तक बहुत दिनों तक हमारी रीसेज का प्रमुख केन्द्र बनी रही। हमारे लिये स्कूल का मतलब ही रिसेज हो गया था। पीरियडों में मन उचाट-सा रहता था। बस रीसेज होने का इंतज़ार बना रहता। रीसेज में हम सब उन कई-कई बार देखे जा चुके चित्रों को फिर-फिर देखते। अपनी उँगलियों के पोरों को उन चित्रों पर धीरे से रखते और आग की आँच को मेहसूस करते। आग जो चम्पा रानी और कलुआ की माँ में भरी थी। पुस्तक की सीले काग़ज़ों में हमने उसी आग को पा लिया था। पुस्तक में संकलित सजीव चित्रों तथा ललित निबंधों पर हम कई दिनों तक विस्तार से चर्चा करते रहे। हमारे पास कई-कई विषय विशेषज्ञ थे। इन विषय विशेषज्ञों में प्रेक्टिकल ज्ञान भले ही किसी के पास नहीं था किन्तु, थ्योरी पर इनको अच्छी ख़ासी कमांड थी। हमारे सभी प्रश्नों का उत्तर उनके पास था। हम पूछते रहे और वह बताते रहे। पीरिया ने हमें कुछ रहस्यमय नीले रंग की फ़िल्मों के बारे में भी बताया था। उसने भी हालाँकि ये फ़िल्में देखी तो नहीं थीं, लेकिन उनके बारे में सुना बहुत था। उसके अनुसार इन नीले रंग की फ़िल्मों में इस पुस्तक वाली सारी चीज़ें हक़ीक़त में होती हैं। इस नई जानकारी ने हम सबको हैरत में डाल दिया था 'हें...ऐसी भी फ़िल्में होती हैं।' हमारा फ़िल्म विशेषज्ञ मनीष भी इस जानकारी पर हक्का बक्का था।
उस एक पुस्तक ने हम सबको एकदम से उम्र के अगले पड़ाव पर खड़ा कर दिया। अब हम सब कुछ जान चुके थे। किन्तु, हम कहाँ जानते थे कि सब कुछ जाने लेने से मुश्किलें और बढ़ जाती हैं घटती नहीं हैं। जब तक कुछ पता नहीं है तब तक आप अज्ञानी हैं, लेकिन जब जान लिया तो इस पाये हुए ज्ञान को व्यवहार में लाने की उत्सुकता और उत्कंठा बढ़ जाती है। ये अज्ञानी होने से भी कहीं ज़्यादा परेशानी की स्थिति होती है। हमारी शाम की गिलकी बीड़ी गोष्ठियों में उदासी घुल गई थी। हम सब उदास थे। बाल्टी भर-भर के उदास थे। गिलकी बीड़ी अब आनंद नहीं देती थी। हमारी आनंद की परिभाषा जो बदल गई थी। हमारे ज्ञानचक्षु तो खुल चुके थे लेकिन उस ज्ञान के उपयोग की कहीं कोई संभावना दीख नहीं पड़ रही थी। अस्पताल कैम्पस जहाँ हम रहते थे वहाँ सारे परिवार एक दूसरे के साथ जुड़े हुए थे। कैम्पस की सारी लड़कियाँ हम सारे लड़कों की बहनें थीं। क्योंकि थीं तो वह हमारे ही परिवारों की और छोटा-सा कैम्पस मानो एक बड़ा संयुक्त परिवार था, इस प्रकार कि रक्षाबंधन के दिन क़मर हसन तक के हाथ पर कलाई से कोहनी तक राखी बँधी होती थीं। इसके अलावा हमारी दौड़ स्कूल तक थी, स्कूल जो कि केवल बालक स्कूल था। हमारे लिये, हम सबके लिये वह सचमुच एक कठिन समय था।
ज्ञान प्राप्त हो जाने के बाद ये ज़ुरूर हो गया था कि दयानंद ने उन काग़ज़ के पुर्जों को अपनी बहन तक पहुँचाने से इनकार कर दिया था जो उसे हमारे अस्पताल कैम्पस के ठीक बाहर स्थित किराने की दुकान वाले भारमल सेठ का लड़का अन्नू देता था। हर पुर्ज़े के बदले में दयानंद को वह अपने बाप की नज़र बचा कर मुट्ठी भर काजू दे दिया करता था। दयानंद की जेब में हरदम काजू भरे होते थे जिनको वह दिन भर चगलता रहता था। इधर से पुर्ज़ा ले जाने और उधर से लाने दोनों तरफ़ के काजू मिलकर दिन भर चलते थे। 'सब अन्नू सेठ की कृपा है' काजू को लेकर ये उसका परमानेंट डॉयलाग था। मगर उस दिन के बाद उसने पुरजे ले जाना तो दूर अन्नू सेठ की दुकान पर ही जाना बंद कर दिया था। हमारे ज्ञान चक्षु खुल जाने का एक ये भी सकारात्मक परिणाम सामने आया था। उसके अलावा जो कुछ भी था वह तात्कालिक रूप से हमें नकारात्मक ही दिखाई दे रहा था। चम्पा रानी वाली आग हम सब के अंदर अपने-अपने तरीक़े से भरा चुकी थी और वह रह-रह कर खदबदाती रहती थी। रात को सोते तो मन और शरीर दोनों के अँधेरे कोने सामने आने लगते। उन अँधेरे कोनों को टटोलते रहते और ठंडी साँसें भरते रहते। अब हमें दूरदर्शन की फ़िल्मों में बुटबाज़ी पसंद नहीं आती थी, हम इंतज़ार करते रहते थे कि कब फ़िल्म में हीरो और हीरोइन कुछ प्रक्रिया शुरू करते हैं। हमारा दुर्भाग्य कि हर बार दो फूल, दो पंछी या किसी पेड़ की डाल ठीक उसी समय आड़ कर देती थी जब हम देखना चाहते थे। हम लोगों की दुनिया बदल गई थी।
और ऐसे ही उदास दिनों में अचानक अस्पताल कैम्पस में चीनू दीदी का आगमन हुआ। चीनू दीदी, जो अस्पताल में पदस्थ की गईं नई नर्स के साथ आईं थीं। ये नई नर्स कुँवारी थीं और उनके साथ उनकी माँ तथा छोटी बहन भी आईं थीं। उनकी छोटी बहन चीनू हम सबसे क़रीब पाँच से छः साल बड़ी थीं, इसलिये वह हमारी चीनू दीदी हो गईं। बड़ी अजीब-सी लगती थीं चीनू दीदी। चेहरे पर मुँहासों के दाग़, सामान्य से कुछ बड़े दाँत, छोटा क़द। इतना बोलती थीं कि अगले का सिर दुख पड़े। आवाज़ भी सामान्य से कुछ अधिक तीखी, या यूँ कहें कि कर्कश ही थी। चूँकि उनके घर में कोई पुरुष नहीं था इसलिये हमारी टोली में कोई नया सदस्य नहीं बढ़ा। उनकी माँ पूरे अस्पताल कैम्पस वालों के लिये अम्माजी हो गईं। अम्माजी के पति काफ़ी पहले ही नहीं रहे थे, उन्होंने अपनी बेटी को पढ़ा लिखा कर नर्स बना दिया था और अब बेटी ही घर को चला रही थी। अम्मा जी हमसे जम कर काम करवाती थीं। उनके घर तो कोई ऐसा था नहीं जो बाज़ार से सामान वगैरह लाकर दे दे। बस वे ताक में रहती थीं कि कब हममे से कोई दिखे और वह उससे कुछ काम करवाएँ। हम ऊपर वाले से प्रार्थना करते हुए निकलते थे कि अम्मा जी बाहर न बैठीं हों। लेकिन हमारी प्रार्थना अधिकतर व्यर्थ ही जाती थी। ये भी नहीं था कि अम्माजी हमसे रिक्वेस्ट करके वह काम करवाती थीं। वे तो बाक़ायदा हुक्म देती थीं 'ऐ कालू, किधर जा रहा है, एक काम कर ज़रा पीछे कुँए से एक बाल्टी पानी तो खींच के ला दे ज़रा और सुन पूरी बाल्टी भर के लाना।' ये वह समय था जब किसी भी मुहल्ले के बच्चे उस पूरे मोहल्ले के हर घर के अघोषित नौकर हुआ करते थे। उनसे पूरे मोहल्ले का कोई भी घर कुछ भी काम करवा सकता था। कुछ भी का मतलब कुँए से पानी भरवा सकता था, जलावन की लकड़ी कटवा सकता था, बाज़ार से सामान मँगवा सकता था। ये आज का समय नहीं था कि बच्चे अपने ही घर का काम नहीं करते हैं।
अम्मा जी हमें नानी की कहानियों की वह दुष्ट राक्षसी लगती थीं जो राजकुमार को क़ैद करने के लिये हमेशा नये-नये जाल बिछाती थी। अम्मा जी से हमें एक और कष्ट था, वह ये कि जब उनको कोई काम नहीं होता तो वह हमें देखते ही चिल्लातीं 'ऐ लड़के इतनी गर्मी (सर्दी, बरसात) में बाहर क्यों घूम रहे हो, चलो घर।' ये वह समय था जब किसी भी बच्चे को पूरे मोहल्ले का कोई भी बड़ा, डाँट सकता था, मार सकता था, जलील कर सकता था। ये आज का समय नहीं था कि बच्चों को उनके घर का ही बड़ा नहीं डाँट सकता। डाँट सुन कर हम मन ही मन गालियाँ देते हुए घर भाग जाते थे। हम चाह कर भी अम्मा जी का कुछ नहीं कर पाते थे। मगर हमने अपना ग़ुस्सा निकालने का एक तरीक़ा निकाल लिया था। हम अम्मा जी के छोटे से पॉमेरियन कुत्ते से उनका बदला लेते रहते थे। अम्मा जी को कुछ समझ में नहीं आता था कि उनके कुत्ते को रह-रह कर चोट क्यों लगती रहती हैं। हम इसी ताक में रहते थे कि कब वह कुत्ता अकेला मिले और हम उससे अम्मा जी का बदला लें। हमारा पूरा आक्रोश वह कुत्ता झेल रहा था। क़मर हसन ने एक बार तो उसकी टाँग ही तोड़ डाली थी। अपनी फ़ाख़्ता मारने वाली गुलेल से उसने साध कर ऐसा पत्थर मारा था कि कई दिनों तक वह कुत्ता तीन पैरों से घूमता रहा था। हमारी दुनिया जो पहले से ही बहुत-सी मुश्किलों से भरी थी उसमें एक अम्मा जी और आ गईं थीं।
