चूहेदानी / इंतिज़ार हुसेन / उपमा ऋचा
मूलतः 'बेरियम कार्बोनेट' शीर्षक से लिखी गई यह कहानी उन कहानियों में से एक है, जो किन्हीं कारणों से समय के प्रकाश से दूर रह गईं। लेकिन इसमें विचारों की इतनी रौशन बुनावट और कहन की इतनी बारीक़ कताई है कि यह लेखक की प्रतिनिधि रचनाओं के बराबर खड़ी नज़र आती है। और अगर आप अपने ख़यालों की धार तेज़ कर सकें तो जान लेंगे कि यह कॉलोनी इस मुल्क का ही एक रूपक है। और चूहे ... किसका रूपक हैं ये, आप कहानी पढ़कर ख़ुद समझ जाएँगे। तो आइए पढ़ते हैं — पाकिस्तान की मशहूर क़लम इंतिज़ार हुसैन की कहानी का हिन्दी अनुवाद।
यह सब जिस तरह से घटित हुआ, वह हमारी कल्पना के बाहर था। हालांकि इससे पहले भी इस कॉलोनी में हमारे पास बड़बड़ाते रहने की सैकड़ों वजहें थीं। मसलन न सड़क, न बिजली, न पानी… उस पर धूल भरे रास्तों पर क़दमताल करते हुए मील भर चलने के बाद कहीं बस के दर्शन होते, जो एक बार जाने के बाद दो-तीन घंटे से पहले वापस नहीं आती थी। फिर चाहे खड़े-खड़े पैरों में दर्द हो या ऑफिस का वक़्त गुजर जाए... लेकिन फिर भी कॉलोनी में घर ख़रीद कर जो छत का सुख नसीब हुआ था, उसके आगे ये तमाम शिकायतें छोटी जान पड़तीं और सब ये सोचकर चुप रह जाते कि आज घर मिला है, तो कल बाक़ी सुविधाएँ मिलेंगी ही। वैसे भी अशरफ़ चचा के मुताबिक़ कुछ दिनों में सड़क का काम शुरू होने वाला था। उसके बाद तो जन्नत ही जन्नत...।
'बस हर पन्द्रह मिनट पर आएगी और रोड से चलकर सीधा हमारी कॉलोनी के अन्दर रुका करेगी। यानी धूल फाँकते हुए मीलों दूर खरामा-खरामा चलकर जाने की मुसीबत से छुट्टी...' अशरफ़ चचा कहते और हम सब मान लेते। आख़िर इन सब मामलों में अशरफ़ चचा से ज़्यादा जानकार दूसरा था भी कौन? विकास प्राधिकरण वालों के बाद बस चचा का ही तो सहारा था। मगर बिचारे विकास प्राधिकरण वाले भी क्या करें? हैं तो वो भी आदमजात ही न। उनके भी काम करने की एक सीमा है। अब कोई अलादीन का तो चिराग है नहीं, जो पलक झपकते ही घर भी बन जाए, बिजली भी लग जाए, सड़कें भी तैयार जाएँ और बसों की व्यवस्था भी फ़िट-फ़ाट हो जाए। वो भी आजकल के माहौल में…! जहाँ आदमी की क्या बिसात, चिराग का जिन्न भी तौबा कर ले... लेकिन हम तो सब समझते थे, ज़िन्दगी की बिसात भी और इ्नसान की औकात भी। इसीलिए बेताला वक़्त से ताल मिलाते, गर्द का गुबार झेलते, मीलों दूर क़दमताल करते, बसों की लेटलतीफ़ी का रोना रोते, बॉस की लताड़ खाते जाने किस जन्नत की आस में जिए जा रहे थे ?
हम घरों में रहने तो लगे थे मगर वह भी अभी पूरी तरह से तैयार नहीं थे। कहीं प्लास्टर के बिना शरमाई सी बेपर्दा दीवारें, कहीं दरवाज़े नदारद… घरों के फ़र्श तो पक्के बन गए थे, पर बाहर हज़ार मर्तबा कुचलने के बाद भी इंच दो इंच लम्बी घास ज़िद्दी बच्चे की तरह सिर उठाए खड़ी रहती। बहुत लड़ने-झगड़ने पर सड़क बनने का सामान जिस रोज़ कॉलोनी में बिखरना शुरू हुआ, लगा जैसे जन्नत के दरवाज़े, बस, खुलना ही चाहते हैं। मगर सड़क तो क्या बनी… रोड़ी, पत्थर के ट्रक, मिट्टी ढोते गधों की कतारें, सिर पर ईंट लादे मज़दूर और इधर-उधर डोलते, भूखे अधनंगे बच्चों का रोना-चिल्लाना और आकर हमारे नसीब में जुड़ गया। रात-दिन बढ़ई की घर्र-घर्र सुननी पड़ती और रेत, सीमेण्ट की हवा को फाँकना पड़ता, लेकिन इसके सिवा कोई चारा भी नहीं था। कई बार लगता था कि जैसे ये भगदड़, ये आवाजाही, ये चिल्ल-पों ता-क़यामत जारी रहेगी। और हम सब यूँ ही अधूरे, अधबने मकानों में गृहस्थी के सामान भर उन्हें घर बनाने की जद्दोजहद में लगे रहेंगे। कहीं कुछ नहीं बदलेगा। कुछ भी नहीं.... लेकिन हम ग़लत थे। क्योंकि बढ़ई की घर्र-घर्र और हवा की सर्र-सर्र के बीच सैयदनी और अम्बाले वाली में कॉलोनी के इतिहास का पहला झगड़ा हुआ। झगड़े में दिल्ली वाली (अम्बाले वाली की सहेली) की तोहमतों का सैयदनी ने इतना बुरा माना कि कई दिन मुँह फुलाए घूमती रही ।
'अइ बीबी, चार दिन के साथ में ऐसा मिज़ाज ! मेरी तौबा। तुम्हें क्या लगता है, मैं कितने दिन यहाँ हूँ? अइ मेरी तो कर्बला जाने की कब से तैयारी हो चुकी है। मैं तो, बस, अपने बच्चे मोहसिन की वजह से रुकी हूँ यहाँ। बस, एक बार वो अमरीका चला जाए, तो मैं यहाँ एक बूँद पानी भी न पिऊँ...'
