चोका के नए निकष: थके -से सहयात्री / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
नदी, पहाड़, पेड़, मेघ, सागर कितने सगे हैं ये पाँचों! माला में पिरोये गए सच्चे मोतियों की तरह। पर्वत छिपाए रखता है अपने गहरे हृदय में निर्मल जलधारा। पत्थरों का दबाव कभी झरने के रूप में भी फूट पड़ता है। यह झरना पत्थरों के ऊपर से बन्दरकूद लगाता हुआ, नटखट शिशु की तरह फलाँगता हुआ, दौड़ पड़ता है। शिशु की तरह इसे गिरने और चोट खाने की चिन्ता तो होती नहीं। इसकी मोदभरी किलकारी वन-प्रान्तर को गुँजा देती है। घाटियाँ इसकी अनुगूँज का पीछा करते हुए गा उठती हैं। पेड़-पौधे अपने नैसर्गिक सौन्दर्य से इसका मन लुभा लेते हैं। हरी-भरी सिंचित पर्वत-शृंखलाएँ सामवेद के मन्त्र गा उठती हैं। सृष्टि का यह गायत्री जाप आसमुद्र चलता रहता है। सघन घन अपनी दुंदुभि बजाकर, चपला के चपल नयन चमकाकर पूरी सृष्टि को चमत्कृत कर देते हैं। सागर की तरंगें अहर्निश चलने वाली संगीत-सभा में परिवर्तित हो जाती हैं। मानव एवं समस्त प्राणी कृतकृत्य हो जाते हैं! हमारी यह पूरी प्रकृति हमारे अस्तित्व का आधार है। मनुष्य नहीं होगा, तब भी ये सब होंगे। ये शाश्वत जो ठहरे। ये हमारे देव हैं, हमको कुछ न कुछ देते हैं। प्रश्न है कि हम इनको क्या देते हैं!
शाश्वत को नष्ट करके हम नष्ट हो जाएँगे। शाश्वत को बचा लेंगे, तो मानव का अस्तित्व भी बच जाएगा। एक व्यक्ति ऐसा भी है, जो समय मिलते ही इन पर्वत-शृंखलाओं की तरफ़ दौड़ पड़ता है। ऐसे ही नहीं, ये पर्वत-घाटी, झरने, ये बाहें फैलाए तरुवर इनको टेरते हैं। विषम विभीषिका की भयाक्रान्त करने वाली परिस्थितियों में जब पूरा विश्व जकड़ा हुआ था, तब भी भीकम सिंह जी अपने साहसिक अभियान में जुटे हुए थे।‘थके-से सहयात्री’ चोका -संग्रह के रूप में इनकी काव्य अनुभूतियाँ मुझे उद्वेलित और चमत्कृत करती हैं।
चोका पढ़ने पर पता चलता है कि भीकम सिंह केवल साहसिक अभियान के कारण ही इन यात्राओं का हिस्सा नहीं बनते थे। पहाड़ों और नदियों की दुर्गति इनको व्यथित करती है। जराग्रस्त नदियाँ, कटान के घावों से पीड़ित बुच्चे पहाड़ों की पीड़ा, इनको व्याकुल करती रही। इनकी व्यथा थी कि वह कौन है, जो नदियों की हँसी खा गया! शक की सुई शहरों की तरफ़ ही मुड़ी-
फिर कौन है / जो नदियों की सारी / हँसी खा गया / बड़े सिन्धु के बीच / चर्चा ज्यों हुई / शहरी काफिलों पे / रुकी शक की सुई। (नदी-1)
भोगवादी लोभी प्रवृत्ति और अदूरदर्शिता के कारण नदी के हौसले भी टूट गए हैं-
निर्बल तट / उदासियों की बालू / बेच-बेचके / पत्थर तराशे हैं (नदी-2)
