चेहरे / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
बसु चल बसा-मिस्टर दास ने आकर सूचना दी।
कब? कई लोग पास खिसक आए.
अभी-अभी! बसु का बेटा बातने आया है-उसकी आवाज़ भर्रा रही थी।
मुझे लगा जैसे कोई अनहोनी घटना नहीं हुई. 'ब्लड प्रेशर' का मरीज था। मरीज़ भी इस कद्र कि 'बेस हास्पिटल' वाले भी उसके केस को न ले सके. मरीज़ तो पहले से ही था_ लेकिन रसायन-प्रवक्ता प्रकाश चन्द्र के आने से उसके रोग में इज़ाफा होना शुरू हो गया था। पिछले तीन वर्षों से स्कूल में कोई स्थायी रयासन-प्रवक्ता न था। तदर्थ प्रवक्ता आए-गए. प्रैक्टिकल का भार बसु पर ही रहता था। काफी अनुभवी प्रयोगशाला सहायक था बसु। 'सर' के सम्बोधन बिना कोई छात्र उससे बात करने की हिम्मत न करता था। कारण, उसका गम्भीर एवं परिश्रमी स्वभाव। एक जूनियर कक्षा भी पढ़ा लेता था।
रसायन-प्रवक्ता ने कल बसु को कई लोगों के सामने कहा था-प्रयोगशाला की सफाई करनी है। कहीं एक जाला तक भी नजर न आए. झाड़ू लगाकर फर्श भी साफ कर देना है। किसी ने पहली और अन्तिम बार ही ऐसा कहा था। साँसों की मोमबत्ती धीरे-धीरे पिघलने लगी। 'सर' कहने वालों के सामने उसे झाड़ू लगाना पड़ा। पिछले ही महीने उसे सेलेक्शन ग्रेड मिला था, जो नए प्रवक्ता से कम न था।
मैंने उसी समय कह दिया था-"प्रकाश बाबू, आपने ठीक नहीं किया। लगता है आप इसकी मौत का कारण बनेंगे।" प्रकाश ने मेरी बात हँसकर टाल दी। वह प्रवक्ता होने का खोखला दम्भ मन में पाले हुए था।
एक मिनट का मौन रखकर छुट्टी कर दी गई. मिसेज चन्द्रा के आँसू नहीं थम रहे थे। उसने बसु को हमेशा चुपचाप काम करते देखा था। किसी से कोई गिला-शिकवा नहीं। ऊँची आवाज़ में किसी से कभी बात नहीं की। दफ्रतर के सामने दिल पर हाथ रखे धीमान जी बैठे थे ताकि अधिकतर लोगों का ध्यान उनकी तरफ जाए. उनकी आँखों में दूर तक भी गीलापन नहीं था। प्रकाश बाबू आम दिनों की तरह लैब के सामने खड़े होकर रूखे बालों में कंघी कर रहे थे। कुछ लोग गुमसम खड़े थे। प्राचार्य जी सिर झुकाए दफ्रतर से बाहर आए-बहुत बुरा हुआ। बेचारे के बच्चे भी अभी छोटे-छोटे हैं। अब तक धीमान जी स्वयं पर काबू पा चुके थे, तनिक पास खिसक आए-हमें बसु के घर चलना चाहिए.
तुम लोग चलो। मैं घर होकर पहुँच रहा हूँ-प्राचार्य ने चलने का संकेत किया। नथानी जी को प्रकाशचन्द्र ने रोका-किधर चल रहे हैं? अपने घर या—-? बच्चों को घर छोड़ देता हूँ फिर बसु के घर जाऊँगा।
कब तक लौटोगे?
तीन बजे तक।
तीन बजे के बाद अतीन्द्र में चलते हैं। 'जानी मेरा नाम' लगी है। मेेरे यहाँ आ जाना-प्रकाश ने नथानी को सुझाया फिर मेरी तरफ घूमे-आप भी चलिए. घर पर भी आकर क्या करेंगे?
क्या उत्तर दूँ, मैं नहीं सोच पाया। जी में आया इस प्रकाश के बच्चे को जूते लगाऊँ। मैं चुपचाप उनके पास से हट गया। मेरी बेरुखी देखकर शायद प्रकाश पिफ़ल्म देखने का अपना इरादा छोड़ दे।
प्रकाश नहीं गया। बाकी सभी लोग बसु के घर पहुँचे। अर्थी तैयार हो चुकी थी। लोग तरह-तरह के प्रश्न कर रहे थे। पेंशन कितनी मिल जाएगी? फण्ड कितना होगा? बीमा कितने हजा़र का है। पत्नी कितनी पढ़ी-लिखी है? परिवार का गुज़ारा कैसे होगा?
