चुनावी-रण / अलका सैनी
आयशा चलते-चलते एक संकरे पुल के बीचो-बीच पहुँच गई, जहाँ से आगे बढना उतना ही कठिन था जितना कि वापिस लौट कर जाना। उसने सोचा क्यों ना आगे बढ़ा जाए। उसे वह दिन याद आ रहा था जब वह पहाड़ी पर बने एक किले को देखने के वास्ते सीढ़ियों से ऊपर चढ़ रही थी तो आधे रास्ते उसकी हिम्मत जवाब देने लगी परन्तु सीढियां उतरना उतना ही कठिन था और फिर मन में किले के रहस्य को जानने की भी उत्सुकता काफी प्रबल थी। इस अनसुलझे रहस्य को जान लेने से कम से कम मन में मच रही खलबली को सकून तो मिल जाएगा, यही सोच कर वह आगे बढ़ गई।
उसके जीवन का पहला अवसर था जब वह चुनाव मैदान में उतरने जा रही थी, बेशक उसे राजनीति के क्षेत्र में पाँच वर्ष के करीब हो गए थे. राज्य सरकार के चुनावों में उसने क्षेत्र के विधायक महोदय जिनके आशीर्वाद से उसने राजनीति में कदम रखा था उनके लिए रात-दिन एक कर दिया था। महिला वक्ता कम होने के कारण हर बार महिला वोटरों को लुभाने के लिए उसे माइक पर खड़ा कर दिया जाता था। विधायक महोदय आयशा की संभाषण –शैली से काफी प्रभावित थे और अक्सर कहा कहते थे,
“ आयशा जब तुम माइक संभालती हो न, सारी भीड़ मंत्र-मुग्ध होकर सुनती हैं। भगवान ने तुम्हें इतनी सुंदर वाक-शैली प्रदान की है कि जितनी तारीफ करूँ, उतनी कम है। एक न एक दिन तुम जरूर राजनीति में अपना परचम लहराओगी।‘
विधायक महोदय द्वारा की गई खुले मन से तारीफ सुनकर वह मन ही मन हर्षित हो जाती थी और राजनीति में आगे बढ्ने के बड़े-बड़े सपने देखने लगती थी।
इस बीच उसने अपने इलाके के लोगों की तन, मन, धन से खूब सेवा की थी और अच्छा ख़ासा नाम कमा लिया था। उसने अपनी पढ़ाई के समय में कभी भी कालेज या यूनिवर्सिटी के किसी भी चुनाव में हिस्सा तक नहीं लिया था, वह तो बस अपनी किताबों की दुनिया में खोई रहती थी। उसे ऐसा लग रहा था जैसे वह एक छोटे बच्चे की तरह स्कूल में अपना पहला इम्तिहान देने जा रही हो या फिर एक नए भर्ती हुए सैनिक की तरह अपने जीवन में पहली बार युद्ध के मैदान में अपना रण कौशल दिखाने जा रही हो।
कालेज के जमाने की उसे एक बात याद आने लगी जब उसके एक पसंदीदा प्रोफेसर ने एक बार यहाँ तक कहा था, “ आयशा, मुझे लगता है कि इधर –उधर की आलतू-फालतू लाइनों में जाने से बेहतर होगा तुम दर्शन-शास्त्र का विषय लेकर भारतीय प्रशासनिक सेवा की तैयारी करो। तुम अवश्य एक अच्छे प्रशासक के रूप में अपने आप को स्थापित कर सकती हो।“
उसने उस समय ऐसे ही मन में आए विचार के तहत जवाब दिया था, ” सर, मैं भाग्य और मेहनत में भाग्य को ज्यादा मानती हूँ। चाहने से या केवल मेहनत करने से सब कुछ नहीं मिल जाता। कुछ तो किस्मत भी प्रबल होनी चाहिए। ”
आज वह सोच रही थी इतनी कम उम्र में उसके स्वर में कितनी बड़ी दर्शनिकता झलक रही थी ! आयशा को किसी भी कीमत पर सीढ़ियों के रास्ते पहाड़ की चोटी पर बने किले तक पहुंचना था, उसकी हिम्मत जवाब दे रही थी .परन्तु उसके पास कोई रास्ता भी नहीं था। अगर वह रुक कर पीछे मुड़ कर देखने लगती तो उसे चक्कर आने लगते और उसे लगने लगता कि वह नीचे लुढ़क जाएगी. इसलिए वह फट से अपना मुँह घुमा लेती और धीरे-धीरे फिर से ऊपर की और चढ़ने लगती। किले का रहस्य उसके मन में और गहराता जा रहा था।