चीनू दीदी से हमें कोई शिकायत नहीं थी। चीनू दीदी से तो वैसे भी हम लोगों को कोई काम नहीं पड़ता था। बाक़ी चीनू दीदी पूरे मोहल्ले के लोगों से बतियाती रहती थीं, स्त्रियों से भी और पुरुषों से भी। हमारे चाचा टाइप के लोगों से उनकी ख़ूब पटती थी। वह कॉलेज में पढ़ती थीं और हमारे चाचा टाइप के लोग भी कॉलेज में पढ़ते थे सो हमारे लिये ये स्वाभाविक बात थी। हमारे उस कैम्पस में चाचा टाइप के लोग चार-पाँच ही थे। बाक़ी उनसे बड़े वाले पुरुष थे जो हम बच्चों के पिता लोग थे। चीनू दीदी की उन पिता टाइप के लोगों में से भी एक दो के साथ अच्छी पटती थी। ख़ैर ये एक और समस्या आ चुकने के बाद भी हम सबका जीवन वैसे ही स्थगित-सा चल रहा था। सपने रात में आते थे और दिन भर उनका हैंग ओवर रहता था। ऐसे ही किसी उदास से समय में अचानक ही एक दिन हमारे कानों में, हम सबके कानों में एक वाक्य पड़ा। वाक्य जो हम सबके लिये किसी धमाके से कम नहीं था। मगर ये धमाका भी सुखद धमाका था।
क़िस्सा ए मुख़्तसर ये कि उस दिन हम सारे बच्चे अस्पताल के नल के पास झुंड बना कर बैठे थे और वहीं पर खड़ा था सब्ज़ी वाली कान्ता बाई का ठेला। मोहल्ले की सारी महिलाएँ सब्ज़ी ख़रीद रहीं थीं। हम अपनी गप्पबाज़ी में लगे थे। तभी अचानक चीनू दीदी कॉलेज से घर लौटीं। महिलाओं को सब्ज़ी ख़रीदते देखा तो इधर आ गईं। कुछ देर तक अपनी बकर-बकर करती रहीं और फिर अपने घर चली गईं। उनके जाते ही महिलाओं का विषय चीनू दीदी हो गईं। इधर उधर की बातें होती रहीं और फिर अचानक ही किसी महिला का स्वर आया 'कितनी आग भरी है कि दिन भर मुँह मारती फिरती है।' आग...? चीनू दीदी में...? ओ तेरी, ये तो आज ही पता चल रहा है। हमारी पूरी की पूरी मंडली के कान खड़े हो गये। ये हमारे लिये बगल में बच्चा और शहर में ढिंडोरा जैसी ही बात थी। 'कितनी आग भरी है...' ये एक वाक्य हमारे जीवन में उम्मीद की किरण लेकर आया था। उसके बाद महिला मंडली में और भी बातें होती रहीं, कुछ बातें हमें समझ में आईं कुछ बिल्कुल पल्ले नहीं पड़ीं। कांता बाई ने कुछ बातें ऐसी कहीं जिस पर दबे स्वरों में महिलाएँ हँसीं। जो बातें हमें समझ में पड़ीं वह भी पीरिया गुरु की कृपा से ही पड़ीं और उनको सुनने के बाद हम सब हैरत में पड़ गये कि कितनी गंदी-गंदी बातें हो रही हैं चीनू दीदी के बारे में। हम कनखियों से एक दूसरे को देख-देख कर मुस्कुरा रहे थे। हमारे बारे में ये समझा जा रहा था कि हम तो कुछ समझ ही नहीं रहे हैं सो कांता बाई की बातों का पूरा महिला मंडल खुल कर आनंद ले रहा था। बीच-बीच में कुछ कविताएँ भी कांता बाई कह रही थी जैसे 'आगड़ जाऊँ, बागड़ जाऊँ, तीन ख़सम मैं रोज़ बनाऊँ'। चीनू दीदी के कई सारे रहस्य हम पर उजागर हो रहे थे। हमारी आँखें हैरत से फटती जा रही थीं। हमें दुख बस इस बात का था कि कांता बाई कई सारी बातों में प्रतीक और बिम्बों के माध्यम से बात कर रही थी, जिनको समझना हमारे लिये उस समय तो मुश्किल था, हाँ बाद में पीरिया गुरु से उनको हल करवाया जा सकता था।
उस दिन हमारी मंडली मानो बादलों पर तैर रही थी। उस दिन की गिलकी बीड़ी बैठक में काफ़ी सारे महत्त्वपूर्ण मामलों पर विस्तार से चर्चा की गई। सबसे पहली आपत्ति तो यही आई थी कि हम लोग तो दीदी कह चुके हैं, ऐसे में । मगर उस आपत्ति को तुरंत इन दलीलों से उड़ा दिया गया कि दीदी तो हमने उम्र का लिहाज़ करते हुए कहा है उसमें सचमुच बहन मानने जैसी कोई बात ही नहीं है। इन दलीलों को पूर्ण बहुमत के साथ स्वीकार भी कर लिया गया। लेकिन अभी भी समस्या ये थी कि इस योजना पर काम कहाँ से शुरू किया जाये और कौन इस योजना पर काम करना शुरू करे। क़मर हसन ने प्रस्ताव रखा कि 'कद्दू कटेगा तो सब में बँटेगा' शुरूआत कोई भी करे लेकिन योजना का फल सब को मिलना चाहिये। ये प्रस्ताव तो सर्वमान्य होना ही था। मगर बात वहीं पर उलझी थी कि पहल करेगा कौन? और ये शुरूआत होगी किस प्रकार से। इस पर काफ़ी बहस के बाद दयानन्द ने कहा कि इस मामले में दो ही विकल्प हैं या तो पीरिया से सलाह ली जाये, मगर उसमें एक ख़तरा ये है कि वह भी इस योजना में शामिल होना चाहेगा और उसका शामिल होना मतलब फिर हम लोगों के लिये बचेगा ही क्या। फिर अपने मोहल्ले की बात बाहर चली जायेगी, बाहर के लोग भी ट्राई करने आ सकते हैं। दूसरा विकल्प ये है कि इस मामले में भी आत्मा बुलाकर उसीसे पूछ लिया जाय। आत्मा को बुलाकर उससे पूछना यानी 'प्लेन चिट'।
प्लेन चिट हमने अपने चाचा लोगों को करते देख कर सीखी थी। हम बच्चे अक्सर इसे ट्राई करते थे। ज़्यादातर परीक्षाओं में पास फेल के बारे में जानने तथा अपनी डिवीज़न पता करने के लिये। लोहे की टेबल पर चॉक या खड़िया से अंग्रज़ी के अक्षर और अंक गोल घेरे में लिखे जाते थे। गोले के केन्द्र के एक तरफ़ यस और दूसरी तरफ़ नो लिखा जाता था। बीच में एक उल्टी कटोरी में किसी की भी आत्मा बुलाकर उससे सवाल पूछे जाते थे। कटोरी के ऊपर दो लोग अपनी उँगली रखते थे। कटोरी में आई आत्मा अंग्रेज़ी के अक्षरों और अंकों के माध्यम से पूछे गये सवाल का उत्तर देती थी। अनपढ़ से अनपढ़ आत्मा भी अपने उत्तर अंग्रेज़ी में ही देती थी। ये काम हम लोग उस घर में करते थे जहाँ कोई नहीं होता था। रात के समय लोहे की टेबल पर उल्टी कटोरी किरकिराती हुई चलती थी तो अजीब दहशत का माहौल कमरे में हो जाता था। अक्सर किसी परिचित की ही आत्मा को हम लोग बुलाते थे, जिसका हाल में ही निधन हो गया हो। कटोरी को अच्छी तरह से धोकर उसमें अगरबत्ती से धूनी देते हुए उस व्यक्ति का नाम लेकर उसकी आत्मा का आह्वान करते थे और कटोरी को गोले के केन्द्र पर उल्टा रख दिया जाता था। इसके कुछ देर बाद पूछा जाता था 'क्या आप आ गये हैं?' यदि आत्मा आ जाती थी तो कटोरी किरकिराती हुई यस की तरफ़ चली जाती थी। फिर शुरू हो जाता था प्रश्नों का दौर। गोपनीयता हो तो प्रश्न मन में भी पूछे जा सकते थे। सारे प्रश्न हो चुकने के बाद कटोरी से पूछा जाता था कि क्या आप जाना चाहते हैं, अक्सर कटोरी यस की तरफ़ बढ़ जाती थी और कहा जाता था कि आप जा सकते हैं। उसके बाद भी उँगली कटोरी से उठाई नहीं जा सकती थी। एक बार फिर से पूछा जाता था कि क्या आप जा चुके हैं। यदि कोई उत्तर नहीं आये तो उँगली हटा सकते थे किन्तु यदि नो उत्तर आ जाये तो उँगली रखे रहो। हमें बताया गया था कि यदि आत्मा के अंदर रहते कटोरी पर से उँगली हटा ली गई तो आत्मा वहाँ बैठे किसी न किसी के अंदर घुस जायेगी।