धीमान जी बोले-"इस वक्त कुछ पैसों की ज़रूरत पड़ेगी। आप मुझसे लेकर मिसेज बसु को दे दीजिए." उन्होंने मि-दास को सुनाकर कहा।
"इसकी अभी आवश्यकता नहीं"-मि-दास बोले-" मैं मिसेज बसु से पूछ चुका हूँ।
"फिर भी" धीमान ने जेब से एक चिट निकाली। अपना फोन नं-लिखा और चिट मि-दास को थमा दी-"रख लीजिए. कल रविवार है न-पैसों की ज़रूरत पड़ सकती है। बैंक से वैसे भी आसानी से बसु का पैसा कई दिन बाद ही निकल सकेगा। कई तरह की औपचारिकताएँ पूरी करनी पड़ेंगी। आप मुझे फोन कर दीजिएगा। मैं तुरन्त हाजिर हो जाऊँगा।"
इस बार मैं धीमान जी से प्रभावित हुए बिना न रह सका। मैं इसे ग़लत समझता रहा। आदमी वाकई उदार है। बसु के घर की हर चीज विपन्नता की कहानी कह रही थी। लगता है बीमारी ने पूरे परिवार को चूस लिया है। बसु का छोटा भाई बोला-"दादा दवाइयों पर जी रहे थे। कल उन्हें उदास देखकर मुझे डर लगने लगा था। किसी से कुछ—-बताया भी नहीं—-" उसका गला भर आया था।
मिसेज बसु बार-बार बेहोश हो जाती थी। अर्थी उठी। पूरा आँगन करुण विलाप से भर गया। बरामदे के स्टूल पर बसुु के चश्मा-बैग रखे थे। अर्थी को दास, बसु के भाई, बूढ़े पिता और प्राचार्य ने कंधा लगाया। श्मशान घाट तक पहुँचते-पहुँचते बीस-पच्चीस लोग रह गए थे। धीमान और नथानी का कहीं पता न था। न जाने कब वे भीड़ में से खिसक लिए थे।
छह बज गए. अतीन्द्र के सामने पहुँचा, तो भीड़ का रेला छूटा। नथानी, धीमान और प्रकाशचन्द्र पैण्ट की जेबों में हाथ डाले खरामा-खरामा चले जा रहे थे। मेरी आँखों के आगे बसु का जर्जर अभावग्रस्त घर घूम गया। मुझे पास पहुँचा देख नथानी बोले-आ गए सब ठीक-ठाक निबट गया न। भैया, मैं मुर्दा अधिक देर तक देख लूँ तो हाथ-पाँव फूल जाते हैं। हौल-सी होने लगती है।
मैंने बात बदली-सो तो ठीक है। मेरा एक सुझाव है-हम स्टाफ वाले कुछ कलेक्शन कर लें। मुझे लगता है मिसेज़ बसु का परिवार आर्थिक-संकट में घिरा हुआ है।
मिसेज़ बसु बड़ी स्वाभिमानिनी औरत है। मैं नहीं समझता वह कुछ स्वीकार करेंगी-नथानी बोले।
"नहीं स्वीकार करेंगी तो जिसका जितना सहयोग होगा, वापस कर देंगे"-मैंने कहा।
"इस तरह के काम में पैसा देकर फिर वापस लेना ठीक नहीं रहता"-प्रकाश ने सुझाव दिया-"पहले मिसेज़ बसु का मन जान लीजिए."
मन का क्या जानना? हम लोग शुरू कर देते हैं। भाई कुछ तो होना चाहिए-मैंने कहा-भाई धीमान जी, आप तीनों सौ-सौ रुपये दीजिए. तीन सौ मैं दे देता हूँ।
सबको देखकर चलो। पाँच रुपये रखिए. सौ का स्टाफ है। पाँच सौ हो जाएँगे। अपनी या हमारी बात छोड़िए-नथानी बोले।
ठीक तो है-धीमान जी बोले।
हाँ बिलकुल ठीक है-प्रकाश ने जोड़ा।
मेरा पूरा शरीर तप गया। मैं चुपचाप चलने लगा। तीनों ने राहत की साँस ली। कुछ दूर चलकर मेरे घर का मोड़ आ गया। मैं मुड़ा तो धीमान ने पूछा-क्यों भाई, क्या तय किया है?
क्षणभर मैं जड़वत् हो गया। क्या उत्तर दूँ? घृणा हो आई थी तीनों पर। एक दृष्टि मैंने धीमान जी पर डाली-मैंने तो यह तय किया है भिखमंगों से पैसा लेकर मिसेज़ बसु को देना ग़लत कदम होगा।
बिना पीछे मुड़कर देखे मैं तेजी से अपने घर की ओर मुड़ गया।
-0-सैनिक समाचार-24 दिसम्बर, 1989; वीणा; मई 1990