उसे क्षेत्रीय पार्टी से जुड़े बेशक पाँच वर्ष हो चुके थे परन्तु उसे चुनावों की पेचीदगी की अभी भी कोई जानकारी नहीं थी। आयशा को पूरी उम्मीद थी कि म्युनिसिपल कोंसिल के चुनावों में उसे अपनी पार्टी का समर्थन जरूर मिलेगा क्योंकि उसके वार्ड में उससे ज्यादा कोई होनहार महिला उम्मीदवार नहीं थी। चूँकि वह एक महिला आरक्षित वार्ड था इसलिए उसको पूरा विश्वास था अपनी काबलियत पर। वैसे भी उसने पिछले वर्षों में अपनी पार्टी की सेवा का कोई मौका चूका नहीं था .परन्तु उसे मालूम ही नहीं था कि कितनी साजिशे उसके खिलाफ रची जा रही हैं। वहाँ के विधायक महोदय की चहेती होने के बावजूद गठ-बंधन सरकार की दूसरी पार्टी ने जोर डालकर टिकट अपनी प्रत्याशी को दिलवा दिया। आयशा को उस समय लगने लगा कि शायद वह विधायक उसकी झूठी तारीफ कर रहा था भीड़ को रिझाने के लिए, जब भी उन्हें संबोधित करवाना होता था। शायद उसकी सुंदरता और तेज तरार्र होने का केवल फायदा उठाया उसने केवल आज तक।
आयशा के विश्वास को गहरा झटका लगा, इतना ही नहीं पार्टी के बाकी सभी लोग भी उससे उम्मीद करने लगे कि वह उस महिला उम्मीदवार की मदद करे जो कि आयशा को बिल्कुल गवारा नहीं था .उसे अब अपना चुनाव लड़ने का फैंसला वापिस लेना मंजूर नहीं था क्योंकि यह उसकी इज्जत का सवाल था .वह अपने समर्थकों को निराश नहीं करना चाहती थी। आयशा अपने आप को चुनाव मैदान में उतरने के लिए पूरी तरह से मानसिक रूप से तैयार कर चुकी थी। वह खुद को लोगों की नजरों में परखना चाहती थी.इस मामले में उसका तजुर्बा बेशक बिल्कुल नहीं था परन्तु उसे अपनी काबलियत पर पूरा भरोसा था।
आयशा ने आजाद उम्मीदवार के तौर पर म्युनिसिपल कोंसिल का चुनाव लड़ने का फैंसला ले लिया. उसके ऐसा करते ही पार्टी के सभी जिम्मेवार लोगों ने उससे ऐसे किनारा कर लिया जैसे कि एक घायल सैनिक को उसके हाल पर छोड़ कर सेना युद्ध स्थल में आगे बढ़ जाती है। दूसरी तरफ पार्टी ने गठ-बंधन सरकार वाली दूसरी पार्टी की अन्य महिला उम्मीदवार रंजू गुप्ता को टिकट दे दिया। अब मुकाबला लव ट्रायंगल फिल्म की तरह त्रिकोणा हो गया। तीसरी मुख्य उम्मीदवार क्षेत्र के विधायक महोदय से निजी दुश्मनी के कारण खड़े हुए आजाद गुट की तरफ से थी। यह गुट नगर-परिषद् के प्रधान ओ. पी. शर्मा का था, जिसने अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए अपनी बिरादरी के चमचे प्यारे लाल की अस्सी साल की बूढ़ी माँ को दे दी। हमारे संविधान की बहुत ही अजीबो गरीब बात है कि चुनाव लड़ने की अधिकतम आयु पर कोई रोक नहीं लगाई गई है। राजनीति में कोई रिटायरमेंट की उम्र तय नहीं है .तभी तो शायद राजनीति को लम्बी पारी का खेल कहते हैं।
