चौथमल मास्साब और पूस की रात / पंकज सुबीर

Gadya Kosh से
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चौथमल मास्सब पता नहीं जवानी में या जवानी के पहले की अवस्था में कैसे लगते थे। लेकिन ऐसा लगता है कि वह इसी प्रकार पैदा हुए होंगें। इसी प्रकार अर्थात मास्साब के रूप में। पिछले बीस पच्चीस सालों से वे इसी प्रकार दिखाई देते हैं। पाँच फुट पर एक या दो इंच ऊपर का क़द, चौड़ी मोहरी का सफ़े द पायजामा, शर्टनुमा सफेद कुर्ता और सर पर गाँधी टोपी। हैरत की बात है कि उन्हें क़रीब से जानने वालों ने भी आज तक उनको बिना गाँधी टोपी के नहीं देखा। ऐसा लगता है मानो वह टोपी उनके शरीर का ही एक अंग है, कर्ण के कवच और कुंडल की तरह। एक अविश्वसनीय स्तर की बला कि विनम्रता भी उनके व्यक्तित्व का हिस्सा है। विनम्रता इस दर्जे की कि मिलते ही सबसे पहला वाक्य उनके मुँह से निकलता है 'आइये चाय पी लीजिये।' कुछ लोगों का ऐसा कहना है कि एक दो बार उनकी मुलाक़ात मास्साब से ऐसे स्थानों पर भी हुई जहाँ कोसों तक कोई चाय की दुकान नहीं थी, फिर भी मिलते ही मास्साब ने वही बात कही 'आइये चाय पी लीजिये।' चौथमल मास्साब अब तो रिटायर हो चुके हैं और आजकल किसी भी चौराहे पर बैठे बीड़ी फूँकते मिल जाते हैं, हर आते जाते से विनम्रता पूर्वक पूछते 'आइये चाय पी लीजिये।' मजे की बात ये है कि ऐसा प्रश्न वे अक्सर किसी किराने की दुकान या कपड़े की दुकान पर बैठकर ही पूछते हैं। आज तक किसी ने उनको किसी चाय की दुकान पर बैठे नहीं देखा।

चौथमल मास्साब को कविता वगैरह लिखने को भी शौक़ है इसलिये अक्सर जहाँ कविता से जुड़ा कोई आयोजन हो रहा हो वहाँ बिन बुलाये पहुँच जाते हैं। सबसे पीछे बैठ जाते हैं और फिर धीरे-धीरे आगे की तरफ़ बढ़ते जाते हैं, कार्यक्रम समापन होने तक श्रोताओं की ठीक पहली पंक्ति में पहुँच जाते हैं। इधर वे पहली पंक्ति तक पहुँचते हैं और उधर कार्यक्रम समापन की घोषणा हो जाती है, आभार व्यक्त होने लगता है। आज तक कभी भी वे श्रोताओं की पहली पंक्ति से मंच तक की चार क़दमों की दूरी तय नहीं कर पाये हैं। कार्यक्रम समापन की घोषणा के साथ ही कुर्ते की जेब में रखी कविताओं की छोटी-सी डायरी के साथ मायूस घर लौट आते हैं।

ये तो ख़ैर आज के चौथमल मास्साब हैं, किन्तु बात जिस पूस की रात की है वह उनके जीवन में लगभग तीस पैंतीस साल पहले आई थी। ये अलग बात है कि तब भी शर्म, संकोच और विनम्रता उनसे उसी प्रकार चिपकी हुई थीं जिस प्रकार आज हैं। आज तो वे नाम के मास्साब हैं, तब वे नाम और काम दोनों से मास्साब थे। मास्साब के जीवन में वह पूस की रात उसी गाँव में आई थी जहाँ उनको कुछ समय पहले ही पदस्थ किया गया था। मास्साब की उम्र तब चालीस के लगभग की थी। चालीस की उम्र लगभग वही उम्र होती है जब शरीर में बीस साल पहले उठा ज्वार, भाटे में बदलने के पहले कुछ अंतिम हिलोरें मारता है। इसे चराग़ के बुझने के पहले की अंतिम भड़भड़ाहट भी कहा जा सकता है। आजकल तो इसलिये भी ऐसा कहा जा सकता है कि आजकल तो अमूमन इसी उम्र में आकर डायबिटीज़ हो जाती है और उसी के साथ ही सत्यनारायण की कथा का प्रसाद वितरण हो जाता है।

चौथमल मास्साब को ठीक इसी उम्र में गाँव में पदस्थ कर दिया गया था। गाँव जो उनके अपने क़स्बे से क़रीब तीस किलोमीटर दूर था। उस समय आवागमन के साधन इतने सुलभ नहीं थे जितने कि आज हैं। तय ये हुआ कि मास्साब की पत्नी क़स्बे में ही रहेंगीं बच्चों के साथ और चौथमल मास्साब गाँव जाकर रहेंगें। शनिवार को शाम को क़स्बे आ जाया करेंगें और सोमवार की सुबह वापस लौट जाया करेंगें। मास्साब ने इस निर्णय का विरोध करने की कोशिश की थी ये कहकर कि वहाँ अकेले रहने में खाने वगैरह की परेशानी होगी। इसमें भी खाने की परेशानी की तो मास्साब को कोई चिंता नहीं थी लेकिन जो 'वगैरह' था उसीको लेकर वह ज़्यादा परेशान थे। खाना तो ख़ैर हाथों से भी बनाया जा सकता था लेकिन इस उम्र में वगैरह भी अपने ही हाथों से करना मास्साब को ठीक नहीं लग रहा था। मास्साब के विरोध को तुरंत ही ख़ारिज कर दिया गया। मास्साब के 'वगैरह' पर बच्चों की पढ़ाई भारी पड़ गई। उनकी पत्नी अपने बच्चों को गाँव के स्कूल में पढ़ाना नहीं चाहती थीं। निर्णय हो चुका था और चहलसाला मास्साब को अपना सामान बाँध कर गाँव आना पड़ा।

तीस पैंतीस साल पहले के गाँव में मास्साब नाम का प्राणी अत्यंत सम्माननीय, लगभग भगवान माना जाता था। गाँव के लोग इस जीव की भरपूर सेवा में लगे रहते थे। उसके पीछे कारण ये था कि गाँव के लोग समझते थे कि ये जो मास्साब नामक वस्तु है ये हमारे बच्चों को पढ़ा लिखाकर तुरंत ही कलट्टर बनाने वाली है। वह बाद के सालों में गाँव के लोगों की आँखें उस समय खुलीं जब उनके पढ़े लिखे नौनिहाल, धोबी के कूकर हो कर रह गये। अब ये कूकर घर (खेती) और घांट (नौकरी) दोनों के ही लायक नहीं रह गये थे। ख़ैर तो बात उस समय की हो रही थी जब गाँवों में मास्साबों को भगवान माना जाता था। मास्साबों को गाँव में रहने, खाने की व्यवस्था करनी नहीं पड़ती थी, वह अपने आप हो जाती थी। नाई मुफ़्त में हजामत बनाता था, धोबी मुफ़्त में कपड़े धोता था, खाना रोज़ कहीं से आ जाता था और रहने की व्यवस्था भी मुफ़्त में हो जाती थी। नहीं हो पाती थी तो केवल 'वगैरह' की व्यवस्था। अब भगवान कैसे अपने मुँह से कह सकता था कि 'वगैरह' की आवश्यकता है।

