चील के नीड़ में हम / कुसुम भट्ट

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धूप का टूकड़ा उस माथे पर चमक रहा है, वहाँ अब झुर्रियाँ पड़ चुकी होंगी। पड़नी ही चाहिये, काल का प्रवाह रूक नहीं सकता। अभी हमारे बीच दूरी है। जिस्म की भी और विचारों की भी..., पहाड़ी की ओट में डूबता सूरज अन्तिम विदा दे रहा है। नीम की पत्तियों के बीच से झरती अन्तिम किरण चमक रही उसके माथे पर । आँखें चुंधिया रही होंगी फिर भी खड़ी है वहाँ हमें पाने के लोभ के वशीभूत। हमारे पांवों ने तारकोल की पिघलती सड़क छोड़ दी है। अब मिट्टी की महक पीते गाँव के दो बारे पर ठिठके हैं बीच में लिसौड़ा का पेड़ काल दो पहियों के बीच बलपूर्वक खड़ा जैसे वर्षों पहले था। इसी के तने से फूट रहे दो रास्ते, हमें पूरब की ओर जाना है, पश्चिम में डूब चुका सूरज अब रात का आह्वान कर रहा होगा। पहाड़ी के पीछे से अंधेरे की सुगबुगाहट सुनाई दे रही है-नीचे से ही जहाँ पिघलते तारकोल की सड़क पर ऐसा एक रास्ता फूटा था ।। हमारे पांव अनायास ही बढ़ चले थे।

लिसौड़ा के पेड़ पर बैठा काला कौआ उड गया है। उस की जगह चील ने झपट कर ली! उड़ती हुई आई और मारी डैनो को झपकते टहनी पर बैठी हरी टहनी कराह उठी-झूलने लगी अधर में ... "यह वही चील होगी...? मैं तरू से पूछती हूँ। तरू माथे पर आया पसीना साड़ी के पल्लू से पोंछती है" क्या फ़र्क़ पड़ता है... वही है या दूसरी ... चील तो चील है... न...? उफ! कितनी कड़ियल चोंच है इसकी और डैने ... उतने ही घिनौने ... थूऽ...

थूकने का उपक्रम है, मुँह में थूक नहीं! सूख चुका धधकती आग से... आग जो हरे जंगल को भस्म करती दिखी थी ...

आग जो ... ठण्डी छातियों में भक्क जल उठी थी पिघलती तारकोल की सड़क पर । कंठ सूख चुका है पपिडायें होंठों पर जीभ फेरती तरू लम्बी सांस छोड़ती है " उफ! ये उकाल (चढ़ाई) कब खतम होगी?

गगरी बगल में दबाये खड़ी है उस पत्थर पर... उसकी जीवन रस से लबरेज आवाज़ गिर रही है ऊपर-"कब से बाट जोह रही हूँ... पावों में मेहंदी लगी है? जल्दी-जल्दी बढ़ाओ ... पहाड़ की बेटियाँ हो न...!"

पीतल की गगरी से पानी छलक रहा है, जिसका उसे बोध ही नहीं है!

पानी ठण्डा और ताज़ा होगा प्यास की आँख पानी पर होती है भूख की आँख् अन्न पर ...

"...तो चील की आँख-माँस पर ...तरू कहती है"

" हे! ईश्वर... इस दुनिया में सब कुछ हो पर चील न होती तो कैसा रहता ... चील के बिना रिक्त अपनी धरती में जीवन कुछ और होता... 'मानस में विचारों की उधेड़ बुन जारी है'।

वह पत्थर पर बैठ गई है उसे पता है जो राह हमारे घर को मुड़ती है हम उधर से लौट कर इधर ही आयेंगे। इस बड़े पत्थर पर जिसे सब लोग आम का ढुंगा' कहते थे, जिसमें समाया हुआ है पुश्तों का दर्द, अब सूना पड़ा है!

समय का पहिया पीछे मुड़ रहा है अपना झोला तरू को थमा मैं पहिये को पकडे ठिठकी हूँ, पत्थर मुझे सहलाने लगा है पीठ पर चिपकी आम और नीम की जुड़ी टहनियों के बीच चमक रही है पहाड़ी ...

मुझसे जुड़ी पीठ काँपने लगी है हलके... हलके... झुरियों भरे चेहरे पर दुख की छाया है, आगे का चेहरा कुहासे भरा होगा मेरा अनुमान है ...

