चोर कहीं का! / दीपक मशाल

Gadya Kosh से
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“कल तो किसी तरह बच गया लेकिन आज? आज कैसे बच पाऊँगा पिटाई से, जब घर पर पता चलेगा तो।।” ये सोच-सोच कर सिहरा जा रहा था वो। थोड़ी-थोड़ी देर बाद क्लास के बाहर टंगी घंटी को देखता जाता और फिर चपरासी को। ठीक ऐसे जैसे जेठ की दोपहर में प्यास से व्याकुल कोई मेमना हाथ में पानी की बाल्टी लिए खड़े अपने मालिक को तके जा रहा हो कि कब वो बाल्टी करीब रखे और बेचारा जानवर अपनी प्यास बुझाये। उसका मन आज पढ़ाई में बिलकुल नहीं लग रहा था जबकि क्लास में वो हमेशा अब्बल रहने वालों में से था। कुछ देर बाद जैसे ही चपरासी मध्यावकाश (इंटरवल) की घंटी बजाने के लिए आता दिखा तो वो खुशी से लगभग चीख उठा, “इंटरवल्ल्ल्ल...”

“गौरव!!!!!!!!!!” अंगरेजी वाले मास्टर जी ने डांट कर उसे चुप कराया। हाँ यही नाम था उसका।

उसे पहली बार पढ़ाई से ध्यान हटाकर इस तरह चिल्लाते देख मास्टर जी और उसके साथियों को तो अजीब लगा ही। वो खुद भी अपने आप को ऐसे देखने लगा जैसे वो एलियन(बाहरी गृहवासी) में तब्दील हो गया हो। सब अपना-अपना टिफिन लेकर लंच के लिए चले गए। मगर वो नहीं गया जबकि उसके सबसे ख़ास दोस्त ने उससे कितनी बार चलने के लिए कहा भी।

इंटरवल के बाद सब कुछ वैसा सा ही हुआ जैसे रोज चलता था। वही मास्टर जी, वही क्लासवर्क, वही होमवर्क और अब वो भी सामान्य सा दिख रहा था रोज की तरह। पर आखिरी क्लास के बाद जब सारे बच्चे अपने-अपने जूते-मोज़े(जुराबें) पहिनने लगे तो उसका एक सहपाठी रोनी सूरत लिए हुए मास्टर जी के पास जाके बोला, “मास्टर जी, एक हफ्ते पहले ही मेरे पापा ने नए मोज़े दिलवाए थे और मैं आज पहली बार वो पहिन कर आया था लेकिन अभी वो मेरे जूतों में नहीं हैं।”

मास्टर जी ने समझाया, “नहीं अंकित यहाँ कोई ऐसा काम नहीं कर सकता। जरा सीट के नीचे देखो शायद किसी के पैर से छिटक कर दूर गिर गए हों।”

“नहीं सर मैंने देख लिया सब जगह” अंकित ने रोआँसे होते हुए कहा।

“मगर स्कूल ड्रेस के सभी मोज़े एक जैसे होते हैं। अगर किसी ने लिए होंगे तो तुम पहिचानोगे भी कैसे? क्या कोई निशान लगाया हुआ था उनपर?” मास्टर जी ने सवाल किया।

“हाँ सर, मैंने सुबह जल्दबाजी में उसपर लगा लेबल नहीं हटाया और उस पर सर्टेक्स लिखा हुआ है।”

“हम्म। देखो मैं सबसे कह रहा हूँ जिसने भी अंकित के मोज़े लिए हों वो चुपचाप आके यहाँ वापस करदे, मैं उसे कुछ नहीं कहूँगा।” पर किसी ने भी मास्टर जी की बात का कोई जवाब नहीं दिया।

“ठीक है फिर। सब लोग एक-एक कर आगे आयें और अपने मोज़े अंकित को दिखाएँ। जिससे कि वो अपने मोज़े पहिचान सके।” मास्टर जी ने तमतमाते चेहरे से सबको आदेश दिया।

मगर किसी के मोज़े दिखाने से पहले ही गौरव के सबसे खास दोस्त ने खड़े होकर बताया, “ये चोरी गौरव ने की है।”

अब सबकी नज़र गौरव की ओर थी जो ये सुनते ही राम बिलईया (एक बरसाती कीड़ा) की तरह अपने आप में दुबक सा गया।

काफी जोर देने पर भी जब वो उन सर्टेक्स के लेबल वाले मोजों के उसके खुद के होने का दावा करता रहा तो गौरव ने फिर कहा, “ 'विद्या कसम' खा के बोलो कि तुमने थोड़ी देर पहले मुझसे ये नहीं कहा था कि 'कल किसी ने मेरे नए मोज़े चुरा लिए थे और मैंने किसी तरह ये बात घर पर छुपा ली क्योंकि बताता तो मार खाता और मेरे पापा के पास इतने पैसे भी नहीं कि मुझे इतनी जल्दी फिर से नए मोज़े दिला सकें। इसलिए आज मैंने अंकित के मोज़े, जो बिलकुल वैसे ही हैं जैसे मेरे थे, उठा लिए'।”

बाकी सब गौरव की चुप्पी ने कह दिया।

“चोर कहीं का।” मास्टर साहब तो बिना उसे पीटे इतना कह कर चले गए।

लेकिन आज भी उसके स्कूल के 'साथी' उसे यही कह कर बुलाते हैं... “चोर कहीं का।”