तो मास्साब के लिये भी सारी व्यवस्थाएँ हो गईं। उनके लिये एक कोठरी गाँव के पटेल के मकान में खोल दी गई थी। खाने की व्यवस्था वैसे तो रोज़ ही हो जाती थी, लेकिन जब नहीं भी होती थी तो गाँव वालों ने इतना सामान उनकी कोठरी में जुटा दिया था कि वे ख़ुद ही बना लेते थे। स्कूल से लौटने से लेकर देर रात चौपाल जाने तक वैसे भी कोई काम होता नहीं था। ये उस दौर की बात है जब गाँव में बिजली, टीवी, फोन, मोबाइल जैसी चीज़ें नहीं पहुँची थीं।

मास्साब को कुल मिलाकर सारी सुख सुविधाएँ वहाँ पर थीं, बस एक ही दिक़्क़्त थी, वह ये कि अक्सर रविवार को किसी अफ़सर के दौरा या किसी मीटिंग के चलते क़स्बे की यात्रा नहीं हो पाती थी और उनको लम्बे-लम्बे समय तक 'वगैरह' से वंचित रहना पड़ता था। जब भी कोई अफ़सर अपने परिवार के साथ गाँव के सरकारी दौरे पर आता तो चौथमल मास्साब 'अहा ग्राम्य जीवन भी ...' लिखने वाले कवि को सारी-सारी रात जाग कर कोसते रहते थे।

धीरे धीरे दिन बीतते रहे, मास्साब को गाँव में आये आठ नौ महीने हो गये थे। वे काफ़ी कुछ अभ्यस्त हो गये थे अब गाँव के। मुफ़्त के हरे चने, गुड़, गन्ने, दूध, घी और मावे का सेवन कर-कर के मास्साब के सूखे छुहारे समान गाल वापस पिण्ड खजूर होने लगे थे। महीने पन्द्रह दिन में जब भी क़स्बे जाते तो उनके साथ ढेर सारे सामान होते थे, मसलन घी का कनस्तर, गुड़ की बोरी, गन्ने की गठरी इत्यादि इत्यादि। क़िला जीत कर लूटी गई सामग्री के अंदाज़ में ये सारा सामान मास्साब घर पहुँच कर बरामदे में रखते और कुछ गुनगुनाते हुए घर में प्रवेश करते थे।

गाँव में मिलने वाला ये मुफ़्त का सामान और गाँव के स्कूल में पढ़ाने लिखाने का कोई विशेष काम न होना, ये दो कारण ऐसे थे जिनके चलते खाना वगैरह की परेशानी होने के बाद भी मास्साब वापस क़स्बा स्थानांतरण नहीं करवाना चाह रहे थे। एक कारण और भी था, जैसा कि पहले बताया जा चुका है कि मास्साब कवि भी हैं, तो मास्साब को अपनी कविताओं के लिये वहाँ थोकबंद श्रोता मिले हुए थे। श्रोता, जिनको मास्साब की कविताओं का एक शब्द भी समझ में नहीं आता था लेकिन फिर भी वे आनंद में प्रशंसा से सर हिलाते रहते थे। बिना समझे प्रशंसा में सिर हिलाने के पीछे एक ही कारण था और वह ये कि कविता गाँव के सबसे पढ़े लिखे व्यक्ति मास्साब द्वारा सुनाई जा रही होती थी। इन सारे कारणों के चलते मास्साब ख़ुद ही क़स्बे की वापसी को टाले हुए थे।

मास्साब के गाँव में पदस्थ होने के आठ दस माह बाद ही आई थी वह पूस की रात। यहाँ पर पूस की रात के बारे में अलग से कुछ बताने की आवश्यकता नहीं है कि पूस की रात अत्यधिक ठंडी होती है। या ये कि पूस की रात में मावठा (ठंड में होने वाली बरसात) पड़ जाये तो ये रातें और ठंडी हो जाती हैं। ग्रामीण इलाक़ों में पूस की रातों में ही खेत पर करने के लिये कई सारे काम होते हैं। गेहूँ चने की फ़सल में पानी फेरना। गन्ने की पिराई करना, गुड़ बनाना, आदि आदि। जितनी ठंडी रातें उतने ही ज़्यादा काम। मास्साब मध्यप्रदेश के जिस गाँव में पदस्थ थे वहाँ तो वैसे भी खेती ही एकमात्र जीविका का साधन होता है। इन गाँवों में किसान का पूरा परिवार खेती के काम में जुटा रहता है। खेती के काम करने में महिलाएँ भी दक्ष होती हैं और उसी अनुसार कपड़े भी पहनती हैं, घाघरा (राजस्थानी जैसा नहीं बल्कि एक कुछ ज़्यादा घेर का, घुटनों से कुछ नीचे तक ही टँगा रहने वाला पेटीकोट) , लुघड़ा (बहुत छोटी, दुपट्टे से कुछ ही बड़ी ओढ़नी के जैसी साड़ी) , पोलका (जेबों वाला ब्लाउज) । घाघरा, लुघड़ा और पोलका पहनी ये महिलाएँ पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खेतों में जुटी रहती हैं।

मास्साब को रहने के लिये पटेल की जो कोठरी उपलब्ध करवाई गई थी वह गली की तरफ़ भी खुलती थी। मास्साब आना जाना इसी तरफ़ से करते थे। यूँ कोठरी में जाने का एक रास्ता पटेल के घर से होकर भी था, लेकिन संकोची स्वभाव के मास्साब किसी को परेशान न करने के उद्देश्य से इस तरफ़ से ही आते जाते थे। गली का ये हिस्सा अँधेरा होते ही सुनसान हो जाता था। अँधेरा होते ही इसलिये क्योंकि तब तक गाँव में बिजली नहीं पहुँची थी। गली में जहाँ कोठरी का दरवाज़ा खुलता था उसके ठीक सामने गाँव के ही एक किसान रामचंदर का मकान था। रामचंदर के घर में उसके माँ बाप और पत्नी, इस प्रकार कुल चार ही प्राणी थे। शादी को तीन चार साल हाँ चुके थे लेकिन अभी पत्नी की गोद भरी नहीं थी। चारों प्राणी दिन भर और कभी-कभी रात को भी खेती के काम में जुटे रहते थे। खेत घर से कोई एक फर्लांग के फ़ासले पर था।

रामचंदर की पत्नी का वैसे तो वर्णन करने की आवश्यकता नहीं है किन्तु यदि नहीं किया तो काफ़ी लोग परेशान हो जाएँगे। सो उस समय के गाँव में पन्द्रह सोलह की उम्र में बियाही जाने वाली रामचंदर की घरवाली घटना के समय उन्नीस बीस की थी। हमेशा तीखे रंगों वाले घाघरे लुघड़े पहनती थी। पैरों में मोटे-मोटे चाँदी के तोड़े, पिंडलियों की सुघड़ता के ठीक समापन पर हमेशा उपस्थित रहते थे। कुल मिलाकर रामचंदर की वैसी ही थी जैसी आप सब सोच रहे हैं। अक्सर शाम ढले जब पैरों में पुराने टायर से बनी चप्पलें चटकाती, घाघरा झमकाती, सर पर घांस का गट्ठर रखे खेत से ढोर डंगर लिये लौटती तो। ख़ैर छोड़िये क्यों फ़िज़ूल में किसी शादी शुदा महिला के लिये ऐसी बात करें।

