चील / अलका सैनी
दूर खेतों में एक जानवर की लाश पर कई चील मंडरा रहे थे। आपस में वह मांस नोचने के लिए लड़ रहे थे। सोहनलाल अपनी बालकनी में बैठे अखबार पढ़ रहे थे जब उन्होंने यह भयानक नजारा देखा। उनके रोंगटे खड़े हो गए यह दृश्य देखकर। पता नहीं कौन सा जानवर रात को खेतों में दम तोड़ गया होगा। जानवर पहचान पाना मुश्किल था। पर खेतों में गाय ही अक्सर घूमती हुई नजर आती थी। ये बेजुबान जानवर भी कितने बेबस होते हैं, अपनी तकलीफ को किसी को बता भी नहीं सकते। अभी सोहनलाल यह सब सोच ही रहे थे कि उन्हें गेट के बाहर कोई खड़ा दिखाई दिया। उनकी धुंधली आखों को साफ़ नहीं दिख रहा था और उनका चश्मा भी पुराना हो चला था पर उनके बेटे रोहित जैसा ही कोई लड़का खड़ा दिखाई दे रहा था।उन्हें लगा कि उम्र के इस पड़ाव पर जरुर यह उनकी आँखों का धोखा है। उन्होंने अपनी बेटी सुगंधा को आवाज लगाई, “बेटे, देखो तो गेट पर कोई खड़ा है क्या?"
पाँच साल हो गए थे उन्हें सुगंधा के पास आए हुए। उस दौरान रोहित ने शुरू-शुरू में दो-तीन बार फोन किया था, उसके बाद तो सुगंधा ही कभी-कभार फोन कर लेती थी खैरियत पूछने और बताने के लिए। उनकी तो रोहित से बात हुए भी काफी अरसा बीत गया था।
तभी सुगंधा दौड़ी-दौड़ी आई, “पिताजी, रोहित भैया आए हैं अपने बेटे के साथ। ड्राइंग रूम में बैठे है आप भी आ जाइए। "
बेटे की खबर सुनकर सोहनलाल की आँखें भर आई पर पता नहीं क्यों उनके कदम जड्वंत से हो गए? चाहकर भी उनमे हरकत नहीं हो रही थी। जब तक उनकी पत्नी जिन्दा थी तब तक उन्हें किसी तरह की कोई कमी का अहसास नहीं हुआ था। बिन मांगे ही सुबह की चाय से लेकर रात के खाने तक कोई कमी नहीं आती थी। जानकी उनके दिल की हर बात बिन कहे ही जान लेती थी। पूरा घर इतनी उम्र में भी उसने बखूबी संभाल रखा था। रोहित की शादी के बाद भी उनको अपनी बहू के हाथ का एक कप चाय तक नसीब नहीं हुआ था। रोहित और उसकी पत्नी दोनों एक ही आफ़िस में नौकरी करते थे। साथ-साथ सुबह निकल जाते और देर शाम ही लौटते थे। यहाँ तक कि उनके आफ़िस के टीफिन भी जानकी ही पैक करती थी। जब रोहित का बेटा बंटी पैदा हुआ तब भी उसकी माँ का फर्ज भी जानकी ने ही पूरा किया था। कभी-कभी तो दोनों पति-पत्नी जब तक लौटते तब तक बंटी अपनी दादी की गोद में सो गया होता। माँ की गोद तो बंटी को कभी नसीब ही नहीं हुई थी। जानकी ने ही उसे पाल-पोस कर बड़ा किया था। जानकी सोहनलाल के घर की धुरी की तरह थी। जानकी क्या गई सोहनलाल के होंठों की हँसी भी साथ ले गई। जानकी के मरने के बाद रोहित ने अपने बेटे बंटी को हास्टल में डाल दिया था। सुगंधा जब अपनी माँ के देहांत के बाद उनकी पुण्य-तिथि पर आई तो उससे अपने पिता की इतनी दुर्दशा देखी नहीं गई। सुगंधा बेशक रोहित से छोटी थी परन्तु उसमे जानकी के सारे गुण मौजूद थे। सुगंधा अपने पिता को अपने साथ अपने घर ले गई। रोहित ने अपने पिता को एक बार भी रोकने की कोशिश नहीं की जैसे कि कोई बोझ सर से उतर गया हो। आज फिर एक बार सोहनलाल के दिलो-दिमाग में पुरानी स्मृतियाँ तरो-ताजा हो गई थी। जानकी को याद करते-करते उनकी आँखें भर आई। इतनी देर में उनका पोता बंटी उनके सामने आकर खड़ा हो गया, उसे देखकर रोहित के बचपन की तस्वीरें उनकी आँखों के सामने घूमने लगी।
बंटी ने सोहनलाल के चरण छू कर प्रणाम किया तो पीछे-पीछे रोहित भी आ गया और कहने लगा,
