चुक गया "सारा आकाश" / हरे प्रकाश उपाध्याय
श्रद्धांजलि:हरे प्रकाश उपाध्याय
29 अक्तूबर 2013
आदरणीय राजेंद्र यादव के न रहने से हमने हिंदी साहित्य के उस आवेग, असहमति और साहस को गंवा दिया है, जिसकी भरपाई शायद ही कभी संभव हो और उसके बिना हम एक भारी निरसता और ठंडेपन का अनुभव करेंगे। अभी कल ही तो दृश्यांतर में उनके उपन्यास भूत का अंश पढ़कर मैंने टिप्पणी की थी। राजेंद्र जी के साथ मुझे भी कुछ महीनों काम करने का समय मिला था। मैंने अब तक के जीवन में उन जैसा जनतांत्रिक व्यक्ति नहीं देखा। वे हम जैसे नवोदित और अपढ़-अज्ञानी लोगों से भी बराबरी के स्तर पर बात करते थे और अपनी श्रेष्ठता को बीच में कही फटकने तक नहीं देते थे।
किशन से नजरें चुराकर कवि रवींद्र स्वप्निल प्रजापति और मुझे अनेक बार उन्होंने अपनी थाली की रोटी खिलाया था। मैं जब-तब उनका हमप्याला भी बना। वे एक बार कृष्णबिहारी जी के पास अबूधावी गये थे, तो वहाँ से मेरे लिये वहाँ की एक सिगरेट का पैकेट लेकर आये थे। उन्होंने सबसे नौसिखुआ दिनों में हंस के कुछ महीनों में मुझे जो आजादी दी थी, उसे मैं भूल नहीं सकता। बाद में रोजी-रोटी और पारिवारिक जरूरतों के कारण मुझे हंस छोड़ना पड़ा था। राजेंद्र जी को जब पता चला कि हंस से अधिक मेहनताने का ऑफर एक दूसरी जगह से मुझे है, तो उन्होंने मेरी भावुकता को फटकारते हुए कहा था कि जा, तू...आगे की जिंदगी देख। तुम्हारे आगे अभी लंबी जिंदगी पड़ी है।
उन्होंने हंस के संपादकीय में अगले महीने लिखा कि हमारे सहायक संपादक हरे प्रकाश उपाध्याय अब कादंबिनी में आ रहे हैं। ऐसा ही कुछ था। मैंने उनसे पूछा कि आपने जा रहे हैं, क्यों नहीं लिखा तो बोले कि तुम जा नहीं सकते मेरे यहाँ से। बाद में जीवन की आपाधापी में उनसे मिलना कम होता गया। मैंने उनसे क्या-क्या छूट नहीं ली। अपनी अज्ञानता में उन पर तिलमिलानेवाली न जाने कैसी-कैसी टिप्पणियां की, कभी एकदम सामने तो कभी लिखकर, पर उन्होंने शायद ही कभी बुरा माना। अगर माना भी हो, तो मुझे तो कम से कम ऐसा आभास नहीं होने दिया। आज यह सब लिखते हुए मैं सचमुच रो रहा हूँ।
राजेंद्र जी, आपसे जो लोग निरंतर असहमत रहते थे और झगड़ते रहते थे- वे सब रो रहे होंगे। अब हमें जीवन और कोई राजेंद्र यादव नहीं मिलेगा। राजेंद्र यादव जैसा कोई नहीं मिलेगा। राजेंद्र जी का जीवन सचमुच खुली किताब की तरह है। दिल्ली के बड़े लेखकों में अगर सबसे ज्यादा उपलब्ध, सहज और मानवीय कोई था, तो राजेंद्र यादव। दिल्ली के मेरे दिनों की अगर मेरी कोई उपलब्धि है, तो राजेंद्र यादव से मिलना, उनसे बहसना और उनके साथ काम करना। बातें काफी हैं, पर मैं अभी नहीं लिख पाऊंगा और सभी तो कभी नहीं लिख पाऊंगा।
- मेरी राजेन्द्र यादव जी से एक ही मुलाक़ात है/थी और उस पहली व अन्तिम भेंट (संभवतः 2003) में ही उनसे मैंने अपनी नाराजगी व्यक्त कर 'हंस' के बहिष्कार की अपनी बात ज़ोर देकर कही थी । कभी कोई व्यक्तिगत मुद्दा नहीं रहा, पर विचार के स्तर पर विरोध सदा रहा। वर्ष 2009 में भारत जाने पर व रमणिका दी' के यहाँ रुके होने पर एक दिन रमणिका जी ने उन्हें अपने यहाँ आने को कहते हुए बताया कि कविता आई हुई है, आप आ जाइए तो आपकी उसकी भेंट भी जाएगी। उन्होने हामी भरी और आना तय हुआ। वे आते, उस से पूर्व ही मुझे यकायक हरियाणा की यात्रा पर निकलना पड़ा और फिर कभी दूसरी भेंट का अवसर ही नहीं आया। बहुत-सी वैचारिक असहमतियाँ और आपत्तियाँ थीं। उनके बावज़ूद यह कहना है कि संसार में किसी का भी कोई भी विचार, कोई भी विवाद, कोई भी तर्क, कोई भी मन-मुटाव , कोई भी बहस कोई भी विरोध जीवन से व मृत्यु से बड़ा नहीं होता। वे विचार, वे तर्क व असहमतियाँ, वे विमर्श सब विचार के स्तर पर अपनी जगह बने रहते हैं बने हैं, बने रहेंगे, क्योंकि वे विचार से विचार के विरोध थे, हैं, रहेंगे। कल रात जब उन्हें श्रद्धांजलि लिखी तो उस स्टेटस पर कुछ लोगों ने आपत्ति की। उनसे कहना है कि वैचारिक मतभेद, वाद-विवाद, सहमतियाँ असहमतियाँ, तर्क, झगड़े, विभेद, विरोध आदि व्यक्ति के साथ होते है, सत्य होते हैं ..... किन्तु मृत्यु के सत्य से बड़े नहीं होते ... और जब वह व्यक्ति ही नहीं रहा तो मृत्यु की घड़ी तक में सामान्य शिष्टाचार की अपेक्षा तर्क-वितर्क करना मेरी समझ में न आ सकने वाली बात है। इतना तो पता होना चाहिए कि ये सब जिसके साथ थे, वह व्यक्ति ही नहीं रहा। आत्मा के साथ हिसाब सुलटाएँगे क्या आप? सारी जिन्दगी पडी है उन चीजों की चर्चा के लिए। जब वह विषय उठेगा तो उस पर बात होगी, फिलहाल मृत्यु के घड़ी में आप हिसाब का पिटारा खोलना चाहते हैं? मृत्यु का कुछ तो मान रखिए। 'मत'-भेद का अर्थ समझिए। विनम्र श्रद्धांजलि !!राजेन्द्र यादव जी !