मास्साब और रामचंदर की घरवाली का आमना सामना अक्सर ही हो जाता था। सुब्ह जब मास्साब स्कूल के लिये निकलते थे तो वह या तो ओसारे पर बर्तन माँज रही होती थी या फिर ढोरों के लिये चारा रख रही होती थी। अक्सर ही ये होता था कि मास्साब की सुब्ह की चाय की व्यवस्था भी वहीं हो जाती थी। शाम को जब मास्साब स्कूल से लौटते तो रामचंदर की घरवाली खेत से लौट रही होती। राम राम, श्याम-श्याम होने के बाद मास्साब की नज़रें अक्सर ढोर डंगरों से होती हुई वहाँ पहुँच जाती थीं जहाँ पर चाँदी की मोटी-सी तोड़ी डली हुई होती थी। कुछ देर तक उस स्थान पर नज़रों को एकाग्र करने के बाद मास्साब अकबका कर वहाँ से नज़रें हटा लेते थे। चौथमल मास्साब जैसे जीव के लिये ये बहुत बड़ा कार्य था कि वे लगभग आठ सैकेंड तक किसी पराई स्त्री की पिंडलियाँ देख लेते थे। क्योंकि उन्होंने अपनी स्वयं की पत्नी की पिंडलियाँ भी बारह सैकेंड से अधिक समय तक कभी नहीं देखी थीं। वही उनका संकोची स्वभाव 'कोई क्या कहेगा।'

वो पूस की रात भी उसी प्रकार बला कि ठंडी थी जिस प्रकार पूस की रातें होती हैं। खेतों पर गन्ने की पिराई के लिये चरखी चल रही थीं। चारों तरफ़ ताज़े गुड़ की सौंधी महक हवा में घुली हुई थी। ये तब की बात है जब मध्यप्रदेश के खेतों में गन्ने बोये जाते थे। खेतों में बने बड़े-बड़े भट्टों पर लोहे के कड़ाहों में गन्ने के रस को औंटा कर गुड़ बनाने की प्रक्रिया चल रही थी। गुड़ की बड़ी-बड़ी भेलियाँ तगारी के आकार के साँचों में ढाल कर बनाई जाती हैं और एक-एक भेली ही काफ़ी वज़नदार होती है।

रामचंदर के खेत पर भी गुड़ बनाने की प्रक्रिया चल रही थी। पिछले छः सात दिन से गुड़ बनाया जा रहा था। दिन भर गुड़ बनता था और रात को बैलगाड़ी में भरकर गुड़ की सारी भेलियों को घर लाया जाता था। खेत पर हालांकि एक छोटी-सी टपरिया बनी थी, लेकिन वह इतनी अच्छी नहीं थी कि उसमें रात भर गुड़ सुरक्षित रहे। शाम के गहराते ही गुड़ की भेलियों को घर लाने का काम शुरू हो जाता था, जो देर रात तक चलता था। बाप बेटे लादते और ढोते तथा सास बहू का काम बैलगाड़ी खाली करना और गुड़ को भंडार की कोठरी में रखना था।

उस दिन गुड़ बनाने का काम रामचंदर ने सुब्ह बहुत जल्दी शुरू कर दिया था। शाम को उसे अपने माँ बाप के साथ बहन के गाँव जाना था। अगले दिन बहन के घर उसके चाचा ससुर का नुक़्ता था। नुक़्ता उस अंचल में तेरहवीं पर होने वाले मृत्यु भोज को कहा जात है। तथा अंचल में परम्परा ये है कि भले ही आप किसी की यहाँ शादी ब्याह में न जाएँ लेकिन नुक्ते में पहुँचना अत्यंत आवश्यक होता है। फिर ये तो बहन की ससुराल का मामला था सो रामचंदर और उसके माँबाप का जाना और वह भी एक रात पहले जाकर काम काज संभालना ज़रूरी था। इधर खेती का सारा काम फैला हुआ था और उधर ये नुक्ता। तय ये हुआ कि दोपहर तक खेत का काम समेट कर सारा गुड़ बैलगाड़ी से घर में रखकर शाम होने के पहले ही तीनों निकल जाएँगें और अगले दिन शाम ढलने से पहले ही वापस आ जाएँगें। आना जाना भी बैलगाड़ी से ही था और कोई साधन तो था नहीं। फिर बहन की सहायता के लिये थोड़ा बहुत अनाज पानी भी तो ले जाना था।

दोपहर बाद जब रामचंदर ने बैलगाड़ी में गुड़ भरा तो पूरी भर जाने के बाद भी क़रीब तीस चालीस भेलियाँ बाक़ी रह गईं थीं। आसमान पर मावठे के बादल देखकर रामचंदर ने उन भेलियों को अच्छी तरह से घांस के पूलों से ढाँक दिया ताकि अगर बारिश हो तो जितना हो सके उतना बचाव तो हो ही जाये। शाम होने के कुछ पहले ही रामचंदर, माँ बाप को लेकर बहन के गाँव रवाना हो गया।

शाम जब कुछ ठीक ठाक तरीके से हुई तब तक मावठे के आसार भी पूरी तरह से बन चुके थे। आसमान बादलों से भर गया था और किनारों पर रह-रह कर बिजली भी चमक रही थी। ढोर डंगरों के लिये चारा काटती रामचंदर की घरवाली ने जब आसमान की तरफ़ देखा तो उसे खेत पर रखे गुड़ की चिंता हो गई। भले ही घांस के पूलों से ढंका रखा है लेकिन फिर भी पड़ा तो खुले में ही है। तीस चालीस भेलियाँ अर्थात घर से खेत के तीस चालीस चक्कर और वह भी भेलियों को सिर पर रखकर। तिस पर ये भी कि एक आदमी तो वहाँ खेत पर भी चाहिए ही जो भेली को उठवा कर सिर पर रखवा दे। आसमान के बादल कह रहे थे कि रात पड़े कभी भी मावठा बरस जायेगा। रामचंदर की घरवाली का चिंतित होना स्वाभाविक था, आख़िर को वह स्वामिनी थी इस समय, घर की भी और खेत की भी। सब कुछ उसकी ही ज़िम्मेदारी पर तो छोड़ा गया है।

थोड़ी बहुत बरसात होने पर तो सूखी घांस के पूले गुड़ को बचा लेंगें लेकिन बरसात यदि ज़्यादा हो गई तब तो नुक़सान होने की संभावना थी ही। रामचंदर की घरवाली के माथे पर उसी गुड़ की चिंता में सलवटें पड़ रहीं थीं। गुड़ की एक दो भेली होतीं तो वह किसी भी आस पास के खेत वाले से कह कर रखवा लेती, लेकिप बात तो तीस चालीस भेलियों की थी।

शाम धीरे-धीरे रात में बदली, बिना बिजली का गाँव अँधेरा होते ही घरों में सिमटने लगा। फिर ये पूस की ठंडी रात थी। मावठा पड़ने की संभावना से भरी हुई पूस की रात। रात फैली और सन्नाटा खिंचने लगा। ढिबरी के मद्धम प्रकाश में बैठी रामचंदर की घरवाली अजीब-सी दुविधा में थी। देवधामी से मावठा रोकने की मन्नत भी नहीं माँग सकती थी, क्योंकि खेत में खड़ी गेहूँ और चने की फ़सल के लिये ये मावठा अमृत वर्षा के समान था। अगर मावठा ठीक तरीके से पड़ गया तो आने वाले पन्द्रह बीस दिन तक खेत में पानी फेरने की ज़रूरत नहीं पड़नी थी। देहरी पर बैठी रामचंदर की घरवाली रात को और गहरा और गहरा होते देख रही थी।