“पिताजी, आप तो हम लोगों को भूल ही गए हैं। बंटी तो इतने सालों में भी आपको भूला नहीं। जब भी छुट्टियों में घर आता है आपको और माँ को बहुत याद करता है। इस बार यह आपसे मिलने की बहुत जिद्द करने लगा था। "
पोते को देखकर सोहनलाल को जानकी की ममता याद आ गई कि किस तरह वह दिन-रात उसे गोद में लिए-लिए घूमती थी।
तभी बंटी बोलने लगा, “दादा जी, मै इस बार आपको लेने आया हूँ आपको मेरे साथ चलना पड़ेगा। मेरा उस घर में आपके बिना दिल नहीं लगता। दादी की बहुत याद आती है। "
जानकी का नाम सुनकर सोहनलाल का भी पोते के प्रति प्यार उमड़ने लगा और वह चाह कर भी पोते को ना नहीं कह पाए।
वहाँ जाने पर इस बार उनकी बहू का रवैया भी काफी बदला हुआ लगा। उन्हें लगा शायद सबको अपनी भूल का अहसास हो गया है।कई दिन तक तो रोहित और उसकी पत्नी ने उनकी बहुत सेवा की। सोहनलाल यह देख-देख कर फूले नहीं समाते थे। बेटे, बहू और पोते के साथ कब दस दिन बीत गए उन्हें पता ही नहीं चला। उस घर की हर चीज उन्हें जानकी की याद दिलाती थी तो बरबस ही उनकी आँखों से आंसू बह निकलते। एक दिन जब सोहन लाल अपने पोते बंटी के साथ कैरम खेल रहे थे तो रोहित भागा-भागा आया और अपने पिता को एक चिठ्ठी दिखाते हुए कहने लगा,
“पिताजी, देखिए तो आपके नाम यह चिठ्ठी आई है जिसमे आपके दिल्ली वाले तायाजी ने अपनी सारी संपत्ति आपके नाम कर दी है। “
सोहन लाल की समझ में नहीं आया कि वह खुश हो या दुखी हो। इस उम्र में उन्हें सकून के कुछ पलों के अलावा किसी चीज की चाहत नहीं थी। रिटायरमेंट के बाद उन्हें अच्छी खासी पेंशन मिल जाती थी जो उनके लिए काफी थी। वह रोहित को कहने लगे,
“बेटे, मुझे तो किसी चीज की लालसा नहीं है अब, तुम्हे जैसा ठीक लगता है देख लो। यह इतना बड़ा मकान है यह भी तुम्हारा ही तो है "
दो दिन बाद रोहित अपने पिता से कुछ कागजात पर हस्ताक्षर करवाने आया और अगले दिन बंटी को अपने साथ हास्टल छोड़ने के वास्ते ले गया। बंटी की छुट्टियां ख़त्म हो गई थी। पीछे से उनकी बहू ने उनका बिस्तर ऊपर की मंजिल पर बने कमरे में लगा दिया यह कह कर कि उसकी सहेलियां आती है तो उन्हें उनकी उपस्थिति में असहज महसूस होता है।
सोहनलाल बेचारे कुछ ना कह पाए और चुपचाप ऊपर की मंजिल वाले कमरे में चले गए। बंटी के चले जाने के बाद उनका मन ही ना होता कि वह अपने कमरे से बाहर निकले। वह सारा दिन अपने कमरे में पड़े रहते। परन्तु रोहित के इस तरह के व्यवहार से उन्हें इतना आघात पहुंचा कि उनकी जीने की इच्छा ही ख़त्म हो गई। उन्हें सब समझ आने लगा कि यह सब दिखावा उस जायदाद को हासिल करने के लिए था। यहाँ तक कि इस काम के लिए रोहित ने अपने बेटे का सहारा लिया। दिल्ली से वापिस आने पर भी रोहित एक बार भी उनसे मिलने नहीं आया जैसे उसका मकसद पूरा हो गया था। ठीक से ना खाने-पीने के कारण वह काफी कमजोर हो गए थे। कमजोरी होने के कारण चलना-फिरना भी मुश्किल हो गया था।
एक दिन उनके बचपन का दोस्त रमाकान्त अचानक उनसे मिलने आ पहुंचा और कहने लगा, “सोहन लाल, भाभी के देहांत के बाद तुम अचानक ही यहाँ से चले गए। मै तुमसे मिलने तुम्हारे पीछे से कई बार आया पर यहाँ जब भी आया तो ताला लगा मिला। फिर काम वाली से पता चला था कि तुम सुगंधा के पास चले गए हो। आज भी उसने ही तुम्हारे आने के बारे में बताया तो मै तुरंत तुमसे मिलने आ गया। पूरे पाँच साल बाद मिल रहे हो “
यह कहते ही रमाकान्त की आँखें नम हो गई।
