चींटियाँ / प्रभात चतुर्वेदी

Gadya Kosh से
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चींटियों को किसी की मौत का पता कैसे लग जाता है। वह अपनी मां के निर्जीव शरीर के सामने बैठा यही सोच रहा है।

मां का देहान्त अभी थोडी देर पहले ही हुआ था। कई दिन से वे बेहोशी की हालत में थीं। उन्हे नाक में लगाई गई नली के जरिये ही द्रव खाद्य पदार्थ दिए जा रहे थे। आज सुबह भी उसने नली के द्वारा उन्हें चाय दी थी। उस समय उनका चेहरा एकदम शान्त और बच्चों की तरह कोमल लग रहा था। चाय पिलाने के बाद उसने उनका मुंह तौलिये से पौछा था।

बेहोश बीमार को ज्यादा तीमारदारी की जरुरत नहीं होती, इसलिये वह भी अपने नित्य कर्म में लग गया था।

थोडी देर बाद एक बुजुर्ग उसकी मां को देखने आ गए थे। उसने आग्रह कर उन बुजुर्ग को मां की खाट के सामने कुर्सी पर बिठा दिया था और खुद उनके पास फर्श पर ही बैठ कर बात करने लगा था। दोनों चाय पीते हुए मां की बीमारी के बारे में ही चर्चा कर रहे थे। मां का चेहरा उसी तरह शान्त लग रहा था। चाय पीकर वह अपने कप रखने के लिये उठा। कप रख कर जब वह वापस लौटा तब अचानक उसकी नजर मां के तकिये पर गई जहां उसे बहुत सी चींटियां दिखाई दीं। वह दौड कर मां की खाट के पास पंहुचा तकिये पर चींटियों की पंक्ति देख कर उसे आघात सा लगा। उसने तुरन्त तकिया उठा कर जमीन पर फैंक दिया। मां की नाक पर लगी नली के पास तक चींटियां पहुंच गई थीं। उसने एक हाथ से सहारा देकर उन्हें उठा लिया और दूसरे हाथ से उनका चेहरा और शरीर झाडने की कोशिश करने लगा पर अंदर ही अंदर उसका मन किसी अनहोनी की आशंका से कांप उठा। उसी समय उसकी नजर सामने बैठे बुजुर्ग के चेहरे पर पडी जो अचानक रक्तहीन सफेद हो गया था और वे सहमे से उसकी तरफ देख रहे थे।

उसे लगा कि उसकी आशंका शायद सच हो गई है। वह मां को पुनः बिस्तर पर लिटा पडौस में रहने वाले डाक्टर साहब को बुलाने दौड पडा था। वह कुछ बोल नहीं पाया पर डाक्टर साहब उसका चेहरा देख कर ही समझ गए और तुरन्त उसके साथ आ गए थे। आते ही आंखे नब्ज आदि देख कर उन्होंने कहा था कि भाभीजी अब नहीं रही। वह बुक्का फाड कर रो पडा था। उसकी आवाज सुन कर आस-पास के घरों से रिश्तेदार और पडौसी घर में जमा होने लगे थे। पडौस के घर से भाई और भाभी आ गए थे। घर में प्रवेश करते ही भाभी ने नाटकीय ढंग से जोर जोर से रोना शुरु कर दिया था। उन सबके आते ही कोहराम सा मच गया था जिसे देख वह अचकचा कर चुप होकर एक तरफ बैठ गया था।

लोगों को शोक का अभिनय करता सा देख उसके मन में एक जुगुप्सा सी पैदा हुई। पिछले दिनों में इन्हीं लोगों के व्यवहार के दृश्य उसकी आंखों के सामने घूमने लगे थे।

मां जब तक चलती फिरती थी तब यहीं लोग उनके नजदीक होने का प्रयास करते थे। पिता का देहान्त अनेक वर्षों पूर्व हो गया था। तब से मां इस घर में अकेले रह रही थी। भाभी के झगडों की वजह से भाई पहले ही अलग हो गए थे और पडौस में ही रहते थे।

वह दूसरे शहर में नौकरी कर रहा था। प्राईवेट नौकरी में छुट्टी मिलने में होने वाली कठिनाई की वजह से साल में एक दो बार ही घर आना संभव हो पाता था। उसे मां का अकेला रहना अच्छा नहीं लगता था अतः उसने अनेक बार उनसे आग्रह किया कि वे उसके साथ चल कर रहें पर वे कहती थी कि मैंने अपनी सारी उम्र इसी शहर में गुजारी है। कहीं और मेरा मन नही लगता। मेरी अर्थी इसी देहरी से उठे तो अच्छा रहे।

