चुनवा का हलाला / शमोएल अहमद

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चुनवा कालाकलूट था। लुगाई मृगनयनी थी। लम्बा कद सुडोल बाजू और जामुनी कसावट से भरपूर मुखमंडल।

गरीब का हुस्न आँखों में चुभता है। हुस्न अभिजात वर्ग के लिए है। कभी सुना कि कोई राजकुमारी कुरूप भी थी? या किसी दलित के आंगन में कभी चाँद भी उतरा हो? लेकिन चुनवा के पहलु में चाँद हंसता था और बुलबुल कूकती थी और मौलवी तासीर अली ये मंज़र गुलेल के पीछे से देखते थे। उनकी छाती में धुआं-सा उठता ...कुंजड़े कि बीवी इतनी हसीन...इतनी ...?

चुनवा फल बेचकर गुज़ारा करता था \ कोई दुकान नहीं थी। एक ठेला था जिसपर फलों को सजाए गली-गली हांक लगाता। शाम को थका मांदा घर लौटता तो बचे हुए फल लुगाई के सुपुर्द कर देता। वह अच्छे फलों को चुनकर अलग कर लेती। जो फल सड़ने के करीब होते उन्हें तराश कर चुनवा को खिलाती। चुनवा ने बकरी भी पाल रखी थी। एक मेमना भी था। बकरी को दाढ़ी थी लेकिन दूध देती थी। लुगाई चुनवा को बकरी का दूध भी पिलाती लेकिन दूध पीने में वह आनाकानी करता। वह ज़िद करती तो कटोरा उसके होठों से लगा देता कि तू भी पी। दोनों बारी-बारी एक ही कटोरे से दूध पीते।

जामा मस्जिद के बहुत पीछे नदी की तरफ़ पडती ज़मीन थी। वहाँ अमलतास के दरख़्त थे। वहाँ पर कुछ मजदूरों की झोपड़ियाँ थीं। चुनवा ने भी वहाँ अपनी मडई गाड़ रखी थी। उसकी मड़ई का घेरा बड़ा था। यहाँ धुप जैसे आठों पहर ठहर गयी थी। किसी कोने में अन्धेरा नहीं था। चुनवा का मन चंगा था और कठौती में गंगा थी। उसको किसी से शिकायत नहीं थी। उसको सभी अच्छे लगते थे। फिर भी एक कसक थी। शादी को दो साल हो गये थे और कोई ललना नहीं था कि आंगन में किलकारियाँ भरता। चुनवा फल बेचने निकलता तो लुगाई मेमने से खेलती। वह उछल कर भागता तो उसके पीछे दौड़ती। उसे पकड़ कर सीने से लिपटा लेती और दुलार करती "उथ्थन पुथ्थन बुधवा मुथ्थन ..."। उसने मेमने का नाम बुधवा रखा था। दलितों के नाम भी दलित जैसे होते है ...बुधवा...चुनवा...मुनवा...कलुवा। अभिजात वर्ग का मेरे कासिम अली दलित के यहाँ क्सुआ हो जाता और रिज़वानुल्लाह रजुआ ...!

शुरू शुरू में चुनवा मौलवी तासीर अली के घर के सामनेवाले चौक पर ठेला लगाता था। लुगाई भी साथ होती। कोई ग्राहक आता तो फल तराश कर दौने में पेश करती। देखते-देखते ग्राहकों की भीड़ जमा हो जाती। घंटे दो घंटे में सारा फल बिक जाता। लुगाई ने महसूस किया कि सबकी आँखों में पीलिया है। जमुआ तिरछी निगाहों से देखता था और खामखा भी ठेले के पास खड़ा रहता। मौलवी तासीर अली आँखों में जलन लिए उधर से गुज़रते थे।

लुगाई सबकी नज़रों से परेशान हो गयी। उसने घर से निकलना बन्द कर दिया।

एक दिन तासीर अली ने एलची के ज़रिया चुनवा को बुला भेजा। चुनवा दौड़ा-दौड़ा आया। मौलवी साहब ने एक पेटी अनार की फ़रमाइश की। चुनवा अनार की पेटी लेकर पहुँचा तो दबे स्वर में बोले "लुगाई को भेज दिया कर। मल्काइन को तेल लगा दिया करेगी। बीस रूपये रोज़ दूंगा"।

लुगाई एक दिन गयी दूसरे दिन नहीं गयी। चुनवा ने भी फिर नहीं भेजा। मल्काइन बार-बार डकार लेती थी और तासीर अली पर्दे के पीछे से झांकते रहते थे।

चुनवा अपनी ज़िन्दगी से खुश था। बीएस एक फाँस थी। ललना होता तो मड़ई में टप-टप चलता। दोनों हर जुमेरात को घूरन पीर के मज़ार पर धूपबत्ती जलाते।

"या पीर ...!"

