चुलबुल-बुलबुल ही चहकते हैं / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 03 अक्तूबर 2013
पुराने चावल और पुरानी स्कॉच की तरह ऋषि कपूर और नीतू सिंह फिल्म 'बेशरम' का दिल हैं और आखिरी आधे घंटे में इन दोनों मंजे हुए कलाकारों ने अपने जादू से अपने युवा बेटे रणबीर कपूर की फिल्म को थामने का प्रयास किया है। इन दोनों के बीच एक द्वंद्व का दृश्य है, जिसमें अनाथ बच्चों के प्राण बचाने के लिए वे अपार धन को ठोकर मार देते हैं, इस दृश्य के बाद दोनों ने क्लाइमैक्स का भी निर्वाह किया है। इसके पूर्व पत्नी की जिद पर रिश्वत लेने वाले इंस्पेक्टर बुलबुल चौटाला के मन में नैतिकता के द्वंद्व को ऋषि कपूर ने एक अनुभवी सिद्धहस्त कलाकार की तरह किया है और उनके तथा नीतू के बीच के प्रेम का रसायन युवा नायक व नायिका से अनेक गुना बेहतर है। दरअसल, फिल्म इन दोनों के दृश्यों में ही प्राणवान लगती है। रणबीर कपूर की प्रतिभा का कोई दोहन इस फिल्म में नहीं हो पाया, क्योंकि निर्देशक द्वारा उसका चरित्र चित्रण ही ढीला है और फिर सपाट भावहीन नायिका साथ में हो तो रिएक्शन के अभाव में सारा एक्शन धरा ही रह जाता है। कोई भी निर्देशक एक मजेदार चुलबुल के सहारे सारा जीवन कैसे निकाल सकता है।
रणबीर कपूर के व्यक्तित्व में एक सहज मासूमियत है और अगर उसे तानाशाह की भूमिका भी दे दें तो भी उसकी मासूमियत पर आवरण डालना संभव नहीं है। उसके 'बेशरम' होने के प्रयास में मेहनत तो है, परंतु सहजता संभव नहीं हो पाई। रणबीर कपूर एक मूल्यवान प्रतिभा है, उसको जाया करना उचित नहीं है। बहरहाल, एक विलक्षण सृजन दौर में नजर न लगने के लिए काजल की आवश्यकता होती है। निर्देशक ने उसकी खुली जीप पर लिखा है 'रॉकस्टार', इम्तियाज अली की फिल्म की स्मृति कराने के लिए, परंतु उसकी भावना की तीव्रता हर किसी के बस की बात नहीं है। यह संभव है कि इस फिल्म में वे अपने किशोर कुमार बायोपिक की तैयारी कर रहे हैं।
दरअसल, इस फिल्म में गानों की इतनी अधिक भरमार है कि लगता है कि निर्देशक गानों के बीच समय मिलने पर कथा को आगे बढ़ा रहा है। अनेक लोगों को भ्रम है कि मसाला मनोरंजन गढऩा आसान है, परंतु यह काम अत्यंत कठिन है। अगर आप खाना पकाने की तरह भी इसे करें तो मसालों का संतुलन और खाने में सुगंध को पैदा करना आसान नहीं होता। इस तरह की फिल्मों के असहज, असामान्य घटनाक्रम को एक खास किस्म की प्रस्तुति की लुनाई लगती है। मनमोहन देसाई, डेविड धवन, अनीस बज्मी यह काम अत्यंत तरलता से करते रहे हैं। अभिनव कश्यप अभी नौसिखिए हैं। असहज में विश्वसनीयता लाना दुरूह काम है।
बहरहाल, ऋषि कपूर और नीतू सिंह ने अपने कॅरिअर के प्रारंभिक दौर में अनेक प्रेम कहानियों में अभिनय किया है और आज दूसरी पारी में प्रेम की अभिव्यक्ति बखूबी करते हैं। ऋषि कपूर अत्यंत प्रतिभावान कलाकार हैं और नीतू सिंह शेर के सामने बकरी की तरह नजर आती हैं, परंतु उनमें जीवट इतना है कि वह अपनी जमीन नहीं छोड़तीं। हबीब फैजल की 'दो दूनी चार' की पटकथा का केन्द्र ऋषि कपूर थे, परंतु नीतू ने उसमें भी गुंजाइश निकाल ली और शेर जिस धार पर पानी पी रहा था, वहां से वह प्यासी नहीं लौटीं। इस फिल्म में भी वह व्यावहारिक दुनियादार पुलिस सब इंस्पेक्टर है और पति को उकसाती रहती है, परंतु संवेदनशील पति चाहकर भी रिश्वत नहीं ले पाता। मध्यम वर्ग में नैतिकता के द्वंद्व को अभिव्यक्त करने में ऋषि कपूर माहिर हैं। इस फिल्म में ऐसे क्षणों में उसने प्राण फूंक दिए हैं। दरअसल, आज अमिताभ बच्चन, ऋषि कपूर, नीतू और जया बच्चन को लेकर कोई फिल्म बनाई जानी चाहिए। फसल के बाद फसल काटने वाले इन सिद्धहस्त कलाकारों को लेकर कमाल की फिल्म बनाई जा सकती है। दरअसल, रणबीर कपूर को अपने माता-पिता के साथ किसी अत्यंत जानदार फिल्म में होना चाहिए था। हमारे जैसे उम्रदराज लोगों की यह मजबूरी है कि हमें 'आवारा' में राज कपूर और पृथ्वीराज याद आते हैं और इन्होंने हास्य भी रणधीर कपूर की 'आज, कल और आज' में बकमाल किया था। आज बाजार के दौर ने 'युवा वय' को ही बेचना प्रारंभ किया है और इस फिल्म ने साबित किया है कि ऋषि कपूर व नीतू की तरह के सीनियर सिटीजन किसी युवा से कम नहीं हैं।