पिछली बार वह दिवाली पर घर आया तब जाते समय आग्रह करके उन्हें साथ ले गया था। वे बडे ही औपचारिक ढंग से उसके पास रहीं और दो तीन दिन में ही वापस लौटने की जिद करने लगी थी। वह बडी मुश्किल से उन्हे एक सप्ताह रोक पाया था।

रिश्तेदार अपने अपने ढंग से परिस्थितियों की व्याख्या कर मां को न जाने क्या क्या समझाते रहते थे और धीरे धीरे उनका व्यवहार उसकी तरफ ठंडा होने लगा था। वह चाह कर भी इस बारे में कुछ नहीं कर पा रहा था। इस बीच शायद मां ने भाभी को माफ कर दिया था और कभी कभी वो भाई के घर जाने लगी थीं।

दो महिने पहले मां नहा कर गुसलखाने से निकलते समय फिसल कर गिर पडी थी और उनके पांव की हड्डी टूट गई थी। भाई ने तुरन्त उसे फोन पर सूचित कर दिया था और वह वहां पहुंच गया था। मां के पांव में प्लास्टर चढ गया था इस लिये चलना फिरना बिलकुल बन्द हो गया था। उसकी पत्नी शुभा मां की सेवा में तन्मयता से जुट गई थी। धीरे धीरे भाई और भाभी सिर्फ औपचारिकता निभाने के लिये आने लगे थे। तीमारदारी से उन्होंने हाथ खींच लिया था। मधुमेह से पीडित मां की तबियत एक जगह लेटे लेटे बिगडने लगी थी। वह नीम बेहोशी की हालत में लेटी कुछ बडबडाती रहती थीं।

एक बार उसने भाई से कहा कि मां का सारा काम शुभा अकेले करती है उसको भी कभी आराम चाहिये तो भाई ने कह दिया कि तुम्हारी भाभी तो नहीं आ पाएगी। दिक्कत आ रही है तो कोई नौकरानी रख लो। उसने कहा कि बीमार के शरीर का काम हर कोई नहीं कर पाएगा तो भाई ने कह दिया था कि कोई नर्स रख लो। शुभा ने ही नर्स रखने का प्रबल विरोध किया।

बाद में हालत बिगडने पर मां को हस्पताल में भर्ती करना पडा। तब भी किसी ने हस्पताल में रात दिन में किसी वक्त रुकने की सहमति नहीं दी और आज इस तरह शोक जता रहे है! उसके मन में जुगुप्सा गहराने लगी।

उसके विचारों का क्रम भाभी के सामने आ कर खडे होने से टूटा। भाभी ने कहा भैया औरतें कह रही है कि मां के हाथ की सोने की चूडियां व नाक की लोंग, कर्णफूल वगैरह निकाल लेने चाहिये। वह यकायक कुछ भी नहीं कह पाया और भाभी उसके मौन का स्वीकृति मान मां की निर्जीव देह के पास चली गई। उन्होंने मां के हाथों में से चूडियों को खींचने का प्रयास किया पर नहीं निकाल पाई। कर्णफूल तो जैसे तैसे उन्होंने खींच लिये पर नाक की लोंग फंस रही थी। भाभी ने अपनी बेटी को आवाज देकर बुला लिया और फिर दोनों मिल कर कोशिश करने लगीं। वह मूक दर्शक बना देखता खडा रह गया। भाभी दौड कर कोई औजार ले आई और वे दोनों मिल कर चूंडियों को काट कर हाथ से निकालने लगीं। सारी चूडिया काट कर निकाल लेने के बाद वे फिर से पूरी तन्मयता से नाक की लोंग निकालने का प्रयास करने लगीं। पता नहीं क्यों उससे यह सहन नहीं हुआ और अचानक चिल्लाया- अब बस भी कीजिये।

वह कहना चाहता था कि मां के जीते जी कभी आप लोगों ने उनके शरीर को सेवा के मकसद से हाथ नहीं लगाया और उनके गहनों के लिये लाश की छीछालेदर करने सबसे पहले आप ही पहुंच गईं। कम से कम उनके मृत शरीर के साथ तो इज्जत से पेश आइये।

जाने क्यों उसके मुंह से एक शब्द भी नहीं निकला पर वह गुस्से से कांपने लगा। वे दोनों एकदम सहम सी गई और मां के पास से हट गईं। उसे अचानक ऐसा लगा जैसे मां के शरीर पर हजारों चींटिया चल रही है।