चूड़ीवाला / एक्वेरियम / ममता व्यास
दादी ने बचपन में एक कहानी सुनाई थी कि एक गांव में एक चूड़ीवाला आता था। सभी स्त्रियाँ उसे घेर कर बैठ जातीं और मनचाही चूडिय़ां पहनतीं लेकिन उनमें एक नवविवाहिता थी। जो अपनी पसंद की चूडिय़ां नहीं पहनती बल्कि अपने पति के रंग-रूप की कल्पना करके चूड़ी पहनती।
वो घंटों चूड़ीवाले से झिक-झिक करती, लड़ती और बतियाती कहती-"ओ चूड़ीवाले मुझे बहुत-सी चूडिय़ां पहनाया करो, मेरी कलाइयों में ये भरी-भरी चूडिय़ां मेरे पति की लम्बी उम्र की प्रतीक हैं।"
सुनो...मेरे पति की आंखों का रंग नीला है तो तुम मुझे आज नीली चूड़ी पहनाओ. कभी वह कहती मेरे प्रियतम के होंठ लाल हैं तो मुझे तुम लाल चूड़ी पहनाओ. मेरे पति का मन मेरे प्रेम में हरा है तुम मुझे हरे रंग की चूड़ी पहनाओ.
वह चूड़ीवाले का बेसब्री से इंतजार करती थी।
कुछ रिश्ते बातों के होते हैं, जज्बातों के होते हैं, लेकिन उन दोनों का रिश्ता हाथों का रिश्ता था। हाँ उनके बीच गोरी कलाइयाँ और रंग-बिरंगी चूडिय़ों का रिश्ता था। चूडिय़ां जितनी शिद्दत से उस पार से इस पार आने को आतुर रहतीं उसी शिद्दत से सूनी कलाइयाँ भी चूडिय़ों की खन-खन को तरसतीं।
उन दोनों के बीच घंटों चूडिय़ों के रंग को लेकर बहस होती कभी पति के लिए उसके इतने प्रेम को देख चूड़ीवाला उसे ताने भी देता, कभी वह उससे लड़ बैठती।
एक दिन उसके पति परमेश्वर ने उसे हंसते-मुस्काते बतियाते, देख लिया और उसी शाम शक और संदेह के खंजर से उसकी देह के कई टुकड़े कर दिए. हंसती-मुस्काती, रंग बिखेरती, इठलाती खनकती चूडिय़ां हमेशा के लिए खामोश हो गयी थीं।
इस बार जब चूड़ीवाला गांव में आया तो उसके पास बहुत-सी रंग-बिरंगी चूडिय़ां थीं। लेकिन उसके चेहरे के रंग उड़े हुए थे। उदास, दुखी चेहरा लिए वह खामोशी से उस राह से गुजर रहा था। जिस राह से कभी उसे कोई मीठी आवाज पुकारा करती थी। ओ चूड़ी वाले आओ ना...आज कौनसे रंग की चूडिय़ां लाये हो? आज वह आवाज भी खामोश थी और चूड़ी वाला भी। वह स्त्री जो अपने पति के आकंठ प्रेम में डूबी हुई थी और पति के रंग की चूडिय़ां मांगती थी। भोली, पागल और बावली स्त्री थी।
पति को वह अपना परमेश्वर मानती थी उसने ही उसे जख्म दे दिया। उसकी देह के जख्म रिस-रिस कर उसे बता रहे थे कि ओ बावली! तेरे पति की आंखों का रंग इसलिए नीला था, क्योंकि उसमे शक और संदेह का ज़हर भरा था। उसके होठों का रंग पान से नहीं तेरे खून से लाल हुआ था। तुझे खुश देखकर उसका मन हरा नहीं होता था। वह कमजोर पुरुष खुद को हारा हुआ मानता था।
बड़े अजीब रिश्ते हैं इस धरती के. वह अनजान चूड़ीवाला बहुत संभाल-संभाल कर धीरे-धीरे उन गोरी कलाइयों में चूड़ी पहनाता था, ताकि कोई चूड़ी गलती से उसे चुभ ना जाए. वहीं दूसरी ओर उस स्त्री के पति ने उस स्त्री की कोमल देह के बेदर्दी से टुकड़े ही कर डाले। आज भी रात के सन्नाटों में उस स्त्री के जख्म आवाज देते है ओ चूड़ी वाले आओ ना...
चूड़ीवाला भी ना जाने क्यों उस मीठी, खिलखिलाती आवाज़ को खोजता-फिरता है।