सैयदनी ने ताल ठोंक कर ऐलान किया तो पूरी कॉलोनी का मुँह खुला रह गया। हालाँकि बात तो सैयदनी के कर्बला जाने की भी कम सनसनीखेज़ नहीं थी, पर अमरीका !!! सबकी आँखें कानों तक फैल गईं और जो मोहसिन बेहद ज़रूरत होने के बावजूद एक साइकिल नहीं ख़रीद पा रहा था, एकाएक उड़ता नज़र आने लगा। मगर नसीब का लिखा कोई मिटा सकता है भला ! अल्लाह जाने सैयदनी ने अगर वो ऐलान न किया होता, तो कुछ बदल सकता था या नहीं… पर क़सम ख़ुदा की, उसके सस्ते चावलों ने जो क़यामत बरपाई कि उसे हम सब झेल रहे हैं और जाने कब तक झेलेंगे । आप सोचते होंगे चावल और कयामत ! हाँ जनाब, क़यामत यानी चूहे... लेकिन चूहे कॉलोनी में कैसे आए, यह भी एक कहानी है, जो सैयदनी की किचन से शुरू होती है ।
तो जनाब, हुआ कुछ यूँ कि एक रात सैयदनी की खाने की अलमारी ग़लती से खुली रह गई। दूसरी सुबह उसने देखा कि कुछ बर्तनों के ढक्कन फ़र्श पर पड़े हैं। दूध का भगौना औंधा पड़ा है और बचा हुआ दूध ग़ायब है। अलमारी में तो जैसे भूचाल आ गया था। हाथ फैला-फैलाकर सैयदनी ने सारे काण्ड की ज़िम्मेदार अम्बाले वाली की भूरी बिल्ली को ठहरा दिया और बतौर सज़ा अपने घर के दरवाज़े हमेशा के लिए अम्बाले वाली के लिए बन्द कर दिए। लेकिन एक रोज़ जब सैयदनी दूध छान रही थी, उसे दूध में कुछ काला-काला जमा दिखाई दिया। थोड़ी छानबीन के बाद उसका शक यक़ीन में बदल गया कि सारी करतूत दूध वाले की है और पूरा आरोप अम्बाले वाली की बिल्ली से उठाकर दूधिए पर मढ़ दिया गया। दूधिए को 'नेकी का बदला भरोसे का खून करके देने' वाला करार दिया गया। दूधिए की लाख क़समों के बाद भी सैयदनी उस हैजा फैलाने वाले की बात मानने को तैयार नहीं हुई। मगर दो-दो अपराधियों को सज़ा सुनाने के बाद भी सैयदनी के घर आए दिन भूचाल आना बन्द नहीं हुआ। आए दिन कोई क़यामत आती ही रहती। फिर एक रोज़ जब सैयदनी खिड़की से अपना कूड़ा पड़ोस के अधबने मकान में फेंक रही थी, उसे घास में एक लम्बी पूँछ छिपी दिखाई दी। आज तक की अपनी ्ज़िन्दगी में सैयदनी से कभी साँप, छछून्दर, चूहे, गिरगिट की पूँछ को पहचानने में कोई ग़लती नहीं हुई थी, सो आज कैसे होती। वह झट से पहचान गई कि पूँछ का रंग अभी-अभी पीले से लाल हुआ है, इसलिए यह बेशक 'गिरगिट' है। गिरगिट! यानि अल्लाह के बन्दों का दुश्मन... यानि उनकी कौम का मुल्ज़िम... नहीं उसे ्ज़िन्दा रहने का कोई हक़ नहीं... पर क्या करती, किचन की दीवार आड़े आ गई और देखते ही देखते कौम का मुल्ज़िम कूड़े के ढेर में कहीं ग़ुम गो गया। उस पूरी रात सैयदनी सो नहीं सकी। सोती भी कैसे, आँख बन्द करते ही नज़रों के सामने गिरगिट की पूँछ आ जाती और...।
जैसे-तैसे सवेरा होते-होते आँख लगी कि अजीब सी खटर-पटर की आवाज़ कानों में पड़ी। आवाज़ का पीछा करते-करते सैयदनी किचन तक पहुँची। लगातार खडख़ड़ाहट यहीं हो रही थी। उसने देखा रात की बची चिकन करी गैस के आसपास बिखरी हुई है। कुतरे आलू यहाँ-वहाँ लुढ़क रहे हैं और अलमारी की निचली दराज में से एक लम्बी पूँछ लटक रही थी। लेकिन जब तक सैयदनी बाँस उठाती, तब तक पूँछ गायब। फिर लाख ढूँढ़ा पर कोई सुराग नहीं मिला। लेकिन इतना ज़रूर हुआ कि सैयदनी समझ गई कि यह वक़्त बाहर के दुश्मन की चिन्ता में घुलने के बजाय