सूखता जल, नदियों की उजड़ती माँग ही तो है। इसकी परिणति क्या हुई, इसे इस चोका में महसूस किया जा सकता है। पानी घट गया, तो नावें भी थककर किनारे पर ही ठहर गईं। कवि ने 'थकना' विशेषण विपर्यय के माध्यम से मार्मिक मानवीकरण किया है। घाटों पर नावों को बँधा देखकर नदी भी कम दुखी नहीं है। नदी के अपने दु: ख में नावों का दु: ख भी मिल गया-
नावें थकीं-सी / घाटों पर बँधी हुईं / तेरे दुःख से / दुःखी हुई है नदी! (नदी-3)
साल वृक्षों से लिपटकर पीड़ित नदी का रोना कितना मर्मभेदी है! वह मर्माहत होकर सीता की तरह धरती में समा जाना चाहती है-
साल वृक्षों से / लिपटकर रोई / पीड़ित नदी... / खोजे हैं मैंने / जमीन में सूराख / आती सीता की याद। (नदी-4)
नदी को इस दुर्दशा तक पहुँचाने वाले ये खलनायक कौन हैं! झरने से सुनिए-
रोता हुआ झरना / बुदबुदाया- / ठेकेदार गुज़रे / जहाँ-जहाँ से / निर्जन है वहाँ पर (नदी-5)
प्रकृति के ये हमारे शाश्वत सहयात्री यदि दु: खी होंगे, तो मानवता कभी सुखी नहीं हो सकती। कवि की व्याकुलता नदी की कराह में प्रकट होती है-
हुम्म-हुम्म-सा / बोलके कराहती / दम तोड़ती / तड़पती थी नदी (नदी-10)
पानी तो बचा नहीं, अब रुग्ण नदी के नाम पर केवल बालू बचा है-
रुग्ण हो गई / दो किनारों के बीच / ... / बालू से पीठ लगा / फूँकती साँस (नदी-12)
पहाड़ और नदियाँ एक-दूसरे के अभिन्न मित्र हैं। इनका बुरा समय आया तो-
कुछ पहाड़ / बहुत—सी नदियाँ / वक्त के साथ / ठोकरें खाते रहे (नदी-13)
नदियों को जीवनदान देने के लिए बहुत सारी योजनाएँ बनीं; लेकिन सब व्यर्थ गईं-
नमामि गंगे से भी / सुधरे नहीं, / नालों की जात ऐसी / गंगा, वैसी की वैसी। (नदी-14)
नालों ने नदियों को प्रदूषित करके ढेर सारे जख्म दिए, जो भरने का नाम नहीं लेते-
नदी खुद को / आज और कल में / गँवाती रही / नालों के दिए जख्म़ / छिपाती रही (नदी-16)
दर्द के आँसू पीना नदी की नियति बन गई। कवि का आक्रोश कर्तव्य-विहीन समाज को 'अंधी नस्ल' कहकर फूट पड़ा है-
हौसला दुश्मन का / इतना बढ़ा / कि बदलने पड़े / पुराने रास्ते / काटती रही मोड़ / अंधी नस्लों के वास्ते। (नदी-17)
नदी की सारी शक्ति तो गंदे नालों के फंदे सुलझाने में ही चला गया।
पहाड़ों की जो दुर्दशा हुई है, वह चिन्ताजनक है। पत्र-पुष्प-विहीन नंगे पहाड़ डराते हैं। मनरेगा की मज़दूरी वाले बेकाम थके श्रमिक से तुलना करना सरकारी योजनाओं की पोल खोलती है। कवि का यह चोका करुणा जगाता है, पहाड़ के लिए भी और भूखे श्रमिक के लिए भी-
नंगे पहाड़ / कोई पेड़ ना फूल / ना कोई घास / बर्फ में लेटे सब / पाँव पसारे /
झोंपड़ी में लेटा ज्यों / थका श्रमिक / अपनी भूख मारे (पहाड़-2)
भीकम सिंह का एक-एक चोका अपने में गहरा दृश्यांकन समेटे हुए है। चुनौतियों का सर्जन करते हिम-शिखर, मेघों को कन्धों पर धरकर सारी वनस्पति को हरियाली पहनाते, सभी जीवों को जीवनदान देते हैं-