"रात उसने सिल का बट्टा फिर उठाया ..." आवाजेें ओलों की तरह धड़-धड़ गिर रही हैं... सुबदे दादी की नाक की चोंच में गहरा ज़ख़्म है-सुंदरी की नाक कटने की ख़बर दावानल-सी फैली है... लोग पानी के बर्तन पत्थर पर रखकर घेरे है दादी सुबकती जा रही है। धारे का रास्ता कपड़ों की बाल्टी लिये जाती बहुएँ पानी के बन्ठे सिर पर रखे घूरती देवरानी जिठानी की ठिठोलियाँ "सुपनरवा कि नाम कट गई बल!" दादी बरज रही है"दूसरे की पीड़ा पर हँस लो कमबख्तों! जब ख़ुद पर बीतेगी तो याद करना... उन्हें खदेड़ कर दाढ़ी सुबदे दादी के आँसू पोंछ रही है। सुबदे दादी अंधेरे में डूब चुकी हैं आँखों का मिचमिचाता दुख बाहर गिरता है" तू ही सोच अरू की दादी, मेरी देह पर माँस भी है... बूढ़ी हड्डियाँ ... उसकी भूख अभी भी ... वैसी ही है मना किया तो ...बट्टा मार दिया नाक पर! ।ग्लानि से गढ़ रही है दादी धरती में ।

दूर पीली चट्टान वाली उस पहाड़ी पर चील का घोंसला है "भगतू चाचा आकर मेरे पास बैठ गया है" ए! ए! अरू ... ये बुढ़िया क्यों रोती है ...? " सुबदा दादी भगतू की ताई है लेकिन उसकी माँ के साथ छत्तीस का आँकड़ा है ।

" मुझे क्या पता भगतू छोरे! मुझे सुबदा दादी को बुढ़िया बोलना नाग वर गुजर रहा है, चील मंडराते अपने घोंसले के मुख पर बैठी है..., मैं चील से डरती हूँ, फिर भी देख रही हूँ... उसे ही एकटक! दादी की बातें मेरी समझ से परे हैं।

"क्या सोचने लगी अरू...?" पानी भरी गगरी का मुँह मेरी हथेली मेें..., छल-छल छलक रहा ठण्डा पानी..., मेरे भीतर मछली डबक... डबक गंदले जल में डुबकी मार रही है। रेत मुँह में भरी है... क्या पानी रीत चुका है? जाने कब वक़्त के पहिये को धकेल कर अंजुलि में पानी भरती हूँ। युगों की धूल भरे चेहरे पर छपाके मारती हूँ रेत घुल कर मुझमें ही समा रही है। वर्तमान से मुख़ातिब होते हुए भी अतीत क्यों छीन लेता है मेरा सुकून ...! पीड़ा का बोझ बढ़ता ही जा रहा है! कुहासे में लिपटा वक़्त का टुकडा जिसमें हरे पेड़ थे फूल पत्तियांे से झपनीले नीला आसमान था अनन्त! गाँव अपने वैभव में सराबोर, स्नेह के महीन तंतु जुड़े एक दूसरे से-बेरोक टोक चूल्हों तक आवाजाही, अचानक यही चील मंडराने लगी नीले आसमान मंे... जब फागुन चुपके-चुपके आकर ढूँढ पेड़ों पर कोंपले उगाने की कला में व्यस्त था।