घर के भीतर छिपे दुश्मन तलाशने का है। उफ ! यह नई मुसीबत ! घण्टा भर सोचने के बाद सैयदनी को कुछ समझ आया और अम्बाले वाली की भूरी बिल्ली (जो कल तक दुश्मन नं. १ थी) बड़े अदब से सैयदनी के घर बुलाकर अगले दिन तक के लिए किचन में बन्द कर दी गई। अगली सुबह जब सैयदनी ने किचन का दरवाजा खोला, वह फ़ैसला नहीं कर पाई कि बुराई की जड़ ख़त्म हो चुकी है या नहीं? पर रातभर में बिल्ली ने किचन के अन्दर जो सनसनी फैलाई थी, उसे देख सैयदनी का कलेजा मुँह को आ गया। ख़ैर, दुश्मन को तो पकड़ना ही था। अगली रात सैयदनी ने सारी उलट-पुलट की जा सकने वाली चीज़ों को किचन से हटा दिया और बिल्ली को फिर से किचन में बन्द कर दिया। सवेरे-सवेरे एक घुटी ची्ख़ से उबलकर सैयदनी जागी तो उसने देखा बरामदे में मुर्गी का दड़बा खुला हुआ है। मुर्गियांँ चीख़कर इधर-उधर भाग रही हैं और बिल्ली छलांग मारकर उन्हें झपटने की तैयारी में है।
'अइऽऽ ख़ुदा की मार तुझपे। तुझे दोज़ख़ भी नसीब न हो...' कलपती सैयदनी दौड़ी। सही वक़्त पर हाय-तौबा मच जाने से मुर्गियों की जान तो बच गई, लेकिन सैयदनी का बिल्ली पर से भरोसा उठ गया। उसने फौरन मोहसिन को बाज़ार से चूहेदानी लाने का फरमान सुना दिया। मगर चूँकि उसे चूहेदानी लगाने का 'आइडिया' कतई पसन्द नहीं आया, इसलिए फरमान पर ग़ौर किए बगैर वह अमरीका जाने के सपनों में खोया रहा। आख़िर इस मौक़े पर भी हमेशा की तरह अशरफ़ चचा काम आए और नसरू की दुकान में औंधी पड़ी चूहेदानियों में से एक सैयदनी के घर आ गई। रात में बड़े जतन से सैयदनी ने उसमें घी लगी रोटी का एक टुकड़ा फँसाया और किचन में रख दिया। रातभर धुक-धुकी सी लगी रही। मानो सवेरे कोई बड़ा खुलासा होने वाला हो। हार-जीत का फ़ैसला। वैसे एक तरह से यह हार-जीत ही तो थी। सैयदनी की जीत और चूहे की हार...।
जी हाँ ! सवेरे जब सैयदनी ने चूहेदानी को देखा। एक काला-मोटा लम्बी पूँछ वाला चूहा उसमें फँसा हुआ था। चूहे को फेंकने का जिम्मा दिल्ली वाली के बेटे को दिया गया, क्योंकि मोहसिन से तो कोई उम्मीद करना ही बेकार था। जैसे ही दिल्ली वाली का बेटा चूहे को लेकर बाहर निकला, लगभग हर घर से औरतें और बच्चे सैयदनी के मुल्ज़िम को देखने बाहर निकल आए। अच्छा-खासा मजमा इकट्ठा हो गया। आगे-आगे हाथ में चूहेदानी लिए दिल्ली वाली का बेटा और पीछे-पीछे शोर मचाते दर्जनों बच्चे। (शायद यह हमारी कॉलोनी का पहला जुलूस था) लेकिन हाय री क़िस्मत, चूहे को रिहा कर जुलूस जब पलटा तो सैयदनी के लाख सिर मारने के बाद भी वह 'चूहेदानी' का पता नहीं लगा पाई। उसे ज़मीन खा गई या आसमान... न दरोगा, न दरबान और जनता तो बेचारी शोर मचाकर चुप होने के लिए ही बनी है। जो भी हो, अब उसकी ख़ास ज़रूरत भी नहीं थी। किचन में एक बार फिर शान्ति कायम हो चुकी थी। हाँ, अम्बाले वाली की बिल्ली अब भी जब-तब परेशान करती थी। जैसे दाल फैला देना, दाल-मसालों के डिब्बे लुढ़का देना, मोहसिन की शर्ट को खा जाना वगैरह-वगैरह। अब बेचारी सैयदनी ज़्यादा कह भी तो नहीं सकती थी। आख़िर पड़ोस का मामला ठहरा। सो खून का घूँट पीकर जी रही थी।