हिम शिखर / चुनौती का सृजन / किया करते। मेघ कंधों पर धरे /
उतार लाते / सारी वनस्पति को / हरा करते (पहाड़-3)
ये पर्वत न जाने कितने षड्यन्त्रों का शिकार बनते हैं। कवि ने षड्यंत्रों के जाल को घोड़े की ढाई घर की चाल का सन्दर्भ दिया है, जिसके अनुसार शतरज में घोड़ा किसी एक दिशा में ढाई घर चलता है। घोड़ा एक अकेली ऐसी गोटी है, जो किसी अन्य गोटी के ऊपर से चाल चल सकता है-
फिर वे सारे / षड्यंत्रों के जाल / ढाई घोड़े की चाल। (पहाड़-4)
हमारी अति सुख की भूख विकास के नाम पर इन पहाड़ों को बन्धक बनाकर लूट रही है। ये विकास की रस्सियाँ, विनाश का कारण बनती जा रही हैं-
पेड़ पाँवों में / विकास की रस्सियाँ / बाँधके खड़े / पहाड़ की छुअन / घसीट रहे (पहाड़-5)
पर्यटक भी इनको यातना ही देते हैं। उसी यातना को ये विवश होकर ओढ़े हुए हैं-
पर्यटकों की / ओढ़कर यातना / माँगे क्षमा-याचना। (पहाड़-8)
पहाड़ों के साथ आत्मीयता छोड़कर निर्मम व्यवहार होने लगा। प्लास्टिक फेंककर रास्तों की हरियाली को मरुभूमि में परिवर्तित कर दिया गया। जब पेड़ों को ही काट दिया गया, तो इनकी ओट में छुपकर छुपम-छुपाई कोई कभी खेल पाएगा, इसकी चिन्ता आने वाली नस्लों को भला कैसे होगी?
तुम्हें लगता / क्या पहाड़ों की श्वासें / फिर चलेंगी / ...चाँद-सा कोई /
पेड़ों से लिपटके / फिर खेलेगा / क्या छुपा-छुपाई। (पहाड़-13)
कवि ने ये चोका लिखे नहीं; बल्कि अपने यात्रा-अभियान (पर्वतारोहण) के साथ जिए भी हैं। पेड़ों से लिपटकर फिर से छुपा-छुपाई खेलने का भाव आते ही रचनाकार छोटे बच्चे में तब्दील हो जाता है। कवि को इस विरोधाभास पर दु:ख है कि जो पहाड़ जीव-जगत् के लिए हवा रचता है, हवा को दिशा देता है, उन्हीं पहाड़ों के विरुद्ध कृतघ्न होकर युद्ध क्यों किया जा रहा है। पहाड़ों का पसीना व्यर्थ में बहकर नदी में गिरता जा रहा है, यही कारण है कि पहाड़ निष्प्राण होते जा रहे हैं। हिमानी (ग्लेशियर) का गलकर घटते जाना आने वाले संकट की सूचना है। पर्यावरण का यह असन्तुलन विश्व के लिए बहुत बड़ा ख़तरा है-
तुम्हारे लिए / पहाड़ रचे हवा / और तुम हो / पहाड़ों के विरुद्ध/
पहाड़ों का पसीना / व्यर्थ बहके / नदी में गिर रहा / पहाड़ मर रहा। (पहाड़-16)
वृक्ष ही तो पहाड़ों के प्राण हैं, इन्हीं का कटान और विनाश जारी है। प्रकृति की हरियाली को लूटनेवालों के प्रति कवि का यह आक्रोश 'चीलों के यजमान' कहकर उभरा है। पहाड़ियाँ हैरान हैं कि नदियों को लोलुप वर्ग ने अपने पाश में जकड़ लिया है-
मरे हैं पेड़ / नदी पर आ बैठे / गिद्धों के यजमान। (पहाड़-17)