चुनाव की तारीख के दस दिन पहले से ही चुनावों की गहमा-गहमी पूरे जोर-शोर से शुरू हो गई। कहते है ना चुनाव जितना छोटा होता है उतना ही मजेदार होता है, इसीलिए हर जगह एक मेला सा लगा हुआ मालूम होता था .सभी प्रत्याशी एक दूसरे को हराने के लिए पूरी गर्म जोशी से इधर-उधर घूमते हुए लोगों से संपर्क साध रहे थे। आयशा के वार्ड में सबसे ज्यादा उम्मीदवार चुनाव मैदान में थीं जैसे कि चुनाव ना हो गया कोई खेल हो गया। हर कोई इनका लुत्फ़ उठाने और मौके का फायदा उठाने में लगा था .जिस प्रकार खुले में जब कुछ गुड गिर जाता है तो लाखों चींटियाँ पूरे जोश से अपने-अपने घरों से पता नहीं कहाँ-कहाँ से निकल कर बाहर आ जाती है और कतार में चलती अपनी साथी मित्रों को भी दावत का संदेशा देती जाती हैं .छोटे चुनावों में एक-एक वोट चुनाव परिणाम पर काफी फर्क डाल देती है।
आयशा अपने आप को खुशनसीब समझ रही थी कि उसके पति एवं बाकी सारे रिश्तेदार, माता-पिता, सास-ससुर, बहन-भाई, देवर, ननद, मित्र सब उसके साथ कंधे से कन्धा मिलाकर खड़े थे। आयशा के चुनाव लड़ने की सारी जिम्मेवारी उसके भाई ने अपने सर पर ले ली।
उसका भाई कहने लगा,” आयशा, तुम्हारे चुनावी खर्चे में किसी भी तरह की कोई कमी नहीं आने दूंगा। बस तुम पूरी लगन और मन से चुनाव लड़ो। अगर तुम जीतोगी तो अपने परिवार का नाम ही रोशन होगा। बस ....तुम डटी रहो।”
आयशा को भाई के इस आश्वासन के पीछे छुपे भाव पहले से अच्छी तरह मालूम थे, फिर भी अपने चेहरे पर बिना कोई विकार लाए वह कहने लगी, ” भाई, तुम चिंता मत करना, अगर मैं जीत गई तो तुम्हारा सारा मुझ पर किया गया खर्च चुकता कर दूँगी। तुम तो जानते ही हो बचपन से ही मैं स्वाभिमानी रही हूँ। बस मन में पता नहीं क्यों एक इच्छा हो आई चुनाव में खड़े होकर देखने की। एक बार किस्मत तो आजमाई जाये।“
उसका भाई एक जाना माना व्यापारी आदमी था, तुरंत ही सारा माजरा समझ गया। बिना कुछ प्रत्युत्तर दिए चुपचाप सुनता रहा। एक बात उसकी समझ में अवश्य आ गई थी कि आयशा के ऊपर खर्च करने में किसी भी तरह का कोई नुकसान नहीं हैं। उसे चारों उँगलियाँ घी में नजर आने लगी।
मेन मार्किट के बीचों-बीच उन्होंने ही सबसे पहले एक दुकान के बाहर अपना चुनावी कार्यालय बनाया। इसके इलावा सुबह 6 बजे से ही उसके घर पर चहल-पहल शुरू हो जाती थी.दुकान के बाहर एक टैंट लगा दिया गया था और उसके अन्दर बैठने के लिए कुर्सियों की व्यवस्था की थी.टैंट के चारो तरफ बड़े-बड़े चुनावी बैनर और पोस्टर लगा दिए गए जिन पर उसका नाम और चुनावी चिन्ह कुर्सी बना होता। चुनावी प्रचार के दौरान सबको चुनाव चिन्ह वाली टोपियाँ, बैच-बिल्ले, झंडे आदि पकड़ा दिए जाते. आयशा के लिए यह सब एक दम नया था फिर भी उसे सब कुछ बहुत अच्छा लगता। सारे चुनावी प्रचार के सामान आदि की व्यवस्था उसके भाई ने बहुत खूबी से की थी. यहाँ तक कि उसके भाई के दोस्त भी दूर-दूर से चुनाव प्रचार के साजो-सामान के साथ वहाँ पहुँच गए. उसके घर पर तीनो समय के खाने के लिए कूक बिठा दिए गए थे। सारा दिन आने-जाने वालो के लिए खाना-पीना चलता रहता। कुछ आते-जाते लोग बीच-बीच में वहाँ टैंट में आकर बैठ जाते. या जब आयशा अपनी सहेलियों और समर्थकों के साथ अलग-अलग गली-मोहल्लों का दौरा करके लौटती तो कुछ देर के लिए सब टैंट में आकर अपने-अपने विचार देते नजर आते। टैंट में सबके लिए उसके भाई ने चाय-पानी की व्यवस्था पहले से करके रखी होती .