चेरापूंजी / रवि पटनायक / दिनेश कुमार माली
रवि पटनायक (1935-1991)
जन्म-स्थान :- राइरंगपुर, मयूरभंज
प्रकाशित कहानी-संग्रह :- ‘असामाजिक डायरी (1964)’, ‘अंधगलीर अंधकार (1972)’, ‘राग ताड़ी(1978)’, ‘बहुरूपी(1978)’, ‘ हिरण्यगर्भ(1982)’, ‘विषुवरेखा (1984)’, ‘राजारानी(1986),’ ‘वंध्यागांधारी (1988)’, ‘अमरीलता(1990)’, ‘विचित्र वर्ण(1991)’।
पुरुष जब पहली बार प्रेम करता है तो उस नारी के नाम से अकारण ही एक आकर्षण या मोह हो जाता है। अकस्मात प्रेमिका का नाम देखते ही उसका शरीर सिहर उठता है,चाहे उस नाम की जूते की दुकान क्यों न हो?। यदि वह पुरूष एक कवि, शिल्पी या संगीतज्ञ हो तो उसे उस प्रेमिका के अतिरिक्त्त उसकी प्रतिच्छाया के प्रति भी अकारण ही एक अनोखा आकर्षण हो जाता है। एक नाम के प्रति यह उसकी स्वयं की सर्जनात्मकता है जो प्रेमिका के नाम के प्रति नहीं। इसलिए वह अपनी प्रेमिका को उस अभिकल्पित नए नाम से नामकरण करता है। दोनों के प्रति उसका एक समान आकर्षण होता है। यही कारण है कि प्रेमी शिल्पी सम्राट शाहजहाँ ने अपनी पत्नी का नाम बदलकर मुमताज रखा, कवि जहांगीर ने मेहरुन्निसा का नाम परिवर्तित कर नूरजहां रखा और संभवत इसी कारण कवि,लेखक अपनी प्रेमिकाओं के नाम पारम्परिक नाम न रखकर कोई असाधारण नाम रखा करते हैं।
मल्लिके, मैंने तुम्हें इस नाम से संबोधित किया था क्योंकि इस नाम के प्रति मेरा बहुत आकर्षण था। पता नहीं क्यों, यह नाम मुझे बहुत प्रिय लगा।
पता नहीं, तुम्हें इस नाम की बात याद भी होगी या नहीं। पता नहीं, 25 वर्ष के लंबे अंतराल के बाद भी तुम्हारे इस आरोपित नाम का दाग तुम्हारे मन में रहेगा या नहीं। लड़कियां इस तरह के नाम अपने प्रेमियों के लिए रखती है या नहीं,मैंने कभी पूछा भी नहीं। संभवत नहीं, यदि ऐसा होता दो तुमने भी निश्चित रूप से मुझे भी ऐसा ही कोई नाम दिया होता। यह बात मुझे याद नही आती। क्या मैं सच में भूल गया हूँ या वास्तव में तुमने मुझे ऐसा कोई नाम ही नहीं दिया।
मल्लिके! तुम्हें यह पत्र लिखने के पीछे मेरा कोई उद्देश्य नहीं हैं । लिख रहा हूँ इसका अर्थ यह भी नहीं है कि मै इसे प्रेषित करूंगा। पत्र लिख कर मैं इसे डाक के डिब्बे में डालूँगा भी कि नहीं, इसमें संदेह है। और अगर भेज भी दिया तो वह तुम्हें मिलेगा भी, यह भी निश्चित है क्या? कारण तुम्हारा सही पता तो बहुत पहले ही मैं खो चुका हूँ। अचानक इच्छा हुई, इसलिए पत्र लिख रहा हूँ।
लगता है मानसिक दुर्बलता है यह। बीते दिनों की रूमानी यादें मनुष्य मात्र की सहज प्रकृति है अथवा इस नाम के प्रति मेरी किशोरावस्था के प्रेम की अनुभूति अभी भी ठीक वैसी ही बनी हुई है इसलिए तुम्हारी याद आती है। केवल संयोग। तुम मुझे याद नहीं आती केवल नाम याद है अतः तुम्हारी याद आती है।