पहाड़ियाँ धूप की धोती में लिपटी नदी का जल लेकर बसंत को अहर्य दे रही थी। ।

चील ने इसकी अछरी-सी देह पर चोंच मारी थी! गाँव वालों ने जैसे भी संभव हुआ चील की चोंच तोड़नी चाही थी... लेकिन पता चल गया था कि रूप की आछरी ने चील के घोंसले के वास्ते तिनके चुने थे..., एक दोपहर पकड़ी गई चील... और सात समुद्र पार से लाई सुनन्दा गृहणी की चुनरी चुरा कर ले आई थी इसे ओढ़ाने..., जाने कब से फागुन उग रहा था बीच। लंगडे अनाथ की सुन्दरी! खेत जोतने को दिये फ़ौज से निलंबित जवान को । फ़ौजी ने निलंबित कर दिया घर से लंगडे को-नौकरी की बिना पर प्रदेश...! अनुज था चचेरा, आज्ञा का शिरोधार्य! फेंक दी गई सुन्दरी अंधेरे में..., युगों से वर्जित प्रेम स्वीकार कौन करता...? परी-सी अनाथ युवती ऊपर से यौवन के भार लदी अंधेरे की परत चीर कर जुगनू-सी प्रकट हुई थी "मैंने कोई पाप नहीं किया गाँव वालों! पाप होता तो धिक्कारती न मेरी आत्मा ...? अपनी प्यासी इच्छा को घूंट घंूट पानी पिलाया मैंने तो मैं नहीं जाऊँगी छोड़कर गांव-घर ..." इसी तरह का कुछ उगला था इसने पंचायत के बीच-बेखौफ...! राख पड़ गई पंचों की मंूछों पर..." छिनाल औरत! बुदबुदाये थे आपस में ...

... तो घूरे पर पड़ा था लंगड़े का घर हुक्का-पानी बन्द!

पानी की अन्तिम घूंट प्यास के हवाले करते उसे धकेलना चाहती हूँ, पृथ्वी से बाहर " मेरा पीछा छोड़ दो शान्ति ताई... दो कोस तक ढो चुकी हूँ पहाड़ जैसा बोझ...! देखो न ... चील की चोंच ने लहुलुहान कर ली मेरी गर्दन... क्या करूँ... कैसे सहूँ ... इन हरियाले फूलों से सुवासित पेड़ों का विलाप ... युगों की पीड़ा वक़्त की छाती में धमक कर छाती में धंस रही है ... मैं वक़्त तो नहीं हूँ, न ... तो क्यांे ढोती रहूँ तुम्हारे हाहाकार का बोझ तुम्हारी विवशता चीख बन उतर क्यों नहीं जाती मेरी कोमल छाती से... इस चीख से एक बार ... सिर्फ़ एक बार आसमान में छेद पर पाती काश! मैं तो तरू के साथ चढ़ाई चढ़ रही थी। ज़िन्दगी की सड़क में चाहे कितनी उकाल (चढाई) क्यांे न हो चढ़ना तो पड़ता ही है न...? रपटीला हो चाहे रास्ता गिर पड़ने का कीचड़ में लथपथ खतरा... चलना तो पड़ता ही है न...? ठिठका तो नहीं जाता रास्ते में किसी मोड़ पर ...?

... तो हम चल ही रहे थे झरने की कल-कल ध्वनि को खोजते ... धूप थी जेठ की पिघला कर मटियामेंट करने को आतुर हमने सूरज को प्रणाम करते हुए प्रार्थना भी की थी कि पृथ्वी को रोशनी दिखाने वाले भानु भाष्कर! थोड़ा अपनी आग कम कर दो... यार!

अब कितना झुलसाओगेे इन हरी पहाड़ियों को ...! इसके पंछी पखेरू को? बस एक चील ही थी जिस पर किसी भी चीज का असर नहीं पड़ता! वणांग लगे झुलसे जंगल में चीड़ के ऊँचे पेड़ों में मंड़रा रही थी कमबख्त! चिडियों से खाली हुआ आग से नहाये जंगल में! ऊपर आसमान को छूती चीड़ की सख्त पत्तियांे भरी फुनगी थी तो नीचे काली राख...! जंगल के अवशेष खोजते हमारे हाथ छेंती के बीज ही लगे थे।

... तो कल-कल जल की उम्मीद में बढ़ रहे थे हमारे पांव, सामने ठण्डे मीठे पानी के झर-झर गिरते झरने को गायब देख होश ही उड़ गये! "कहाँ बिला गया ा झरना?" मन में शंशय उठा हम कहीं ग़लत रास्ते तो नहीं आ गये? तरू कह रहा थी, गोया पहँुच गये वक़्त के उस उकड़े पर... ख़ूब पानी गिरता था ऊपर से...' ऐसी पारदर्शी जल की धारा जिसके आर पार अपना होना दिखता था, पानी के बिना पहाड़ का वजूद! बूंद नज़र न आई तो पीपल के पेड़ के नीचे बैठ गये हताश!

" कौन है रे बटोही ...? धाद मार रहा था कोई ... इस बियावन में...!

