चोट / सुभाष नीरव / पृष्ठ 4

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देखो, इन्होंने शादी कर ली। लड़की ने चहकते हुए कहा,

आखिर उसने प्रेमिका को पत्नी बना ही लिया।

इस जोड़े को लड़का-लड़की पिछले दो सालों से देखते आ रहे थे- कभी कुतुब पर, कभी इंडिया गेट पर, कभी लोदी गार्डन, कभी मदरसा, कभी प्रगति मैदान, कभी तालकटोरा तो कभी यहीं पुराने क़िले में।

शादी के बाद ये लोग कितने अच्छे लग रहे हैं... लड़की ने बेहद उमंग में भरकर कहा। क्षणांश, वह भी खूबसूरत सपनों में खो गई। उसे लगा, विवाह के बाद वह भी घूम रही है, लाल जोड़ा पहने, कलाइयों में चूड़ा पहने, हाथों में मेंहदी रचाये... एकाएक, लड़की ने अपनी कलाइयों को हवा में लहराया, ऐसे जैसे वह पहने हुए चूड़े की खनक सुनना चाहती हो।

बस, अब कुछ ही दिनों में इनका प्यार चुक जाएगा। शादी के बाद प्यार अधिक दिन नहीं रहता। देख लेना, छह-सात महीने या अधिक से अधिक सालभर बाद ये लोग इन जगहों पर यों हाथ में हाथ लिए घूमते हुए नहीं मिलेंगे। लड़का बोल रहा था, लड़की की ओर देखे बिना।

क्या कहते हो?... लड़की लड़के से सटकर खड़ी हो गई और उसके कंधे पर अपना सिर रखकर बोली, प्रेमिका को उसने पत्नी बनाया है, अपनी जीवन-संगिनी... अब तो और भी करीब हो जाएँगे। सुख-दुःख का इकट्ठा सामना करेंगे। पत्नी बनकर यह लड़की प्रेम को लड़के की लाइफ़ में और प्रगाढ़, और सच्चा, और ऊष्मावान बना देगी। लड़की की उमंग और उत्साह, दोनों देखने योग्य थे। उसकी आँखों में एक सपना झिलमिला रहा था। एक हसीन और खूबसूरत सपना...

नहीं, तुम्हारा ऐसा सोचना ग़लत है। प्रेमिका जब पत्नी बनती है तो प्यार के सारे समीकरण ही बदल जाते हैं। शादी शब्द एक चाकू की तरह है जो गहराते प्यार को, उसके अहसास को छीलने लगता है और धीमे-धीमे यह प्यार, यह निकटता, यह सुखानुभूति लहूलुहान होकर दम तोड़ देती है। प्रेमी-प्रेमिका का विवाह उनके बीच प्रेम की बहती नदी को सूखने के लिए मजबूर कर डालता है, ऐसा मेरा मानना है।

लड़का न जाने कैसी भाषा बोल रहा था। लड़की हतप्रभ थी। लड़के के कंधे पर से उसका सिर खुद-ब-खुद हट गया था। लड़की को लगा जैसे अकस्मात उसके भीतर कुछ दरक गया है- बेआवाज़! उमंगित, उत्साहित, चहकता-खिलखिलाता उसका चेहरा एकाएक निस्तेज हो उठा। लड़की को वहाँ अधिक देर खड़ा होना तकलीफ़देह महसूस होने लगा। वह पीछे मुड़कर लौटने लगी। दीवार से कूदने की कोशिश में वह गिर पड़ी और बायां घुटना पकड़कर वहीं ज़मीन पर बैठ गई। दर्द से उसकी आँखें छलछला आई थीं और निचले होंठ को उसने दाँतों तले दबा रखा था।

लड़का फुर्ती से आगे बढ़कर उसके पास बैठ गया और उसका घुटना सहलाने लगा। फिर उसने अपने कंधों का सहारा देकर लड़की को ऊपर उठाया और चलने के लिए कहा। लड़की कुछ देर उसका सहारा लेकर लंगड़ाती हुई-सी चली, फिर सहारा छोड़ अपने आप चलने लगी, गुमसुम-सी।

लड़की को लगा, जैसे अंदर बेहद कुछ टूट गया है। वह सोचने लगी- क्या वह बहुत ऊँचा उड़ रही थी कि उसे ज़मीन दिखाना ज़रूरी था? लड़की सोच रही थी- लड़के ने उसके घुटने की चोट तो देखी, पर क्या वह उस चोट को भी देख पाया है जो अभी-अभी उसके भीतर लगी है?

दोपहर अपनी ढलान पर थी और पेड़ों, दीवारों के साये लम्बे होते जा रहे थे। पुराने क़िले से बाहर निकलते समय लड़की बेहद चुप थी। लड़के ने एक-दो बार रास्ते में उसे छेड़ने की कोशिश की लेकिन लड़की ने कोई उत्साह नहीं दिखाया। वह जल्द-से-जल्द अब घर लौट जाना चाहती थी।

मोटर-साइकिल पर बैठते हुए लड़के ने कहा, तुम्हें चोट लगी है, चलो तुम्हें तुम्हारे घर तक छोड़ देता हूँ।

नहीं, मदरसा छोड़ दो। वहाँ से बस में ही जाऊँगी। लड़की का स्वर कुछ इस प्रकार का था कि लड़का आगे कुछ न बोल सका और लड़की के बैठते ही मोटर-साइकिल उसने आगे बढ़ा दी।

समाप्त >>