यदि इन पचीस वर्षों के अंतराल में भी तुम पत्र पा जाओ तो निश्चय ही क्रोध में जल उठोगी, हैं न? नाती- नातिन देखने के उपरांत भी मेरी इन बातों से तुम्हारा ‘इगो’ चोटिल होगा।
और एक बात सुनो मल्लिका, इस नाम से मेरी पत्नी को बहुत ईर्ष्या है। अनेक बार मेरे लेख अथवा मुँह से यह नाम सुनकर उसे विश्वास हो गया है कि इस नाम की किसी नारी से निश्चय ही मुझे प्रेम है। पहले- पहल गुप्त रूप से एवं उसके बाद प्रत्यक्ष रूप से उसने हमारे गाँव में इसकी खोजबीन की। मेरे स्कूल एवं कालेज जीवन के सहपाठियों से उसने पता लगाया। हर जगह संधान किया किंतु कहीं से भी इस मल्लिका का पता नहीं चला। अभी भी उसका संदेह समाप्त नहीं हुआ।
किन्तु सच में ऐसा कुछ हो तब न कोई बतायेगा? मैं स्वयं ही कुछ बता पाऊँगा? मल्लिका एक सपना है। मैं उस सपने का पुजारी हूँ। इसी सपने को प्रियतमा मानने का एक विशेष कारण है। तुम्हारे पास किशोरावस्था है, यौवन है, प्रौढ़ावस्था है, रोग है, मृत्यु है मगर कल्पना की यह मल्लिका उसी तरह शाश्वत है। उसके अतिरिक्त, इस मल्लिका पर मेरा एकाधिकार है, वह केवल मेरी हैं, सिर्फ़ मेरी। अतः उसमें और मुझमें कोई द्वन्द्व नहीं , ईर्ष्या नहीं, कलह नहीं। हम दोनों के अंदर हैं केवल एक स्थायी प्रेम की अनुभूति।
संभवतः इसी सपने की मल्लिका के लिए तुम जैसी प्रत्यक्ष मल्लिका का परित्याग कर चला आया हूँ। तुम मुझे पागल कह सकती हो या स्वाभाविक। हो सकता है -तुम्हारी बात भी ठीक हो। कारण यदि ऐसा नहीं होता तो तुम जैसी सुन्दर,बुद्धिमती, शिक्षिता एवं धनी कन्या के अयाचित प्रेम को अस्वीकार करने की शक्ति मुझ जैसे एक साधारण मध्यवर्गीय युवक के हृदय में आई कैसे? जैसे कोई शराबी शराब के नशे में शक्तिशाली व्यक्ति से भी जबान लड़ा बैठता है उसके परिणाम की चिंता किए बगैर। मैं भी सम्भवत उस समय उसी तरह नशा-ग्रस्त था। केवल उस समय क्यों आज तक भी। इसलिए तो तुम्हें छोड़ आया और आज तक इसका मुझे पछतावा भी नही या उस पर कोई चिंतन भी नहीं। मैं स्वयं को थोड़ा भी दोषी नहीं समझता।
नहीं,यह मेरा मानसिक विकार नहीं हैं, प्रत्यक्ष अनुभूति है। युग-युग से निन्यानवे प्रतिशत लोग जो करते आ रहे हैं, वह तथ्यात्मक दृष्टि से भले ही सत्य हो किन्तु विषयानुसार सत्य नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति एक मानव है। इसके द्वारा अनुभूत सत्य ही उसके समक्ष जीवंत है। अप्रत्यक्ष अनुभूति की सत्यता जड़-वस्तु के क्षेत्र में तो सामान्य रूप से सत्य के रूप में परिगणित हो सकती है किंतु भावनात्मक स्तर पर अनुभूत सत्य ही व्यक्ति विशेष के लिए यथार्थ है। इसमें सामान्यीकरण का सिद्धांत लागू नहीं होता।