... तो हमंे याद आया झरने से एक रास्ता पश्चिम को जाता है जहाँ सूरज डूबने चला था। जर्र-जर्र टूटा वह मकान जिसे हमने स्मृति की डाल से दूर ब्रह्माण्ड में उछाल दिया था, अब तो भूले से भी ख्यालों के किवाड़ पर दस्तख न थी उसकी... वह तुम्हारा राख हुए जंगल के बीच घर होना और घर के टूटते किवाड़ थामें हमें धाद मारना ...! हम तो डर ही गये थे कोई इस बियावन में एकदम अकेले रह सकता है भला! इक्कीसवीं शदी का यह अजूबा जबकि, गले-गले सुख में डूबे लोग तीव्र गति से प्रगति पर मुग्ध मस्त है, तुम कैसे रहती हो अपने गाँव से एक कोस दूर निपट अकेले-हमें तो पता था कि तिबारी भूकंप ने ध्वस्त कर दी-कई वर्ष पहले! और तुम अपने कमाऊ बेटों के पास देश चली गयी हो अब उम्र भी तो हो चुकी थी न ...? कहीं इंतकाल भी हो चुका होगा ...

... तो हम दोनों ही कांप गई थी एक पल! तुम्हारी रूह होगी जो देह छोड़कर लोभ के वशीभूत यहाँ आ गई होगी आत्माओं और भूत प्रेतों के किस्सों के साथ हम बड़े भी हुए लेकिन संशय बना ही रहा होने न होने के बीच! डरते-डरते जब तुम्हें छुुआ तो होश फाख्ता हो गये! देह जख्मांे से भरी लटे उलझी तन पर अलबत्ता कीमती धोती थी पर मैली कुचैली...! तुम शायद वर्षों से नहाई न थी! देह की दुर्गन्ध! हे भगवान! तुम शान्ति ताई चार कमाऊ पूतों की जननी! निपट अकेली! अभी हम एक दूसरे गुफ़्तगू कर रहे थे कि गोया दावानल फूट पड़ा" ए! खबरदार! दूर हट...

हम कांप कर दो क़दम पीछे हट गई-! औचक एक दूसरे का चेहरा ताकती थोड़ी देर पहले धाद़ मार कर मिलने की गुहार लगाती यह बुढ़िया पगला तो नहीं गई!

तरू हिम्मत कर आगे बढ़ी "क्या हुआ ताई... ?"

"चुप्प!" अपनी मिठ बोली से सबको वश में कर लेती थी। इस तिबारी में देश से आते पिताजी थकान उतार थे, ताई की आवाभगत देखते ही बनती थी, ताज़ा छाछ पिलाती ताई कभी मसूर की दाल भात आम की चटनी के साथ परोसती सौम्य मिठ भाषी ताई कटु कैसे हो गई-अकेले पन के कारण! अपने बेटों को याद करते पगला गई होगी ...बेचारी...!

मैं सोच ही रही थी कि हड़बडायी ताई भीतर भागी फिर एक छोटी-सी पोटली लिये बाहर आई

जा रही हूँ ...कुन्ती बेटी के गाँव, जाओ अब तुम भी यहाँ से।

हमारा सिर चकराने लगा झरने पर पर्स छोड़ आई तरू दौड़ी-दीदीऽ... चील ... वह देखऽ मेरा पर्स उठा ले गई तो चमकीला है और छोटा भी... " मैंने उस पार देखा ऊपर की पहाड़ी से नीचे को उड़ रही थी चील गोया उसकी आँख हम पर ही थी... उड़ते-उड़ते वह अचानक बीच में चीड़ के पेड़ पर बैठ गई!

मैंने ताई की बाँह पकड़ ली " कोई ... हादसा हुआ था...?

ताई ने मेरी आँखोें में देखा और किवाड़ पकडे़ देहरी मंे अड़स कर फूट-फूट कर रो पड़ी "सड़क बन रही थी उन दिनांे... मज़दूर ठेकेदार आकर ताई-ताई कहकर बतिया जाते थे कभी चा पानी भी पी लेते थे..., इधर सड़क को पक्का भी करते रहे कि ताई अब चलने में आराम रहेगा बुढापे में । उस पर तारकोल बिछा था काला लिस लिसाता तारकोल एक बार चिपक गया तो छुड़ाये न छूटे कभी ..." ताई ने अटपटे वाक्यों में जो कहा उससे यही समझ आया, तरू हाँपते हुए अपना पर्स बचा लाई थी। "

अरू! बचा लाई मैं अपना पर्स! भाग कर न जाती तो झपट लेती...! देख उसको ...आसमान में फैले है उसमें पंख ..." मैंने देखा पेड़ से उड़ी चील इस ओर ... हे प्रभु!

