चुप्पियों के बीच / भावना / सत्यम भारती

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कभी महलों की रानी थी, कभी महफिल की थी रौनक,
ग़ज़ल निर्धन के कंधों पर ही अब आसीन लगती है।

आधुनिक ग़ज़लों का क्षेत्र काफी विस्तृत है, यह अब "वाह-वाह" से "आह-आह" तक की कविता बन चुकी है। निर्धनों की समस्या, सामाजिक सरोकार, सवाल तथा समस्याओं का सशक्त चित्रण गजलों का माध्यम बनता जा रहा है; ग़ज़ल वर्तमान समय में जनचेतना का सबसे बेहतरीन माध्यम है जिसका प्रमुख कारण-भावगर्विता तथा कहन-शैली है। दो पंक्तियों का एक शे' र इतना मारक होता हैं कि सामने वाला अतिरंजित, अचंभित, हक्का-बक्का और भौचक्का हो जाता है, यह मीठी ज़ुबान में कम शब्दों में गूढ़ बात कह जाती है।

'चुप्पी' आधुनिक मानव की सबसे बड़ी मजबूरी और कमजोरी दोनों है, मजबूरी इस अर्थ में कह सकते हैं कि जब हमारे पास जुल्मों के खिलाफ लड़ने की ताकत और साधन न हों तब हम चाह कर भी चुप रहते हैं और कमजोरी इस अर्थ में कि जब हमारे पास सभी साधन और ताकतें मौजूद हों तब भी नज़र के सामने जुल्म होते देख उससे मुंह मोड़ ले। यह दूसरी वाली समस्या बुद्धिजीवी और अमीर वर्गों के साथ ज़्यादा है, हम जुल्मों की बुनियाद को नहीं पकड़ते लेकिन किताबों में खूब ज्ञान देते हैं। मौन और चुप्पी में फर्क है, मौन 'स्व' की ताकत से चालित होता है लेकिन चुप्पी 'स्व' और 'पर' दोनों की ताकत से। अज्ञेय के शब्दों में-मौन अभिव्यंजना है लेकिन अगर चुप्पी की बात करें तो यह अभिव्यंजना एवं मजबूरी दोनों है। व्यक्ति के मन पर जब बाह्य शक्ति हावी हो जाए तो वह अपना अस्तित्व खोने लगता है और समाज में विविध प्रकार की विसंगतियाँ उत्पन्न होने लगती है। मन की इच्छा शक्ति और समाज की विसंगतियों के संग्राम का जीवंत दस्तावेज है-'चुप्पियों के बीच'। यह पुस्तक डॉक्टर भावना द्वारा लिखी गई है जिसमें शायरा खामोश मन की मजबूरी तथा समाज की विसंगतियों को उभारती हैं तथा खुद पर खुद के अधिकार की बात करती हैं। चुप्पी और बेजुबापन समाज को वापस शोषण-चक्र में डाल रही है-

चुप्पियों के बीच सहमी हैं वतन की हलचलें,
बेजुबानों—सी हमारी राजधानी हो गई।

"चुप्पियों के बीच" पुस्तक के चार प्रमुख स्वर हैं-स्त्री चेतना, लोक के तत्व, आधुनिक विसंगतियाँ तथा समसामयिक मुद्दे एवं सवाल। इसके अतिरिक्त ग़ज़लकारा ने प्रेम, सियासत तथा भूमंडलीकरण से उत्पन्न समस्याओं पर भी गजलें कहीं हैं। छोटी बहर और बड़ी बहर का सुंदर समन्वय इस पुस्तक की जान है तथा भाव एवं शिल्प का समन्वित रूप इसकी सरसता।

वैदिक काल से ही स्त्रियों की स्थिति, परस्थिति तथा जीवन के साथ भेदभाव पूर्ण व्यवहार होता आया है, पुरुषवादी जकड़न, परंपरागत विचार तथा सामंतवादी सोच ने स्त्रियों को पितृसत्ता के प्रांगण में उसके अरमान, ख्वाहिश तथा इच्छाओं को बरसों से दमित करता आया है। यह वही समाज है जहाँ स्त्रियाँ अपना सब कुछ अर्पित कर देती है परिवार के लिए लेकिन बदले में उन्हें उस घर में बोलने तक का अधिकार नहीं दिया जाता है। डॉ भावना ने स्त्रियों की अस्मिता, मुक्ति तथा अधिकार जैसे सवालों को गजलों में बुना है तथा स्त्रियों की चेतना को जागृत करने का प्रयास किया हैं-

