चुन्नू-मुन्नू का स्कूल / संजीव ठाकुर

Gadya Kosh से
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चुन्नू और मुन्नू का स्कूल घर से कुछ दूर था। दोनों पैदल ही जाते थे। रास्ते भर इधर-उधर देखते जाते—दुकानें, मकान, खेल-तमाशा। उन्हें मजा आता। लेकिन स्कूल पहुँचते ही सारा मजा गायब! सभी क्लास में मास्टर जान खाए रहते—'हिसाब बनाकर लाए हो?' ...'लेख क्यों नहीं लिखा?' ... 'चलो, फाइव फू्रट्ïस के नाम बताओ?' लो मजा! 'मैंगो, बनाना, ग्वाभा' से आगे गाड़ी बढ़ती ही नहीं और 'बेंच पर खड़े हो जाओ' का आदेश मिल जाता!

स्कूल उन्हें बहुत फालतू लगा करता था इसलिए घर से निकलकर बहाने बनाते हुए दोनों चलते और स्कूल पहुँचने से पहले ही कोई-न-कोई बहाना तय कर लेते। वापस आकर माँ को सुना देते—"आज स्कूल बंद था।" कभी कहते—"स्कूल पहुँचने में देर हो गई तो स्कूल का गेट ही बंद हो गया। हम लोग नहीं जा पाए।"

कभी कहते—"आज सभी लड़के स्कूल के मैदान की सफाई कर रहे थे, हम लोग चले आए।"

कभी-कभी ऐसा भी होता कि रास्ते में दोनों में से किसी के पेट में दर्द होने लगता या किसी के सिर में और दोनों घर लौट आते।

एक दिन तो वे एकदम नायाब बहाना बनाकर ले आए—"थाने के पास बहुत भीड़ थी। सड़क पर लोग भरे थे। हम लोग उस पार जा ही नहीं पाए!"

माँ ऐसी बातों पर विश्वास कर लेतीं। लेकिन रोज नए-नए बहाने गढऩा भी अच्छी-खासी दिक्कतवाली बात थी इसलिए दोनों ने नए उपाय निकालने शुरू कर दिए। वे स्कूल तो जाते मगर पेशाब-पाखाना का बहाना बनाकर बाहर निकल आते और किसी दुकान पर खड़े हो जाते। कभी स्कूल के पिछवाड़े कंचे खेलने लगते। कभी बंदर-बंदरिया का खेल देखने लगते। पहली घंटी में निकलते तो तीसरी घंटी में अपनी कक्षा में लौटते और फिर चौथी में बाहर निकल जाते।

दिन ऐसे ही बीत रहे थे।

एक दिन घर से निकलते ही दोनों ने तय कर लिया कि आज स्कूल नहीं जाना है। आज दोनों स्टेशन की ओर जाने लगे। स्टेशन के पीछे मनोरंजन के बहुत से साधन थे। चाट-पकौड़े की दुकानें, लाइन में बैठे मोची, हजामत बनाते नाई। कभी साँप का खेल तो कभी उस्ताद और जमूरे का।

मूढ़ी और पकौड़े खरीदकर खाने के बाद दोनों उस बड़े से चबूतरे पर बैठ गए। ऊपर बरगद की घनी छाँह थी। ठंडी-ठंडी हवा। नीचे बहुत से लोग बैठे थे—कुछ मुसाफिर तो कुछ पास की दुकान वाले। दोनों को डर भी लग रहा था कि कोई जान-पहचान वाले न देख लें। दोनों ने अपनी किताबें सावधानी से पैंट के अंदर छुपा ली थीं, ऊपर से कमीज से ढँक ली थीं। इस वजह से बैठने में उन्हें परेशानी भी हो रही थी। लेकिन कोई बात नहीं...!

अचानक डुगडुगी की आवाज से दोनों चौंक गए। कुछ ही दूरी पर एक आदमी डुगडुगी बजा रहा था और एक लड़का झोला-झक्कड़ फैला रहा था। दोनों वहाँ पहुँच गए और लोग भी जमा हो गए। देखते-देखते काफी लोग जमा हो गए। डुगडुगी बजाने वाला बीच-बीच में बोलता भी जा रहा था। आदमी उस्ताद था और लड़का जमूरा।

जब भीड़ काफी हो गई तब उस्ताद ने खेल शुरू किया। लड़के को एक कपड़े से ढँक दिया। फिर पूछा—"जमूरे! बताएगा?"

जमूरा बोला—"हाँ, उस्ताद! बताएगा!"

"अच्छा बताओ, इस बाबू के हाथ में क्या है?" उस्ताद ने पूछा।

जमूरा ने बिना देखे ही बता दिया—"घड़ी है।"

चुन्नू-मुन्नू आश्चर्य में पड़ गए।

उस्ताद ने फिर पूछा—"जमूरे! बताएगा?"

"बताएगा!"

"बता! इस बाबू की जेब में क्या है?"

"पैसा है!"

"इस बाबू के पैर में क्या है?"

"चप्पल है।"

चुन्नू-मुन्नू का आश्चर्य बढ़ता जा रहा था। दोनों को डर भी लगने लगा था। कहीं उस्ताद यह न पूछ दे—"इस लड़के की कमीज के नीचे क्या है?" और जमूरा कह दे—"किताब है।"

या, उस्ताद पूछ दे—"यह लड़का कहाँ से भाग कर आया है?" और जमूरा कह दे—"स्कूल से!"