पीर सुन नहीं रहे थे। लेकिन चुनवा कि श्रध्दा में कोई फ़र्क़ नहीं आया था। किसी ने कहा जुमे की नमाज़ में दुआ कुबूल होती है। चुनवा जुमे की नमाज़ भी पढने लगा लेकिन गोद हरी नहीं हुई।

मालूम हुआ कि देवी माँ के मंदिर से कोई खाली हाथ नहीं लौटता। खप्पर पूजा के मोके पर देवी माँ की डाली यात्रा निकाली जाती थी। मंदिर कोई चार सौ साल पुराना था जिसके निर्माण में अलरखु मिया और स्फ्फु मियाँ राजमिस्त्री का भी हाथ था। डाली यात्रा कि परम्परा गत दो सौ वर्षों से चली आ रही थी। कहते हैं कि यात्रा के दौरान आग की लिपटो से निकली सुगंध जहाँ तक जाती है वहाँ कुदरती विपदा नाजिल नहीं होती और महामारी भाग जाती है। एक ज़माने में फुलवारी शरीफ़ में महामारी फैली थी। माँ ने सपने में निर्देश दिया कि मेरी यात्रा निकालो और खप्पर पूजा करो। यात्रा निकाली गयी और तबसे खप्पर पूजा जारी है और कहीं कोई बीमारी नहीं फैली।

इसबार पुरानी जगह से कोई बीस फुट हट कर पिंडाल लगाया गया जिस में पीले रंग के कपड़े और थर्माकोल का इस्तेमाल किया गया। इस बात का ध्यान रखा गया कि पिंडाल बिजली के ऊंचे तारों से दूर रहे। पिंडाल की ऊँचाई साठ फुट और चौड़ाई पचीस फुट रही होगी। पिंडाल की सजावट देखने में बनती थी। जगह-जगह रंगीन कुमकुमों के साथ रंग-बिरंग की बिजली चरखी और रौलेक्स भी लगाये गये थे।

इसबार यात्रा में पचास हज़ार लोग शामिल हुए। सुबह से ही लोगों का आवा-गमन शुरू हो गया था। औरतें भजन गाने में लीन रहीं। जलाभिषेक के साथ पूजा-अर्चना भी होती रही। दूर दराज़ से लोग मिन्नतें लेकर माँ देवी की प्रतिमा के आगे झोली फैला कर फ़रियाद कर रहे थे। इनमें चुनवा और उसकी लुगाई भी शामिल थे। चुनवा आँखें बन्द किये हाथ जोड़े खडा था और लुगाई आंचल फैलाए विनती कर रही थी ...हे माई... ए गो ललना चाहीं ...ए गो ललना...! उसने आरती भी की। रात साढ़े सात बजे पुजारी मन्दिर के अहाते से खप्पर में आग लेकर निकले तो जय माँ काली का नारा लगाते हुए हुजूम भी शामिल हो गया। यात्रा में औरतें बच्चे और बूढ़े भी थे। यात्रा जिस सड़क और गली से गुज़रती लोग नारा लगते हुए साथ हो जाते। चुनवा और लुगाई भी साथ थे। यात्र टमटम पड़ाव और मस्जिद चौराहा से होते हुए सदर बाज़ार से गुजरी तो जमुआ की नज़र चुनवा पर पड़ गयी। जमुआ उस घड़ी बनारसी की दूकान से खैनी खरीद रहा था। डाली यात्रा पोठिया बाज़ार और ब्लाक आफिस से होते हुए मन्दिर के अहाते में लौट आई। माँ देवी की आरती के बाद प्रसाद लिए दोनों घर लौटे।

सुबह अजीब बद-रंग थी। मेमना ख़ामोश था और मड़ई से बाहर कुत्तों का शोर था। सियाह बादल घिर आए थे। हवाएँ स्थिर थीं। चुनवा का डीएम घुटने लगा। वह मड़ई से बाहर आया तो कौए का शोर बढ़ गया। चुनवा हैरत से छितिज के पुर्वी किनारों को देख रहा था जहाँ काले बादल जमा हो रहे थे। सामने अमलतास के पेड़ पर एक गिद्ध बैठा था। वह उड़ा तो पेड़ के पीछे से जमुआ नमूदार हुआ। वह लम्बे-लम्बे डेग भरता हुआ मड़ई की ओर आ रहा था। लुगाई ने उसे आते हुए देखा तो अंदर चली गयी। जमुआ के तेवर अच्छे नहीं थे। उसने आक्रमक अंदाज़ में मौलवी तासीर अली का फरमान सुनाया कि तुरंत दरबार में हाज़िर हो। चुनवा पहले खुश हुआ कि अनार की पेटी मांगी होगी। एक पेटी अनार में उसको तीन सौ का मुनाफ़ा होता था। लेकिन जमुआ के आक्रमक रवय्ये से उसे कुछ डर का एहसास हुआ। चुनवा ने पूछा कि किस लिए बुलाया है तो उसने टका-सा जवाब दिया कि जाने पर मालूम होगा। उसने दुबारा पुछा तो जमुआ ने कठोर लहजे में कहा।

"तू हिन्दू हो गया है"।

मौलवी तासीर अली गद्दी पर बैठे हुक्का गुड़गुडा रहे थे।

"तू खप्पर पुजा में शामिल था?"