- डा0 कविता वाचक्नवी
- स्तब्ध हूँ, अभी कुछ दिनों पहले ही बात हुई थी, कहने लगे ' उपन्यास लिख रहे हो, मतलब सुधरोगे नहीं' , उनसे साधिकार असहमति कि गुंजायश बनी रही, उनकी बेबाकी और सहजता हमेशा याद रहेगी। आज बहुत कुछ खो गया।
- तरूण भटनागर
- अभी जुलाई के तीसरे सप्ताह में हंस की एक युवा लेखिका ज्योति कुमारी द्वारा राजेन्द्र जी को आरोपित करते हुये कुछ लेख व्लाग जगत में आये थे जिनपर राजेन्द्र जी ने चुप्पी साध ली थी । प्रकरण थाने पुलिस तक गया और अंततः राजेन्द्र जी की रहस्यमय चुप्पी के बाद कुछ ठंडा पडा था। ऐसे ही किसी व्लाग पर इस संस्मरण में मैने टिप्पणी के रूप मे राजेन्द्र जी को साहित्य का आशाराम बापू लिख दिया था । आज अचानक हुयी इस घटना ने मेरे अंदर अपराधबोध सा भर दिया है कि आखिर विधाता ने हिन्दी साहित्य जगत की इस धरोहर को उसके अंतिम दिनों में ऐसा अपयश क्यों बक्शा? और मै भी उनकें अंतिम दिनों में खिल्ली उठाने में पीछे नहीं रहा। ईश्वर उनकी आत्मा को शान्ति प्रदान करे!फिलहाल एक अपराध बोध से ग्रस्त हूं
- राजेंद्र यादव ने राम को युद्धलिप्साग्रस्त साम्राज्यवादी तथा हनुमान को पहला आतंकवादी तक बताया। लेकिन कभी ओसामा बिन लादेन या किसी जेहादी को आतंकवादी नहीं कहा . इनकी तुलना एफ एम हुसैन से करनी चाहिए जो अभियक्ति के नाम पर भारत माता की और देवी सरस्वती की नंगी तस्वीर बना देते हैं .राजेन्द्र यादव कहता है “ब्राह्मणों को ज्ञान-पिशाच कहना चाहिए” . इसके अनुसार औरंगजेब के दरबार में शिवाजी पहला आतंकवादी था और अंग्रेजों के दराबर में भगत सिंह पहला आतंकवादी था. राजेंद्र यादव को न तो संस्कृति का ज्ञान था और न ही इतिहास का . फिर भी वो हंस का संपादक बना और लोग उसे हिंदी का मठाधीश मानने लगे . क्या किसी साहित्यिक पत्रिका का मुसलिम विशेषांक होता है ? इसने हंस जैसी विशुद्ध साहित्यिक पत्रिका का "मुसलिम विशेषांक" निकाला और उसकी संपादकीय असगर वजाहत से लिखवाया . इस तरह इनके प्रयासों से जेहादी मानसिकता को बढ़ावा मिला और हिन्दू समाज को जिल्लत . राजेन्द्र यादव रुपी हिन्दी के विवादित ढांचे के निधन पर मेरी श्रद्धांजली . हिन्दू धर्म को गाली देने वाले तथाकथित साहित्यकार राजेंद्र यादव के अंतिम संस्कार लोधी रोड स्थित श्मशान घाट में हुआ। हिंदू परंपरा और कर्मकांड के विरोध में जीवन भर कलम चलाने वाले राजेंद्र जी का अंतिम संस्कार उनके परिवारवालों ने 'गायत्री मंत्र' और 'राम नाम सत्य है' के बीच वैदिक रीति-नीति से संपन्न कराया। चंदन की लकड़ी और घी का इस्तेमाल कर उनके पार्थिव शरीर को अग्नि के हवाले किया गया। ईश्वर इस पाखंडी की आत्मा को शान्ति प्रदान करे .
- डॉ अशोक कुमार तिवारी