चुनमुन की होली / ज्योत्स्ना शर्मा
आज सभी तैयारियों में व्यस्त थे। गुजरात आने के बाद लगभग 5-6 साल के बाद इस साल होली पर अपने गाँव उत्तर प्रदेश जाने की तैयारी थी। चुनमुन का मन उत्साह से भरा था। बार-बार माँ से पूछता क्या-क्या सामन रख लूँ? और माँ मुस्कुरा देतीं। जैसे-तैसे जाने का दिन आया और शाम की ट्रेन से दिल्ली की ओर प्रस्थान किया। सारे रास्ते चुनमुन को चैन नहीं। ढेर बातें माँ से पूछता, कैसे होंगें सब वहाँ? आपने रंग रखे कि नहीं? आप होली कैसे खेलते थे वहाँ? क्या-क्या बनाओगी? वगैरह। अब माँ ने पूछा, "अच्छा चुनमुन बताओ होली से क्या समझते हो? क्यों मनाई जाती है होली?" चुनमुन चकित यह माँ क्या पूछ रहीं हैं होली मतलब खूब रंगों से हुडदंग मचाना, अच्छे-अच्छे पकवान खाना और हाँ पहले से लकडियाँ इकट्ठा कर बनाई गई होली को प्रज्वलित कर उसकी पूजा करना। यह फाल्गुन महीने की पूर्णिमा को मनाई जाती है क्योंकि इसी दिन भक्त प्रह्लाद की बुआ होलिका का दहन हुआ था। सब तो पता है उसे।
माँ मुस्कुराईं और बोली बैठो! अभी दिल्ली दूर है, मैं तुम्हें कुछ और बातें बताती हूँ होली के विषय में। भक्त प्रह्लाद और होलिका के साथ-साथ और भी बहुत-सी बातें होली के साथ जुड़ी हैं। माँ ने बताया कि हमारे पूर्वजों ने विविध योग, तप, अध्ययन–मनन से प्राप्त अनुभवों और ज्ञान को व्रत, उत्सव, त्यौहारों आदि के रूप में मनाने का विधान किया। तथा ऋतुओं एवं मौसम के अनुरूप हमारा आचरण, खान-पान कैसा हो यह भी बताया। समाज के लिए कुछ हितकारी घटनाओं को भी त्यौहारों के रूप में मनाए जाने की परम्परा प्रारम्भ की। ऐसा ही एक त्यौहार होली है। उन्होंने प्रह्लाद एवं होलिका के प्रसंग के साथ राक्षसी ढूंढा की कथा, पूतना-वध, महादेव द्वारा कामदेव को भस्म किए जाने की कथा को भी होली से जुड़ा बताया। प्रथम पुरुष मनु के जन्म की तिथि भी यही थी। वैदिक काल में इसी दिन से नए अन्न को यज्ञ–हवन में होम कर प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता था। जिस परम्परा को आज भी गन्ने में जौ की बालियाँ बाँध कर होली में भून कर खाने के रूप में निभाया जाता है।
माँ ने होली के अगले दिन से छह दिनों तक श्री आनंदपुर साहब में मनाये जाने वाले पर्व 'होला मोहल्ला' के बारे में भी बताया। उन्होंने मालवा की अंगारों वाली होली, बाड़मेर की पत्थर मार होली, अजमेर की कोड़ा या सान्तमार होली का भी ज़िक्र किया। राजस्थान के ही सलंबूर कस्बे के आदिवासियों की 'गेर' खेलकर मनाई होली का किस्सा भी बढ़िया लगा। युवक 'गेर' नृत्य करते हैं और युवतियाँ फाग गाती हैं। इस अवसर पर वे अपना जीवन साथी भी चुनते हैं। मध्यप्रदेश के भीलों की 'भगौरिया' होली और शान्तिनिकेतन के 'दोलोत्सव' ने चुनमुन को चकित कर दिया। माँ ने बताया कि बंगाल में फागुन की पूर्णिमा पर श्री कृष्ण की प्रतिमा को सोलह खम्भों वाले मंडप के नीचे स्नान करवाकर सात बार झुलाया जाता है। मणिपुर में होली का पर्व 'याओसांग' के नाम से मनाया जाता है।