रात के दस या साढ़े दस बजे होंगें जब चौथमल मास्साब अपनी कोठरी पर लौटे। रामचंदर की घरवाली उसी प्रकार घर के बाहर बैठी थी। ढिबरी के मद्धम प्रकाश में उसने चौथमल मास्साब को उनकी कोठरी की ओर जाते देखा। कुछ सोच में डूबी वह मास्साब को देखती रही, सोच रही थी या तौल रही थी। 'टप्प' गोबर लिपे आँगन में टपकी पानी की एक बूँद ने उसकी सोच और तौल दोनों पर विराम लगा दिया।

'आज तो बड़ी देर कर दी मास्साब?' वहीं बैठे बैठै उसने मास्साब से प्रश्न किया।

'हाँ आज उधर चौपाल पर बैठे-बैठे पता ही नहीं चला कि रात ज़्यादा हो गई है। सात आठ दिन से मेरी हाथ घड़ी भी खराब हो गई है, पता नहीं कितने बज रहे होंगें?' मास्साब ने उत्तर दिया।

'कजाने कित्ती बज री है, रोटी खई के आया हो कि अब खाओगा?' रामचंदर की घरवाली ने फिर प्रश्न किया।

'अब बनाऊँगा, सुबह तो उधर पटेल साहब के घर खाना था इसलिये नहीं बनाया था। अब बनाता हूँ कुछ न कुछ।' मास्साब ने उत्तर दिया।

'अब इत्ती रात पड़े कंई बनाना बैठोगा, पानी छींटा पड़ने का टैक हुई रयो है। अने अब कब तो बनाओगा ने कबे खाओगा।' रामचंदर की घरवाली ने कुछ अपनत्व जताते हुए कहा।

'देखता हूँ, कुछ नहीं होगा तो थोड़ा सत्तू घोलकर खा लूँगा, अब सोना ही तो है।' मास्साब ने उत्तर दिया। कुछ देर तक दोनों चुप रहे। फिर मास्साब ने ही प्रश्न किया 'आज रामचंदर और बा साब आये नहीं खेत से अब तक?'

'वी तो बइ के सुसराल गया है सब, नुक्तो है बई के काका सुसर को। कल संजा तक आ जायेगा सब।' रामचंदर की घरवाली ने उत्तर दिया।

'माँ साब भी गईं हैं क्या?' मास्साब ने फिर पूछा।

'तीनों ही गया है। बहन बेटी के घर तो सुख दुख में जानो ही पड़े है मास्साब। नाज़ पानी भी ले जानो थो, ख़ाली हाथ जानो कंई अच्छो लगे बहन बेटी के घर। तीनों मनक गया है, रात को काम काज में हाथ बंटई लेगा ने कल नुक्तो कर के दफोरी चल देगा वाँ से।' रामचंदर की घरवाली ने उत्तर दिया।

'सही बात है बहन बेटी के घर सुख दुख में तो जाना ही चाहिये। उसको भी उम्मीद लगी रहती है कि मायके से सब आएँगे। दस जनों के सामने उसकी भी इज़्ज़त रह जाती है।' कहते हुए मास्साब कोठरी का ताला खोलने का उपक्रम करने लगे।

'ऐ मास्साब अब इत्ती रात के कंई खटर पटर करोगा खाना बनाने की। असो करो आज तम इनंग ही जीम लो। हूँ भी आज एकली थी तो खानो नी खायो मैंने भी' रामचंदर की घरवाली ने जिस बात के लिये इतनी सारी भूमिका बाँधी थी आख़िरकार वह बात कह दी।

'अरे रहने दो, परेशान मत होओ, मैं तो कुछ भी कच्चा पक्का खा के सो रहूँगा, मेरी तो आदत है उसकी।' कुछ संकोचवश मास्साब ने उत्तर दिया।

'कंई परेशानी नी है मास्साब, सब बनो बनायो रख्यो है। तमें खिला के थोड़ो भोत पुन म्हारे भी मिल जायगो।' रामचंदर की घरवाली ने उत्तर दिया। मास्साब कुछ देर तक हाथ की चाबी को उसी प्रकार हाथ में लिये ऊहापोह की स्थिति में खड़े रहे।

'अब कंई सोचो हो मास्साब? अइ जाओ झट पट, इनंग पानी रख्यो है बाल्टी में, हाथ पाँव धुई लो तम, हूँ रोटी मेलूँ अंदर।' निर्णायक अंदाज़ में कहा रामचंदर की घरवाली ने और उठकर अंदर चली गई कुछ और कहने सुनने की गुंजाइश को ख़त्म करते हुए। मास्साब कुछ देर तक वहीं खड़े रहे मानो हवा को तौल रहे हों। फिर धीरे-धीरे अपने चिर परिचित अंदाज़ में टहलते हुए रामचंदर के घर की तरफ़ बढ़ गये।

हाथ पाँव धोकर कुछ झिझकते हुए जब मास्साब अंदर पहुँचे तो अंदर ढिबरी का अत्यंत मद्धम प्रकाश फैला हुआ था। कच्ची दीवार से सटा कर एक बोरा बिछा था जिसके सामने पीतल की थाली में ज्वार की रोटी और एक प्याज़ रखा था। रामचंदर की घरवाली ने मास्साब को आते देखा तो उठती हुई बोली 'आओ मास्साब।'

मास्साब उसी प्रकार झिझकते सहमते जाकर बोरे पर बैठ गये। सामने थाली में ज्वार की रोटी और एक साबुत प्याज़ उनके लिये प्रतीक्षित-सा था। मास्साब को पता था कि इस तरफ़ का दैनिक भोजन अमूमन यही होता है। बहुत हुआ तो पानी में थोड़ा नमक और थोड़ी मिर्ची घोल कर सब्ज़ी बना ली जाती है।

मास्साब ने धीरे से रोटी का एक टुकड़ा तोड़ा मुँह में रखा और प्याज़ को उठाकर दाँतों से थोड़ा-सा कुतरा। नींद न जाने टूटी खाट, भूख न जाने बासी भात की कहावत मास्साब पर गाँव आकर रोज़ ही लागू होती थी। गाँव में यही भोजन मिलता था और जब मिलता था तो मास्साब अक्सर ही ख़ूब भूखे भी होते थे।

मास्साब को भोजन प्रारंभ करते देख रामचंदर की घरवाली ने गुड़ का एक टुकड़ा लाकर उनकी थाली में रख दिया और वहीं सामने बैठ गई।

'आराम से जीमो मास्साब।' रामचंदर की घरवाली मास्साब के ठीक सामने बैठी थी बाँया पैर ज़मीन पर पालथी वाली मुद्रा में था और दाँया घुटना मोड़कर उस पर हाथ रखे बैठी थी वो। दाँया पैर इस प्रकार से था कि घाघरा घुटनों तक खिसका हुआ था और ढिबरी की रोशनी में पिंडली झिलमिला रही थी। मास्साब की नज़रें छः सैकेंड तक वहाँ टिकीं और ठीक सातवें सैकेंड वे हड़बड़ा गये। उसी हड़बड़ाहट में गुड़ का एक बड़ा-सा टुकड़ा दाँतों से काट कर उसे चबाने लगे। ढिबरी का वह हिलता हुआ उजाला मास्साब को किसी तूफ़ान की तरह प्रतीत होने लगा था। वे सर झुकाए चुपचाप खाना खा रहे थे।