आयशा को किसी भी इंतजाम की कोई जानकारी नहीं होती, उसका काम तो बस लोगों के आगे हर समय हाथ जोड़कर अपना सर झुकाए रखने का होता। उसके चुनावी मैनीफैस्टो तैयार करने का जिम्मा उसके पति जो कि एक अखबार में काम करते थे उन्होंने ले लिया। कुल मिलाकर जिस किसी को भी आयशा के चुनाव लड़ने का पता चलता वो रोमांचित हो कर उसके घर साथ देने के लिए इकट्ठा होने लगा। यहाँ तक कि उसके पति के मौसेरे भाई-बहन आदि सब लोग और उनके परिवार भी चुनाव में सहयोग देने दूर-दूर से उसके घर पहुँच गए। सबके लिए चुनाव लड़ना एक बहुत ही नई बात थी। आयशा के दोनों तरफ के सभी रिश्तेदार उसकी काबलियत से भली-भांति परिचित थे और सभी उसका बहुत सम्मान भी करते थे.
आयशा के लिखित मैनीफैस्टो को पढ़कर कोई भी प्रभावित हुए बिना ना रहता। उसके मैनीफैस्टो में आयशा ने अपने वार्ड के लिए किए जाने वाले विकास के कार्यों का ब्यौरा, उसकी पढ़ाई-लिखाई का पूरा विवरण और आज तक जो उसने लोगों के लिए काम किए सबका विस्तार विवरण दिया हुआ था .आयशा को लोगों का भरपूर सहयोग मिल रहा था। यह देख कर आयशा को उम्मीद बंधने लगी कि उसकी मेहनत जरूर रंग लाएगी और उसको अपने जीवन में कुछ कर दिखाने का मौका जरूर मिलेगा।
उनके देखा-देखी अन्य उम्मीदवारों द्वारा भी मार्किट में अपने टैंट गाड कर चुनावी कार्यालय बनाए जाने लगे। उनकी देखा-देखी प्रतिस्पर्दा में सबने अपना चुनाव प्रचार तेज कर दिया।
आयशा आखिरकार किले के मुख्य द्वार पर पहुँच गई जो कि बहुत ही सुन्दर लग रहा था। किले की दीवारों पर बहुत सुन्दर मीनाकारी की हुई थी जो कि उसकी उत्सुकता को और बढ़ा रही थी. वह जल्द से जल्द किले के अन्दर जाकर किले के रहस्य को जान लेना चाहती थी। कभी उसे किले के मकड़-जाल याद आते तो कभी भूतहे किले के बारे में सोचकर डर लगने लगता। कभी वह रहस्यमयी किले में छुपे खजाने के बारे में सोचने लगती तो कभी वह पिरामिड में दफन की हुई ममियों में बारे में सोचकर विचलित हो उठती थी।
पूरा दिन कैसे बीतता आयशा को पता नहीं चलता। हर एक वोटर से निजी तौर पर संपर्क साधने की पूरी कौशिश की गई। अपनी तरफ से वो कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते थे। पूरे दस दिन आयशा दिन भर एक टांग पर खड़ी होती और इस तरह कब रात के बारह बज जाते पता ही नहीं चलता और सुबह पाँच बजे फिर से अगली रणनीति के बारे में विचार किया जाता .जैसे-जैसे चुनाव का दिन नजदीक आने लगा वैसे-वैसे हर कोई वोटरों को लुभाने के लिए तरह-तरह के हथ कंडे अपनाने लगा। ओ. पी.शर्मा के गुट ने तो हर जगह खाने-पीने और शराब के खुले आम स्टाल लगा रखे थे। ओ. पी. शर्मा ने पिछले पाँच वर्षों के अपने म्युनिसिपल कोंसिल के प्रधान होने के दौरान अपनी पावर का भरपूर फायदा उठाया था और दोनों हाथों से खूब पैसा और शौहरत बटोरे थे जिसे चुनावों में इस्तेमाल करने में भी उसे बिल्कुल गुरेज नहीं था। इसलिए वह पैसा भी दोनों हाथों से लुटा रहा था .