मगर असलियत क्या है, यह तो ख़ुद उसे भी पता नहीं थी। सच से परदा उठा मुहर्रम के दिनों में, जब सबको सैयदनी ने अपने घर पुलाव की दावत का न्योता दिया। हम सब सैयदनी के घर (इमामबाड़े में) होती रहने वाली शीर कोरमा, नान-कीमा, जलेबी की दावतों के बारे में पहले भी कई बार सुन चुके थे, इसलिए जंगल में आग की तरह सैयदनी के न्योते की ख़बर कॉलोनी भर में फैल गई। दावत के दिन हम सब फीरनी और पुलाव के स्वाद में गोते लगाते सैयदनी के घर पहुँचे। मगर यह क्या... केवल जलेबी! हाजिरी का खयाल करते हुए सबने एक-दो जलेबी खाई और उठ गए। हममें से किसी को पता नहीं था कि सैयदनी के घर में पिछले आठ दिनों में क्या हुआ? ख़ुद सैयदनी फालिज का सा शिकार बनी शर्म से मुँह गाड़े थी। शायद पहले से उसे भी पता नहीं था। वरना कुछ इंतज़ाम तो कर ही लेती और जब सच का पता चला तो दावती आने को तैयार खड़े थे। उस वक़्त अशरफ़ चचा से जलेबियां मँगाने के सिवा रास्ता भी क्या था उसके पास? हम सब सकते की हालत में थे, आखिर ऐसा हो कैसे सकता है? पीली कोठी वाली को तो भरोसा ही नहीं हो रहा था। पर अम्बाले वाली चश्मदीद गवाह थी, वह भला क्यों चुप रहतीं ।
'मियां, मैंने अपनी आँखों से देखा था लकड़ी के ड्रम में इत्ता बड़ा छेद... अंगुली और अंगूठे को जोड़कर छेद बनाते हुए उसने कहा।
'अरी भैना सच्ची !! पर मैं तो जे सोच रही हूँ कि ज़रा से चूहे ने इत्ती मोटी लकड़ी काटी कैसे?' पीली कोठी वाली ने पूछा तो अम्बाले वाली बमक उठी ।
'अइ लो, जे यहीं अटकी पड़ी एँ कि दाँत ऐसे... कि काटी कैसे? मगर मियां मैं तो कहूँ अल्लाह ख़ैर करे, अगर ये नास... एक बार फैल गए न, तो फिर खाना-पीना सब दुश्वार समझो ।'
दिल्ली वाली तो जैसे बिच्छू जड़ी सूंघे बैठी थी। पीली कोठी वाली अलबत्ता बीच-बीच में सुगबुगाती रहती, 'अई आपा, मगर इत्ता बड़ा पेट है उनका कि दावत का चावल उड़ा जाएँ। हैं भला !'
'मैंने भी कौन सा यक़ीन किया था सैयदनी की बात पर, लेकिन जब उसने कोने में ले जाकर ख़ुद मुझे दिखाया, तब यक़ीन हुआ। ड्राम में मुश्किल से मुट्ठी भर चावल बचे होंगे बाक़ी सब...' कहते-कहते अम्बाले वाली के तन में झुरझुरी सी दौड़ गई। उस रात सैयदनी की बैठक में एक अरसे बाद कॉलोनी की औरतें जुटीं। आख़िर सबके सिर पर एक ही ख़तरा मंडरा रहा था। भले हमला अभी एक घर में हुआ था मगर उसकी गिरफ़्त में पूरी कॉलोनी थी। इसलिए ज़रूरी था कि मुसीबत में सब मिलकर लड़ें और अंत में फैसला भी यही हुआ ।
दूसरे दिन हर घर में चूहा ढूँढ़ो अभियान छिड़ गया। बेटी का दहेज़ इकट्ठा कर रही दिल्ली वाली ने सारा सामान धूप में निकाल दिया। बेटी का शादी का जोड़ा, उनका दुपट्टा छोटे-बड़े छेदों से छलनी बना हुआ था। अम्बाले वाली के घर से भी चूहे के बिल बरामद हुए। पीली कोठी वाली का घर तो सैयदनी से दूर था पर वहाँ भी कपड़े खाए हुए मिले। और तो और, अशरफ़ चचा के ज़रूरी कागज़ात भी कुतरे हुए थे। कॉलोनी में एक साथ जैसे तहलका मच गया। अशरफ़ चचा जब नन्बा पंसारी के यहाँ पूरे वाकये को बयान कर रहे थे, उसी समय वहाँ बैठे मौलवी उस्मान अली हाथ में पकड़ी किताब (जिसके आधे से ज्यादा पन्ने नमक, खटाई बाँधने के काम में लाए जा चुके थे) को एक तरफ़ करके बोले —
'अमा अशरफ़ अब मैं क्या कहूँ, मेरे पास तेहरान से छपी एक बड़ी पुरानी मेन्यूस्क्रिप्ट थी। बदमाशों ने उसे भी चबा डाला। समझ नहीं आता क्या करूं...?'