मास्साब की थाली की रोटी को ख़त्म हुआ देखा तो रामचंदर की घरवाली ने एक तरफ़ झुकते हुए कटोरदान से रोटी निकाली और सामने झुक कर मास्साब की थाली में रख दी। रोटी रख कर जब वह सीधी हुई तो झुकने झुकाने के इस क्रम में घाघरे का वह निचला सिरा जो दाँए घुटने पर रखा था वह अपना स्थान छोड़ गया। घाघरे का निचला घेर जो कि घुटने पर टिका था वह पीछे की तरफ़ सरका और जाँघों से होता हुआ गोद में गिर गया। मास्साब को ऐसा लगा कि आसमान में चमकने वाली बिजली कमरे में जल रही ढिबरी की मद्धम लौ में समा गई हो और पूरा कमरा कौंध उठा हो। 'वगैरह' मास्साब के दिमाग़ के सारे तार झनझना उठे। मास्साब ने नीची निगाहों से दाँए पैर की अनावृत अवस्था को देखा, पूस की उस ठंडी रात में उनके शरीर ने दिल का दौरा खाए रोगी की तरह ठंडा पसीना छोड़ दिया।

हर कौर को मुँह में ले जाते समय मास्साब का सिर कुछ ऊपर उठता और सामने का दृश्य झपझपा उठता। मास्साब के मन मस्तिष्क पर 'वगैरह' की सुगबुगाहट धीरे-धीरे पंजा मार रही थी।

'गुड़ और दूँ मास्साब?' रामचंदर की घरवाली के प्रश्न पर मास्साब ने नज़रें उठाकर देखा। मास्साब को लगा कि वहाँ नज़रों में 'वगैरह' का स्वतंत्र आमंत्रण बिछा हुआ है।

मास्साब ने कोई उत्तर नहीं दिया। रामचंदर की घरवाली ने एक गुड़ का टुकड़ा मास्साब की थाली में रख दिया। इस बार झुक कर गुड़ रखने के दौरान कंधे पर लिपटा उसका लुघड़ा भी नीचे गिर गया जिसे उसने सहेज कर वापस रखने का प्रयास भी नहीं किया। वगैरह, वगैरह, वगैरह, मास्साब का पूरा अस्तित्व जैसे कोई मथानी के द्वारा मथा जा रहा था। पूस की ठंडी ग्राम्य रात, मावठे की आशंका से गहगहाती रात और इधर मास्साब से ठीक दो क़दम की दूरी पर वगैरह धीरे-धीरे अनावृत हो रहा था।

मास्साब का भोजन पूरा हो चुका था और अब वे गुड़ के टुकड़े को मुँह में रखकर चूस रहे थे।

'थाली में ही हाथ धो लो मास्साब।' कहते हुए रामचंदर की घरवाली पानी का लोटा लिये पास आ गई। मास्साब ने हाथ थाली के ऊपर कर दिये और रामचंदर की घरवाली पानी डाल कर हाथ धुलवाने लगी। लुघड़े से अनावृत पोलका मास्साब की आँखों से ठीक दो फुट की दूरी पर था। हाथ धुला कर रामचंदर की घरवाली ने थाली बर्तन समेटे और अंदर चली गई। अंदर से कुछ देर तक बर्तनों की खटर पटर की आवाज़ आती रही। मास्साब उठे और टहलते हुए बाहर के दरवाज़े पर आकर खड़े हो गये। मानो जाने का उपक्रम कर रहे ं हों।

'थोड़िक देर बठ जाओ मास्साब, एकली में म्हारे भी अच्छो नी लग रयो है।' रामचंदर की घरवाली जब अंदर से आई तो मास्साब को जाने के लिये उद्यत पाकर बोली। मास्साब के उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना ही उसने बान की खाट को सीधा करके बिछाया और उस पर दरी डाल दी।

'बठो मास्साब, सुपारी खाओगा नी, हूँ अभी कतर के दूँ।' कहते हुए रामचंदर की घरवाली ने आले में रखा डब्बा उठाया और देहरी पर बैठकर सुपारी कतरने लगी। मास्साब खाट पर ही अधलेटे से हो गये।

'आज तो पड़ेगो ही पड़ेगो, असो लग रियो है कि ख़ूब झमाझम होयेगी रात को।' आसमान पर चमकी बिजली को लक्ष्य रकते हुए रामचंदर की घरवाली ने कुछ बुदबुदाहट वाले अंदाज़ में कहा। ज्वार की रोटी, प्याज़ और गुड़ का ख़ुमार मास्साब की आँखों को बोझिल कर रहा था। आँखें धीरे-धीरे उनींदी होती जा रहीं थीं।

'सुपारी' रामचंदर की घरवाली की आवाज़ सुनकर मास्साब सचेतन हुए। सुपारी को मास्साब की हथेली पर रखने के क्रम में हथेली से हथेली टकरा गई और मास्साब के समूचे जिस्म को एक बार फिर वगैरह झनझनाता हुआ गुज़र गया। सुपारी देकर वह फिर वहीं देहरी पर जाकर बैठ गई। कुछ देर मौन छाया रहा। मास्साब कुटर-कुटर सुपारी को कुतर कर दाँतों से चुगल रहे थे।

'पानी तो आज पड़ेगो ही पड़ेगो।' रामचंदर की घरवाली के स्वर में चिंता स्पष्ट नज़र आ रही थी। मास्साब ने कोई उत्तर नहीं दिया वे उसी प्रकार सुपारी को चुगलते रहे।

'मास्साब तमे जल्दी तो नी सोना है?' रामचंदर की घरवाली के प्रश्न पर मास्साब संभल कर बैठ गये।

'नहीं नहीं, मैं तो वैसे भी रात को कुछ पढ़ता लिखता हूँ, इतनी जल्दी नहीं सोता हूँ।' मास्साब ने बात को ठीक प्रकार से संभाल कर उसका उतना ही ठीक उत्तर दिया।

'हाँ मास्साब, तम तो गुरूजी हो, तमे तो ख़ूब पढ़ना लिखना पड़ता होगा। छोरा छोरी को पढ़ाने के लिये।' रामचंदर की घरवाली ने स्वर में कुछ सम्मान का पुट डालते हुए कहा। मास्साब ने कोई उत्तर नहीं दिया।

'ऐ मास्साब जराक खेत की टापरी तक चलनो है, तम चला चलोगा कंई?' रामचंदर की घरवाली ने प्रश्न किया। खेत, टापरी, पूस की रात, मावठा, मास्साब मानो हवा में तैर रहे थे।

'हाँ हाँ चलो ना, उसमें क्या है। इस बहाने थोड़ा टहलना भी हो जायेगा।' मास्साब ने बात को एक बार फिर मिलते ही झपट लिया।

'पानी छींटा को मौसम हुई रयो है, बा साब ने ये दोनों जना वाँ बई के वाँ जाने की जल्दी में कजाने कसो छोड़ के गया है। कंई सामान ऊपर पड़यो होगो तो पानी में सब खराब हुइ जायगो। तम चलोगा तो झटपट देख के अइ जाँयगा, म्हारे एकली जाने की नी सूझ री है।' एक लम्बी बात को भूमिका कि तरह बाँधते हुए कहा रामचंदर की घरवाली ने।

