चेन्नई एक्सप्रेस 141 मिनट का सफर / जयप्रकाश चौकसे

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चेन्नई एक्सप्रेस 141 मिनट का सफर
प्रकाशन तिथि : 10 अगस्त 2013

रोहित शेट्टी की शाहरुख खान, दीपिका पादुकोण अभिनीत 'चेन्नई एक्सप्रेस' 141 मिनट की मनोरंजक यात्रा है और किसी भी उबाऊ स्टेशन पर यह गाड़ी नहीं रुकती। निर्मल आनंद प्रदान करने वाली इस फिल्म में 'विटी' संवाद हैं और सबसे अधिक आश्चर्य की बात यह है कि यह किसी दक्षिण भारतीय फिल्म का हिंदुस्तानी संस्करण नहीं है। रोहित शेट्टी ने इसे कुछ वर्ष पूर्व लिखा था। प्रेस को दिए अपने बयान के अनुरूप शाहरुख खान ने टाइटल्स में पहले नायिका का नाम दिया है और फिल्म की जान भी दीपिका ही हैं। उन्होंने तमिल भाषी युवती की भूमिका में गजब की ऊर्जा प्रवाहित की है और अब वे अपनी समकालीन अभिनेत्रियों से मीलों आगे जा चुकी हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि शाहरुख खान ने अपनी अगली फिल्म के लिए भी उन्हें अनुबंधित कर लिया हो।

रोहित शेट्टी के सिनेमा में अतिरेक होता है। एक्शन मास्टर्स के परिवार से आए रोहित की फिल्म में मारधाड़ के बहुत दृश्य होते हैं। इस फिल्म में एक्शन की तलवार और तनाव बना रहता है, परंतु केवल क्लाइमैक्स में एक मारधाड़ का दृश्य है। इसी तरह पीछा करती हुई कारों का भी एक ही दृश्य है और सारा 'फोकस' हास्य तथा प्रेम पर है।

इस फिल्म पर यह आक्षेप लगाया जा सकता है कि तमिल भाषा का बाहुल्य है, परंतु इसका उत्तर भी क्लाइमैक्स के दृश्य में दिया गया है, जब तमिल, हिंदी और मराठी भाषा जानने वाली नायिका नायक से कहती है कि उसकी हिंदी में कही बात का अनुवाद तमिल में वह कर देगी, ताकि उसके पिता समझ सकें। तब नायक कहता है कि इसकी आवश्यकता नहीं है, वह दिल से बोलेगा और सुनने वाला भी दिल से समझेगा। एक विशुद्ध व्यावसायिक फिल्म में दिल की जुबान की बात, राजनेताओं द्वारा भाषा के आधार पर देश के बंटवारे की नीति पर थप्पड़ की तरह पड़ती है। फिल्म में जगह-जगह नायक, नायिका को मैडम सब-टाइटल कहकर संबोधित करता है। फिल्म विधा में दृश्य के नीचे लिखे हुए संवाद को सब-टाइटल कहते हैं। दरअसल, सिनेमा स्वयं एक भाषा है, एक माध्यम और अन्य भाषाओं की बैसाखी की उसे आवश्यकता नहीं है। सिनेमा के मूक-युग में अद्भुत फिल्में बनी हैं।

बहरहाल, फिल्म के एक दृश्य में भोले लोग खलनायक को कुछ समय के लिए थाम लेते हैं और कम समय में भागने के दृश्य में नायिका घर की ओर जाती है तो अधीर नायक कहता है कि ऐसे विकट समय में वह सामान लेने गई है। नायक व्यंग्य से कहता है कि 'औरतों को समझना मुश्किल है', परंतु नायिका नायक के दादा का अस्थि कलश लेने गई थी और अब नायक श्रद्धा के भाव से कहता है 'औरतों को समझना कठिन है' इस तरह के भावनाप्रधान दृश्यों की भी फिल्म में कमी नहीं है। फिल्म के नायक की तरह शाहरुख खान अपने करियर में कुछ समय से पिटते आ रहे हैं और नायक की तरह ही वे अपना स्थान इस फिल्म के माध्यम से प्राप्त कर लेंगे।

दीपिका पादुकोण तो अब फिल्मकारों की कल्पना को चुनौती दे रही हैं कि आप ऐसी भूमिका नहीं लिख सकते, जिसे वह अभिनीत नहीं कर सके। इस समय भारतीय सिनेमा की विविधता अपने प्रखर रूप में दिख रही है, 'भाग मिल्खा भाग' के साथ ही अल्प बजट की साहसी सिताराविहीन 'बीए पास' भी चल रही है। कश्मीर से कन्याकुमारी को रेल की तरह व्यावसायिक सिनेमा भी जोड़ता है और क्षेत्रीयता के नाम पर सत्ताहरण करने वाले देखते रह जाते हैं।