लेकिन करना क्या था! नसरू की दुकान ज़िंदाबाद !! अशरफ़ चचा फौरन वहाँ गए और एक चूहेदानी ले आए। देखा-देखी कॉलोनी के और भी कई लोग चूहेदानी लाने दौड़े। एक ही दिन में नसरू की कई चूहेदानी बिक गईं। सैयदनी ने भी दिल्ली वाली के बेटे को दौड़ाया। मगर तब तक चूहेदानी का भाव एक रुपए से बढ़ाकर नसरू ने डेढ़ रुपया कर दिया था।
'क्या अँधेर मचा रखी है, कोई हिसाब भी होता है या...?' सैयदनी नसरू की बेईमानी पर बड़बड़ाने लगी।
दिल्ली वाली ने समझाने की कोशिश की, 'अब किया भी क्या जा सकता है सैयदनी, चूहेदानी की माँग बढ़ गई है। इसलिए नसरू ने भी दाम बढ़ा दिए हैं। मैंने ख़ुद सवा रुपए में खरीदी है। पर चीज़ें कुतरवाने से तो अच्छा है कि थोड़ा पैसा ख़र्च दिया जाए। बल्कि आपा, मैं तो कहूँ, तुम भी मेरी तरह हर कमरे के लिए एक चूहेदानी ख़रीद लो...' आदत के मुताबिक दिल्ली वाली ने इस मौक़े पर भी अपनी ठसक दिखाई।
हारकर बेचारी सैयदनी को चूहेदानी डेढ़ रुपए में ख़रीदनी ही पड़ी। भई, मेरे हिसाब से तो यह भी महँगा सौदा नहीं था, क्योंकि जिस तरह से लोग हर कमरे के लिए चूहेदानियां ख़रीद रहे थे, नसरू ने दाम बढ़ा दिए तो क्या गुनाह किया। अब चूहेदानियां भी बाक़ायदा लाइन में नंबर लगाने के बाद मिल रही थीं। अजब हालात थे। बड़ी-सी कॉलोनी में नसरू की छोटी-सी दुकान और लंबी लाइन। लोग थोड़ी ही देर में हो-हल्ला करने लगे। पुलिस आई, कुछ डंडे पड़े, तब कहीं भीड़ छंटी। आलम यहाँ तक पहुँच गया कि चूहेदानी की कालाबाज़ारी होने लगी। अशरफ़ चचा जैसे नेक इंसान के लिए यह सब नाकाबिले बर्दाश्त था।
'घर के बाहर कालाबाज़ारी और घर के अंदर बेख़ौफ़ घूमते लंबी पूँछ वाले स्मगलर्स...। हर बात के लिए एक दिलासा, मगर कब तक? पिस तो आख़िर हम रहे हैं न। अधबने घर की खुली अलमारियों में मेरे क्लेम के ज़रूरी कागज़ात हर लम्हा मुझे डराते हैं। कितनी बार अफसर से कहा कि साहब कम से कम मेरी दरख़्वास्त तो मंजूर कर लो, वरना क्या पता कल मेरे दावे के काग़ज़ ही न रहें, पर कोई सुनने वाला ही नहीं...।’
अशरफ़ चचा के मुँह से ऐसी औल-फौल बातें पहली बार सुनी थीं लेकिन वह अकेले नहीं थे। मोहसिन तो जाने कब से अपनी अमरीका जाने की स्कॉलरशिप की एप्लीकेशन के लिए इस दफ़्तर से उस दफ़्तर तक चक्कर लगा रहा था। अब तो उसे अफसरों के चेहरे भी रट गए थे। हर रोज़ ऑफिस जाना, रिसेप्शनिस्ट को अपने नाम की पर्ची थमाकर काँच की गोल टेबल पर बिखरे अखबारों को एक के बाद एक पढ़ते जाना। बीच में अगर कोई अफसर बुला ले तो दौड़कर जाना...। हम यह सब तो बहुत पहले से सुनते आ रहे थे। अशरफ़ चचा की कहानी में नया क्या था? सिवाय इसके कि एक दिन बड़े बाबू तक पहुँच गए चचा अगले दिन ऑफिस के बाहर ही रोक दिए गए, क्योंकि वे चपरासी को 'चाय-पानी' के लिए आठ आने से ज़्यादा देने को तैयार नहीं हुए। अल्लाह तौबा, क्या हौलनाक दिन थे! जहाँ हर पल लगता था जैसे अंदर ही अंदर हम सब खोखले होते जा रहे हैं।
इस बीच न जाने कितनी बार अशरफ़ चचा ने घर से क्लेम ऑफिस की दूरी को नापा होगा। इस कवायद का और कुछ सिला मिला, न मिला। चचा ने इतना ज़रूर जान लिया कि बाहर से जो मकान मजबूती का वादा करके हमें दिए गए थे, वे असल में ताश के महल से ज़्यादा नहीं। जो सच घर में रहकर हम अनदेखा करते रहे वो बाहर निकलकर ज्यादा ही उघड़कर सामने आया। दिल्ली वाली भी कम खोजी नहीं थी। दीवार पर अपनी अँगुलियां मारते हुए बोली,
'मैं तो पहले दिन से ही ख़ौफ़ में हूँ। अई बीबी! ये काग़ज़ की दीवारें कितना संग देंगी?'
और फिर जब पहली बारिश के बाद सैयदनी और पीली कोठी वाली की छत पनारे सी टपकने लगी, दोनों को चुप करना मुश्किल हो गया। सैयदनी मत्थे पर हाथ मार-मारकर कॉलोनी बनाने वाले की सात पुश्तों को दोज़ख़ की आग में धकेलने लगी और पीली कोठी वाली कपड़े लत्तों को समेटते हुए खुद ही ओलों की तरह बरसने लगी।
'चार सीकों पर पतंगी काग़ज़ लपेटकर छत बना दी है कमबख़्तों ने। अल्लाह की मार पड़े ऐसे बेईमानों पर...'
हैरान तो ख़ैर सब ही थे। हमने अशरफ़ चचा से पूछा, 'आपकी दरखास्त का क्या हुआ?'
