चुनाव, भावना और कट्टरता / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 24 मार्च 2014
कुछ समय पूर्व मल्लिका शेरावत ने अमेरिका में अंग्रेजी भाषा की फिल्म बनाई थी जिसमें पति डेमोक्रेट पार्टी का प्रशंसक एवं कार्यकर्ता है तो पत्नी रिपब्लिकन के लिए जान देने को तैयार है। इस हास्य फिल्म का शायद प्रदर्शन ही नहीं हो पाया। भारत में भी सुचेता एवंआचार्य कृपलानी दो अलग-अलग दलों से चुनाव लड़ते थे। दिग्विजय के भाई कुछ समय के लिए विरोधी खेमे में चले गए थे। राजमाता सिंधिया ने भाजपा को सहायता दी तो उनके सुपुत्र माधवराव सिंधिया कांग्रेस के शिखर नेता हो गए थे। कुछ लोगों का कहना है कि भारत के परिवार के सदस्यों का विरोधी दलों में जाने का कारण एक भीतरी समझौता है कि सत्ता में परिवार का एक व्यक्ति हमेशा रहे।
एक ही कमरे में प्रेम से रहने वाले पति-पत्नी के राजनैतिक विचार परस्पर विरोधी हो सकते हैं परंतु रिश्ता फिर भी निभाया जाता है। दलगत रणनीतियों को गुप्त रखते हुए भी उनमें आपसी प्रेम कायम रह सकता है। विदेशों में कई जोड़े ऐसे हैं जिनमें दो परस्पर विरोधी देशों के लोग हैं और उनके मुल्कों में युद्ध के समय भी इन जोड़ों के घर में शांति रहती है। दरअसल प्रेम और युद्ध अनेक स्तरों पर लड़ा और निभाया जा सकता है। रुस्तम दुश्मन देश पर आक्रमण करता है और वहां की स्त्री से प्रेम करता है तथा अनेक वर्ष पश्चात उसका पुत्र सोहराब उससे युद्ध करता है। पुत्र को निर्णायक चोट पहुंचाने पर उसे ज्ञात होता है कि यह उसी का पुत्र है। लेख टंडन की 'आम्रपाली' में भी नायिका को दुश्मन देश के राजा से प्रेम हो जाता है। प्रेम उन्माद के शिखर पर पहुंचने के क्षण में आम्रपाली को ज्ञात हो जाता है उसने शत्रु राजा को दिल दिया है।
इस असफल फिल्म में शंकर-जयकिशन और शैलेन्द्र ने अभूतपूर्व माधुर्य रचा था। 'तड़प ये दिन रात की, कसक ये दिन रात की, भला यह रोग है कैसा, सजन अब तो बता दे बिना कारण ये कैसी उदासी, क्यों अचानक घिर के आती है, थका जाती है मुझको, बदन क्यों तोड़ जाती है।' वर्तमान समय में परस्पर विरोधी दलों के लोगों के स्नेह के संबंध में दरार इसलिए नहीं आ सकती कि कोई भी दल किसी राजनैतिक आदर्श में पक्का विश्वास नहीं करता, सारा मामला सुविधा, स्वार्थ और सत्ता लोलुपता का है। एक कट्टर कम्युनिस्ट और कट्टर पूंजीवादी के बीच प्यार नहीं हो सकता। इस तरह की संभावनाओं में यह कल्पना कैसी रहे कि हेमामालिनी भाजपा से चुनाव लड़ रही हैं और उनके खिलाफ श्रीमती प्रकाश धर्मेंद्र चुनाव लड़े तो धर्मेंद्र किस का प्रचार करेंगे। सनी देवल निश्चय ही अपने जन्म देने वाली मां का प्रचार करेंगे, तब क्या रुस्तम सोहराब सी संभावना बनती है?
प्राय: राजनीति के सिद्धांत से प्रेरित नहीं होकर भी राजनीति करने वालों के जीवन में प्रेम भी असली नहीं हो सकता। वह भी उतना ही सतही होगा जितना उनका राजनैतिक विश्वास। परंतु लिट्टे और माओवादी संगठन में रहकर शत्रु से प्रेम करने का सवाल ही नहीं उठता। इन दलों का लौहपाश अलग किस्म का है, उनका अनुशासन अलग किस्म का है। माओवादी विचारधारा वाले अपने लक्ष्य को कभी अनदेखा नहीं करते। इस तरह के राजनैतिक विश्वास कैसे हो सकते हैं, इसका अंदाज हम महान फिल्मकार डेविड लीन की फिल्म 'ब्रिज ओवर रिवर क्वाई' से लगा सकते है जिसमें एक क्रांतिकारी पात्र अपनी मोडरेट विचार वाली बहन के साइकिल कैरियर में एक बम रख देता है और पुलिस को फोन कर देता है, वह आदर्श महिला पुलिस द्वारा बम सहित पकड़ी जाती है और देशद्रोह के अपराध में उसे फांसी की सजा सुनाई जाती है।
क्रांतिकारी भाई का विचार है कि एक आदर्श नागरिक के फांसी पर चढ़ाए जाने से लोगों में आक्रोश भड़केगा जो क्रांति के लिए उचित होगा। यह बात सचमुच अजीब लगती है कि राजनैतिक क्रियाकलाप से भावना को खारिज किया जाता है जबकि भावना के बिना समानता, स्वतंत्रता और न्याय की स्थापना नहीं की जा सकती, इस तरह राजनीति स्वयं भावना है और चुनाव जीतने के प्रति समर्पित लोग एक किस्म के कट्टरवाद को जन्म देते हैं और भावना शून्य समर्पित कार्यकर्ता बनाना चाहते हैं जबकि राजनीति का आधार ही आम आदमी से भावनात्मक तादत्मय बनाने का होता है। अत: भावनाविहीनता से कैसे काम चल सकता है। अवाम में उन्माद जगाने के लिए भी भावना की आवश्यकता होती है, अत: सत्ता लोलुपता के खेल में भावना मार दी जाती है और बुजुर्गो को अनदेखा करना या उनके अपमान को रणनीति माना जाता है।