चिरसंगिनी / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
पदचाप सुनकर वह उठ बैठा।
उठकर लैम्प जलाया तो उसकी घिग्घी बँध गई–"क–क–कौन हो तुम? अन्दर कैसे...आ...गए?"
"नहीं पहचानते? लो, ठीक से देखो।" चारों ने उसकी तरफ अपनी–अपनी पीठ घुमाई. चारों की पीठ में छुरे घोंपे हुए थे। दिगम्बर ने छुरे पहचान लिए. ये छुरे उसी ने घोंपे थे। चारों को जीवित देखकर उसको पसीने छूटने लगे।
पहला बोला–"मैंने तुम्हारा पालन–पोषण किया था। तुम्हें उँगली पकड़कर चलना सिखाया था। तुमने मुझे पिता कहकर पुकारना शुरू कर दिया था। फिर एक दिन मचलकर तुमने मेरी पीठ पर छुरे का प्रहार किया था। मुझे मरा समझकर तुम भाग गए थे।"
दूसरा हँसा–"मैं तुझे गंदी नाली से उठाकर सभ्य लोगों के बीच ले गया। तुम्हारा सम्मान कराया। सम्मान पाना तुमने जन्मसिद्ध अधिकार समझ लिया। इसके बाद तुमने लोगों का अपमान करने की मुहिम चलाई. मैंने ऐसा करने से रोका। तुमने वही किया जो तुम पहले कर चुके थे।"
दिगम्बर का चेहरा स्याह पड़ गया।
तीसरे ने उसकी छोटी–सी गर्दन कसकर पकड़ ली। वह गिड़गिड़ाया–"मुझे छोड़ दो। मैं आपको पहचान गया हूँ। आपने बुरे दिनों में मेरी सहायता की थी। सम्मेलनों में बुलाकर मेरा सम्मान बढ़ाया था। मुझे आपकी उन्नति से ईर्ष्या होने लगी थी। मैंने बेखबर सोए हुए आपको छुरा भोंक दिया था।" तीसरे ने उसकी गर्दन छोड़ दी।
चौथे को मुस्कराते देखकर वह कुछ आश्वस्त हुआ–"लाओ, मैं यह छुरा निकाल दूँ।"
"छुरा निकाल दोगे तो तुम्हारी करतूत कैसे याद रहेगी?"
"मैंने सिर्फ़ अपने शौक की वजह से आपको छुरा मारा था। मैंने सोचा था–आप मर जाएँगे। लेकिन।"
"हम चारों पीठ में छुरा भोंके जाने पर भी नहीं मरे, यही न?" चारों एक साथ बोले।
"मुझे माफ कर दीजिए." दिगम्बर ने अपना नंगापन छुपाते हुए कहा। सिर ऊपर उठाया तो चारों जा चुके थे।
वह सहम गया।
तभी एक आबनूसी रंग की छाया उभरी। दिगम्बर ने डरकर पूछा–"तुम कौन हो?"
"डरो नहीं, मैं गैर नहीं हूँ। मैं तुम्हारी चिरसंगिनी कुण्ठा हूँ। हमेशा तुम्हारे साथ रही हूँ।"
"लेकिन तुम्हारा रंग काला कैसे हो गया?"
"लगता है तुम भूल गए. मैं एक बार तुम्हारे घर के सामने जल रहे अलाव में गिर पड़ी थी। उस समय मेरा रंग कुछ काला पड़ गया था।"
"किन्तु इतना काला रंग!"
"तुम्हारे काले दिल में रहते–रहते मेरा रंग एकदम आबनूसी काला हो गया।"
दिगम्बर ने आगे बढ़कर कुण्ठा को अपने गले से लगा लिया। अब उसके चेहरे पर खुशी की एक लहर–सी दौड़ गई.