चुनाव : मनोरंजन क्षेत्र और राजनीतिक मैदान / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 10 नवम्बर 2012
तेरह तारीख को यश चोपड़ा की 'जब तक है जान' व अजय देवगन की 'सन ऑफ सरदार' का प्रदर्शन होने जा रहा है और विगत माह में मीडिया ने इसे एक युद्ध की तरह प्रचारित किया है, जबकि दीपावली उत्सव के दिनों फिल्मों का व्यवसाय औसत से अधिक होता है तथा एकाधिक फिल्मों को समान अवसर मिलते हैं। इसके पूर्व भी कई उत्सवों पर दो फिल्में लगी हैं। यशराज चोपड़ा की 'लम्हे' और अजय देवगन की पहली फिल्म 'फूल और कांटे' भी साथ-साथ प्रदर्शित हुई थीं। फिल्म उद्योग की पत्रिकाएं भी आंकड़े प्रस्तुत कर रही हैं और फिल्म के सभी पक्षों को लेकर आकलन भी दिया जा रहा है। एक पत्रिका ने संगीत पक्ष में 'सन ऑफ सरदार' को अधिक लोकप्रिय बताया है। अनेक बार रहमान के संगीत को लोकप्रिय होने में अधिक समय लगता है। इसी तरह नौशाद का संगीत भी लोकप्रियता पाने में समय लेता था, जबकि तत्कालीन संगीतकार शंकर-जयकिशन की धुनें तुरंत ही लोकप्रिय होती थीं। इस तथ्य को राज कपूर इस तरह बयां करते थे कि अमुक गीत तोतापुरी है। तोता शीघ्र ही दोहराता है। उस दौर में कुछ विद्यार्थियों को किसी और अर्थ में 'तोता रटंत' कहते थे।
बहरहाल 'सन ऑफ सरदार' दक्षिण भारत की सुपरहिट फिल्म का रीमेक है और 'जब तक है जान' को भी यश चोपड़ा की 'दाग' के ही मूल विचार का नया संस्करण कहा जाता है। विगत कुछ वर्षों में शाहरुख खान अभिनीत फिल्मों को आशातीत सफलता नहीं मिली है और अजय देवगन की फिल्में सफल रही हैं तथा 'सिंघम' और 'बोल बच्चन' ने सौ करोड़ का आंकड़ा पार किया है। 'जब तक है जान' तीन घंटे चलने वाली फिल्म है और 'सन ऑफ सरदार' दो घंटे पांच मिनट की फिल्म है। 'जब तक है जान' में सफल कैटरीना कैफ और चंचल अनुष्का शर्मा हैं तो अजय देवगन के साथ सोनाक्षी सिन्हा हैं, जिन्होंने अपने चेहरे की मासूमियत के साथ शरीर की मादकता का मिश्रण प्रस्तुत किया है।
बहरहाल, तमाम तुलनाओं और साक्ष्य की तरह प्रस्तुत आंकड़ों के परे फिल्म व्यवसाय के तथ्य इस तरह हैं कि सिने दर्शकों में पचास प्रतिशत दर्शक आदतन फिल्म देखने वाले होते हैं, जो सभी प्रचारित फिल्में देखते हैं। कुछ लोग पहले अजय देवगन या शाहरुख खान की फिल्म देखेंगे, परंतु अगले ही दिन दूसरी फिल्म भी देखेंगे। इन आदतन दर्शकों के दम पर ही उद्योग १०० वर्ष से सक्रिय रहा है। तीस प्रतिशत दर्शक अपनी व्यक्तिगत रुचि के अनुसार फिल्म चुनते हैं और उनके देखने का निर्णय फिल्म के टेलीविजन पर दिखाए गए प्रचार दृश्यों के आधार पर होता है। यह तीस प्रतिशत वर्ग पहले प्रोमो के आधार पर ही अपना चयन करता है। बचे हुए बीस प्रतिशत अनौपचारिक दर्शक हैं, जो गाहे-बगाहे किसी फिल्म को उसकी रिपोर्ट के आने के बाद जन्मी लहर के आधार पर देखने का निर्णय करते हैं।
यह कहना कठिन है कि क्या राजनीति के चुनाव में भी आदतन वोटर और अनौपचारिक वोटर वर्ग होता है, परंतु पचास प्रतिशत औसत मतदान का आधा भाग उन वोटरों का है, जो गणतंत्र में अपने कर्तव्य के कारण स्वयं ही वोट डालने जाते हैं और कुछ प्रतिशत अनौपचारिक मतदाता होते हैं, जो राजनीतिक दलों के सवैतनिक प्रचारकों द्वारा साधन उपलब्ध कराए जाने पर मत देने जाते हैं। कुछ प्रतिशत मतदाता ऐसे भी होते हैं, जो मत देने नहीं जाते, परंतु जाने कैसे उनका मत पड़ जाता है। अब इस विषय में नगरों में जागरुकता आ गई है, परंतु कस्बों में आज भी अनुपस्थित वोटर के मत पर ठप्पा लग ही जाता है।
क्या हमारे दर्शकों द्वारा सिनेमा चयन और राजनीतिक वोट डालना एक समान बात है? अब तक प्रकाशित आंकड़े बताते हैं कि प्राय: साठ प्रतिशत से अधिक मतदान नहीं होता और जो लोग सारा समय व्यवस्था को कोसते हैं, वे ही लोग उसे बदलने की प्रक्रिया से स्वयं को दूर कर लेते हैं। इस मजबूत से दिखाई देने वाले गणतंत्र की मूर्ति के ये पैर ही मिट्टी के हैं। यह कहा जाता है कि भारत में हर तीन माह में कोई न कोई चुनाव अवश्य होता है- विधायकों का चुनाव, म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन का चुनाव या पंचायत का चुनाव और सरकार चलाने के कार्य में ये बार-बार होते हुए चुनाव इसलिए बाधा डालते हैं कि हर चुनाव के समय सत्ता पक्ष को चुनाव जीतने के लिए कुछ सुविधाएं देनी पड़ती हैं और समग्र विकास के मार्ग में यह चुनावी केमिकल लोचा ही सबसे बड़ी बाधा है। लोकप्रिय फैसले देशहित के फैसले नहीं होते। क्या यह संभव नहीं है कि पांच वर्ष में एक बार संसद, विधानसभा और म्युनिसिपल चुनाव एक ही सय कराए जाएं, ताकि देश चुनावी हुड़दंग के बार-बार आते मौसम से बचे?