चोरी का फल / श्याम सुन्दर अग्रवाल
जब से चिंकी बंदर ने गरम-गरम जलेबियाँ बना कर बेचनी शुरू कीं, सुंदरवन में उसकी दुकान खूब चल निकली। चिंकी की बनाई हुई जलेबियाँ स्वादिष्ट भी बहुत होती हैं। सभी जानवर जलेबियों की तारीफ करते नहीं थकते। चिंकी बंदर है भी बहुत ईमानदार। छोटे से बड़े तक सबको एक जैसा माल देता है, ठीक तौल कर देता है। तभी तो उसकी दुकान पर सुबह से शाम तक ग्राहकों की भीड़ लगी रहती है।
सुंदरवन में कालू नाम का एक चूहा भी रहता था। कालू को भी जलेबियाँ बहुत स्वाद लगती थीं। वह जब भी चिंकी की दुकान के सामने से गुजरता तो गरम व रसीली जलेबियाँ देख उसके मुँह में पानी आ जाता। कालू को अपने माता-पिता से इतने पैसे नहीं मिलते थे कि वह रोज पेट भर जलेबियाँ खा सके. वैसे भी उसके माता-पिता नहीं चाहते थे कि वह अधिक जलेबियाँ खाये। अधिक मिठाई खाने से सेहत जो खराब हो जाती है।
एक दिन कालू का दोस्त रमलू चिंकी की दुकान से जलेबियाँ लेने जा रहा था। कालू भी उसके साथ हो लिया। जब चिंकी रमलू को जलेबियाँ दे रहा था तो कालू ने चुपके से एक जलेबी खिसका ली। चिंकी को इसका पता नहीं चला। चोरी की वह जलेबी तो कालू को ओर भी स्वाद लगी।
फिर तो कालू का यह रोज का काम ही हो गया। जब भी उसका कोई मित्र चिंकी की दुकान पर जलेबियाँ खरीदने जाता तो वह भी उसके साथ हो लेता। कालू अपने साथ एक लिफाफा भी ले जाता। जब चिंकी जलेबियाँ तौलने में लगा होता तो कालू आँख बचा कर दो-तीन जलेबियाँ अपने लिफाफे में डाल लेता। काम में व्यस्त होने के कारण चिंकी उसे देख नहीं पाता।
कालू के मित्र उसे बहुत समझाते कि चोरी का फल अच्छा नहीं होता। परंतु कालू पर उनकी बात का कुछ असर न होता। वह हँस कर कहता, "तुम क्या जानो चोरी की जलेबी का स्वाद! चोरी की जलेबी तो बहुत मीठी होती है। कभी चोरी की जलेबी खा कर तो देखो।"
एक दिन सुबह-सुबह ही कालू का मन जलेबी खाने को करने लगा। उसने अपना लिफाफा लिया और चिंकी की दुकान की तरफ चल पड़ा।
उसके पहुँचने तक चिंकी ने नीम के वृक्ष तले अपनी दुकान सजा ली थी। वह गरम-गरम जलेबियाँ घी में से निकाल कर चाशनी की कड़ाही में डाल रहा था। कालू एक झाड़ी में छिपा, किसी ग्राहक के आने की प्रतीक्षा कर रहा था। वह सोच रहा था कि जब चिंकी का ध्यान ग्राहक की ओर होगा तब वह जलेबियाँ चुरा लेगा। उसने रंगू खरगोश को दुकान की तरफ जाते देखा तो वह भी छिपता-छिपाता दुकान पर पहुँच गया।
रंगू खरगोश ने चिंकी से जलेबियाँ माँगी तो उसमे गरम चाशनी में डूबी जलेबियाँ निकाल कर कड़ाही के ऊपर रखी झरनी पर रख दीं। कालू ने देखा कि चिंकी ने अभी तक बड़े थाल में एक भी
जलेबी नहीं रखी थी। उसने जान लिया कि आज तो जलेबियाँ झरनी के ऊपर से ही चुरानी पड़ेंगी। अगले ग्राहक के आने तक तो वह प्रतीक्षा नहीं कर पायेगा।
जैसे ही चिंकी जलेबियाँ लिफाफे में डाल कर तौलने लगा, कालू जल्दी से कड़ाही पर रखी बड़ी झरनी पर पहुँच गया। जलेबियाँ बहुत गरम थीं, इसलिए उन्हें खिसकाने में कालू को तकलीफ हो रही थी। तभी चिंकी ने एक और जलेबी लेने के लिए हाथ झरनी की ओर बढ़ाया, तो उसकी निगाह कालू पर पड़ गई. कालू हड़बड़ा गया और अपने लिफाफे समेत गरम चाशनी में जा गिरा।
गरम चाशनी में डुबकियाँ लगाते कालू को चिंकी ने चिमटे से पकड़ कर बाहर निकाला। फिर उसने कालू को गरम पानी से नहलाया। नहाते समय कालू बुरी तरह से घबराया हुआ था और थरथर काँप रहा था।
चिंकी ने सोचा, अगर कालू को उचित दंड नहीं दिया गया तो उसकी चोरी की आदत नहीं छूटेगी। इसलिए उसने नीम के पेड़ की एक पतली शाखा से कालू की पूंछ बाँध कर उसे धूप में सूखने के लिए लटका दिया।
चिंकी की दुकान पर आने वालों की नज़र ऊपर लटके कालू पर पड़ती। वे हैरान होकर चिंकी से पूछते, "नीम के पेड़ पर इतना बड़ा फल कैसा लटक रहा है?"
चिंकी कहता, "यह नीम का फल नहीं, चोरी का फल है।" फिर वह सबको कालू की करतूत के बारे में बताता।
चिंकी की बात सुन सभी जानवर खूब हँसते। कालू तो शर्म के मारे चुपचाप आँखें बंद करके लटका रहा। शाम को जब चिंकी ने कालू को नीचे उतारा तो उसने कान पकड़ कर फिर कभी भी चोरी न करने का वचन दिया।
चिंकी ने उससे कहा, "चोरी करने की जगह फालतू समय में मेरे पास आकर काम किया करो। काम के बदले तुम्हें खाने को जलेबियाँ मिल जाया करेंगी।
चिंकी की बात कालू ने स्वीकार कर ली। कभी-कभी कालू के दोस्त उससे पूछते, "चोरी का फल कितना मीठा होता है?"
कालू उत्तर देता, "चोरी का फल मीठा नहीं, बहुत कड़वा होता है।"