अजब सी बेखयाली में चचा ने जवाब दिया, 'मैंने चूहेदानी लगा दी है। अब देखें बेटा, आगे क्या होता है। सब अल्लाह के हाथ में है।'
लेकिन क्या वक़्त था... अशरफ़ चचा की चूहेदानी की तरह हम सबकी चूहेदानियां भी बेकार साबित हो रही थीं। पहले दो-चार दिन, एक-दो चूहे बरामद हुए। उसके बाद वही चूहेदानी, वही घी चुपड़ी रोटी के टुकड़े, मगर चूहे नदारद। अम्बाले वाली अपने बरामदे में खड़ी-खड़ी कहने लगी —
'आजकल के चूहे भी होशियार हो गए हैं।'
दिल्ली वाली ने जोड़ा, 'वो होशियार हुए हैं या हम ही मूर्ख हैं। हम सब कुछ सह रहे हैं, क्योंकि हम ख़ुद एक बड़ी चूहेदानी में क़ैद हैं। हम सोचते हैं, एक रोटी के टुकड़े के लालच में उन्हें फंसा लेंगे, मगर चीज़ों को ख़ुद सहेजना हमें कभी नहीं आएगा..' दिल्ली वाली दिल्ली की थी। इसलिए कभी-कभी ऐसी बड़ी-बड़ी बातें कह दिया करती थी जो बाद में ख़ुद उसे समझ में नहीं आतीं।
पास खड़ी सैयदनी मुँह बिचकाकर अंदर चली गई, 'हुंह! तू ही लाई थी दर्जन भर चूहेदानी। अब देखती रहियो पड़ी-पड़ी ख़ाली पिंजरे...!!'
सैयदनी की इस हरकत ने उनके दिलों में छिपी दुश्मनी की खाई को थोड़ा और चौड़ा दिया। लेकिन उनके असली दुश्मनों यानि चूहों पर इसका कोई असर न हुआ। उनका आतंक दिनोंदिन बढ़ता गया। रोटी के फेल हो जाने के बाद लोगों ने चूहेदानी में परांठे-पूड़ी लटकाए, अनाज बदले। मगर सब बेकार। हर तरकीब दो दिन के बाद तीसरे दिन दम तोड देती। हैरानी इस बात कि भी थी कि इतने सख़्त पहरे और पकड़म-पकड़ाई के बावजूद चूहों की जनसंख्या कम नहीं हो रही थी। मोहसिन, एक तो नया ख़ून उस पर अमरीका का भावी नागरिक... उसकी नज़र में उनकी तकलीफ़ कम नहीं हो पा रही थी, क्योंकि उनके द्वारा आजमाए जा रहे नुस्खे पुराने हो चले हैं। उसने अम्मी को 'बोरियम कार्बोनेट' के बारे में बताया, जिसे अमरीकी कृषि वैज्ञानिकों ने इस्तेमाल किया और उससे खेतों को उजाड़ने वाले जंगली चूहों से आज़ादी पाई। मगर इस बार बेटे का खयाल माँ को ख़ास पसंद नहीं आया और वह अपने पुराने ढंग पर ही अटकी रहीं। एक दिन स्कॉलरशिप ऑफिस से लौटते वक़्त मोहसिन को बस में अशरफ़ चचा मिल गए। उसने अपनी सोच के बारे में उन्हें बताया और एक हद तक राज़ी कर लिया, क्योंकि वह जानता था कि हम सब आख़िर में चचा की सुनते हैं। बस से उतरने तक चचा मोहसिन की बात पूरी तरह समझ चुके थे। वहाँ से वह सीधे मुनव्वर मेडिकल स्टोर गए। एक ज़माना था, जब वहाँ बमुश्किल दस-बारह दवाएँ मिलती थीं और बाक़ी दुकान ख़ाली मुँह चिढ़ाती सी लगती। मगर फिर वक़्त ने करवट बदली और देखते ही देखते ख़ाली दुकान के पायदान ऊँचे होते चले गए और... ख़ैर !
चचा दुकान पर पहुँचे। बड़ी आशा के साथ बोरियम कार्बोनेट माँगा।
जवाब मिला, 'आउट ऑफ स्टॉक नाउ….! आप ऑर्डर लिखा जाइए जैसे ही माल आएगा, आपको इत्तला कर दूंगा।'
चचा ने फौरन ऑर्डर लिखा दिया। न जाने क्यों उन्हें बड़ी राहत महसूस हो रही थी। आज नहीं तो कल माल आते ही सारे चूहे साफ़! चचा ने जैसे ही यह ख़बर हमें सुनाई, सबको लगा जैसे नई दुनिया की खोज हुई हो। चूहों ने हमारी ज़िंदगी को इस क़दर तहस-नहस कर दिया था कि आशा की एक नन्ही-सी किरण भी सूरज लगने लगती। इसीलिए उस दिन के बाद मुनव्वर मेडिकल स्टोर हमारा नया स्टैण्ड बन गया। रोज़ सुबह-शाम आते-जाते हम लोग वहाँ से गुज़रते। करते भी क्या, चूहों से न खाना बच रहा था, न कपड़े। दिन में हर चीज़ को ढूंढ़-ढूंढ़कर उसके ठिकाने पर रखा जाता पर रात होने के बाद किसी को पता नहीं होता कि वे कहाँ मिलेंगी और उनमें कितने छेद होंगे? दिन घावों को ढूंढ़ते, मरहम लगाते बीतता और रात डरावने सपनों की तरह गुजरतीं। कभी महसूस होता जैसे कोई मूँगफलियां तोड़ रहा हो, कभी धीमे-धीमे किसी लकड़ी के कुतरे जाने की आवाज़ कानों से टकराया करती। हर रात के बाद लॉन में