कोमल जुबान जो थी वह सख्ती पर आ गई,
जुल्मों-सितम की आंच जो लड़की पर आ गई।

हम वर्षों से स्त्रियों के साथ भेदभाव करते आए हैं और अब मानवता इस हद तक गिर गई है कि कोख में ही कलियों के गले दबा दिए जाते हैं। लड़कियों को पढ़ाई से पहले कुशल गृहणी बनने का प्रशिक्षण दिया जाता है, घर के अंदर उन्हें नौकर तथा घर के बाहर उसे सौंदर्य प्रसाधन का कॉस्मेटिक सामान के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। यह समाज आज तक स्त्रियों को भोग विलास की वस्तु से ज़्यादा कुछ नहीं समझा है, कोई उसकी क्षमता को पहचानने की कोशिश नहीं करता; डॉ भावना गजलों के माध्यम से उन सभी स्त्रियों की व्यथा कहती हैं जो शिक्षा और शक्ति के अभाव में आज तक कुछ कह नहीं पाई-

बुझा चेहरा पिताजी का है कहता,
कि यह शादी नहीं सौदा हुआ है।

स्त्रियों के पालन पोषण में होने वाले आर्थिक भेदभाव पर खिन्न होकर शायरा लिखती हैं-

बेटों को परवाज की खातिर छोड़ा खुद,
बेटी पर ही इतनी सख्ती हद है यार।

हम स्त्रियों को अगर मनुष्य समझने लगेंगे तो उनकी स्थिति खुद-ब-खुद सुधर जायेगी; दहेज की चाह, निर्णय न लेने की छूट, इच्छाओं का दमन तथा पराई चीज को तुच्छ समझने की मानसिकता ही घरेलू उत्पीड़न को जन्म देती है लेखिका इस तरफ भी इशारा करती हैं-

हमेशा घर की बहुओं में हजारों दोष होते हैं,
हमेशा अपनी बेटी ही हमें शालीन लगती है।

डॉ भावना कि गजलें समाज के उन वर्गों की तरफ भी इशारा करती है जो समाज से बहिष्कृत हैं; यौन शोषण, बलात्कार, घरेलू उत्पीड़न, विधवा समस्या, निम्न जाति की गरीब स्त्रियों की व्यथा आदि इस पुस्तक में वर्णित है जो समाज के दोमुहेपन से पाठकों को वाकिफ कराती है-

बालिग नाबालिग सब वहशत की जद में,
आज हृदय है कितना घायल क्या बोलूं।

एक शेर और देखें-

मुखिया का पद जीता पत्नी ने जब से,
मुखिया पति ही रोज चलाता फिरता है।

गृहस्थी और परिवार की गाड़ी स्त्री और पुरुष के सहयोग से चलती है ऐसे में एक को छोड़कर हम आगे नहीं बढ़ सकते हैं। देश की आधी आबादी जब तक अशिक्षित, अछूत तथा अलग-थलग रहेगी तब तक देश का स्वर्णिम विकास असंभव है। मध्यवर्ग और ग्रामीण इलाकों की स्त्रियों की दशा ज़्यादा दयनीय है इसलिए शायरा के शे ' रों के केंद्र में भी वहीं स्त्रियाँ हैं, इनकी ग़ज़लें समाज से सवाल कर गंभीर विमर्शों की मांग करती है स्त्री चेतना के संदर्भ में।

भावना कि ग़ज़लों में लोक तत्वों का सुंदर चित्रण मिल जाता है, लोक कहने का तात्पर्य-गाँव में वर्णित किसानों और मजदूरों के जीवन-उपक्रम से है। किसानों का फसल बोना, काटना, आपदा का खौफ, लोककला, हस्तशिल्प लोकभाषा के शब्दों के साथ-साथ लोक में प्रचलित कुछ मुहावरे तथा जीवन के विभिन्न क्षेत्रों को इस पुस्तक में उकेरा गया है। आज मशीनीकरण के दौर में गांवों से चौपाल, उत्सव, मेला, हाट, चौक-चौराहों की मस्ती, पंचायत, सद्भाव सब विलुप्त हो रहे हैं यह चिंता भी उनकी गजलों में दिख जाती है। टूटते बिखरते रिश्ते तथा लोक में बुजुर्गों की स्थिति आदि का जीवंत चित्रण करती है उनकी लेखनी-

