चूल्हा रोया, चक्की रही उदास / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 10 अप्रैल 2020
भारत की स्वतंत्रता के पहले मेहबूब खान की फिल्म ‘रोटी’ का कथासार कुछ यूं है कि एक धनवान की हवेली के निकट उसका हमशक्ल भिखारी बैठा होता है। उसकी बढ़ी हुई दाढ़ी के कारण वह पहचाना नहीं जाता। धनवान व्यक्ति अपने व्यक्तिगत टू सीटर टाइगर मॉथ हवाईजहाज से असम जाता है। यह दुर्घटनाग्रस्त हो जाता है। हमशक्ल भिखारी अपना हुलिया दुरुस्त कर धनवान की जगह ले लेता है। किसी को शक भी नहीं होता। वह अपने बच जाने की मनगढ़ंत कहानी सुना देता है वह उस जहाज में गया ही नहीं। धनवान सेठ सचमुच ‘आसमान’ से गिरकर खजूर में जा अटके’ की तरह बच जाता है। अर्नेस्ट हेमिंग्वे इसी तरह बच गए थे। अफसाने और हकीकत इसी तरह गलबहियां करते हैं। धनवान यात्रा करने की स्थिति में नहीं है। अत: वह खत लिखकर एक जनजाति के युवा को शहर भेजता है। यह भूमिका शेख मुुख्तार ने अभिनीत की थी। रेलगाड़ी द्वारा यात्रा में वह ‘हिंदू चाय’ पीता है, दूसरा व्यक्ति ‘मुस्लिम चाय’ बेच रहा है। वह इसे भी पीता है और दोनों से कहता है कि एक ही चीज दो नाम से बेचकर ठगते हो? यह व्यवस्था अंग्रेजों ने ‘बांटो और शासन करो’ नीति के तहत की थी। अंग्रेज जा चुके हैं, परंतु हमारी व्यवस्था आज भी बांटकर शासन कर रही है। मनमोहन देसाई ने भी राजेश खन्ना अभिनीत फिल्म ‘रोटी’ बनाई थी, परंतुु कथा का मेहबूब खान की फिल्म से कोई संबंध नहीं था। मेहबूब खान की ‘रोटी’ के क्लाइमैक्स में पोल खुलने के बाद हमशक्ल व्यक्ति कार में सोने के बिस्कुट भरकर भाग रहा है। एक मोड़ पर उसकी कार पलट जाती है। उसका सारा शरीर सोने से ढंका है। वह उठ नहीं सकता। इस निर्जन स्थान पर वह रोटी मांगता है। भूख सभी को लगती है। रोटी सभी की आवश्यकता है।
ईरान की एक कथा इस तरह है किसी परिवार में मृत्यु होती है तो दस दिन उस परिवार में चूल्हा नहीं जलाया जाता। पड़ोसी भोजन भेजते हैं। पड़ोसियों की आय अधिक है, इसलिए वहां से स्वादिष्ट भोजन आता है। कालांतर में इसी परिवार का एक और सदस्य बीमार पड़ता है तो अबोध मां से पूछता है बीमार कब मरेगा। वह स्वादिष्ट भोजन पाने के लिए इस तरह की बात करता है। बच्चे मृत्यु का अर्थ नहीं जानते। राज कपूर की आवारा में नायक जेल जाता है। जेल में मिली रोटी को देखकर कहता है, कम्बख्त रोटी बाहर मिली होती तो वह जेल के अंदर क्यों आता? सारांश यह है जद्दोजहद रोटी के लिए की जाती है। कहते हैं पापी पेट जो न कराए, वह कम है। भूख कई तरह की होती है, जिसमें अपनी प्रशंसा पाने की भूख भयावह होती है। कुछ लोग तालियों की गिजा पर पलते हैं। एक दौर में जितेंद्र ने दक्षिण भारत में बनने वाली हिंदी फिल्मों में अभिनय किया है। कुछ वर्षों बाद अपनी सफल पारी खेलकर वह मुुंबई लौटा। और अरसे बाद दाल-रोटी खाई तो उसे संतोष हुआ। कोरोना कालखंड में संस्थाएं गरीबों को भोजन मुहैया करा रही हैं। किसी भी देश में भूख से मृत्यु पूरी मानवता के लिए शर्म की बात है। शैलेंद्र ने 1957 में प्रदर्शित फिल्म ‘मुसाफिर’ के लिए गीत लिखा था। गीत का एक हिस्सा इस तरह है- एक दिन मुुन्ना मां से बोला क्यों फूंकती हो चूल्हा, क्यों न रोटियों का पेड़ लगा लें, रोटी तोड़ें, आप तोड़ें, रोटी आप खा लें’। शैलेंद्र रचित अन्य गीत है, ‘सूरज जरा पास आ, आज सपनों की रोटी पकाएंगे हम, ऐ आसमान, तू बड़ा मेहरबां, आज तुझको भी दावत खिलाएंगे हम, चूल्हा है ठंडा पड़ा और पेट में आग है, गरमागरम रोटियां कितना हसीन ख्वाब है, आलू टमाटर का साग, इमली की चटनी बने, रोटी करारी सिके, घी उस पे असली लगे। संघर्ष के दिनों में धर्मेंद्र को बहुत भूख लगी। कमरे में रहने वाले साथी का ईसबगोल का पूरा डिब्बा वे पानी में घोलकर पी गए। अगले दिन उन्हें दस्त लगे। उनका मित्र उन्हें डॉक्टर के पास ले गया। सारी बात जानकर डॉक्टर ने कहा इसे दवा की नहीं रोटी की जरूरत है। कोरोना कालखंड में सामाजिक संस्थाएं घर-घर अनाज पहुंचा रही हैं। इस बात का ख्याल रखा जा रहा है भूख से कोई न मरे। कुछ प्रयास मात्र कागजी हैं। याद आती है बाबा नागार्जुन की कविता जो इस तरह है- ‘कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास, कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास, कई दिनों तक लगी भीत (दीवार) पर छिपकलियों की गश्तें, कई दिनों तक चूहों की भी सतत रही शिकस्त, दाने आए घर के अंदर कई दिनों बाद, धुआं उठा आंगन से ऊपर कई दिनों बाद, चमक उठी घरभर की आंखें कई दिनों बाद, कौवे ने खुजलाई पांखें कई दिनों के बाद।