कुछ नए बिल, दरवाज़ों में कुछ नए छेद बरामद होते...। पहले-पहल एक चूहे की चमकती आँखों को देखकर जो सैयदनी उसके पीछे फटा बाँस लेकर दौड़ी थी, अब एक, दो, तीन, चार... कतार बनाकर खेलते चूहों की फ़ौज को देखकर भी बेबस बैठी रहती। कभी-कभी चूहे के बिलों, उनमें से झाँकती लंबी पूंछों को देखकर उसे ख़्याल आता कि ये चूहे की नहीं गिरगिट की पूँछ है और यह सोचते ही उसके ख़ून में एक सनसनी दौड़ जाती। फिर भी वह ग़म खाई सी बैठी रहती। मानो किसी ने उसकी जड़ों को बाँध दिया हो। सैयदनी ही नहीं, कमोबेश हम सबकी यही हालत थी। दस बार मांजे हुए बर्तन गंदे लगते। जुमे के जुमे घर धुलने के बाद भी नंगे पैर चलते डर लगता। हर वक़्त हम लोग एक डर के साए में जी रहे थे। कभी-कभी लगता, हमारे किसी पुराने पाप का फल अल्लाह हमें चूहों की मार की शक्ल में दे रहा है ।
सैयदनी की पाँचों वक़्त की नमाज अब एक ही दुआ के गिर्द घूमने लगी थी, 'अमरीका और कर्बला..' लेकिन न उसकी दुआ कुबुल हुई और न हमारे घरों से चूहे विदा हुए। हम सब रोज़-रोज़ मुनव्वर मेडिकल स्टोर जाते रहे और रोज़-रोज़ वहाँ से हताश लौटते रहे। हर बार हमारे ख़ाली हाथ देख मौलवी उस्मान अली अपने सिर को थोड़ा झुकाकर हमें चेताते —
'जब तक हम ख़ुद सुधरेंगे नहीं, तब तक कोई बोरियम कार्बोनेट हमारी ज़िंदगी को खुशहाल नहीं बना पाएगी।' फिर किसी दार्शनिक उपदेशक की तरह हमें कहानियाँ सुनाने लगते। हम रोज़ एक ही कहानी सुनते, एक ही विषय पर बात करते, इतना ऊब चुके थे कि अगर कोई हमसे कल और आज में फ़र्क़ करने की कहता तो हम हकबका जाते। हर नया दिन गुज़रे हुए दिन की तरह आता और चला जाता। दिन की छोड़ें, अब तो सूरज की धूप और चाँद की चाँदनी में भी हमारे लिए कोई फ़र्क़ नहीं रह गया था। हाँ, एक लकड़ी काटने की खर्र-खर्र, मूँगफली तोड़ने की आवाज़ ज़रूर लगातार हमें निगलती जा रही थी। हमारे दिन का चैन, रात की नींद सब... मानो सब कुछ इस नाशुक्री घड़ी पर आकर थम गया हो। धरती ने घूमना बंद कर दिया और वक़्त ने भी आगे बढ़ने से मना कर दिया हो। बोरियम कार्बोनेट, बिजली, सड़क, मकान सब अनजान वादों की जकड़ में हों। आज, कल या परसों... कहीं, कुछ नहीं बदलेगा। हमें ऐसे ही जीना होगा, किसी अनदेखे क्षितिज के भ्रम में। यह तकलीफ़ तब ज़्यादा चुभने लगती, जब एक फर्लांग दूरी पर जगमगाती लाइट और बल खाती काली सड़क पर दौड़ती बस दिखाई पड़ जाती। तब लगता कि किसी दिन अशरफ़ चचा अपने क्लेम के ऑफिस से लौटेंगे और हमारे बदले हुए चेहरे, हमारी सिकुड़ती आँखों, हमारी घुटी-घुटी आवाज़ को देख सन्न रह जाएंगे। वह पलटकर भागेंगे कि शायद बदलते वक़्त को पकड़ सकें। मगर सब बेकार, सब बेकार... खीझ जब हद से बढ़ जाती तो मन करता समय का पहिया उल्टा घुमा दें और फिर से उसी ज़माने में लौट जाएँ जब पेड़ ही घर थे, धूप-रोशनी और धरती कारपेट की तरह बिछी थीं पैरों तले। जितना आगे बढ़े, हम उतना ही घुटते गए, उतना ही फंसते गए... लगता पत्थरों के दड़बे (हमारे एक बरसात में ही बदसूरत से दिखने वाले मकान) धीरे-धीरे सिकुड़ते जा रहे हैं और एक दिन इन दीवारों के बीच हम ग़ायब हो जाएंगे। बाक़ी बचेगी केवल मूँगफली टूटने की आवाज़ और पेड़ काटने की खर्र-खर्र, खर्र-खर्र..
हम न जाने कब तक ऐसी ही बेकार-फिज़ूल बातों में गुम रहते, अगर उस दिन मुनव्वर मेडिकल स्टोर पर बोरियम कार्बोनेट आ जाने की ख़बर न आई होती। लगा, जैसे बस अब सब सही हो जाएगा। अपनी हदें तोड़ती ख़ुशी को छिपाती भीड़ मुनव्वर मेडिकल स्टोर की ओर दौड़ी। हमारे पहुँचने से पहले वहाँ और भी लोग जमा थे। शायद पूरी धरती ही चूहों ने खोद दी थी। सब जल्दी से जल्दी अपना-अपना ऑर्डर ले लेना चाहते थे। मगर दुकान का शटर नीचे करते हुए मैनेजर ने बताया —
'माल ख़त्म हो गया। अब तो आप लोग अगली खेप का इंतजार कीजिए...'
