चेतना को पहचानों / ओशो
प्रवचनमाला
एक झोंपड़े में बैठा हूं। छप्पर की रंध्रों से सूरज का प्रकाश गोल चकतों में फर्श पर पड़ रहा है। उनमें उड़ते धूलिकण दिख रहे हैं। प्रकाश के वे अंग नहीं हैं, पर उन्होंने प्रकाश को धूमिल कर दिया है। वे प्रकाश को छू भी नहीं सकते हैं, क्योंकि वे अत्यन्त भिन्न और विजातीय हैं। फिर भी प्रकाश उनके कारण मैला हो गया दिखता है। प्रकाश तो अब भी प्रकाश है। उसके स्वरूप में कोई भेद नहीं पड़ा है। पर उसकी देह- उसकी अभिव्यक्ति अशुद्ध हो गई है। इन विजातीय अतिथियों के कारण आतिथेय बदला हुआ दिख रहा है।
ऐसे ही मनुष्य की आत्मा के साथ भी हुआ है। उसमें भी बहुत से विजातीय धूलिकण अतिथि बन गये हैं और इन धूलिकणों में उसका जो स्वरूप है, वह छिप गया है। आतिथेय जैसे बहुत अतिथियों में खो जाये और पहचाना न जा सके, ऐसा ही हो गया है। पर जो जीवन से परिचित होना चाहते हैं और सत्य का साक्षात करना चाहते हैं, उनके लिए आवश्यक है कि वे अतिथियों की भीड़ में उसे पहचाने जो कि अतिथि नहीं है और गृहपति है। इस गृहपति के जाने बिना जीवन एक निद्रा है। उसकी पहचान से ही जागरण का प्रारंभ होता है।
वह पहचान ही ज्ञान है। उस पहचान से उससे परिचय होता है, जो कि नित्य शुद्ध-बुद्ध है। धूलिकणों से प्रकाश अशुद्ध नहीं होता है, न ही आत्मा होती है।
प्रकाश धूमिल हो जाता है, आत्मा विस्मृत हो जाती है।
आत्मा के प्रकाश पर कौन सी धूल है?
वह सब जो भी मुझ में बाहर से आया है- वह सब धूल है। उसके अतिरिक्त जो मुझ में है, वही मेरा स्वरूप है। इंद्रियों से जो भी
उपलब्ध और संग्रहीत हुआ है, वह सब धूल है।
ऐसा क्या है मुझमें, जो इंद्रियों से उपलब्ध नहीं है? रूप, रस, गंध, ध्वनि-इसके अतिरिक्त और मुझ में क्या है?
वह सत्य है : चेतना-जो कि इंद्रियों से गृहीत नहीं है।
वह इंद्रियों से नहीं आयी है- वरन उनके पीछे है।
यह चेतना ही मेरा स्वरूप है, शेष सब विजातीय धूल है। वही गृहपति है, शेष सब अतिथि हैं। इस चेतना को ही जानना और उघाड़ना
है। उसमें ही उस संपदा की उपलब्धि होती है, जो कि अविनश्वर है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)