'अरे उसमें क्या है। चलो चले चलते हैं। सही बात तो है कुछ भी सामान ऊपर पड़ा होगा और पानी से ख़राब हो गया तो नुक़सान तो हो ही जायेगा ना।' कहते हुए मास्साब खाट से उठ कर खड़े हो गये। मास्साब को खड़ा होते देख कर रामचंदर की घरवाली अंदर गई और अपने हिस्से की रोटियाँ कपड़े में बाँध कर साथ में लेकर झट वापस आ गई।

पूस की वह ठंडी और अँधेरी रात खेत पर इस प्रकार बिखरी थी की हाथ को हाथ न सूझे। रामचंदर की घरवाली ने खेत पर बनी टापरी में से लालटेन निकाल कर जलाई तो हल्का-हल्का उजाला चारों तरफ़ फैल गया। लालटेन जला कर वह चारों तरफ़ घूम-घूम कर देखने लगी। कुछ दूर पर स्थित बरसाती नदी के कछार से सियारों के रोने की आवाज़ आ रही थी।

'और तो कंई नी है पर यो गुड़ रख्यौ है पूला से ढाँक के। पानी पड़यो तो खराब हुइ जायगो।' एक हाथ में घांस का पूला तथा एक में लालटेन थामे कहा रामचंदर की घरवाली ने।

'इसको उठा कर उधर रख देते हैं टपरिया के अंदर।' मास्साब ने गुड़ की भेलियों के ढेर को देखते हुए कहा।

'टापरी में? टापरी में रख्यौ के याँ रख्यौ बात तो एक है। टापरी तौ पूरी टूटी पड़ी। फिर जिनावर को ख़ुश्बू लग गई गुड़ की तो रात भर में मचामच कर जायगा पूरा गुड़।' रामचंदर की घरवाली ने उत्तर दिया।

'हाँ ये बात तो है। ताज़ा गुड़ है महक तो उठ ही रही है।' मास्साब ने कहा।

'थोड़ाक रुकी जाता, एक चक्कर और लगा के चला जाता बाई के वाँ। म्हारे तो कंई भी सुदगम नी पड़ री है।' रामचंदर की घरवाली ने कुछ रुआँसे से स्वर में कहा।

'अरे ...परेशान होने से क्या होगा और मैं हूँ तो मदद करने के लिये। कुछ न कुछ हल निकालते हैं इसका। आख़िर को इतना सारा गुड़ है पानी में ख़राब हो गया या जानवर मचा गये तो काफ़ी नुक़सान हो जायेगा।' मास्साब ने रामचंदर की घरवाली के रुआँसे स्वर को सुना तो दिलासा देते हुए कहा।

'हाँ मास्साब तम हो तो म्हारे भी हिम्मत बंधी है। नी तो हूँ तो कंई भी नी कर पाती।' रामचंदर की घरवाली का स्वर सामान्य हो गया।

'चिंता मत करो मैं हूँ। लेकिन अब ये सोचें कि करना क्या है। टापरी में गुड़ नहीं रख सकते। अगर केवल बारिश का ही डर होता तब तो कोई बात नहीं थी कोई चीज़ से ढाँक सकते थे। लेकिन यहाँ तो जानवर से लेकर चोरी चकारी सब का ही डर है।' मास्साब ने कहा।

'हाँ मास्साब जिनावर को ही खुटको म्हारे भी है। नद्दी के पास से ही जंगल लग गयो है।' रामचंदर की घरवाली ने उत्तर दिया। कुछ देर तक दोनों चुप रहे।

'असो करो मास्साब, तम भेली उठा-उठा कर म्हारे सिर पर रखवा दो, हूँ एक-एक करी के घर पटक आऊँ है।' रामचंदर की घरवाली ने कुछ सोचते हुए कहा।

'ऐसा करते हैं ना कि एक-एक दोनों उठाते हैं जल्दी भी हो लायेगा काम' मास्साब ने जल्दी पर ज़ोर देते हुए कहा।

'नी मास्साब, एक तो उठाने की परेशानी होएगी और फिर याँ पर भी तो एक मनक चइये नी। कोई जिनावर अइ जाये, कोई चोर चकार अई जाये।' रामचंदर की घरवाली ने बात काट दी। जानवर का ज़िक्र बार-बार आने से मास्साब कुछ असहज मेहसूस कर रहे थे। ज़ाहिर-सी बात है कि जब तब रामचंदर की घरवाली घर जाकर गुड़ की भेली पटक कर वापस आयेगी तब तक तो मास्साब को यहाँ खेत पर अकेले ही रहना होगा। टपरिया भी इतनी सुरक्षित जगह नहीं थी कि उसमें शरण ली जा सके।

'ऐसा करते हैं आप यहीं रुकिये, मैं गुड़ की भेली एक-एक करके घर पटक आता हूँ, काम जल्दी भी हो जायेगा और यहाँ खेत के बारे में आपको ज़्यादा जानकारी है तो आप यहाँ रुकेंगीं तो ठीक भी रहेगा।' मास्साब ने कहा।

'अरे नी मास्साब, तम कैसे उठा सको हो, तम तो गुरूजी हो तम उठाओगा तो म्हारे पाप लगेगो।' रामचंदर की घरवाली ने तुरंत प्रतिरोध किया।

'अरे उससे क्या होता है, मुश्किल पड़ने पर इन्सान ही इन्सान के काम आता है। आपकी परेशानी मेरी परेशानी, उसमें पाप पुण्य की क्या बात है।' मास्साब ने उत्तर दिया।

'पर मास्साब...?' रामचंदर की घरवाली ने कुछ कहना चाहा लेकिन मास्साब ने हाथ के इशारे से रोक दिया। 'अब बात में टाइम खोटी करने से क्या मतलब, जल्दी काम कर लेते हैं, रात भी बढ़ रही है। जल्दी उठा-उठा कर देते जाइये मैं फटाफट रख-रख कर आता हूँ।' मास्साब ने इस प्रकार से उत्तर दिया कि इसके बाद अब कुछ और कहने कुछ और सुनने की आवश्यकता नहीं है। यही अंतिम निर्णय है जो कि गुड़ को घर ले जाने को लेकर किया जा चुका है।

रामचंदर की घरवाली के चेहरे पर कुछ मिश्रित भाव आ गये। मिश्रित का मतलब कुछ ऐसे कि जो कुछ हो रहा है उसमें उसकी इच्छा शामिल नहीं है और शायद है भी। उसे इधर उधर देखा मानो कुछ ढूँढ़ रही हो, फिर टपरिया के अंदर जाकर देखा वहाँ से ख़ाली हाथ वापस आ गई।