प्लेन चिट वाली बात पर तुरंत आम सहमति बन गई। क़मर हसन के घरवाले कहीं बाहर गये हुए थे इसलिये उसी के घर को आत्मा के लिये चुना गया। लोहे की टेबल नहीं थी सो फ़र्श को ही अच्छी तरह से धोकर वहाँ गोला बनाया गया। अपने हाथ पाँव अच्छी तरह से धोकर हम सब उस गोले के चारों तरफ़ घेरा बना कर बैठ गये। अब प्रश्न था कि आत्मा किस की बुलाई जाये? अपने किसी रिश्तेदार को बुलाकर उससे इस प्रकार के प्रश्न तो किये नहीं जा सकते थे। ये समस्या भी बड़ी विकट थी। अपने रिश्तेदार या परिचित को बुलाकर उससे कैसे पूछते कि चीनू दीदी। पिछले दो तीन सालों में मरने वालों के नाम याद किये। कई सारे नामों पर चर्चा की गई और बहुत देर की बहस के बाद तय किया गया कि संजय गाँधी की आत्मा को बुलाया जाये। आत्मा को बुलाया गया। आत्मा कुछ मुश्किल से आई और आत्मा के आते ही हमारे सवाल शुरू हो गये।
'क्या सचमुच चीनू दीदी...?' दयानंद ने पूछा, बाक़ी का आधा वाक्य मन में पूछा क्योंकि आत्मा से मन ही मन भी पूछा जा सकता था। आत्मा वाली कटोरी सीमेंट के फ़र्श पर किरकिराती हुई यस की तरफ़ बढ़ी और उसको छूकर वापस केन्द्र की तरफ़ आ गई। हम सब की बाँछें खिल चुकी थीं।
'चीनू दीदी में जो आग है वो...?' सुशील ने बाक़ी का प्रश्न मन में पूछा। उत्तर में कटोरी एक बार फिर से यस को छूकर वापस आ गई।
'चीनू दीदी के बारे में जो कांता बाई कह रही थीं क्या वह सब सच है?' इस बार राजेश ने पूरा प्रश्न किया, इसमें कुछ भी ऐसा नहीं था जो छुपाया जाये। राजेश के प्रश्न के बाद कटोरी सरकी और यस को छूकर लौट आई। हम सबने एक दूसरे की तरफ़ देखा और मुस्कुरा दिये।
'चीनू दीदी को कौन...?' कालू ने पूछा। कटोरी अंग्रेज़ी के अक्षरों की तरफ़ बढ़ी मगर किसी अक्षर पर न रुक कर गोल-गोल घूमने लगी। हम सब भयभीत हो गये। ऐसा तो कभी भी नहीं हुआ। अचानक हमने देखा कि गोले के बाहर लिखे अक्षरों में आर के बाद सीधा टी लिखा है एस ग़ायब है। हमने तुरंत चॉक से दोनों अक्षरों के बीच में एस लिख दिया। कटोरी अगले चक्कर में एस के सामने रुकी और केन्द्र पर लौट आई। कटोरी कभी भी नाम पूरा नहीं बताती थी, नाम का पहला अक्षर ही बताती थी। एस... ? सुरेश, सुशील, सुधीर, शोएब और हाँ मोहन भी क्योंकि उसका घर का नाम सुट्टू था।
'इसमें कोई ख़तरा तो नहीं है?' पूछने वाला शोएब था। कटोरी किरकिराती हुई बढ़ी और नो को छूकर वापस आ गई।
'कितना समय लगेगा?' मोहन के प्रश्न पर कटोरी 2 को छूकर आ गई। दो का मतलब क्या? हमने अनुमान लगाया कि दो माह ही होगा। साल तो हो नहीं सकता।
'ऐसा करना कुछ ग़लत तो नहीं होगा?' इस बार मोहन ने पूछा। कटोरी कुछ देर में सरकी मगर सरकी नो की तरफ। हम सबने ठंडी साँस ली। एक अपराध बोध मन पर से हट गया।
रात धीरे-धीरे बढ़ रही थी। हम लोगों को अपने-अपने घर भी जाना था और सही बात ये भी थी कि वहाँ क़मर हसन के उस छोटे से कमरे में संजय गाँधी की आत्मा के साथ अकेले में हम सबकी अपने-अपने हिसाब से फट भी रही थी। संजय गाँधी के बारे में जो कुछ सुन रखा उसके चलते हम बहुत डरे हुए थे। ज़िदा संजय गाँधी से ही अच्छों-अच्छों की फटती थी तो फिर ये तो संजय गाँधी की आत्मा थी। आप ज़रा सोच कर तो देखिये एक छोटा-सा कमरा, रात का समय, कुछ बच्चे और संजय गाँधी की आत्मा। किरकिराती हुई कटोरी जब फ़र्श पर चलती तो हमारी रीढ़ की हड्डी में झुनझुनी होने लगती। बहुत ख़तरनाक माहौल था। इससे पहले हमने हर बार अपने ही किसी रिश्तेदार की आत्मा को बुलाया था सो उनसे डरने की तो कोई बात ही नहीं थी।
अचानक कटोरी एक बार फिर से चली, हम सब चौंक गये। किसी ने कुछ नहीं पूछा फिर ये कटोरी क्यों चली। कटोरी चली और 7 को छू कर वापस आ गई। सात? ये सात का क्या मतलब है। हम आश्चर्य में थे कि कटोरी पर उँगली रखा सुशील बोला 'मैंने पूछा था मन ही मन में। कि मीनू दीदी अभी तक...?'
'कोई मन में नहीं पूछेगा। यहाँ कौन ऐसा है जिससे छुपाने की बात है। बिला वज़ह के हालत ख़राब हो जाती है सबकी।' क़मर हसन ने कुछ ग़ुस्से में कहा।
हमारे प्रश्न अब ख़त्म हो चुके थे। जो कुछ जानना था वह पता चल चुका था। अब कुछ और जानने की आवश्यकता भी नहीं थी। हमने पूछा 'क्या आप जाना चाहते हैं?' कटोरी खसकी और नो को छूकर वापस आ गई। नो...? आज तक तो किसी आत्मा ने नहीं कहा था। जब भी पूछो तो चुपचाप यस करके चली जाती है। हम सबके पसीने छूट गये। जिन दोनों सुरेश और सुशील ने उँगली कटोरी पर रखी थी उनकी हालत और ख़राब थी। कुछ देर तक सन्नाटा रहा फिर क़मर ने एक बार फिर से हिम्मत करके पूछा 'क्या आप चले गये हैं?' उत्तर में कटोरी एक बार फिर से नो को छू कर वापस आ गई। हम सबकी अधिकतम सीमा तक फट चुकी थी। मुँह सूख चुके थे और कुछ सूझ नहीं रहा था। मनीष अचानक रो पड़ा और रोते हुए हाथ जोड़ कर बोलने लगा 'हमसे ग़लती हो गई, आगे से आपको परेशान नहीं करेंगे। आप चले जाइये हम आपके हाथ जोड़ते हैं।' मनीष की देखा देखी हम सबने भी हाथ जोड़ लिये। कुछ देर तक फिर सन्नाटा छाया रहा। सुरेश ने कुछ देर की ख़ामोशी के बाद पूछा 'क्या आप चले गये हैं?' कटोरी में कोई हलचल नहीं हुई। वह जस की तस बनी रही। हम सब की मानो साँस में साँस वापस आ गई। संजय गाँधी जा चुके थे। बाद में हम सबमें संजय गाँधी को बुलाने पर काफ़ी झगड़ा हुआ। जिसने संजय गाँधी की आत्मा को बुलाने का सुझाव दिया था उसको हम सबने सारी गालियाँ एक-एक कर के दीं। वह चुपचाप सुनता रहा। ग़लती जो कर बैठा था। ख़ैर कुछ देर में जब हम वापस अपने मूल विषय पर आये तो हमें इस बात की राहत थी कि संजय गाँधी के आने से एक लाइन तय हो गई थी कि चीनू दीदी को... और ये भी तय हो चुका था कि कौन-कौन ये काम करने वाला है। लेकिन अभी ये तय नहीं था कि काम होगा कैसे।
उस दिन के बाद हमारे एस अक्षरों ने चीनू दीदी से निकटता बढ़ाने का प्रयास करना शुरू कर दिया। हमारे एस अक्षर ही अब अम्मा जी के घर के सारे काम करते थे। मगर निकटता तो तब बढ़े जब अम्मा जी घर में घुसने दें। अम्माजी हमारे एस अक्षरों तथा चीनू दीदी के बीच में पहाड़ बन कर अड़ी हुईं थीं। बाहर से ही सामान की थैली ले लेतीं और टरका देतीं। हमने उन दिनों में अम्माजी के कुत्ते को परेशान करना भी बंद कर दिया था। लेकिन उससे भी कुछ हो नहीं पा रहा था। हम सब एक बार फिर से उदास थे। इस बार उदास होने के साथ-साथ परेशान भी थे। मगर जहाँ चाह वहाँ राह की तर्ज़ पर गणेश उत्सव का त्यौहार आ गया। हमारे अस्पताल के चाचा टाइप के लोग कैम्पस में दस दिन तक स्थापना करते थे और झाँकियाँ बनाते थे। उन झाँकियों में हम लोग ही राधा, कृष्ण, राम, लक्ष्मण आदि-आदि बन कर खड़े रहते थे। झाँकी स्थिर होती थी। मतलब ये कि इमली के पेड़ में रस्सी बाँध कर उससे एक बड़ी-सी टाट की पहाड़ टाइप की आकृति बना कर लटका दी और नीचे हममें से कोई कृष्ण बन कर उस लटके हुए पहाड़ में उँगली लगाकर खड़ा हो जाता। आस पास गोप गोपियाँ खड़े हो जाते। ये हो जाती गोवर्धन परबत की झाँकी। पूरे तीन घंटे तक हम लोगों को एक ही एक्शन में खड़ा रहना होता था। चाचा टाइप के लोग व्यवस्था में लगे रहते थे। परशाद बाँटना, चंदा उगाहना आदि आदि। पीरिया से मिलने के बाद हमें पता चला था कि हमारे ये चाचा टाइप के लोग जो दस दिन गणेश स्थापना करते थे उसका मुख्य कारण ये था कि झाँकी देखने के बहाने उनकी अपनी-अपनी सेटिंगें आया करती थीं। जिस चाचा ने जिसको भी दो बार मुट्ठी भर-भर के परशाद दे दिया समझ लो ये उस चाचा की सेटिंग है। उस समय में अपनी सेटिंगों को घर से बाहर निकालने के लिये क्या-क्या करना पड़ता था। समझ पड़ने लगने के बाद हम झाँकी में सज धज कर खड़े-खड़े अपने चाचा लोगों और उनकी सेटिंगों के नैन मटक्के देखा करते थे। तो इस बार हम लोगों ने चाचा टाइप के लोगों से ज़िद की कि हम लोगों को झाँकी के लिये तैयार करने का काम चीनू दीदी से करवाया जाय। बात मान ली गई। चीनू दीदी भी मान गईं। हम सबको झाँकी के लिये तैयार होने में डेढ़ दो घंटे का समय लगता था और पूरे दस दिन तक ये रोज़ होना था।
