चोर - पुलिस रिश्ते की भूलभुलैया / जयप्रकाश चौकसे

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चोर - पुलिस रिश्ते की भूलभुलैया
प्रकाशन तिथि : 07 दिसम्बर 2012


लगभग दस वर्ष पूर्व फिल्मकार अनीस बज्मी ने दक्षिण भारत की एक सफल फिल्म का कथा विचार बताया था कि उस प्रेमकथा में नायक और नायिका दोनों के परिवार पुश्तैनी मुजरिम रहे हैं और अपने युवा वंशजों का विवाह किसी इज्जतदार परिवार में ही चाहते हैं। अत: मुजरिमों के दोनों परिवार पुलिस की वर्दी में एक-दूसरे से मिलते हैं। बाद में अनीस बज्मी ने अपनी फिल्म 'वेलकम' में आधे विचार का इस्तेमाल यूं किया कि पूरा वधू पक्ष जरायमपेशा अपराधी है और वर पक्ष सामान्य लोगों का है। बहरहाल अक्षय कुमार और असिन अभिनीत फिल्म 'खिलाड़ी ७८६' में वर-वधू दोनों ही परिवार पुश्तैनी मुजरिम हैं और विवाह कराने वाले एक युवा दलाल को यह शादी सफलता से कराकर अपने पिता को अपनी योग्यता सिद्ध करनी है। इस तरह की कहानियों में तर्क नहीं होता और इनका आनंद लेने के लिए सिनेमाघर के दरवाजे पर ही तर्कशक्ति को छोड़कर आना चाहिए। परंतु भय यह है कि फिल्म समाप्त होने के बाद आपको आपका ही तर्क वापस मिलेगा या अदला-बदली हो जाएगी? मसलन एक कांग्रेसी को एक भाजपाई का तर्क मिल जाए या आरएसएस दर्शक को कम्युनिस्ट का तर्क मिल जाए। ऐसी दशा में भी आज चिंता की कोई बात नहीं है, क्योंकि सभी दल समान रंग में ही रंगे नजर आते हैं। सत्ता का काला रंग हमेशा स्थायी होता है।

गौरतलब है कि जरायमपेशा मुजरिमों के लिए सम्मान का प्रतीक पुलिस है और वे पुलिसवाला बनने के असंभव सपने पाले रहते हैं। इसी तरह कुछ पुलिसवाले अपराधी होने की महत्वाकांक्षा इस मायने में रखते हैं कि अनुशासनविहीन होकर मुजरिम को गोली मार दें। हर पुलिसवाले को मुजरिम के साथ अनेक बार अदालत जाना पड़ता है और तारीख पर तारीख पड़ती रहती है। पुलिसवाले के एक हाथ में हथकड़ी वाली जंजीर का व्यवस्था वाला सिरा होता है और दूसरे सिरे पर मुजरिम हैं, गोयाकि जंजीर की लंबाई तक ही दोनों की स्वतंत्रता है। मुजरिम और पुलिस के रिश्ते में भय और हिकारत मौजूद रहती है, परंतु आजाद भारत की भ्रष्ट व्यवस्था ने कहीं-कहीं इनके ध्येय और स्वार्थ समान कर दिए हैं और रिश्वत के सेतु पर ये एक-दूसरे के गले लगते हैं। अंग्रेजों के जमाने में जो पुलिस सक्षम नजर आती थी, वो ही पुलिस आज राजनीतिक दबाव के कारण अपनी धार खो चुकी है। जरा कल्पना कीजिए कि जिन अफसरों ने कांग्रेस नेताओं को १९४७ के पहले गिरफ्तार किया था, सन ४७ के बाद उनके नेता बनने पर उन्हें सलाम करना पड़ रहा है। बस उसी दिन से भारत की कानून-व्यवस्था ने अपनी धार खो दी है। आज उन्हें जिन नेताओं को सलाम करना पड़ रहा है, वे उनके काले कारनामों से भी वाकिफ हैं।

हजारों साल पहले राजकुमार को चौंसठ कलाओं के साथ चोरी करना भी सिखाया जाता था कि राजा बनने के बाद ये ज्ञान उन्हें चोर के अवचेतन को समझने में सहायता दे। गोयाकि राजा कभी चोर रहा है और चोर भी अपने इलाके का राजा ही होता है। यह कितने आश्चर्य की बात है कि अपराध संसार में आज भी सामंतवादी प्रथाएं और उम्र को आदर देने की प्रथा है। दशकों पूर्व मनोज बसु के उपन्यास 'रात के मेहमान' में चोरों के सामंतवाद का अच्छा-खासा विवरण है। उनके संसार में भी युवा चोर को अपने गुरु को गुरुदक्षिणा देनी पड़ती है।

अनेक फिल्मों में पुलिस की वर्दी को उनका सम्मान बताया गया है और इस मामले में उनकी भावनाएं सेना की तरह ही होती हैं। एक तरह से वर्दी उनकी चमड़ी की भीतरी सतह होती है और वर्दी पहनते ही मिजाज में भी परिवर्तन होता है। एक आदमी अपने परिवार से प्रेमपूर्वक व्यवहार कर रहा है और वर्दी पहनते से कड़क हो जाता है। गोयाकि वर्दी में लगा कलफ उसकी आत्मा में पैठ जाता है। दरअसल सभी तरह के कपड़े पहनने वाले के मिजाज में परिवर्तन लाते हैं।

पुलिस महकमे में व्यक्ति 24 घंटे की नौकरी में होता है और उसके लिए कोई तीज-त्योहार नहीं होता, अत: उसके घरवालों का सामाजिक जीवन भी आसान नहीं होता। चोर अपने काम के घंटे खुद तय करता है और प्राय: उसके पास पुलिसवाले से अधिक वक्त होता है और अधिक पैसा भी। इस समानता के बावजूद कभी चोर कवि के रूप में नजर नहीं आता। यह बात अलग है कि कुछ कवि चोरी करके प्रसिद्धि पा लेते हैं, कुछ अफसर कवि हुए हैं। क्या काम का स्वरूप मनुष्य के चरित्र को बदलता है? काम से अवचेतन कैसे मुक्त हो सकता है?

बहरहाल, अक्षयकी फिल्म सब प्रकार की दार्शनिकता और विचार से मुक्त हास्य फिल्म है, परंतु चोर और पुलिस के रिश्तों पर सोचा जाना आवश्यक है, क्योंकि आर्थिक खाइयों वाली सामाजिक व्यवस्था मनुष्य को चोर बनने पर बाध्य करती है और यही व्यवस्था पुलिस को रिश्वत लेने पर मजबूर करती है। अत: व्यवस्था के मारे चोर-पुलिस भाई-भाई हैं।