'क्या हो गया? क्या चाहिए?' मास्साब ने पूछा।

'चोमली के लिये कपड़ा ढूँढ़ री थी मास्साब, कंई है ही नी, अब काय की बनऊँ चोमली?' उसने उत्तर दिया। चोमली अर्थात सिर पर भारी चीज़ रखने के पहले रखी गई कपड़े की छोटी-सी टायरनुमा चीज़, ताकि सिर पर संतुलन सधा रहे और सिर पर रखे सामान को हाथ से पकड़ कर चलने की आवश्यकता नहीं रहे। कुछ देर तक तो वह इधर उधर ढूँढ़ती रही फिर जब कुछ नहीं मिला तो उसने ऊपर से ओढ़े हुए कंबल को हटाया और अपना लुघड़ा उतार कर उसकी ही चोमली बना दी। चोमली बनाने के दौरान केवल घाघरे और पोलके में खड़ी रामचंदर की घरवाली को देख मास्साब गुड़ की भेलियों को उठाने की अतिरिक्त ऊर्जा प्राप्त कर चुके थे। चोमली को मास्साब के सिर पर रखकर दोनों ने मिलकर गुड़ की एक भेली को उठाया और मास्साब के सिर पर रख दिया। रखने रखाने की इस प्रक्रिया के दौरान एक बार फिर काफ़ी कुछ हो गया। रामचंदर की घरवाली ने मास्साब पर लिपटा शॉल कुछ और कस दिया उनके शरीर पर और हाथ में लालटेन थमा दी 'बाहर को कमरो खुलो ही है, ओमे ही डाल के अइ जाजो मास्साब।' कहते हुए उसने भी अपना कंबल वापस लपेट लिया। मास्साब ने सिर पर रखी गुड़ की भेली को ठीक किया और मुड़ कर चले गये। रामचंदर की घरवाली ने कुछ देर उनको जाते देखा फिर वह मुड़ कर वहीं गुड़ के पास पड़े लकड़ी के एक बड़े से ठूँठ पर बैठ गई।

उधर चोमली बनाते समय केवल घाघरे और पोलके में खड़ी रामचंदर की घरवाली की छवि ने मानो मास्साब के पैरों में पंख लगा दिये थे। पूरे रास्ते मास्साब पूरा गुड़ घर पर रख देने के बाद की योजना पर विचार करते रहे। योजना 'वगैरह' के क्रियान्वन की। कहाँ पर ठीक रहेगा? वहीं टपरिया पर-पर या फिर वहाँ से वापस लौट कर यहाँ घर पर ही ठीक रहेगा। टपरिया ही ठीक रहेगी वहाँ पर शाँति है काफी, मगर जाने वहाँ कुछ व्यवस्था भी है कि नहीं। यदि घर पर ही आकर वगैरह की व्यवस्था देखी जाये तो यहाँ पर तो काफ़ी सुविधा है। मगर उसका भी क्या कहा जा सकता है कि फिर यहाँ पर आते-आते तक सब कुछ ठीक ही रहेगा। नहीं नहीं, वहीं टपरिया पर ही ठीक रहेगा, यहाँ तो । विचार थे और उन विचारों में गुँथा हुआ मास्साब का वगैरह था। एक योजना बनती, उसको लेकर उसको लेकर विचारों की कड़ी चलती और फिर टूट जाती। खेत पर रामचंदर की घरवाली द्वारा लुघड़े को उतार कर मास्साब के सामने केवल घाघरे और पोलके में आ जाने की बात को मास्साब वगैरह के आवेदन पर स्वीकृति की अंतिम मुहर मानकर ही ये योजनाएँ बना रहे थे।

मास्साब को ख़ुद को ही पता नहीं चला कि कब वे घर पर गुड़ की भेली डाल कर वापस खेत पर लौट आये। मास्साब को वापस आया देखकर रामचंदर की घरवाली कंबल को रखकर उसी पूर्व की मुद्रा में उठकर पास आ गई। फिर वही सब कुछ हुआ, साँसें, स्पर्श और गुड़ की भेली मास्साब के सिर पर स्थापित हो गई। मास्साब मुड़ कर घर की तरफ़ चल दिये।

पूस की रात अपना असर दिखा रही थी, धीरे-धीरे हड्डियों में उतरने वाली ठंड होती जा रही थी। मास्साब को तो ठंड लगना नहीं थी क्योंकि वह तो मेहनत के काम में लगे थे। लेकिन इधर रामचंदर की घरवाली ने ठंड को बढ़ते देखकर कुछ लकड़ियाँ इकट्ठी कीं और उन्हें सुलगा कर तापने की व्यवस्था कर ली। आग सुलगते ही वह कंबल को सर से पाँव तक अच्छी तरह से ओढ़कर वहीं आग के पास ही गठरी बन कर बैठ गई। पास में ही उसने एक बड़ा लट्ठ और हँसिया दोनों रख लिये थे। खेत पर रात बिताना उसके लिये कोई नयी बात नहीं थी। फ़सल के काम से कई-कई बार वह अपने पति के साथ यहाँ रात बिता चुकी थी इसलिये उसे कुछ भी असहज नहीं लग रहा था।

रात तेज़ी के साथ बीत रही थी, ठंड की रातें तो वैसे भी छोटी ही होती हैं। आठवें या दसवें चक्कर के बाद जब रामचंदर की घरवाली को लगा कि मास्साब कुछ थक रहे हैं तो उसने अपनी खाने वाली पोटली खोल ली 'मास्साब आओ तम भी खा लो एकाध रोटी।'

'नहीं नहीं आप खाइये।' कहते हुए मास्साब आकर अलाव के पास बैठ गये। मास्साब के मना करने के बाद भी रामचंदर की घरवाली ने एक रोटी पर गुड़ रखकर उनकी तरफ़ बढ़ा दिया। मास्साब ने चुपचाप लिया और खाने लगे।

ब्रेक के बाद फिर वही सब कुछ शुरू हो गया। हर बार गुड़ की भेली को उठा कर मास्साब के सिर पर रखते समय रामचंदर की घरवाली उनको इतनी ऊर्जा दे देती थी कि वे एक चक्कर पूरा कर आते थे घर का। कुल मिलाकर मास्साब उस चाबी वाले गुड्डे की तरह हो गये थे जिसमें एक बार में वह इतनी चाबी भर रही थी कि वे एक चक्कर पूरा करके वापस आ जाएँ। उसे अच्छी तरह से पता था कि एक बार में कितनी चाबी भरनी है ताकि गुड्डा एक चक्कर पूरा करके वापस आ जाए। चाबी कम भरने से गुड्डा रास्ते में रुक सकता था और ज़्यादा भरने से चाबी वाले खिलौनों की स्प्रिंग टूटने का ख़तरा रहता है। मास्साब भी चाबी वाले गुड्डे की तरह डिमिक-डिमिक करते हुए जाते और लौट आते थे। लौटना मजबूरी थी क्योंकि हर एक कम होती हुई भेली उन्हें मंज़िल की राह में पड़ने वाला मील का पत्थर लग रही थी। मंज़िल पास और पास आती हुई नज़र आ रही थी।

समय का कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि कितने बज रहे हैं। आसमान पर बादल होने के कारण तारों की स्थिति से भी पता नहीं चल पा रहा था कि रात कितनी बीत चुकी है। बीच-बीच में कभी-कभी बूँदा बाँदी हो जाती थी। मास्साब की क़िस्मत से बूँदा बाँदी तेज़ बरसात में नहीं बदल रही थी। इधर मास्साब भी चालीस गुड़ की भेलियों का पुल बनाने में जुटे थे। पुल, वगैरह तक पहुँचने के लिये बनाया जाने वाला पुल।

जब केवल आठ या दस गुड़ की भेलियाँ रह गईं तो मास्साब आग के पास बैठ कर सुस्ताने लगे। ठंड की रात में आग के पास बैठने का भी एक नशा होता है। जो बैठ जाये उसे उठाना बहुत मुश्किल होता है। मास्साब कुछ देर तापते रहे फिर वहीं उनको झपकी आ गई।