ना जाने कितने गम आते हैं बाहर,
पिता जब खाट पर से खांसता है।

घरों में होने वाला 'बंटवार' परिवार को आगे बढ़ने से रोकता है तथा एकता का सूत्र छिन्न-भिन्न कर देता है, इस बंटवारे में सबसे ज़्यादा प्रभावित बच्चों का बचपन तथा वृद्धों का जीवन होता है शायरा का ध्यान इधर भी गया है-

बांट लेता है बेटा बाप से जमीं अपनी,
अब लहू के भी बीच आ रही है दौलत।

एक शेर और देखें-

चार चूल्हे थे मगर अम्मी रही भूखी,
घर के भीतर घर को कैसे ढो रहे थे हम।

लोकतंत्र का सबसे बड़ा दोष यह है कि यहाँ जो अमीर है वह और भी अमीर होते जाता है और जो गरीब है वह और भी गरीब। सारे नियम, कानून अमीरों एवं व्यापारियों को ध्यान में रखकर ही बनाए जाते हैं गरीबों के हिस्से में सिर्फ़ वोट देने का अधिकार आता है। मेहनत के बदले में फूटी कौड़ी का न मिलना ही समाज में असंतोष का सबसे बड़ा कारण है; गजलकारा का ध्यान समाज में पूंजी के बढ़ते वर्चस्व की ओर भी गया है-

महलों की चौकसी है तो बंगलों का है बचाव,
कुटिया का स्वप्न ही यहाँ ढहता है आजकल।

एक शे' र और देखें-

एक इमारत झुग्गी पर इठलायेगी,
कोई बंदा घर से बेघर हो, तो हो।

हमारे देश में ईमानदारी की कोई कीमत नहीं है, मुंहभराई मानो सिस्टम का वह रस्म है जिसके बिना तो कोई संस्कार ही नहीं होता। जो लोग ईमानदार रहकर काम करना चाहते हैं उन्हें या तो सुदूर क्षेत्रों में ट्रांसफर कर दिया जाता है या फिर षड्यंत्र में फंसा दिया जाता है ऐसे में ईमानदारों के पास एक ही ऑप्शन होता है-समर्पण। सिस्टम सड़ी हुई आलू की वह टोकरी है जिसमें जाने वाला हर नया आलू सड़ ही जाता है। डॉ भावना कि गजलों का एक विषय सिस्टम का भ्रष्ट आचरण, घूसखोरी तथा सत्ता कि स्वार्थपरकता भी है-

उम्मीद यह कि मान ही जाएगा एक दिन,
आया वह फिर से गर्म लिफाफा लिए हुए।

सत्ता कि विरुपता और न्याय व्यवस्था का गिरता स्तर वर्तमान समय की प्रधान समस्या है, आज जब सत्ता और न्याय दोनों गरीबों से सौतेला व्यवहार करने लगे हैं तो जनता का विश्वास डगमगाने लगा है-

हमें है न्याय की हरदम प्रतीक्षा,
वो मुजरिम को बचाए जा रहे हैं।

इसके अतिरिक्त लेखिका ने समाज में वर्णित कुछ समस्याओं तथा सवालों को भी उठाती है जिसमें बाल-मजदूरी, घरेलू उत्पीड़न, महंगाई, बेरोजगारी, (पर्यावरण युवाओं का किताब से भटकाव) **, मानवता का गिरता स्तर, आधुनिकता से उत्पन्न खतरे आदि हैं-यह सवाल समाज के लिए प्रासंगिक है तथा इसमें सुधार करने की भी ज़रूरत है। भूमंडलीकरण एवं मशीनीकरण के कारण जंगल कट रहें हैं जिससे प्रदूषण की समस्या उत्पन्न हो रही है तथा जंगलों में निवास करने वाले जानवर और आदिवासी दोनों बेघर हो गए हैं, कवयित्री की चिंता उनके आशियाँ को लेकर भी है-

काटे गए हैं पेड़ यूं इतने कि आजकल,
जंगल के सारे जीव भी बस्ती में आ गए।

आधुनिक सोच और प्रतिस्पर्धा रूपी विचार से इंसान पैसा तो बहुत कमा लिया लेकिन रिश्ते सारे खत्म हो गए, व्यक्ति का मन सूना एवं एकाकी हो गया है जो कुंठा, संताप, घुटन द्वेष तथा आत्महत्या जैसी समस्याओं को जन्म देने का कारण बनता जा रहा है-