हस्पताल के एक बरामदे में प्रतिमा की स्थापना होती थी, बरामदे के ठीक सामने इमली के पेड़ के नीचे हम सब झाँकियाँ बन कर खड़े होते थे। बरामदे के ठीक पीछे एक कमरा था, दस दिन के लिये वही हमारा ग्रीन रूम हो जाता था। ये एक लम्बा-सा कमरा था। बरामदे की पूरी लम्बाई में फैला हुआ, जिसे एक सामान्य चौड़ाई तथा बहुत अधिक लम्बाई वाला हॉल कह सकते हैं। यह वैसे अस्पताल का आपातकालीन कक्ष भी था। इस कक्ष का गणेश उत्सव के अलावा कभी कोई उपयोग नहीं होता था। अस्पताल में सामान्य मरीज़ ही नहीं आते थे तो आपातकालीन कौन आता। उस समय बच्चे घरों में पैदा होते थे और बूढ़े घरों में मरते थे। अस्पताल पर किसी को भरोसा नहीं था। या शायद ज़रूरत ही नहीं थी क्योंकि बच्चे सामान्य रूप से पैदा होते थे और मरने वाले सामान्य रूप से मरते थे। पैदा करने और मारने में डॉक्टरों की आवश्यकता नहीं पड़ती थी। न पैदा होने के लिये ऑपरेशन की ज़रूरत होती थी और न मरने के लिये। कक्ष के एक कोने में स्ट्रेचर, ट्राली जैसे आपातकालीन सामान सहित और भी बहुत अगड़म बगड़म रखा था, जो सरकार ने आपातकालीन सेवाओं के लिये भेजा था पर जो उपयोग में नहीं आया था। इस कमरे में सामान्य दिनों में रात के समय चौकीदार रहता था, लेकिन झाँकी के दस दिन उसकी व्यवस्था और कहीं रहती थी। इस ग्रीन रूम का आगे का दरवाज़ा बरामदे में खुलता था, जहाँ से हम सारे भगवान जनता के सामने प्रकट होते थे। दरवाज़ा खुलने की बात कही ज़रूर गई लेकिन यहाँ बाक़ायदा कोई दरवाज़ा नहीं था, बस एक अस्पताल का हरा परदा टँगा रहता था जो दरवाज़े का काम करता था। आपातकालीन कक्ष में दरवाज़े का क्या काम? झाँकी के समय इस परदे के आगे एक और परदा लग जाता था, झाँकी के लिये लगायी गयी टेंट हाउस की फूलों वाली कनात का परदा। अस्पताल के परदे और कनात के बीच के हिस्से में घना अँधेरा पसरा रहता था। कनात को दरवाज़े के पास थोड़ा खुला रखा जाता था ताकि देवता और राक्षस आ जा सकें। इस ग्रीन रूम में पीछे भी एक दरवाज़ा था, जो कि अस्पताल के पिछवाड़े में खुलता था। झाँकी के दौरान इसी पीछे के दरवाज़े से हम अपने घर आते जाते थे। यहाँ अलबत एक लकड़ी का दरवाज़ा लगा था और एक खिड़की थी, जिसकी फ्रेम में बीच-बीच में काँच लगे थे। पीछे का ये हिस्सा एकदम सुनसान पड़ा रहता था। लैम्प पोस्ट पर जल रही ट्यूब लाइट के उजाले का सहारा लेकर हम आते जाते थे। इस कमरे का विन्यास जानना इसलिये आवश्यक है कि ये कमरा आगे एक पात्र की तरह उपस्थित रहना है। क़स्बे की रामलीला मंडली से काजल, चन्दन, सुरमा, गेरू, खड़िया, राख, रोली, मुर्दासिंगी, पन्नियों से चमकाये मुकुट, लकड़ी के अस्त्र-शस्त्र, दाढ़ी-मूंछे, गेरूआ कपड़े, कमण्डल, पूंछें, राम-लक्ष्मण के लिए जरी के अंगरखे, धुनष वाण आदि सामग्री आकर ग्रीन रूम में रखा जाती थी। चेहरे पर मुर्दासिंगी पोत-पोत कर हम सब इन्सान से भगवान बनना शुरू कर देते थे। उसी ग्रीन रूम में दस दिन तक हमें तैयार करने के लिये चीनू दीदी को आना था।
हमने झाँकी की मुख्य भूमिका के लिये अपने सारे एस अक्षरों को आगे रख कर सोचा। ऐसा करना इसलिये ज़रूरी था कि समय की कमी के कारण चीनू दीदी केवल मुख्य भूमिका वाले पात्र को ही तैयार करने वाली थीं। बाक़ी सहायक देवताओं, राक्षसों, वानरों आदि को अपने ही हाथ से तैयार होना था। तो हमने सारे एस अक्षरों शोएब, सुधीर, सुशील, सुरेश और सुट्टू को आगे कर के विचार किया। हमारा बहुमत शोएब के पक्ष में झुका हुआ था। शोएब वैसे भी हर साल ही राम और कृष्ण की मुख्य भूमिका में होता था। बस इसमें एक ही परेशानी उसे ये थी कि उसे पूरे दस दिन रोज़ नहाना पड़ता था। दस दिन तक वह रोज़ गुडलुकिंग होता था। सच कहें तो हमें अपने सारे एस अक्षरों में सबसे ज़्यादा भरोसा भी शोएब पर ही था। हमारे बाक़ी के सारे एस अक्षर तो बस एस अक्षर होने के कारण चर्चा में शामिल किये गये थे, उनसे हमें कोई उम्मीद नहीं थी, हाँ बस ये था कि चूँकि संजय गाँधी ने एस अक्षर का कहा था तो उनके भी नामों पर विचार तो करना ही था ताकि उनको बुरा न लगे। शोएब की बात अलग थी वह सुंदर था और भरा पूरा भी था। पीरिया ने भी उसको ज्ञान देने में बहुत खुला दिल बरता था। एक बार जब हम सारे लोग पिकनिक पर गये थे तो तालाब पर फुल वस्त्रहीन टाइप में नहाते समय पीरिया ने शोएब की बॉडी देखकर उससे कहा था 'तेरी बॉडी भोत सालिड है भाई, कोई भी लड़की अगर तेरी खुली बॉडी देख ले तो उसी टैम मर मिटे तेरे पर। तुझे ज़्यादा कुछ करने की ज़रूरत नहीं है, ख़ाली बॉडी दिखाने से ही तेरा काम हो जायेगा।' पिकनिक मतलब संडे के दिन अपने-अपने टिफिन लेकर साइकिलों से जंगल के किसी भी तलाब पर जाना। पहले तालाब में नहाना और फिर खाना खाकर वापस आ जाना।
हममें से कुछ बच्चे उस पिकनिक में तलाब पर नहाते समय फुल वस्त्रहीन नहीं हो रहे थे। ये वही लोग थे जिन्होंने पिछली बार वहाँ अस्पताल के स्टोर रूम के बरामदे में साधु बनने से भी इन्कार कर दिया था, ये तब भी भक्त ही बन कर रह गये थे। पूरे कपड़े पहने हुए भक्त। लज्जा, संकोच, शर्म, डर, लिहाज, संस्कार जैसी बेफ़िज़ूल की चीजों ने उनको ऐसा करने से तब भी रोका था और पिकनिक में भी रोक रहीं थीं। तब पीरिया गुरु ने, जो उस समय तालाब किनारे के पत्थर पर पूरी तरह से वस्त्रहीन अवस्था में बैठे बीड़ी का पावन धुँआ रह-रह कर अपने मुँह से छोड़ रहे थे, उन्हें दिव्य ज्ञान दिया था 'ये कपड़े तो क़ैद हैं, जब भी मौक़ा मिले इस क़ैद से आज़ाद हो जाना चाहिये। जब अचार, पापड़, अनाज सबको धूप दिखाना और हवा लगाना ज़रूरी है तो हमारे शरीर को क्यों नहीं। हवा नहीं लगाओगे और धूप नहीं दिखाओगे तो ये अंदर की चीज़ें भी अचार, पापड़, बड़ी की तरह ख़राब हो जाएँगीं, इनमें भी फफूँद लग जायेगी।' ख़राब हो जाने के डर से वह सब भी तुरंत दिगम्बर हो गये थे। उन लोगों ने बचपन छूट जाने के बाद पहली बार हवा लगाने और धूप दिखाने का ये काम पीरिया गुरु की कृपा से उनके मार्गदर्शन में सम्पन्न किया था और बाद में उस निर्मल आनंद के लिये दिल की गहराइयों से पीरिया गुरु का आभार भी व्यक्त किया था। उन सबके चेहरे अनुपम कांति से खिल उठे थे। सार्वजनिक रूप से नंगे हो जाने का रोमांच, थ्रिल, एडवेंचर इनको इससे पहले पता ही कहाँ था। ये सारे अर्जुन तो उस दिन भी युद्ध के मैदान में उतरने से पहले ही हथियार डाल चुके थे और डाले ही रहते, यदि पीरिया गुरु का ज्ञान नहीं मिलता। इन सारे अर्जुनों ने उस दिव्य स्नान के बाद वस्त्रहीन क्रिकेट मैच में भी भाग लिया था जो मोजे में कपड़े भर कर बनाई गई बॉल और लकड़ी के फट्टे के बैट से खेला गया था। यह दिव्य स्नान के बाद खेला गया एक दिव्यतम क्रिकेट मैच था। इस दिव्यतम क्रिकेट मैच के दौरान ही पीरिया ने हमें दूसरा ज्ञान दिया था 'दुनिया में नंगा होना सब चाहते हैं, लेकिन हो कोई नहीं पाता। नंगे होने में सबकी फटती है। इसका मज़ा वही जानता है जो नंगा हो जाता है, इसलिये डरो मत हो जाओ। एक बार हो गये तो बार-बार होओगे। ऊपर वाला भी चाहता है कि हम नंगे ही रहें इसलिये ही वह हमें नंगा पैदा करता है।'