एक दिन आयशा अपनी सहेलियों के साथ अपने चुनाव का प्रचार कर रही थी तब उन्हें पता चला कि एक बड़े से घर में ओ. पी. शर्मा के ग्रुप ने काफी जाली वोटे बना रखी हैं। उसकी खबर उन्होंने प्रैस में भी दी परन्तु अब समय बीत चुका था क्योंकि चुनाव का दिन काफी करीब आ गया था। ओ. पी. शर्मा ग्रुप ने अपने अनुभव के कारण चुनावों में हर तरह का दांव-पेंच इस्तेमाल किया हुआ था और इस बात का उन्हें कोई डर नहीं था। क्योंकि उनके गुट ने गुंडों की अच्छी खासी टोली भी भर्ती कर रखी थी.
आखिरकार इन्तजार की घड़ियाँ ख़त्म हो गई। चुनाव के दिन सुबह 8 बजे से ही वोटिंग शुरू हो गई। आयशा का दिल बहुत जोर से धड़क रहा था। उसके मन में कई तरह के विचार आ जा रहे थे। वोट डालने के लिए लोग धीरे-धीरे कर बूथ पर पहुँचने लगे। लोगों के हाव-भाव से कभी तो आयशा अपनी जीत को लेकर बिल्कुल आश्वस्त हो जाती और कभी डर और नकारात्मक सोच मन को घेर लेते। वोटरों को घरों से लाने के लिए अपनी तरफ से हर किसी ने गाड़ियों का इंतजाम किया हुआ था। ओ. पी. चोपड़ा ग्रुप ने तो वोटरों को रिझाने के लिए खुले लंगर की व्यवस्था की हुई थी। वोटिंग बूथ पर अपनी तरफ से आखिरी प्रयास करते हुए आयशा एक टांग पर दिन भर खड़ी रही, जैसे ही शाम पाँच बजे वोटिंग ख़त्म हुई तो आयशा को लगने लगा कि वह अभी वहाँ गिर जाएगी। उसमे चुनाव के परिणाम को सबके सामने झेलने की भी हिम्मत नहीं थी क्योंकि ओ. पी.शर्मा गुट के लोगों के हौंसले उसे ज्यादा ही बुलंद लग रहे थे इसलिए वह जल्द ही अपने घर पहुँच गई। चूँकि इलैक्ट्रोनिक वोटिंग के कारण परिणाम साथ-साथ ही घोषित किया जाना था। कुछ ही देर में चुनाव परिणाम आ गया और वही हुआ जिसका आयशा को डर था, ओ. पी. शर्मा गुट की प्यारे लाल की अस्सी साल की माँ चुनाव जीत गई थी। सब जगह यह खबर आग की तरह फ़ैल गई कि कुल 15 वार्डों में से 12 वार्डों में ओ. पी.शर्मा ग्रुप के प्रत्याशी विजयी हुए हैं। उसकी पार्टी के सिर्फ तीन उम्मीदवार ही विजयी हुए थे. यह देखकर सभी को बहुत ही हैरानी हो रही थी कि क्षेत्र के विधायक महोदय जो कि लगातार कई वर्षों से वहाँ से विजयी होते थे वह भी अपने प्रत्याशियों को जिता नहीं पाए। विधायक महोदय को भी इन चुनावी परिणामों से करारा झटका लगा था .सब तरफ ओ. पी. शर्मा गुट के लोग ही ढोल-बाजों की ताल पर नाचते-गाते और लड्डू बांटते नजर आ रहे थे.