'मास्साब' रामचंदर की घरवाली ने मास्साब को ऊँ घते देखा तो पुकारा। आवाज़ सुनकर मास्साब जाग गये। मास्साब को जागा देखकर वह ओढ़े हुए कंबल को हटाकर खड़ी हो गई। मास्साब जागने से एकदम चैतन्य हो गये। समूचे चैतन्य। वह धीरे-धीरे चलती हुई मास्साब के पास आ गई। मास्साब की चैतन्यता सनसनाती हुई सर से पैर तक दौड़ने लगी।

'खबा दबई दूँ मास्साब थकी गया होगा तम।' कहते हुए वह उनके पीछे खड़े होकर कंधे दबाने लगी। मास्साब ने निर्मल आनंद की अनुभूति को अनुभूत करने के लिये आँखें बंद कर लीं। ये काम तो उनकी अपनी निजी पत्नी ने भी नहीं किया था अभी तक।

'अब तो थोड़ी ही बची हैं बस।' रामचंदर की घरवाली ने गुड़ की भेली की तरफ़ देखते हुए कहा। मास्साब ने कोई उत्तर नहीं दिया। निर्मल आनंद।

'तम थकी गया हो तो हूँ रखी आऊँ? झटपट यो काम निबटे तो...' रामचंदर की घरवाली ने तो पर विशेष ज़ोर देते हुए कहा। तीर एकदम निशाने पर लगा और मास्साब एकदम उठ कर खड़े हो गये। पलटे तो रामचंदर की घरवाली एकदम नज़दीक थी, मगर राजकुमारी तक पहुँचने के लिये अभी कुछ गुड़ की भेलियों की सीढ़ी बनना और बाक़ी थीं।

'नहीं नहीं मैं ही रख आता हूँ अभी झट पट।' कहते हुए मास्साब गुड़ की भेलियों की तरफ़ बढ़ गये। रामचंदर घरवाली ने भेली उठवा कर मास्साब के सिर पर रखी और गुड्डे में चाबी भर दी। गुड्डा डिमिक-डिमिक करता हुआ चल पड़ा मंज़िल की ओर। मंज़िल अब कुछ ही क़दमों फ़ासले पर थी।

पाँच, चार, तीन, धीरे-धीरे गुड़ की भेलियाँ समापन की ओर बढ़ रहीं थीं। चौथमल मास्साब ने अपने जीवन में इतनी अधीरता के साथ किसी काम के समापन की प्रतीक्षा नहीं की थी जितनी वे गुड़ की भेलियों के समाप्त होने की कर रहे थे। हालाँकि इसी बीच आसमान के किनारे विशेषकर पूर्व दिशा के किनारे सुबह के बहुत नज़दीक होने का एहसास दिलाने लगे थे। जब मास्साब ने अंतिम बची दो भेलियों में से एक को उठाया तथा घर की तरफ़ चले तो छुटपुट पंछियों का चहकना शुरू हो चुका था। वैसे भी शहरों और गाँवों में बड़ा अंतर ये होता है कि शहरों में रात देर तक चलती है और गाँव में सुबह बहुत जल्दी हो जाती है। बहुत काम होते हैं गाँवों में सुबह के साथ जुड़े हुए।

अंतिम गुड़ की भेली को लेने मास्साब खेत पर पहुँचे तो सुबह का धुँधलका फैल चुका था। बादल होने के कारण उजाला बहुत ज़्यादा तो नहीं था लेकिन सुबह होने के संकेत तो हो ही गये थे।

आख़िरी गुड़ की भेली को मास्साब के सिर पर जमा कर रामचंदर घरवाली भी साथ-साथ ही घर की तरफ़ चल थी। एक-एक क़दम के साथ सुबह का उजाला बढ़ता जा रहा था और मास्साब के पैर पत्थर के समान होते जा रहे थे। वे मन ही मन गणित बिठा रहे थे कि आख़िर चालीस गुड़ की भेलियों को रखने में सुबह कैसे हो गई। रात ग्यारह, साढ़े ग्यारह के आस पास काम शुरू किया था उन्होंने। एक भेली को ले जाने में औसतन दस मिनट लगा होगा तो चालीस भेलियों को ले जाने और बीच में आराम करने में कुल मिलाकर लगा होगा साढ़े छः, सात घंटे। उस हिसाब से बजना चाहिए साढ़े छः या छः। साढ़े छः ...? मास्साब के अंक गणित का उत्तर जैसे ही साढ़े छः आया वैसे ही वे मानो आसमान से गिरे। साढ़े छः बज चुके हैं। वह तो ग़नीमत है कि बादल हो रहे हैं और फिर ठंड की लम्बी रातें हैं जिनमें सूरज देर से निकलता है। नहीं तो अभी तक तो अच्छा ख़ासा उजाला हो ही चुका होता।

घर आ चुका था। रामचंदर की घरवाली को आया देख गाय भैंसे रंभाने लगी थीं उनके सानी पानी का समय जो हो चुका था। गुड़ की भेली को पटक कर मास्साब आँगन में आ गये। रामचंदर की घरवाली झटपट अंदर से खाट खींच लाई और आँगन में बिछाते हुए बोली 'मास्साब तम जब तक कमर सीधी कर लो जब तक हूँ दूध निकाल लाऊँ चाय के लिये।' कहते हुए वह मवेशियों की सान की तरफ़ चली गई। मास्साब खाट पर लेट गये।

'मास्साब चाय' रामचंदर की घरवाली की आवाज़ पर मास्साब की ऊँघ टूटी। रामचंदर की घरवाली हाथ में पीतल के गिलास में चाय लिये खड़ी थी। लुघड़े से घूँघट बना कर आँख तक डाले हुए वह रात की रामचंदर की घरवाली से बिल्कुल ही अलग लग रही थी। एक बारगी तो मास्साब को विश्वास ही नहीं हुआ कि ये वही रात वाली महिला है। मास्साब ने गिलास ले लिया और चाय सुड़कने लगे।

चाय ख़त्म करके मास्साब ने गिलास नीचे रख दिया। बाहर कुछ चहल पहल शुरू हो गई थी। वहाँ बैठे रहना अब मास्साब को असहज लग रहा था, वे उठ कर खड़े हो गये।

'जइ रया हो कंई मास्साब?' अंदर से रामचंदर की घरवाली का स्वर आया।

'हाँ' इससे अधिक कुछ कहने की हिम्मत मास्साब में नहीं थी। अंदर से कोई उत्तर नहीं आया बर्तनों की खटर पटर की आवाज़ें आती रहीं। मास्साब कुछ देर तक खड़े रहे फिर पलट कर थके क़दमों से बाहर की तरफ़ बढ़ गये। सड़क पार अपनी कुठरिया तक जाते हुए मास्साब को एक-एक क़दम एक-एक युग-सा प्रतीत हो रहा था। सड़क पार कर कुठरिया के दरवाज़े पर पहुँच कर मास्साब ने एक बार पलट कर रामचंदर के घर की तरफ़ देखा कि हो सकता है अभी भी काव्य पाठ का निमंत्रण मिल जाये। किन्तु रामचंदर का घर कवि सम्मेलन हो चुकने के बाद के मंच की तरह ख़ामोशी में डूबा हुआ था। मास्साब मंच से ठीक चार क़दम दूर तक पहुँच कर बिना काव्य पाठ किये वापस आने के अपने चिर परिचित दर्द को महसूस कर रहे थे। एक लम्बी और ठंडी साँस छोड़कर उन्होंने कुठरिया का ताला खोला और धीरे से कुठरिया के ठंडे अंधेरे में समा गये।