इस डर से दोनों मजमा छोड़कर बाहर आ गए। प्लेटफार्म का चक्कर लगाने लगे। प्लेटफार्म पर लगी घड़ी में उन्होंने देखा, अभी तो सिर्फ़ बारह ही बजे हैं। चार बजे तक तो उन्हें बाहर ही रहना था। चार बजे के बाद ही घर जाया जा सकता था।

मुन्नू के मन में एक विचार आया। उसने कहा—"चलो, नदी में नहाते हैं।"

चुन्नू ने कहा—"नहीं, मैं नहीं नहाऊँगा। मुझे डर लगता है।"

मुन्नू ने समझाने की कोशिश की—"नदी में बहुत कम पानी है, नहीं डूबोगे!" लेकिन चुन्नू नहीं माना। फिर मुन्नू ने कहा—"ठीक है, चलो! तुम बैठना, मैं नहाऊँगा।"

दोनों नदी की ओर चल पड़े। नदी इस समय सूनी ही थी। एक-दो लोग थे जो लौटने की तैयारी कर रहे थे। उनके जाने के बाद मुन्नू ने अपने कपड़े उतार दिए। वह नदी में घुस गया। चुन्नू ऊपर ही बैठा रहा। नदी में सचमुच कम ही पानी था। मुन्नू नदी में चलने लगा। उसने वहीं से चिल्लाकर कहा—"मैं उस पार से आता हूँ।"

वह नदी के पार जाने लगा। आगे जाकर नदी थोड़ी गहरी हो गई थी। मुन्नू की छाती तक पानी आ गया। चुन्नू को डर लगने लगा लेकिन मुन्नू बढ़ता ही रहा और आगे बढऩे पर पानी कम हो गया। मुन्नू उस पार पहुँच गया। फिर उसी तरह चलते हुए वापस इस ओर आ गया। उसने अपने कपड़े पहन लिये।

"अब क्या किया जाए?" मुन्नू ने पूछा।

"कितना बजा होगा?" चुन्नू ने पूछा।

"चलो, किसी से पूछते हैं।" मुन्नू ने कहा।

दोनों सड़क पर आ गए। किसी से पूछा तो पता चला—अभी तो एक ही बजा है। तीन घंटे अभी और बिताने थे।

"सिनेमा चलोगे?" चुन्नू ने पूछा।

"चलो! लेकिन पैसे?" मुन्नू ने पूछा।

"तुम्हारे पास कितने हैं? मेरे पास सात-आठ रुपये हैं।"

"मेरे पास तीन-चार हैं।"

"चलो, टिकट हो जाएगा।"

दोनों सिनेमा हॉल पहुँच गए। फ़िल्म शुरू हो चुकी थी। टिकट भी नहीं मिल रहा था। अगला शो तीन बजे शुरू होने वाला था। दोनों सिनेमा हॉल के बाहर चक्कर लगाने लगे। पोस्टर देखने लगे। बड़ी मुश्किल से समय बीता। टिकट लेकर दोनों अंदर गए।

"सिनेमा खत्म होने में देर हो जाएगी, घर जाकर क्या कहोगे?" चुन्नू ने पूछा।

"अरे! कोई बहाना बना देंगे। चिंता मत करो।" मुन्नू ने कहा।

दोनों सिनेमा देखने में मग्न हो गए। इंटरवल हुआ तो बच रहे एक रुपये की मूँगफली खरीद ली। अब मूँगफली खाते हुए सिनेमा का मजा लेने लगे।

बस अब अंत ही होने वाला था। बदमाश भाग रहा था और अमिताभ बच्चन उसका पीछा कर रहे थे। कार बहुत तेज गति में चल रही थी। लगता था, अब उलटी, तब उलटी।

अचानक दोनों ने अपनी गर्दन पर एक पकड़ महसूस की। किसी का हाथ उनकी गर्दन पर था। दोनों ने एक साथ पीछे मुड़कर देखा, पिताजी दोनों को पकड़े हुए थे। दोनों का दिमाग सुन्न हो गया। पिताजी दोनों को हॉल से बाहर निकालकर ले गए। 'आज घर जाकर पता नहीं क्या हाल करेंगे?' दोनों सोचते जा रहे थे। पिटाई के डर से उनका बुरा हाल था।

लेकिन आश्चर्य की बात थी कि पिताजी ने उन्हें कुछ नहीं कहा। माँ ने रात में बताया कि कैसे पिताजी दफ्तर से आकर परेशान हो गए थे? तुरंत दोनों को ढूँढऩे निकल पड़े। पता लगाते-लगाते सिनेमा हॉल पहुँच गए।

अगले रोज स्कूल जाने के समय चुन्नू-मुन्नू चुप थे। दोनों के पैर स्कूल की ओर ही बढ़ रहे थे। रोज-रोज बहाने और समय बिताने के लिए इधर-उधर भटकने से वे खुद थक गए थे। इससे बेहतर स्कूल जाना ही होगा—दोनों की समझ में यह बात आ गई थी!