पर्वत, वृक्ष और नदी का परस्पर वही सम्बन्ध है, जो जीव की शिराओं में बहने वाले रक्त का सम्बन्ध जीवित शरीर से है। सिन्धु ने मेघों के साथ किया गया यही अनुबन्ध हवाओं के हाथ पूरी प्रकृति को सौंप दिया है-
भोली-भाली हिमानी / रस्ता भूली-सी / जुड़ी अपने आप (पहाड़-18)
प्रकृति को नष्ट करने वालों के प्रति कवि का स्वर कठोर हो जाता है-
फिर भी नर। / साँप की तरह से / रेंगता रहा / पहाड़ों की देह पे / बिना किसी नेह के। (पहाड़-19)
मूर्ख नस्लों के लूटने पर पेड़ कम होते गए और पूरे पर्यावरण का दम घुटने लगा। जंगलों में लगने / लगाने वाली आग सर्वाधिक जान लेवा है, जिसका आज तक कोई निदान नहीं खोजा गया-
पेड़ जलते / हो गई हैं सदियाँ / ठिठकी हैं नदियाँ। (पेड़-2)
वृक्षों से पहाड़ों की बतकही का मानवीकरण देखिए-
पेड़ों की भाषा / पहाड़ों ने समझी / उनसे की थी / सुख दुःख की बातें (पेड़-4)
यदि किसी ने सार्वजनिक मंच से वृक्षों के विनाश के विरुद्ध आवाज़ उठाई, तो जैसे भी सम्भव हुआ, उसे दवा दिया गया-
पेड़ की छाती / जब-जब धड़की / लोक मंचों से / आवाजें तो भड़कीं / दबी—सी तमंचों से। (पेड़-6)
प्रकृति की एक-एक भंगिमा को कवि ने निरखा-परखा है। देवदार के बड़े पेड़ उसे चौकीदार-से लगते हैं। बहुत सुन्दर उपमा दी गई है। कोई टहनियाँ हिलाने आया, तो हर पत्ती डर गई। मशीनी शोर ने बहुत कुछ उजाड़ दिया है। कटे पेड़ खिन्नमना हैं। अब ट्रक से उनकी शवयात्रा निकलनी है। कवि की ये पंक्तियाँ द्रवित कर जाती हैं-
तृण-तृण तन से / शवों की यात्रा / पर्वतीय खड्ड से / निकलेगी ट्रक से। (पेड़-12)
आँधियों का लगातार पत्ते गिराना, मन पर डर के मेघों का घिरने का बहुत सजीव चित्रण है, जिसे कवि ने आँधी का अश्वमेध यज्ञ बताया है-
मन पर घिर आए / डर के मेघ / कई दिनों चला ज्यों। आँधी का अश्वमेध। (पेड़-13)
वर्षा की बूँदें गिरना, बरगद का जटाएँ खोलना, प्रवचन सुनने के लिए श्वेत चोला पहने भक्तरूप बगुलों का एकत्र होना और लम्बी गरदनें करना, अर्थात् उत्सुकता और तन्मयता से प्रवचन सुनना इससे उच्चकोटि का बिम्ब निर्मित हुआ है, जिसे चोका के क्षेत्र की उत्कृष्ट रचनाओं में रखा जा सकता है। एक अंश देखिए-
बरगद ने खोलीं / जटाएँ गीली / प्रवचन को तभी / संघ बगुले / लगे वहीं उतरने/
धार लिया ज्यों / श्वेत भक्तों का चोला / लंबी की गरदनें। (पेड़-16)
तट के वृक्षों का सौन्दर्य और भी अलग है, जो दिन-रात जल में मुग्धभाव से अपना प्रतिबिम्ब निहारते रहते हैं। लगता है, जैसे ईसा हाथ फैलाए हुए हों।
मेघ पर पूरा जीवन आधारित है। वर्षा और वर्ष एक दूसरे के पूरक हैं। सन्तुलित वर्षा होने पर ही पूरे वर्ष की सार्थकता है। बादल को याद दिलाया कि खेत तुझे पुकार रहे हैं। सूखी दरकी मेड़ की आँख उस पर ही गड़ी है। मेघों को उलाहना भी दिया है कि तुम रामगिरि वाले भटके मेघ हो न? बरसना भी सीखो, केवल कड़कने से काम नहीं चलेगा-