तो गणेश उत्सव के ठीक पहले दिन कालिया मर्दन की झाँकी थी। कालिया मर्दन में एक ही मुख्य हीरो कृष्ण को होना था सो ग्रीन रूम में एक तरफ़ चीनू दीदी शोएब को तैयार करती रहीं। बाक़ी हम सब सहायक भूमिकाओं में जो गोप, ग्वाले थे अपने ही हाथों से हॉल के दूसरे सिरे पर तैयार होते रहे। मगर हमारी नज़र उधर ही टिकी थी। शोएब और चीनू दीदी में धीरे-धीरे कुछ बातें भी हो रहीं थीं जो दूरी होने के कारण हमें सुनाई नहीं दे रही थीं। चीनू दीदी ने जब हल्का गुलाबी रंग लेकर उँगलियों से शोएब के होंठों पर लगाया तो हम सब के सब मानो आसमान पर पहुँच गये। हमारे मन में शोएब के लिये कोई जलन, ईर्ष्या आदि नहीं थी। होती भी क्यों, असल में तो शोएब के रूप में हम सब के ही होंठों पर गुलाबी रंग लग रहा था। चीनू दीदी ने पीली साड़ी की धोती शोएब को पहनाई। उसकी शर्ट उतार कर रख दी और पावडर में नील मिला कर हलका नीला रंग तैयार कर शोएब के खुले बदन पर लगाने लगीं। फिर वही नीला पावडर उसके चेहरे पर भी लगाया। जब शोएब का पूरा शरीर नीला हो गया तो उसके गले में एक पीला दुपट्टे का अंगवस्त्र डाला, केसरिया कमरबंद कमर पर बाँधा और सर पर चमकीली पन्नियों का मुकुट रख दिया। हम हर साल झाँकियों में तैयार होते थे, लेकिन चीनू दीदी ने जो शोएब को तैयार किया था वह कमाल था। शोएब सचमुच का ही कृष्ण लग रहा था।
उस दिन झाँकी का वह समय कैसे कटा हम ही जानते हैं। शोएब तो पुराने टायरों से बनाये गये कालिया नाग के फ़न पर खड़ा हो गया और इधर हम सारे गोप ग्वाले उत्सुक थे ये जानने को कि आख़िर बात क्या हुई और क्या-क्या हुआ। मगर उसके लिये अगले दिन तक का इंतज़ार करना था क्योंकि झाँकी रात के नौ बजे ख़त्म होती थी। उसके बाद ग्रीन रूम में हमारे मेकअप उतारने का काम एक बार फिर चीनू दीदी ने किया। मेकअप और साज सज्जा करने तथा उतारने का काम दोनों ही बड़ी एहतियात से करना होता था। महँगी-महँगी मम्मियों की साड़ियाँ जिनकी धोती हमारी झाँकी के मुख्य पात्र पहनते थे उनको तथा दूसरी सामग्री को नुक़सान न पहुँचे इसलिये इस काम के लिये चीनू दीदी को ही कहा गया था। बाक़ी के हम सब ने तो अपने-अपने सामान ख़ुद ही उतार लिये लेकिन शोएब को एक बार फिर से चीनू दीदी ने ही अनफोल्ड किया। उसकी धोती उतारी, अंगवस्त्र हटाया और कॉटन से पूरा शरीर साफ़ किया। खाली अंडरवियर पर खड़ा शोएब चुपचाप सब करवाता रहा। पूरी प्रक्रिया में घंटा आधा घंटा लगा और उसके बाद हम सब अपने-अपने घर चले गये।
अगले दिन जो पता चला उससे हम सबने शोएब को गोद में उठा लिया। शोएब के अनुसार उसने चीनू दीदी जब उसकी धोती बाँध रहीं थीं उस समय। हम सबके मुँह पहले तो हैरत से खुले रह गये 'हें...? क्या सचमुच?'
'हाँ सचमुच पहली बार तो मुझे भी विश्वास नहीं हुआ, लेकिन जब धोती लपेटते समय, उसकी काँच बाँधते समय चीनू दीदी ने एक दो बार फिर से... तो मुझे लगा कि ये तो जान बूझ कर-कर रही हैं।' शोएब ने उत्तर दिया।
'फिर तूने क्या किया?' मनीष उत्कंठित था।
'पहले दिन ही सब कुछ कर लूँ? हें? सब स्कीम की ऐसी तैसी करवा दे तू ...? अभी नौ दिन हैं, नौ दिन में तो।' शोएब ने कुछ झल्लाते हुए उत्तर दिया था।
'तुझे कुछ...?' मोहन ने पूछा।
'हाँ हुआ और जब हुआ तो पहले तो मुझे भी डेल (शर्म भरी खिसियाहट) आई, मगर मैं क्या करता, जब सामने वाले को कोई दिक्कत नहीं थी तो मैं भी क्यों सोचूँ।' शोएब ने उत्तर दिया।
'हाँ बेटा, ख़ूब रूई से सफ़ाई करवा रहा था।' मनीष ने धौल जमाते हुए कहा और सारी मंडली पहले दिन की सफलता में डूबी खिलखिला उठी।
पहले दिन की सफलता के चलते दूसरे एस अक्षर आज की झाँकी का प्रमुख रोल करने के लिये अपनी दावेदारी रखने लगे। लेकिन तय ये किया गया कि अब आगे की सारी लड़ाई शोएब को ही लड़ने दी जाये। एक से ज़्यादा सेनापति बनाने में कबाड़ा हो सकता है। फिर जब ये पहले ही तय हो चुका है कि कद्दू कटेगा तो सबमें बँटेगा, तो इस प्रकार की बातें करके मिशन चीनू दीदी को कमज़ोर करने की ज़रूरत नहीं है। हमने एस अक्षरों को दलील दी कि चूँकि शोएब ने ही हिम्मत करके शुरूआत की है इसलिये आगे हम सबको वह ही मंज़िल तक ले जायेगा।
आज बाली वध की झाँकी थी और आज शोएब को राम बनना था। वनवासी राम का बहुत ज़्यादा मेकअप तो होना नहीं था। फिर भी कल की ही तरह नील को पूरे शरीर में लगा कर शोएब को नीला तो करना ही था। आज हम सब कुछ पास खड़े हुए ताकि कुछ बातें सुन सकें। जो सुना वह कुछ ऐसा था।
'हम्मम... तुम्हारे होठों पर तो कुछ लगाने की ज़रूरत भी नहीं है, ये तो पहले से ही गुलाबी-गुलाबी हैं।' कहते हुए चीनू दीदी कुछ देर तक शोएब के होंठों पर उँगली फेरती रहीं।
'कुछ कसरत वगैरह किया करो, नहीं तो पेट बाहर आ जायेगा।' उँगलियों से शोएब के पेट पर नील वाला पावडर लगाते हुए बोलीं।
'तुम्हारे गाल कितने साफ्ट हैं, बिल्कुल किसी रबर के खिलौने की तरह लगते हैं।' चीनू दीदी की उँगलियाँ शोएब के गालों पर थीं।
वनवासी राम को सूती कपड़े की धोती पहननी थी, आज कोई चमक धमक का सवाल ही नहीं था। जब चीनू दीदी शोएब को धोती पहना रहीं थीं तब हम सबकी निगाहें उधर ही लगीं थीं। हमने देखा कि सचमुच। हम सबके मुँह आश्चर्य से खुले रह गये। हमें पीरिया की बात याद आई जो उसने शोएब से कही थी खुली बॉडी को लेकर। धोती पहनाने के बाद चीनू दीदी ने वनवासी वाली जटा जूट पहना कर और माथे पर यू आकार का तिलक लगाकर उसका मेकअप फाइनल कर दिया। उस दिन भी शोएब बहुत सुंदर लग रहा था, सचमुच के राम जैसा। चीनू दीदी ने भी यही कहा 'नज़र न लग जाए.।' और धीरे से शोएब के गाल की पप्पी ले ली। क़िला फतह।