“रमाकांत तुम तो सब जानते हो, जब सुगंधा जानकी के मरने के बाद यहाँ आई तो मुझे जबरदस्ती अपने साथ ले गई "
“पर अब इतने बरसों बाद तुम्हारे बेटे को तुम्हारी याद कैसे आ गई? "
“दोस्त, तुम्हे तो सब पता चल ही गया होगा, कि आजकल रिश्ते-नातों से ज्यादा पैसे की अहमियत हो गई हैं। कहते है ना कि जरूरत में तो लोग गधे को भी बाप बना लेते हैं और रोहित जैसे बेटे तो जरूरत में बाप को गधा बना देते है "
“सोहनलाल मन दुखी मत करो, वरना भाभी की आत्मा को दुःख पहुंचेगा "
“बस दोस्त, अब तो उसके पास ही जाने की तैयारी है, जाने से पहले मुझ पर एक अहसान कर देना। इस चिठ्ठी में मेरी अंतिम इच्छा लिखी है मेरे मरने के बाद उसे पूरी कर देना “यह कहते हुए सोहनलाल ने एक चिठ्ठी रमाकांत को थमा दी।
दिन में एक-आध बार कामवाली सोहन लाल को थोड़ा बहुत खाने के वास्ते दे जाती। कई बार तो वह खाना ऐसे ही पड़ा रहता। उनकी भूख दिन-ब-दिन मरती जा रही थी। इस बार जब छुट्टियां पड़ने वाली थी तो सोहनलाल को यह सोचकर थोड़ा अच्छा लगा कि बंटी के आने से उनका मन कुछ लग जाया करेगा। परन्तु इन्तजार की घड़ियाँ ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी। सोहनलाल निराश हो गए क्योंकि काम वाली से उन्हें मालूम पड़ गया था कि इस बार बंटी छुट्टियों में नहीं आएगा। रोहित की शक्ल भी देखे उन्हें महीना हो गया था।
रमाकांत ने सोहनलाल की अंतिम इच्छा की चिठ्ठी शहर के सम्बंधित कार्यालय और सरकारी डिस्पेंसरी में दे दी थी।
एक दिन दोपहर के वक्त रमाकांत अपने कमरे में सुस्ता रहे थे कि कामवाली दौड़ी-दौड़ी आई और रमाकांत से हाँफते-हाँफते बोली, “बाबूजी, बाबूजी!, जरा देखिए तो आकर सोहनलाल बाबूजी कुछ बात ही नहीं कर रहे ! कल रात का खाना भी ऐसे ही पड़ा हुआ था। मुझे तो बहुत डर लग रहा है, घर पर कोई भी नहीं है।"
“रोहित को फोन करके इत्लाह दी या नहीं? "
“नहीं बाबूजी, मैंने फोन किया था तो साहिब जी ने कहा कि वो अभी बहुत व्यस्त हैं कुछ देर बाद बात करेंगे "
खैर कोई बात नहीं, तुम चलो मै सरकारी डाक्टर को फोन करके आ रहा हूँ "
रमाकांत ने जल्दी से सरकारी डाक्टर को फोन किया और सोहनलाल को देखने उसके घर पहुंचा तो सरकारी डाक्टर भी साथ ही पहुंचा गया।
डाक्टर ने सोहनलाल को चेक किया और अपना सर नीचे झुका लिया, “रमाकांत जी, इन्हें गुजरे हुए तो दस घंटे बीत चुके हैं। इनके बेटे को जल्द से इत्त्लाह कर दो "
रमाकांत ने भरी आँखों से सोहनलाल की अंतिम इच्छा वाली चिठ्ठी की एक कापी डाक्टर को दिखाई। डाक्टर ने वहीँ से ही अस्पताल फोन करके सोहन लाल की अंतिम इच्छा बताई कि मृत्युपर्यंत उनके शरीर को उनका बेटा हाथ ना लगाए को ध्यान में रखते हुए सरकारी अम्बुलेंस भेजने की अपील की।
जब तक रोहित घर पहुंचा तब तक अम्बुलेंस उनके पार्थिव शरीर को अपने साथ ले जा रही थी। जब रोहित अम्बुलेंस के पास अपने पिता को देखने पहुंचा तो डाक्टर ने चिठ्ठी रोहित के हाथ में थमा दी और रमाकांत को अन्दर बैठने का इशारा किया। रमाकांत जल्द से अम्बुलेंस में बैठ गए और अम्बुलेंस का दरवाजा बंद कर लिया।
रमाकांत को ऐसा लगा कि जैसे कोई चील तीव्र गति से उनके दोस्त के मृत शरीर की तरफ बढ रहा हो।
इतनी देर में सोहनलाल के घर के आस-पास के लोग उनके देहांत की खबर सुनकर वहाँ इकट्ठे हो गए थे और सोहनलाल की आत्मा की शान्ति के लिए प्रार्थना कर रहे थे।