चीनी नहीं. . . / कुँवर दिनेश
बुज़ुर्गों से सुना है कि पेट और पड़ोस हमेशा ठीक होने चाहिए, यानी स्वस्थ होने चाहिए। चालीस के हो जाने के बाद अचानक पेट बढ़ने लगा तो चिन्ता होने लगी। पेट अपनी औक़ात में रहे, इसके उपाय बारे सोच बढ़ गई।
मित्रों से पूछा तो वे ठिठोली करते; कहते ये कवि लोग अक्सर ख़्याली पुलाव बनाते रहते हैं, इनका खाने-पीने का समय सुनिश्चित नहीं रहता, जिस कारण पेट में गैस बढ़ जाती है और पेट फूल जाता है। खाने-पीने का वक़्त तय होना चाहिए — उनकी इस सलाह को भी माना तो कोई ज़्यादा फ़र्क़ नहीं पड़ा। उम्र की तरह पेट बढ़ता ही जा रहा था।
फिर एक डॉक्टर मित्र ने बताया कि खाने-पीने में चीनी नहीं लेंगे तो पेट ठीक रहेगा। कवि का मन पहले तो यह सुनकर ही खिन्न हो गया कि मीठा छोड़ना पड़ेगा; वह तो आज तक यही मानता आया था कि ‘जैसा खाइए अन्न, वैसा उपजे मन’ — मीठा खाकर मन में मिठास रहती है — यह उसका दृढ़ विश्वास था। चाय में चीनी, हलवे में चीनी, जलेबी-बर्फ़ी-गुलाबजामुन-रसगुल्ले-शक्करपारे-बालूशाही और चमचम में चीनी। ये सभी कवि के कोमल मन को भाती मिठाइयाँ थीं। परन्तु पेट को दुरुस्त करने के लिए उसने मन मार लिया। यह सोचकर कि ये सब महज़ चटोरी जीभ के स्वाद हैं, गले से नीचे उतर जाने पर सभी एक जैसी हो जाती हैं — उसने चीनी का त्याग कर दिया।
यहाँ तक कि पड़ोसी चीनी माँगने आता तो साफ़ इन्क़ार कर देता कि अब चीनी नहीं। चीनी न मिलने से पड़ोस बिगड़ने लगा, लेकिन उसने पक्का मन बना लिया था — ‘पहले पेट पूजा, फिर काम दूजा’।
उधर उत्तरी सीमा पर भारत और चीन का विवाद फिर शुरू हो गया। देश का पड़ोस बिगड़ने लगा, युद्ध की आशंका बढ़ने लगी, तो देश में आत्मसम्मान की बयार बहने लगी। सालों से भुलाए गाँधीजी का स्वदेशी आंदोलन स्मरण किया जाने लगा। यकायक कुछ राष्ट्रवादी नारे बुलंद होने लगे — ‘चीन का बहिष्कार’, ‘चीनी का बहिष्कार’। कुछ लोगों ने गाँधीजी की तरह विदेशी वस्तुओं को जलाने की सोची। और चीन से बने बच्चों के खिलौनों को आग में डाला जाने लगा। मोबाईल फ़ोन-सेट, कैल्क्यूलेटर, कम्प्यूटर, लैपटॉप, टीवी, एल. ई. डी. इत्यादि भी चीन के बने थे, पर काफ़ी महंगे थे, इसलिए इनको तो स्वाह नहीं किया जा सकता था।
देखादेखी में कवि के मन में भी कुछ राष्ट्रवादी करने का भाव जगा, राष्ट्र के लिए कुछ त्याग करने को उद्यत हुआ। पहले तो उसने इस बात का कारण खोजा कि ये सारा चीनी सामान देश में क्यों और कैसे आ जाता है? मालूम हुआ यह सब आयात तो सरकार की इच्छा पर निर्भर करता है। अब सरकार के सरोकार को उसके सर के अन्दर का छोटा-सा दिमाग़ नहीं समझ सकता था। जब देश के करोड़ों दिमाग़ नहीं समझ पा रहे थे, तो उस अकेले का तो सर चकराने लगा था। कवि ने सोचा इस विषय में सरकार को देखने के बजाय क्यों न आत्मनिर्भर हुआ जाए। अब कवि ठहरा शब्दों का व्यवसायी। उसने ठान लिया वह उन शब्दों का ही बहिष्कार करेगा जिनमें चीन या चीनी आता है। चीनी को वह पहले ही त्याग चुका था, अब दालचीनी को भी राशन की लिस्ट से हटा दिया। चीनी मिट्टी के बर्तन भी हटा दिए। और फिर कुछ शब्द जैसे — प्राचीन, अप्राचीन, पुराचीन, अर्वाचीन, समीचीन, असमीचीन, नामचीन, नुक़्त:चीन भी अपने शब्दकोश से हटा दिए और आत्मतुष्ट हो गया।