कौन हो तुम / जो सूखे खेतों पर / अफवाहों की / कुछ घटाएँ ताने / कड़कना ही जाने। (मेघ-2)
कवि ढीठ कपासी मेघ को उपालम्भ देते हुए कहता है-
जाने कित्ते किसान / चढ़के फाँसी / पहुँच गए काशी / ...अँखियाँ सकुचातीं / बरस नहीं पातीं। (मेघ-3)
खाली भात की पतीली के साथ आंचलिक बोलचाल के शब्द-'सुणा, घणा, पलेवा करना तथा भौगोलिक-अरबों (अरब सागर) के ऊपर' के साथ विशेष वातावरण का सर्जन करते हैं। कवि की सूक्ष्म दृष्टि बादल को कोलाज़ की तरह या आवारा की तरह घूमते हुए पाती है। प्यासी धरा को नदी के भरोसे छोड़ना भी तो बादल की लापरवाही ही है। कवि मेघ का स्वागत भी करता है यह कहकर-
गन्ने चूसना / अबकी बार मेघ! / पौष में आना (मेघ-6)
चैत्र में बरसने का अर्थ है-किसान का खलिहान में ही पिट जाना। इस ओर भी कवि बादल का ध्यान आकर्षित करता है। बदलियों का ऊँघना, मेघों की खुली तलवारें और बदली के काँधे हिलाना, रात ओढ़े ओसारा, मेघ करे गरारा जैसी शब्दावली सजीव चित्र खींचने में सक्षम है।
भीकम सिंह के सभी चित्र इन्द्रधनुषी रंगों से सजे हुए हैं। सागर पर केन्द्रित चोका में-तटों की यादों पर पानी-सा फेरना (सागर-2) , रेत के पाँव (सागर-3) , लँगड़ा मेघ (सागर-4) , नदी की बूढ़ी आँखें, लाश—सी नदी (सागर-5) जैसे प्रयोगों के साथ गला काटना, चोर जेबें भरना, तलुवे चाटना (सागर-10) जैसे प्रयोग इनकी भाषा-क्षमता और जीवन्तता के उदाहरण हैं। सिन्धु की लहरें क्या हैं, कवि के इस बिम्ब में देखिए-
सिन्धु की साँसें / ऊपर नीचे गिरीं / लहरें बनीं (सागर-13)
ज्वार-भाटा आने पर सिन्धु के हुड़दंग का चित्रण देखिए-
सिन्धु का जब / हुड़दंग मचे है / तटों की निष्ठा / तब कहाँ बचे है (सागर-16)
पहाड़ ध्वस्त हुए, पेड़ कटे, नदियाँ मरी, बादल रूठे, समुद्र तो खारा है ही। सहयात्री प्यासे ही रहेंगे। भीकम सिंह अपने इन पाँचों सहयात्रियों की हर भाव-भंगिमा और चिन्ता से परिचित हैं। इनके सुख-दु: ख और संघर्ष के साक्षी हैं। आपने महाविद्यालय में केवल भूगोल विषय नहीं पढ़ाया, बल्कि उसे जिया भी है। खेत और किसान से इनका आत्मीय सम्बन्ध है। ऐसा सर्जन वातानुकूलित भवन में बैठकर नहीं किया जा सकता। इनकी गहन अनुभूति को आपने पर्वतारोहण करते, तारों-भरे आकाश के नीचे लगे टैण्ट में महसूस किया है। कोई भी विधा हो, वह सच्चे साधकों से ही महिमामण्डित होती है। जापानी काव्य-धारा के तीसरे दशक में भीकम सिंह की उपस्थिति रसज्ञ पाठक और सजग सृजक के लिए अनुकरणीय है।
हिन्दी-जगत् में आपकी यह उत्कृष्ट कृति निश्चित रूप से चोका के नए निकष गढ़ेगी।
रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
8 फ़रवरी 2023