इसी तरह करते-करते झाँकी के दो तीन दिन और बीत गये। गणेश उत्सव अब अपने चरम पर पहुँच चुका था और यहाँ से अब झाँकी स्थल पर दूसरे कार्यक्रमों का आयोजन भी शुरू होना था। दूसरे कार्यक्रमों से मतलब जो उन दिनों मनोरंजन के लिये आयोजित होते थे। इनमें रामलीला, कठपुतली का खेल और सबसे आकर्षण का केन्द्र होता था फ़िल्म का प्रदर्शन। झाँकी स्थल के सामने के मैदान के बीचों बीच एक बड़ा परदा बाँध दिया जाता था और उसी पर दिखाई जाती थी फ़िल्म। उस छोटे से क़स्बे में कोई टॉकीज़ नहीं था। बस एक फट्टा टॉकीज़ हर गर्मी में तीन महीने के लिये आता था, जिसमें फ्लाप से फ्लाप फ़िल्म भी सुपरहिट होती थी। तो फ़िल्मों को लेकर बड़ा उत्साह क़स्बे में था। फ़िल्म शो वाले दिन पूरा मैदान खचाखच भरा रहता था। एक तरफ़ मशीन रखी जाती थी। परदे के दोनों तरफ़ लोग बैठते थे, फ़िल्म तो दोनों तरफ़ से दिखती थी। झाँकी स्थल पर दो दिन पहले से एनाउंस होने लगता था फ़िल्म के बारे में। 'कल, कल, कल, जी हाँ कल देखिये आदर्श बाल मंडल गणेश उत्सव समिति द्वारा दिखाई जा रही फ़िल्म मृगया, ये पिक्चर न देखी तो हसरत रहेगी, ज़ुबाँ पर हमेशा शिकायत रहेगी, शिकायत का मौक़ा न आने दीजिये और देख डालिये मृगया, मृगया, मृगया'।
वो शायद पाँचवा दिन था जब हमारे झाँकी स्थल पर फ़िल्म 'मृगया' दिखाई गई थी। मिठुन उस समय ख़ूब चल रहा था थोड़े दिन पहले ही उसकी 'तराना' सुपरहिट हुई थी, बस यही सोच कर आदर्श बाल मंडल समिति मृगया फ़िल्म बुक कर आई थी। मिठुन का नाम था सो काफ़ी जनता आई थी उस फ़िल्म को देखने। उस दिन शोएब को शंकर जी बनाया गया था। शिव द्वारा कामदेव दहन की झाँकी बनी थी। उस दिन शोएब के पूरे शरीर में सफेद पावडर पोता था चीनू दीदी ने। पूरे शरीर में मतलब, लगभग पूरे शरीर में। पावडर का मतलब राख। शंकर जी आख़िर को पूरे शरीर में भस्म लगा कर ही तो रहते हैं। उस दिन शोएब को एक जानवरों की खाल की डिजाइन वाला अंडरवियर पहनाया गया था, क्योंकि ओरिजनल मृगछाल तो मिलनी नहीं थी। उसे बस यही पहन कर झाँकी में बैठना था। इसलिये पूरे शरीर में भस्म लगना ज़रूरी था।
उस दिन के लिये हम सबने जो योजना सुबह से बना रखी थी उस पर तुरंत अमल किया। हम सब उस दिन कुछ जल्दी-जल्दी तैयार हो गये थे, हमें वैसे भी कुछ करना तो था नहीं तैयार होने में। हम तो सब तो शिव के गण बने थे, केवल मुखौटे तो लगाने थे। जल्दी-जल्दी तैयार होकर हम सब एक-एक करके ग्रीन रूम से सटक लिये। एक बंदा कनात के पास पहरेदारी पर लग गया और बाक़ी के झाँकी में चले गये। पहरेदारी इसलिये कि कनात को हटा कर कब कौन अंदर आ गया इस बात का पता ग्रीन रूम के अंदर वालों को नहीं लगता था। जैसा बताया गया कि कमरा बहुत लम्बा था उसके एक सिरे पर ये कनात थी और दूसरे सिरे पर मेकअप होता था। कनात वाले हिस्से में अँधेरा भी रहता था, इसलिये पहरेदारी तो बहुत ज़रूरी थी। हमारी सुबह की प्लानिंग थी, चीनू दीदी और शोएब को कमरे में अकेला छोड़ना। पीरिया की बात पर हमें पूरा भरोसा था। उसीने तो कहा था कि शोएब जो लड़की तेरी बॉडी देख लेगी वह तुझ पर मर मिटेगी, तुझे ज़्यादा कुछ करने की ज़रूरत भी नहीं है और हम जानते थे कि पीरिया कभी झूठ नहीं बोलता था, ज्ञानी लोग कभी झूठ नहीं बोलते क्योंकि उनके मुँह से वे नहीं उनका ज्ञान बोलता है। तो अब ग्रीन रूम में चीनू दीदी और शोएब दोनों अकेले थे। कमरे में जलता हुआ पच्चीस वॉट का पीला धुँआला बल्ब, केवल वाइल्ड अंडरवियर पहन कर खड़ा हुआ एक लड़का और उसके सारे शरीर पर पावडर लगाती हुई एक लड़की। इधर हम सब बाहर गणेश जी के सामने हाथ जोड़-जोड़ कर मन्नत माँग रहे थे 'हे भगवान आज, बस आज...बस आज ही।' क़मर हसन जो उस दिन शंकर जी का बैल 'नंदी' बना था वह तो गणेश जी को बाक़ायदा धमका-धमका के मनौती मान रहा था। धमकाने का विशेष अधिकार उसके पास उस दिन तो वैसे भी सुरक्षित था, आख़िर को गणेश जी के पिताजी का वाहन बना था वो।
मगर कामदेव को दहन करने के लिये बनाई जा रही झांकी में भला कामदेव क्यों सपोर्ट करते। उस दिन आदर्श गणेश मंडल और हमारी टोली दोनों एक साथ नाकाम रहे। हमारे आने के कुछ ही देर बाद हमारे शंकर जी भी सनिंकल के साथ झाँकी स्थल पर आ गये। हमारे शंकर जी रुँआसे से कामदेव दहन के लिये झाँकी पर आये और रूई के कैलाश पर्वत पर बैठ गये जहाँ उनके सिर में अस्पताल की ग्लूकोज़ की बोतल चढ़ाने वाली नली फिट कर दी गई, गंगा निकालने के लिये। इधर तो उनकी आँखों से ही गंगा निकलने को अब तब कर रही थी। शंकर जी अपने आँसुओं को बरबस रोकते हुए तपस्या में बैठ गये। बाद में पता चला कि हम लोगों के बाहर निकलते ही वहाँ सनिंकल आ गये थे। श्री सनी शर्मा जो मनीष के चाचा थे, जिनके मारे हम सब बच्चों की रूह फना रहती थी। उनके घर में कुछ अंग्रेज़ी प्रेम के चलते चाचाओं को अंकल बुलाने का रिवाज़ था तो ये सनी अंकल हमारे भी सनी अंकल हो गये थे। बाद में शब्दों की संधि के कारण सनिंकल हो गये। आदर्श बाल मंडल गणेश उत्सव समिति के कार्यकर्ता। पढ़ने लिखने में इतने तेज़ कि हम सबके घर वाले हमें सनिंकल की मिसाल दिया करते थे 'सनी अंकल को देखो, कुछ सीखो उनसे।' हम सबके मन में ख़ौफ़ इसलिये रहता था उनको लेकर कि जब तब वे हमारी ख़बर भी लिया करते थे, कभी डाँट-डपट कर तो कभी मार पीट कर। अत्यंत प्रतिभावान, गुणी, विद्वान और पढ़ाकू, चश्मिश सनिंकल को हम सबके माता पिता ने लायसेंस दे रखा था, हम सबको कभी भी कहीं भी डाँटने-पीटने का लायसेंस। हममें से हर एक उनके हाथों पिट चुका था। उन्हीं सनिंकल ने अचानक आकर हमारी जमी जमाई ढैया बिगाड़ दी थी, झाँकी में देर हो रही है कहते हुए शोएब को आनन-फानन में तैयार करवा कर यहाँ ले आये थे।
उधर दूसरी असफलता मिली गणेश उत्सव को। उस दिन जो फ़िल्म दिखाई गई 'मृगया' वह हमारे क़स्बे के दर्शकों के सिर के ऊपर से निकल गई, यहाँ तक कि वे लोग अपने मिठुन को भी नहीं पहचान पाये। जब फ़िल्म ख़त्म हुई तब दर्शक विश्वास ही नहीं कर पा रहे थे कि फ़िल्म सचमुच में ही ख़तम हो गई है। दरअसल एक तो फ़िल्म छोटी थी और दूसरा क़स्बे के दर्शकों के हिसाब से अंत हुआ भी नहीं था। असल में वह कला फ़िल्म थी और कला फ़िल्म वहाँ ख़त्म होती थी जहाँ नहीं होना चहिये। दर्शक पागल हो गये, उन्होंने हंगामा कर दिया कि अधूरी फ़िल्म दिखा रहे हैं। दूसरी पेटी लगाई ही नहीं है, दूसरी पेटी छिपा ली है (उस समय फ़िल्में पेटियों में आती थीं) । एनाउंस किया गया था कि पिक्चर में मिठुन है, मगर पूरी फ़िल्म में मिठुन एक बार भी नहीं आया। अभी तो कुछ हुआ ही नहीं फ़िल्म कैसे ख़त्म हो सकती है। मगर सच यही था कि दोनों फ़िल्में कुछ हुए बिना ही ख़त्म हो गईं थीं। मृगया भी और हमारे शंकर जी की भी। जैसे तैसे दर्शकों को मना कर, हाथ जोड़ कर घर भेजा गया और इधर हम सब भी भारी क़दमों से अपने-अपने घर रवाना हुए।
गणेश उत्सव में झाँकी का अंतिम दिन था, अगले दिन गणपति विसर्जन के साथ उत्सव का समापन हो जाना था। उसके बाद हमारे और चीनू दीदी के बीच में फिर से अम्माजी को आ जाना था। उधर आदर्श बाल मंडल ने अपना दो दिन पहले के पाप को धोने के लिये इस बार 'मेरा गाँव मेरा देश' फ़िल्म का आयोजन किया था। पूरे शहर में हाथ ठेले से उसका धुँआधार प्रचार चल रहा था। भोंगे पर 'मार दिया जाय कि छोड़ दिया जाये' बजा-बजा कर हँगामा मचाया जा रहा था। सुपरहिट मूवी थी, इसलिये दर्शकों की भारी संख्या उमड़ने की पूरी संभावना थी। आदर्श बाल मंडल इस बार कोई रिस्क नहीं लेना चाहता था। पिछली गर्मी में फट्टा टॉकीज़ में डाकुओं की फ़िल्म 'खोटे सिक्के' ज़बरदस्त हिट हुई थी, सो मंडल ने भी डाकुओं की ही फ़िल्म लाने का निर्णय लिया था। इधर हम लोगों के लिये भी ये आख़िरी मौका था। हम सबकी अभी नहीं तो कभी नहीं वाली स्थिति थी। इसीलिये हमने विभिन्न स्थानों पर विभिन्न प्रकार की मनौतियाँ मान लीं थीं। पीपल वाले भेरू के ओटले पर चवन्नी की मीठी चिरोंजी, जिन बाबा के टेकरे पर चंदन वाली अगरबत्ती लगाने या फूटी बावड़ी वाली दरगाह पर बीस पैसे के बताशे चढ़ाने जैसी।