चुनवा ने कुबूल किया कि वह यात्रा में शामिल था।

"तू ने देवी के नारे लगाए"।

चुनवा का जवाब था कि अल्लाह इश्वर एक ही नाम है तो देवी से भी मांग लिया अल्लाह से भी मांग लिया।

"कमबख्त...कुफ्रिया कल्मात अदा करता है?" मोलवी तासीर अली गरजे।

चुनवा मड़ई में वापिस आया तो औरतें खुसरफुसर कर रही थीं।

"छि...छि...देवी पूजा करती है"।

मौलवी तासीर अली ने गुलेल सम्भाली। अमारत-दीन का रुख किया। मुफ़्ती-दीन ने फतवा जारी किया।

" कुफ्रिया कल्मात कहने देवी के नारे लगाने और अल्लाह के साथ इश्वर की भी पूजा करने पर फल-फरोश चुनवा इस्लाम से खारिज हुआ। चुनवा काफ़िर क़रार दिया जाता है और उसकी बीवी निकाह से खारिज हुई। ऐसे शख़्स पर तजदीद-ईमान तजदीद-निकाह और तौबा-इस्तगफार लाजिम व ज़रूरी है।

जबतक तजदीद-ईमान तजदीद-निकाह और तौबा-इस्तगफार

न करे तमाम मुसलामानों के लिए उससे किसी तरह के ताल्लुकात

रखना शरीयन जायज़ नहीं। ऐसे शख़्स के फितने से ख़ुद बचें और

दूसरों को भी बचाएँ। "

चुनवा के पाँव तले ज़मीन खिसक गयी। वह शून्य में टंग गया ...अब ठेला कहाँ लगाए? लोग हिकारत से घूरते हुए गुजर जाते। वह किसी से मामलात नहीं कर सकता था। वह अब मुसलमान नहीं था। अगर मर जाता तो क़ब्र नसीब नहीं होती। कहीं जा भी नहीं सकता था। जहाँ भी जाता फतवा साथ होता।

चुनवा ने मौलवी तासीर अली के पाँव पकड़ लिए। मौलवी तासीर अली उसे लेकर अमारत-दीन आए। अमारत से एलान जारी हुआ।

" फल-फरोश चुनवा ने अमारत-दीन आकर तौबा कि है

उसने अपने गैर-शरीय बयान पर निदामत व शर्मिंदगी का इज़हार करते हुए मुफ़्ती अमारत-दीन और दुसरे उलमा के

सामने अपनी गलतियों पर तौबा व इस्तिगफार किया और ईमान की तजदीद की और कलमा शहादत पढ़ा। वह अब मुसलमान है। उसके साथ मुसलामानों जैसा रवय्या अपनाया जाए। "

चुनवा अब मुसलमान था और लुगाई ...?

लुगाई निकाह से खारिज हो चुकी थी। वह मड़ई में मेमने को लिपटाए फूट-फूट कर रो रही थी। चुनवा सर झुकाए ख़ामोश बैठा था। उसके सीने में जलन थी। आँखों में धुंआ था। चुनवा उसको अब छू नहीं सकता था। वह हराम हो चुकी थी। तजदीद निकाह के लिए उसका हलाल होना ज़रूरी था। हलाल कौन करे...?

बाहर अमलतास के पेड़ों पर गिद्ध जमा होने लगे थे। मड़ई में उमस की फ़िज़ा थी। मड़ई की दीवार पर एक पत्थर पड़ा।

"हराम औरत को लेकर अंदर बैठा है ...बाहर निकल...!"

"हरामकारी नहीं चलेगी"

"ये जना है।"

मौलवी तासीर अली ने गुलेल सम्भाली। जमुआ को इशारा किया। वह लम्बे-लम्बे डेग भरता हुआ मड़ई में घुसा।

"मौलवी साहब से हलाला करा ले ...वो औरों से बेहतर हैं।"

लुगाई के सीने से दिल-खराश चीख निकली। मड़ई में अन्धेरा छा गया। चुनवा ने चाहा हाथ बढ़ा कर लुगाई को थाम ले। लेकिन गिद्ध अंदर घुसने लगे। परों की फड़फड़ाहट के शोर में लुगाई की चीख दब गयी। अन्धेरा गहरा गया।

चुनवा कि मड़ई में फिर रौश्नी नहीं हुई। उसका दम घुट गया। मड़ई कब्र में तब्दील हो गयी।