दौलत की भूख सबको है शोहरत की चाह है,
रिश्तों का हाथ कब कोई गहता है आजकल।

अपनों से मिलने वाला दर्द दुश्मनों से मिलने वाले दर्द से ज़्यादा खतरनाक होता है क्योंकि यहाँ दर्द के साथ-साथ भरोसा और विश्वास दोनों टूटता है, कवयित्री का इशारा इस तरफ भी है-

गैरों को था हमेशा मुझपे यकीं,
मुझको अपनों ने आजमाया है।

जब तक व्यक्ति कहीं ठोकर नहीं खाता तब तक उसकी अक्ल ठिकाने नहीं आती इसलिए जीवन में ठोकर खाना भी ज़रूरी होता है; कहते हैं-दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंक कर पीता है। व्यक्ति के अंदर कई तरह के चरित्र होते हैं जो नकाब से ढके होते हैं उसकी पहचान ज़रूरी है; जो व्यक्ति एक बार किसी से धोखा खा लिया वह आदमी की परख सही से करने लगता है-

उन्हें कदमों की गहरी चोट ने इतनी परख दे दी,
मुखौटों के शहर में वह सही चेहरा समझता है।

अपने समाज की एक विडंबना और है कि जो मेरे हित के लिए लड़ता है या दो-चार मीठी बोल-बोल देता है तो उसे हम अपना भगवान मानने लगते हैं। हिंदू धर्म में इतने करोड़ देवी-देवता क्या कम थे पूजा-अर्चन के लिए जो इन ढोंगी बाबाओं के पाखंड में खुद को ढालने लगे हैं। आदमी मेहनत से किस्मत की रेखा भी बदल सकता है, पाखंड और आडंबर सब ढकोसला है और कुछ नहीं। समाज का एक बड़ा वर्ग इन बाबाओं के चंगुल में फंसता जा रहा है। बाबा नेपथ्य के पीछे क्या गुल खिलाते हैं उनका पर्दाफाश हो चुका है लेकिन हम हैं कि उनके बहकावे में रोज आते हैं; शायरा उन वर्गों की चेतना जागृत करने की भी कोशिश करती है-

बाबाओं का चक्कर क्यों है,
दुनिया इनके दर पर क्यों है,

झूठ पहनकर सच का चोला,
बनकर बैठा अजगर क्यों है।

वहीं, समाज को दूषित करने वाले देशद्रोही तथा गद्दारों की भी खबर लेती हुई उसे 'जयचंद' तक उन्होंने कह दिया है तथा देश को इससे बचाने की बात करती हैं-

पहले ही काफी भुगती है यह धरती घर के भेदी से,
अब और नहीं, अब और नहीं, फिर से कोई जयचंद नहीं।

लगन, परिश्रम, ध्यान, सद्भाव तथा कर्तव्य का निर्वहन ही वह सूत्र है जो व्यक्ति को सफलता का द्वार दिखाता है। शायरा ने तरक्की की शिखर तक पहुँचने के लिए निरंतर गतिशील तथा लगनशील रहने को कहती है-

उड़ानों की हर इक सीमा गगन पर आ के रूकती है,
प्रथम सीढ़ी सफलता कि सफ पर आ के रूकती है,
यहाँ खरगोश को भी मात दे जाता है इक कछुआ,
विजय की हर कसौटी तो लगन पर आ के रूकती है।

अगर इस पुस्तक के 'शिल्प' की बात करें तो इसका प्रयोग वातावरण के हिसाब से किया गया है। भाव व्यंजित करने के लिए प्रतीक, बिंब तथा लोक के तत्वों का सुंदर प्रयोग मिलता है। अंग्रेजी, उर्दू तथा हिन्दी के लोक प्रचलित शब्दों के प्रयोग से भाषा मारक एवं जीवंत हो गई है। सारे शे' र भावगर्वित हैं लेकिन लंबी बहर की ग़ज़लें ज़्यादा मारक है छोटी बहर की तुलना में। सहृदय पाठकों तथा लोक से प्रेम रखने वालों के लिए पुस्तक महत्त्वपूर्ण बन पड़ी है। अंत: कहा जा सकता है कि "चुप्पियों के बीच" पुस्तक में व्यक्ति की इच्छाशक्ति और समाज की विसंगतियों का संग्राम देखने को मिलता है।