वह तारकोल-सी अंधेरी रात थी मैं नींद मंे थी, किवाड़ खटखटा रहा था कोई लगा सपना होगा, कौन हो सकता है आधी रात में...?

"कौन है रेऽ" मैं धाद़ मारी, कोई आवाज़ नहीं बस्स किवाड़ धकियाये जा रहा था मैंने फिर पूछा "कौन है रेऽ"

खोलो दरवाज़ा प्यास लगी है " पानी तो धारे पर भी होगा जो मज़दूर दिन भर पीते रहते थे, पार गाँव में डेरे डाले थे, पानी तो ले ही जाते थे रोज़ कनस्तरों में भरकर, मैं डर गई दरवाज़ा न खोला पर मेरे दरवाज़ा न खोलने से क्या होता दरवाज़ा खुल चुका था...,

हम साँस रोके सुन रहे थे गोया सच न हो लेशमात्र सिर्फ़ कहानी हो। ।

वे चार थे मेरे नाती की उम्र के...

मैं गिड़गिड़ाई माँ जैसी हूँ तुम्हारी...

वे हंसे "माँ जैसी हो माँ तो नहीं ...?"

मैंने कहा "बुढ़िया हूँ हड्डी का पिंजर' ..."

उन्होंने मेरी देह के कपड़े नोच डाले " कहीं तो मास होगा ...?

दो दिन हो गये कटे फटे जख्मों को लिये पड़ी रही, भूखी प्यासी अंतडिया तेजाब बन गई, "मैं ज़िंदा क्यों हूँ?" तारकोल पोते हुए तन-मन पर जीने का अधिकार कहाँ मुझे ... इस जीवन का अन्त करू तो कैसे ...? । सोच रही थी कि पार गाँव के लोग इस पहाड़ी हवा के मानिन्द दौड़ पड़े, बुढ़िया कहीं मर तो नहीं गयी? " ' हम आवाक!

तरू का भारी भरकम बैग थाम लिया है इसने ... जिससे हम कई वर्ष पहले सम्बन्ध तोड़ चुके थे, माँ के रिश्ते की भतीजी है, लेकिन सख्त आदेश था। हमें कि परछाई भी पड़ने पाये इसकी...! ग़रीबी की मार झेल रही हमारे बंजर खेतों में अन्न उगाकर जीवन यापन करती, कविता दी-हमारे आने से खिल उठी है "इतना बोझा ढोकर लाना पड़ा। ज़्यादा दिन ठहर पाओगे...? देश मंे गर्मी भी होगी न...?"

तन पर बोझ मन पर बोझ दिमाग़ पर बोझ आत्मा पर बोझ... मुझसे ऊपर चढ़ा नहीं जा रहा ...! हम तो अन्तिम अपने टूटते घर से मिलने आये हैं। अपना छूटा सामान ले जाने-अपने चूल्हे पर आग जलाने और इसकी अन्तिम रोटी का स्वाद पाने। बैग ठसाठस भरे जितने भी दिन रहो ज़रूरत की चीज पर्याप्त हो... कविता दी के लिये पुरानी साड़ियाँ लेकर आये हैं, यह अलग बात है कि एक-एक माँ की आँख चुराकर नई भी रख ही दी थी, तरू ने तो साबुन वगैरह और अटरम बटरम कई चीज रख दी थी, -लिसौड़ा के पेड़ पर भयानक छिड़बिड़ हुई, कोई जीव चिंचिया रहा है ...!

' चील का घोंसला होगा वहाँ...? तरू कहती है

"मुझे लग रहा है पूरी दुनिया ही चील का घौंसला है-इसी में रह रही हूँ। मैं सदियों से..." !

मेरी देह लड़खड़ाने लगी है... पाँव मुड़ रहे हैं। धंसने लगे हैं...धरती में...!

"उधर नहीं ... मेरे घर ... तरू..."।

"कविता दी, ... वहाँ भी ... चील हुई तो...?" मैं बुदबुदा रही हूँ। वह मेरी लड़खड़ाती देह थाम रही है हे भगवान! इसे तो तेज बुखार है...!