इस बार हमने प्लान को बदल दिया था। हमने झाँकी के बाद का प्लान रखा था। बाद का मतलब जब झाँकी के बाद जब रात को मेकअप उतारा जाता है उस समय का। उस समय कोई डिस्टर्ब नहीं करेगा। उस दिन गरुड़ पर बैठे विष्णु जी की सारे देवताओं द्वारा आरती करने की झाँकी बननी थी। प्लान ये था कि रूई के गरुड़ पर शोएब को बैठा छोड़कर बाक़ी के हम सब आधा घंटा पहले से ही झाँकी से उठ जाएँगे। सारे लोग तो फ़िल्म में लगे होंगे, किसका ध्यान जायेगा इस तरफ़ और विष्णु जी तो बैठे ही रहेंगे, झाँकी तो विष्णु जी की ही है। आठ बजे फ़िल्म चालू हो चुकी होगी और नौ बजे झाँकी ख़तम होने का समय होगा। आठ बजे फ़िल्म चालू हो जाने के बाद भी झाँकी अपने समय नौ बजे तक इसलिये चलती थी क्योंकि कई धार्मिक लोगों का पिक्चर से कोई लेना देना नहीं होता था, वे झाँकी ही देखने आते थे। उनको झाँकी देखने नहीं मिले तो हंगामा खड़ा कर देते थे। पिक्चर शुरू होने से पहले सामने के पूरे मैदान पर अँधेरा कर दिया जाता था, ताकि पिक्चर साफ़ दिख सके। फिर भी ये लोग अँधेरे में टटोलते टटोलते, लोगों की गालियाँ सुनते, उनको उत्तर में गालियाँ देते झाँकी तक आते, दर्शन करते और उसी प्रकार लौटते थे। कभी-कभी कोई उत्साही श्रद्धालु मशीन के ठीक सामने से भी निकल जाता था। उसको थोक में गालियाँ पड़ती थीं। झाँकी में बैठे हम लोग वहीं बैठे-बैठे पिक्चर देख लेते थे।
तो तय ये हुआ था कि हम लोग साढ़े आठ बजे ही उठ जाएँगे, उसके लिये मनीष को अपने साथ घड़ी छुपा कर रखनी होगी ताकि समय का पता रहे। आधे घंटे में जल्दी-जल्दी मेकअप-वेकअप साफ़ करके, मुकुट-वुकुट उतार कर वापस कनात के पास आकर खड़े हो जाएँगे। जब नौ बजे चीनू दीदी आएँ तो कमरे में अकेला शोएब ही उनको मिले। कनात के पास खड़े रहने से दोनों काम हो जाएँगे, पहला वहाँ से पिक्चर भी दिखती रहेगी और दूसरा पहरेदारी भी होती रहेगी। क़मर हसन का प्रस्ताव था कि पूरी योजना के चलने तक हम आपस में कोई बात नहीं करेंगे, सब कुछ इशारों में ही होगा। उसका मानना था कि भले ही फ़िल्म चल रही हो मगर फिर भी एहतियात ज़रूरी है। योजना के तहत शोएब को किसी भी प्रकार से, तरीके से, बहाने से, चीनू दीदी के आ जाने के बाद पीछे के दरवाज़े की कुण्डी अंदर से लगा देनी होगी, ताकि उधर से फिर कोई न आ सके। कुण्डी लगा देने के लिये शोएब को चार पाँच योजनाएँ दी गईं थीं, उनमें से उसको अपने विवेक से किसी एक पर अमल करना था। कुण्डी लगा देने के बाद शोएब को अकेले ही हिम्मत के साथ योजना का पहला चरण पूरा करना था। पहला चरण पूरा करते ही उसको तुरंत कनात के पास खड़े हम लोगों को आकर बताना होगा, ताकि हम सब योजना का दूसरा चरण अंदर जाकर पूरा कर सकें और हमारी जगह शोएब वहाँ पहरेदारी कर सके।
इस बार हमने बहुत ही फुलप्रूफ प्लान तैयार किया था। प्लान जिसमें कहीं ज़रा भी असफलता की गुंजाइश नहीं थी। धर्मेन्द्र और विनोद खन्ना का जादू चल रहा होगा और इधर हम। सब मेरा गाँव मेरा देश देखने में तल्लीन होंगे और इधर हम। पिक्चर इतनी धाँसू है कि पूरी गणेश उत्सव समिति के वालेन्टियर उधर व्यवस्थाओं में लगे होंगे और इधर हम। आख़िरी दिन होने के कारण हमारे घरवाले भी निश्चिंत होंगे कि आज तो रात भर हमें झाँकी स्थल पर ही रहना होगा और इधर हम। चीनू दीदी के घर के ठीक सामने फ़िल्म का परदा लगना है सो उनके घर तो उनके परिचितों की भीड़ भाड़ रहेगी, अम्माजी को कहाँ पता चलेगा कि चीनू दीदी कितने देर से उधर गई हैं और इधर हम। 'मेरा गाँव मेरा देश' में डाकू, घोड़ों पर तबड़क-तबड़क दौड़ते हुए ढिचक्याऊँ-ढिचक्याऊँ गोलियाँ चला रहे होंगे और इधर हम।
सब कुछ हमारी योजना के अनुसार होता जा रहा था। चाचा लोग हमें आकर निर्देश दे गये थे कि हम लोग समय पर झाँकी से उठ जाएँ, उनकी प्रतीक्षा न करें, क्योंकि वे लोग पिक्चर देखने आई भीड़ को सँभालने में व्यस्त रहेंगे। भीड़ सचमुच ज़बरदस्त आई थी। अस्पताल का सामने का पूरा मैदान फुल हो गया था। अस्पताल के घरों की छतों पर भी लोग भरे थे। जिस तरफ़ देखिये लोग ही लोग थे। माइक से चाचा लोग शांति व्यवस्था बनाये रखने की बार-बार अपील कर रहे थे। इतनी भीड़ आज तक किसी पिक्चर में नहीं उमड़ी थी। आस पास के गाँवों से भी बेलगाड़ियों में भर-भर के लोग और लुगाइयाँ आईं थीं। थप के थप, पर्रे के पर्रे, लोगों के चले आ रहे थे और अस्पताल के उस मैदान में समाते जा रहे थे। ठीक आठ बजे झाँकी में जल रही बिजली की सारी झालरें, ट्यूब लाइटें, बल्ब और सारा डेकोरेशन बंद कर दिया गया। बस गणेश जी के सामने जल रहे एक दीपक के अलावा सब चीजें बुझा दी गईं थीं। हमारी झाँकी समेत पूरा मैदान अँधेरे में डूब गया। झाँकी में बस दो ही चीजें दिख रही थीं गणेश जी की मूर्ती और उनके पास ही रूई के गरुड़ पर बैठा शोएब। ये दोनों भी दीपक के हल्के उजाले के कारण थोड़े बहुत दिख पा रहे थे। बाक़ी के हम सब देवतागण घुप्प अँधेरे में डूब चुके थे।
मशीन वाले ने पहले एक छोटी-सी फ़िल्म दिखाई जो भारत पाकिस्तान के युद्ध की थी। इन छोटी फ़िल्मों को पिक्चर से पहले माहौल बनाने के लिये दिखाया जाता था। हम लोग इन फ़िल्मों के बारे में कहते थे कि मशीन को साफ़ करने के लिये ये फ़िल्में दिखाई जाती हैं। दस मिनिट की फ़िल्म के बाद परदे पर कुछ देर अँधेरा रहा और उसके बाद फ़िल्म सेंसर बोर्ड का प्रमाण पत्र आ गया जिस पर लिखा था 'मेरा गाँव मेरा देश, हिन्दी, रंगीन, 16 रील'। उपस्थित भारी जन समुदाय ने परम्परा अनुसार ज़ोरदार तालियाँ बजा कर सेंसर के प्रमाण पत्र का स्वागत किया। दरअसल उस समय यदि कोई सुपरहिट फ़िल्म दिखाने की घोषणा किसी भी समिति द्वारा की जाती थी तो जब तक सेंसर बोर्ड के प्रमाण पत्र पर नाम न पढ़ लें तब तक किसी को विश्वास नहीं होता था कि वही फ़िल्म दिखाई जायेगी। ऐसा इसलिये क्योंकि अक्सर होता ये था कि प्रचार प्रसार 'कच्चे धागे' का होता था और असल में 'भाभी की चूड़ियाँ' दिखा दी जाती थी। क़स्बे के दर्शकों को रोने धाने वाली पारिवारिक, सामाजिक फ़िल्में बिल्कुल पसंद नहीं आती थीं, उनको तो ढिशुम-ढिशुम चाहिए होती थी बस। इसी कारण लोग साँस रोक कर सेंसर बोर्ड के प्रमाण पत्र की प्रतीक्षा करते थे। तो लाल परदे पर महात्मा गाँधी का वाक्य लिखा हुआ आया, हिंसा और कायरता में से हिंसा को चुनने को लेकर और उसके तुरंत बाद 'ढेणटेणें ऽऽऽऽ ढेण-ढेण ढेण' की उसी पापुलर आवाज़ के साथ फ़िल्म शुरू हो गई। पहले ही सीन में धर्मेंद्र को दौड़ते देख मैदान तालियों और सीटियों से गूँज उठा। 'मेरा गाँव मेरा देश' शुरू हो चुकी थी।