आयशा को अब समझ आ गया था कि चुनाव लड़ना कोई खाला जी का घर नहीं है। यह कोई उसके स्नातक की परीक्षा नहीं कि जितना जिस उम्मीदवार ने लिखा होगा उसको उतने ही अंक मिलेंगे. उसे ना तो किसी तरह के चुनावी हथकन्डो की जानकारी थी। बाद में लोगों से सुनने में आया कि ओ. पी. शर्मा गुट ने चुनावों में सभी हथकन्डो का भरपूर उपयोग किया था और उनको चुनाव परिणाम के बारे में पहले से ही पता था। उन्होंने ना सिर्फ सभी चुनाव अधिकारी खरीद रखे थे बल्कि हर वार्ड में बहुत से जाली वोट भी बना रखे थे .आयशा को अपनी भूल का अहसास होने लगा कि चुनाव लड़ना शराफत का काम नहीं है.. यह कोई पढ़े-लिखे लोगों का काम नहीं यह तो गुंडे बदमाशों का गेम है। रहा-सहा सारा सपना उसे ध्वसत होते नजर आने लगा। भाई, सगे-संबंधियों तथा मित्रों द्वारा तन, मन और धन से उस पर किए गए अहसान रह-रहकर उसे भीतर से तोड़ रहे थे। उसे अपनी भूल का अहसास होने लगा कि क्या जरूरत थी उसे चुनाव में खड़े होने की ! क्यों उसने विधायक के दिए गए प्रलोभन में अपनी जिंदगी दांव पर लगा दी?
अपनी खून-पसीने की कमाई को भी उसने एक ही झटके में पानी की तरह बहा दिया। क्या होगा उसके बच्चों और परिवार का? रह रहकर उसे अपने मध्यम-वर्गीय माँ-पिताजी के बेबस चेहरे आँखों के सामने नजर आने लगे।
आयशा ने किले में जैसे ही प्रवेश किया तो वहाँ का नजारा देखकर उसके रौंगटे खड़े हो गए.
किला बाहर से जितना खूबसूरत प्रतीत हो रहा था अन्दर से उतना ही भयावह दिखाई दे रहा था। किले के सारी दीवारे कोयले की तरह काली हो रखी थी. सारी मूर्तियाँ और मीनाकारी जल कर राख की तरह प्रतीत हो रही थी. कहते हैं एक बार दुश्मन की सेना ने जब किले को चारों और से घेर लिया तो उस समय किले में राजा के साथ उसकी रानी और उसकी कई दासियाँ भी थी। रानी की इज्जत बचाने के लिए राजा को बच कर निकालने का जब कोई रास्ता नहीं सूझा तो उसने अपने आप को दुश्मन के हवाले करने के बजाय पूरे किले को आग लगा दी और इस तरह पूरा किला अन्दर से जल कर राख हो गया। जब दुश्मन की सेना ने किले के दरवाजे को तोड़ा तो इतना भयानक नजारा देखकर उलटे पैर लौट गए.
एक तरफ तो आयशा के मन में राजा के लिए सम्मान भाव उत्पन्न हो रहे थे साथ ही साथ उसकी कायरता का अहसास भी हो रहा था .
किले का भयावह नजारा देखने के बाद किले के साथ-साथ उसके दिल में अभी भी अग्नि –विभीषिका का प्रचंड ज़ोरों पर था। आयशा खुद उस आग में कूदकर रानी पदमिनी की तरह जौहर करना चाहती थी। उसने एक कदम आगे बढ़ाया तो उसे अपने छोटे –छोटे रोते-बिलखते बच्चों के चेहरे नजरों के सामने तैरने लगे। “ माँ, माँ, मत कूदो आग में। ”
मानो जैसे किसी ने उसके पैरों में आगे बढ़ने से रोकने के लिए जंजीर लगा दी हो। उसे लगने लगा देखते-देखते उसकी सारी दुनिया स्वाहा हो गई हो। सारे सपने उसमे आहुति बनकर भस्म हो गए हो।