कथाएँ सुनते–सुनते उसे नींद आ गई. सुबह आँख खुली तो मथुरा आ गया था। कुछ समय बाद दिल्ली ...वहाँ से बस पकड़कर गाँव पहुँच गए. खुशी-खुशी चुनमुन ने माँ-पापा और दीदी के साथ सभी बड़ों के चरण छूकर अभिवादन किया तो सबने उसे प्यार से गले लगा लिया। अब तो उमंग की सीमा न थी। वह तो तुरंत सब से मिलने बाहर निकल गया। माँ और दीदी चाची जी, दादी जी, ताई जी से बतियाने में व्यस्त हो गईं। शाम होते-होते घर से खूब बढ़िया–बढ़िया पकवानों की खुशबू ने फिर घर में बुला लिया। होलिका–दहन का समय रात्रि 10.15 पर था। चाचा जी के साथ गन्नों में जौ की बालियाँ बाँधी गईं। दीदी और सभी बच्चो के साथ उड़दी, गुंझिया वगैरह लेकर चौक में बनी होली पर चढ़ाने के बाद सभी ने खाना खाया। सभी पकवानों में गुंझिया के साथ-साथ कांजी–बड़े बहुत स्वादिष्ट थे। कब समय बीता पता ही न चला। फिर सब सामान लेकर होली वाले स्थान पर पहुंचे। जोर से बजते ढोल और होली के गीतों ने समाँ बाँध दिया था। प्रज्वलित किए जाने बाद सभी ने जोर-जोर से जयकारे लगाते हुए होली के चारों ओर प्रदक्षिणा की, जौ की बालियाँ भूनीं। नारियल, प्रसाद चढ़ाकर थोड़ा रंग-गुलाल सबको लगा, गले मिल, बड़ों के पैर छूकर घर लौट आए. चुनमुन का मन उमंगों से भरा था। कल खूब होली खेलेंगे।
परन्तु सुबह उठने पर उसका उत्साह फीका पड़ गया। बच्चों को बाहर होली खेलने जाने से सख्त मना कर दिया गया था। उदास मुख देख माँ ने सब बच्चों को अपने पास बुलाया और रात में तैयार किए गए टेसू, हल्दी, मेंहदी, अबीर-गुलाल के रंग देकर आँगन में खेलने के लिए कहा। फिर तो खूब हुड़दंग मचा। सूखे रंगों और हैण्ड-पम्प से पानी खींच-खींच कर सभी सराबोर हो गए. पड़ोस वाली ताई जी, दादी जी, चाची जी और माँ सबने गोल-गोल घूम कर खूब होली के गीत गाए जो बहुत मजेदार लगे। गली में ढोल की आवाज़ सुनकर सभी छत पर चढ़ गए. मस्ती तो थी लेकिन देख कर डर भी लगा। ढोल बजाकर नाचती–गाती भीड़ में कुछ लोग कीचड़ में लथपथ थे, लड़खड़ाकर इधर-उधर गिरे जा रहे थे और आपस में गाली-गलौच, मारा-मारी कर रहे थे। यह कैसी होली थी?
तब तक भूख लगने लगी थी। दादी माँ ने तैयार उबटन से रंग छुड़ाकर नहाने के लिए कहा तो थोड़ी ना-नुकुर के बाद सभी नहा लिए और मिलकर खाना खाया। खूब आनंद आया। थका होने पर भी किसी का सोने का मन न था। सभी छत पर बिस्तर बिछा कर एक साथ गप्पें मार रहे थे। माँ ने कहा, "चुनमुन! होली का एक और मतलब है ...कि हो ली अर्थात जो भी बात होनी थी हो चुकी अब सभी पिछली कलह, वैर भाव को भुला कर परस्पर सद्भाव, प्रेम और उमंग से जिएँ"।
चुनमुन सोच रहा था कि अब वापस लौटने का समय निकट है। उदास मन वह सो गया। सुबह उसे जगाकर माँ ने कहा जल्दी करो गाड़ी पकड़नी है। मन मार कर तैयार होना पड़ा। घर और अड़ोस–पड़ोस से सभी बच्चे-बड़े उन्हें छोड़ने के लिए आए. बच्चों ने चुनमुन से वादा लिया कि वह वर्ष में कम से कम एक बार होली पर अवश्य गाँव आएगा। मोहक, प्यार भरे रंगों की यादों में डूबा चुनमुन सोच रहा था कि हानिकारक कैमिकल वाले रंगों, परस्पर लड़ाई-झगड़े और नशे जैसी कुरीतियों को त्याग कर मनाया गया होली का त्यौहार कितना मनभावन है।