सुपरहिट फ़िल्म होने के बाद भी हम सबका उस फ़िल्म में कोई मन नहीं लग रहा था। हम सब का मन तो दौड़ती हुई घड़ी की सुइयों पर ही अटका था। हम सबको ठीक वैसा ही लग रहा था जैसा परीक्षा देने जाने से ठीक पहले लगता था। गरुड़ पर बैठे विष्णु जी भी बार-बार हमसे इशारे में पूछ रहे थे समय के बारे में। इधर सारे देवता व्यग्र थे और उधर विष्णु जी। परदे पर धर्मेंद्र और आशा पारेख की नोंक झोंक का आनंद मैदान में बैठे लोग भरपूर ले रहे थे। एक गाना भी हो चुका था 'सोना लइ जा रे, चाँदी लइ जा रे'। गाना पहले से ही लोकप्रिय होने के कारण ख़ूब सीटियाँ बजने के साथ-साथ दर्शकों द्वारा पंजी और दस्सी (पाँच और दस पैसे के सिक्के) भी उछाले गये थे। पूरा का पूरा माहौल फ़िल्ममय हो चुका था। हमारे विष्णु जी उत्कंठित अवस्था में गरुड़ पर बैठे मच्छर मार रहे थे। आज उनको देखने भी कोई नहीं आ रहा था। आता भी कहाँ से पूरे रास्ते तो जाम पड़े थे। हर तरफ़ तो लोग बैठे थे। हम चाहते तो कभी भी झाँकी से सटक सकते थे, मगर हमें तो अपनी योजना के ही हिसाब से चलना था। साढ़े आठ, मतलब साढ़े आठ। उस समय के डाकुओं की यूनीफार्म काले कपड़े पहने, माथे पर काला तिलक लगाये, कान में सोने की मुरकी डाले स्टाइलिश फ़िल्मी डाकू विनोद खन्ना की इण्ट्री भी हा चुकी थी, मगर हमारी इण्ट्री होने में अभी भी कुछ समय शेष था। 'पुलिस का मुखबिर बन कर चंबल के बेटों से गद्दारी करता है हरामज़ादे' टाइप के धाँसू डॉयलाग धड़ा-धड़ बोले जा रहे थे, जिन पर तड़ा-तड़ तालियाँ पीटी जा रहीं थीं। घड़ी की सुइयाँ सरकती जा रहीं थीं और समय धीरे-धीरे पास आता जा रहा था।
और वह समय भी आ गया जिसका हम सब इन्तज़ार कर रहे थे। हमारा झाँकी छोड़ कर ग्रीन रूम में जाने का समय। हमने आपस में सलाह की और एक बार चारों तरफ़ देखा। हमारी तरफ़ किसी का भी ध्यान नहीं था। सब उधर ही व्यस्त थे जहाँ एक कटे हुए हाथ का आदमी धर्मेंद्र को बंदूक चलाना सिखा रहा था। फ़िल्म अपने पूरे शबाब पर थी। हमने विष्णु जी को इशारा कर दिया कि अब हम लोगों के अंदर जाने का समय हो गया है। विष्णु जी ने वहीं से इशारे से हमें स्वीकृति प्रदान कर दी। इशारों में तय होते ही हम सारे देवतागण अपनी-अपनी धोतियाँ और मुकुट संभाल कर एक-एक करके कनात के पास एकत्र होने लगे। जब सब वहाँ आ गये तो हमने एक बार फिर देखा कि हमारे झाँकी से हटने पर किसी चाचा लोग की नज़र तो नहीं गई है। मगर नज़र जाती कैसे, इधर तो घुप्प अँधेरा था। फिर भी हम योजना के अनुसार ही चल रहे थे। कनात के पास इतना अँधेरा था कि हाथ को हाथ न सूझे। कनात को हटा कर हम अंदर पहुँचे जहाँ अस्पताल का हरे परदे वाला ग्रीन रूम का दरवाज़ा था।
उस हरे परदे को हटा कर जैसे ही देवतागण चुपचाप ग्रीन रूम के अंदर गये तो वहाँ जा कर सारे देवता एकदम से पत्थर की मूर्ती हो गये। उस लम्बे से गलियारेनुमा ग्रीन रूम के एक सिरे पर हम सब खड़े थे और दूर के दूसरे सिरे पर। हम जिस जगह खड़े थे वह जगह भी घुप्प अँधेरे में डूबी हुई थी क्योंकि कमरे में जलते रहने वाला पच्चीस वॉट का बल्ब बंद पड़ा था। मगर कमरे के उस दूर के दूसरे सिरे में हल्की-हल्की रौशनी थी। रौशनी जो अस्पताल के पिछवाड़े वाले लैम्प पोस्ट की थी और जो खिड़की के धूल खाए काँच से हल्की-हल्की छन छन के आ रही थी। रौशनी इतनी भी नहीं थी कि पूरा कमरा रौशन हो जाये, लेकिन वह दूसरा सिरा चूँकि पीछे वाली खिड़की और दरवाज़े के एकदम पास था इसलिये वहाँ बहुत हल्की-हल्की रौशनी हो रही थी। एक सिरे पर सारे देवतागण अँधेरे में पत्थर की मूर्ती बने खड़े थे और दूसरे सिरे पर।
सारे देवतागण जो चुपचाप बिना बात किये, दबे पाँव झाँकी से उठकर आने की योजना के और इस सिरे के अँधेरे के चलते कमरे के उस दूसरे सिरे को इस प्रकार जागृत अवस्था में देख पा रहे थे। क्योंकि दूसरे सिरे ने उनके आ जाने को महसूस तक नहीं किया, न देखकर, न सुनकर। दूसरा सिरा तो देवताओं के आ जाने के बाद भी अपने काम में पूर्व की ही तरह व्यस्त था। कमरे के उस दूसरे सिरे पर मरीज़ों को ले जाने वाली ट्राली पर पीरिया की पुस्तक 'असली सचित्र...' सजीव होकर बिखरी पड़ी थी। वहाँ पर पुस्तक का एक-एक चित्र साकार हो रहा था। एक चित्र बनता था तो दूसरा बिगड़ता था। ये शायद वही था जिसके बारे में पीरिया ने हमें बताया था कि नीले रंग की फ़िल्मों में उस पुस्तक वाली सारी चीज़ें असल में होती हैं। नीले रंग की फ़िल्म, जिसके बैकग्राउण्ड म्यूज़िक के रूप में मेरा गाँव मेरा देश की आवाज़ें चल रहीं थीं। कमरे के उस दूसरे सिरे पर चम्पा रानी और सेनापति अपने आवश्यक कार्य में प्राणपण से व्यस्त थे। उनको पता तक नहीं था कि राजा, निर्धारित समय से आधा घंटे पहले ही अपने दलबल के साथ शिकार से लौट आया है। राजा और उसका दल अपने कक्ष में प्रवेश कर चुका है तथा जलती आँखों के साथ ये सब कुछ देख रहा है। देख रहा है चम्पा रानी को जो राजा के साथ धोखा कर रही है। राजा का दल बल दौड़ कर सेनापति की मुण्डी काट देना चाह रहा था, मगर पत्थर हो जाने के कारण विवश था।
हम देवतागण वहाँ से भाग जाना चाह रहे थे, मगर नहीं भाग पा रहे थे। स्वर्ग से निष्कासित किये गये देवताओं की तरह हम वहीं खड़े रहने के लिये श्रापित थे। श्रापित थे अपनी ही आँखों से देखने को उस प्राप्य को जो अब हमारा अप्राप्य होकर कामदेव का प्राप्य हो गया था। हम भाग कर बुला कर लाना चाह रहे थे विष्णु जी को कि आओ और भस्म कर दो इस कामदेव को, जिसने देवताओं हवि में भाँजी मार दी है, अमानत में ख़यानत की है। भस्म कर दो जैसे शिव ने किया था। भस्म कर दो इसके साथ रति को भी। विष्णु जी, जो अभी भी बाहर गरुड़ पर उसी प्रकार बैठे थे, उनको कुछ नहीं पता था कि उनकी पीठ के पीछे जो दीवार है उसके ठीक पीछे क्या चल रहा है। कहावत की भाषा में कहें तो उनके मन के लड्डू अभी भी फूटायमान थे। वे कभी भी गरुड़ समेत ग्रीन रूम में आ जाने को बेताब थे।
देवताओं ने 'मेरा गाँव मेरा देश' का लाभ उठाने की जो योजना बनाई थी, उस योजना पर उनके आने से पहले ही अमल शुरू हो गया था। वही आधे घंटे का वक़्फ़ा जिसका उपयोग हम लोग करना चाहते थे उसका उपयोग कोई और हमारी ही आँखों के सामने कर रहा था। कोई और क्यों, हमारे ही सनिंकल उस वक़्फ़े को हमारे बदले जी रहे थे। हमारी ही वक़्फ़े को, हमारे ही ग्रीन रूम में, हमारी ही चम्पा रानी के साथ। रह-रह कर बीच-बीच में सेनापति का चश्मा चमक जाता था। सनिंकल और चीनू दीदी ने भी साढ़े आठ से नौ के बीच के उसी आधे घंटे के उपयोग का दाँव खेल लिया था। तालियों की गड़गड़ाहट के बीच बाहर 'मेरा गाँव मेरा देश' में एक और सुपर डूपर हिट गाना 'आया आया अटरिया पर कोई चोर, आया आया...' शुरू हो चुका था। चवन्नियों की बौछार हो रही थी, सब लोग अटरिया पर आये हुए चोर के आनंद में डूबे थे लेकिन देवताओं को श्राप के चलते वह गाना सुनाई ही नहीं दे रहा था बल्कि उसकी जगह सुना रहा था 'अगर तूफाँ नहीं आता किनारा मिल गया होता...'।