'ख़त्म हो गया!! अजी ऐसे कैसे? अभी कल ही माल आया था और हमारा तो ऑर्डर भी पहले से बुक था न...' अशरफ़ चचा बिगड़ गए।
'हाँ चचा, आपका ऑर्डर बुक था, लेकिन रामगढ़ वाले ज़मींदार रात को ही पूरा माल उठा ले गए। उन्होंने भी बहुत दिनों से ऑर्डर लिखवाया हुआ था।'
'यहाँ हम इतनी मुसीबत में एक-एक दिन गिन रहे हैं और वह ज़मींदार पूरा माल कैसे उठा सकता है?'
'चचा, वहाँ ज़्यादा बड़ी मुसीबत आई है। रामगढ़ की पूरी ज़मीनें चूहों ने खोखली कर दी हैं। अब सोचो अगर खेती ही उजड़ गई तो इस साल अनाज कहाँ से खाओगे?'
'चूहे... ज़मीन... अनाज... भूख..' चचा इतने भौचक्के थे कि टुकड़ा-टुकड़ा जाने क्या बोलने लगे।
मुनव्वर मेडिकल स्टोर से भीड़ थोड़ी देर में छँटने लगी। ग़म खाए से चचा थके-थके क़दम घसीटते हुए नन्वा की दुकान पर पहुंचे। ख़बर वहाँ पहले ही पहुँच चुकी थी। हवा में अजब-सा सन्नाटा पसरा था। मौलवी उस्मान अली हुक्का भी यूँ गुडगुड़ा रहे थे कि कहीं आवाज़ न हो। चुप्पी गहरी होते देख नन्वा अशरफ़ चचा से कहने लगा,
'चचा, रामगढ़ का घी वाला आया था। वह बता रहा था कि हमारे इलाके में चूहों का हमला हुआ है, हमला... बात केवल कपड़ों और खाने-पीने के सामान की नहीं, कोई बड़ी बीमारी भी फैल सकती है...'
चचा चुप रहे पर नसरू बोला, 'हाँ, मैंने भी सुना है। चूहे हज़ारों की तादाद में ज़मीन खोदकर निकल पड़े हैं...'
'अल्लाह मेहर करना,' दोनों हाथ उठाकर परेशान से मौलवी उस्मान अली ने दुआ पढ़ी, 'दूसरों के बिल खोदकर अपने घर बसाएंगे तो और क्या होगा। ये तबाही हमने अपने हाथों ही तो बुलाई है।'
चचा की खामोशी अब भी जारी थी। थोड़ी देर ख़ाली ज़मीन को घूरते रहने के बाद मौलवी साहब उठकर घर चले गए। तब भी चचा बुत की मानिंद बैठे रहे। सच तो ये था कि हममें से किसी के पास कहने के लिए कुछ बचा ही नहीं था। एक उदास ख़ामोशी में डूबा वक़्त सरकता रहा और धीरे-धीरे भीड़ भी छँट कर अपने-अपने दड़बों में क़ैद हो गई। यह रात हमारी ज़िंदगी की सबसे ज़्यादा डरावनी रात थी, आहिस्ता-आहिस्ता ख़त्म होते जाने का एहसास सारी रात हमें दबोचे रहा। जाने किस पहर आँख लगी कि सुबह सैयदनी की चीखों से नींद खुली,
'कीड़े पड़ें नन्वा तुझमें। तुझे तो अल्लाह देखेगा। अई, बेईमानी की भी कोई हद होती है। दो दिन पहले ही तो उससे उड़द की दाल ख़रीदकर लाई थी। आज बच्चे को भेजा तो रातोंरात मियांजी ने दाम दोगुने कर दिए। अरे, ऐसी भी क्या हाय माया।'
उड़द की दाल ही नहीं, रातोरात दाल, सब्जी, अनाज सबके दाम बढ़ गए थे। हममें से कोई नहीं जानता था कि ये हालात कहाँ जाकर रुकेंगे? अपने बनाए जाल में फंसे हुए हम लोग जाएं तो कहाँ? हमारी बेबसी कि हमें यहीं जीना था। पर सैयदनी ने ऐसी अँधेर नगरी में और रहने से सचमुच तौबा कर ली।
'ना जी! उस अमरीका वाले का तो कोई भरोसा नहीं। इस दोज़ख़ में मैं कब तक जलूं। मैं तो कर्बला चली जाऊँगी.'
वह दिन और आज का दिन। कितना वक़्त बीत गया। हर दिन एक नई महामारी फैलती है। कॉलोनी सड़कों, बिजली के बिना अब भी वैसी ही रूखी-सूखी है। नल लग चुके हैं पर पानी नदारद है। बिजली के लट्ठे हैं, तार भी खिंच गए हैं, मगर घर रोशन ऊपर वाले की मर्जी से ही होते हैं। तार और लट्ठे रोशनी कि गारंटी तो नहीं दे सकते न। ठीक वैसे ही जैसे दर्जनों ऐलान के बावजूद सैयदनी अब भी यहीं, इसी अँधेर नगरी में हमारे बीच रह रही है। मोहसिन रोज़ कॉलोनी से शहर जाता है, लेकिन अमरीका जाने की स्कॉलरशिप की दूर-दूर तक कोई उम्मीद उसके चेहरे पर नज़र नहीं आती...।
अँग्रेज़ी से अनुवाद : उपमा ऋचा