मल्लिके! मैं अपने इसी सत्य से अंगीकृत हूँ। अच्छा बताओ, तुमने चेरापूंजी देखी है। जबसे तुम्हें छोडकर आया हूँ तब से तुमसे संपर्क नहीं हैं। तुम्हारा विवाह कहाँ हुआ है? तुम कहां रहती हो? कितने स्थानों का तुमने भ्रमण किया है? तुम्हारे बच्चों,पति आदि के बारे में कुछ पता ही नही है। यदि पता चलता तो बहुत ही अच्छा होता। मेरी बात को तुम अच्छी तरह से अनुभव कर पाती।
इस स्थान पर आते यहाँ के प्रति मेरे मन में बहुत आकर्षण था। बचपन में भूगोल पढ़तें- पढ़तें अचानक मन इस सुदूर प्रदेश में आ जाता था तब इस स्थान के बारे में मैं कल्पना-लोक में चला जाता था।
लगभग पाँच हजार वर्ग फ़ीट में फ़ैली मालभूमि। संसार में सबसे अधिक वर्षा का क्षेत्र। सुदूर बंगाल सागर से बांग्लादेश पर से होते हुए मेघ-मालाओं से उड़ते हुए काले घने मेघ,जहाँ आकर अपना जलभार उड़ेलते हुए विश्राम करते हैं। सोचा था- इसी तरह के सघन जंगलों के बीच मैं अपने लिए एक कुटी का निर्माण करूंगा। रात-दिन मेघ कन्याओं के उन्मत्त नृत्य और उनके नुपूरों की निरंतर संगीतमयी ध्वनि के आनंद में डूब जाऊँगा। मकर संक्राति के चिरहरित वन की हरियाली में स्वयं को रंगकर एकमय हो जाऊँगा, स्वयं उसमें समाहित हो जाऊँगा। पहाड़ी झरने की दुर्वामयी गति स्रोत की तरंग में, गंभीर जल स्रोत के गंभीर निर्घोष के भीतर मै स्वयं को देख पाऊँगा। कभी नीले आकाश की गोद में, कभी हरित भूमि की गोद में अपना सिर रखकर सो जाऊँगा और अपनी राह की थकान को मिटाऊंगा। सोचता था- पुरी के समुद्र की रेत पर खडा होकर आकाश की जिस विशालता को निहारता था, सम्भवत वही आकाश चेरापूंजी के सघन वन के शीर्ष हरित शैय्या पर नीले मेघ की तरह शयन करता होगा और मैं उस हरित वन में खड़ा होकर नीले आकाश के अंदर झांककर देखूंगा परिलोक को, स्वर्ग के देवता को, इंद्र के सिंहासन को।
किन्तु स्वप्न टूट गया।
चेरापूंजी के राजपथ पर खड़े होकर मुझे यह विश्वास नहीं हो पा रहा था कि चेरापूंजी एक मरूभूमि है। मीलों दूर तक शुष्क पत्थरों की चट्टानें फैली हुई है। बीच- बीच में छोटे- छोटे ठूंठ केवल। कहीं भी घास के अतिरिक्त वन का नामो-निशान तक नहीं। इतनी वर्षा होने पर भी सामान्य-सा वन भी नहीं। मैंने सोचा- शायद गलती हुई है। चेरापूंजी के चारों ओर घूम-घूमकर मैं खोजता रहा उस काल्पनिक वन को, किन्तु नहीं, कहीं कुछ नहीं था। केवल मरूभूमि में बगीचे की तरह रक्तिम गोद में कुछ झाड़ियाँ मात्र थी। और वह नील-कमल ऊपर की तरह उठता हुआ और ऊपर पहुँच गया था और ऊंचाई पर खड़ा होकर मुझे टुकुर-टुकुर निहार रहा है। मेरी पहुँच में केवल रंगहीन एवं आकर्षणहीन आकाश ही है।
बहुत समय तक मैं विस्मित होकर किंकर्तव्य विमूढ़ बना रहा। मोह भंग की हताशा ने मुझे स्तब्ध और मौन कर दिया। और ठीक उसी समय हठात मुझे तुम्हारी स्मृति आई ।
प्रेमिका, तुम एक चेरापूंजी हो। प्रेम की अनवरत वर्षा के बावजूद तुम केवल एक नीरस,शुष्क और पथरीली बंजरभूमि हो।