चौथा अध्याय - क्रिया / कामताप्रसाद गुरू

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चैथा अध्याय क्रिया 187. जिस विकारी शब्द के प्रयोग से हम किसी वस्तु के विषय में कुछ विधान करते हैं, उसे क्रिया कहते हैं; जैसेμ‘हरिण भागा’, ‘राजा नगर में आए’, ‘मैं जाऊँगा’, ‘घास हरी होती है’। पहले वाक्य में हरिण के विषय में ‘भागा’ शब्द के द्वारा विधान किया गया है इसलिए ‘भागा’ शब्द क्रिया है। इसी प्रकार दूसरे वाक्य में ‘आए’, तीसरे वाक्य में ‘जाऊँगा’ और चैथे वाक्य में ‘होती है’ शब्द से विधान किया गया है; इसलिए ‘आए’, ‘जाऊँगा’ और ‘होती है’ शब्द क्रिया है। 188. जिस मूल शब्द में विकार होने से क्रिया बनती है, उसे धातु कहते हैं; जैसेμ‘भागा’ क्रिया में ‘आ’ प्रत्यय है, जो ‘भाग’ मूल शब्द में लगा है; इसलिए ‘भागा’ 112 ध् हिंदी व्याकरण क्रिया का धातु ‘भाग’ है। इसी तरह ‘आए’ क्रिया का धातु ‘आ’, ‘जाऊँगा’ क्रिया का धातु ‘जा’ और ‘होती है’ क्रिया का धातु ‘हो’ है। (अ) धातु के अंत में ‘ना’ जोड़ने से जो शब्द बनता है उसे क्रिया का साधारण रूप कहते हैं, जैसेμ‘भाग-ना, आ-ना, जा-ना, हो-ना’ इत्यादि। कोई कोई भूल से इसी साधारण रूप को धातु कहते हैं। कोश में भाग, आ, जा, हो इत्यादि धातुओं के बदले क्रिया के साधारण रूप, भागना, आना, जाना, होना इत्यादि लिखने की चाल है। (आ) क्रिया का साधारण रूप क्रिया नहीं है; क्योंकि उसके उपयोग से हम किसी वस्तु के विषय में विधान नहीं कर सकते है। विधिकाल के रूप को छोड़कर क्रिया के साधारण रूप का प्रयोग संज्ञा के समान होता। कोई कोई इसे क्रियार्थक संज्ञा कहते हैं; यह क्रियार्थक संज्ञा भाववाचक संज्ञा के अंतर्गत है। उदाहरणμ‘पढ़ना एक गुण है।’ ‘मैं पढ़ना सीखता हूँ।’ ‘छुट्टी में अपना पाठ पढ़ना।’ अंतिम वाक्य में ‘पढ़ना’ क्रिया (विधिकाल में) है। (इ) कई एक धातुओं का प्रयोग भी भाववाचक संज्ञा के समान होता है; जैसेμ‘हम नाच नहीं देखते।’ ‘आज घोड़ों की दौड़ हुई।’ ‘तुम्हारी जाँच ठीक नहीं निकली।’ (ई) किसी वस्तु के विषय में विधान करनेवाले शब्दों को क्रिया इसलिए कहते हैं कि अधिकांश धातु जिनसे ये शब्द बनते हैं, क्रियावाचक हैं; जैसेμपढ़, लिख, उठ, बैठ, चल, फेंक, काट इत्यादि; कोई कोई धातु स्थितिदर्शक हैं; जैसेμसो, गिर, मर, हो इत्यादि और कोई कोई विकारदर्शक हैं; जैसेμबन, दिख, निकल इत्यादि। (टी.μक्रिया के जो लक्षण हिंदी व्याकरणों में दिए गए हैं, उनमें से प्रायः सभी लक्षणों में क्रिया के अर्थ का विचार किया गया है; जैसेμ‘क्रिया काम को कहते हैं। अर्थात् जिस शब्द से करने अथवा होने का अर्थ किसी काल, पुरुष और वचन के साथ पाया जाय।’ (भाषाप्रभाकर)। व्याकरण में शब्दों के लक्षण और वर्गीकरण के लिए उनके रूप और प्रयोग के साथ कभी कभी अर्थ का भी विचार किया जाता है; परंतु केवल अर्थ के अनुसार लक्षण करने से विवेचन में गड़बड़ी होती है। यदि क्रिया के लक्षण में केवल ‘करना’ या ‘होना’ का विचार किया जाय तो ‘जाना’, ‘जाता हुआ’, ‘जानेवाला’ आदि शब्दों को भी ‘क्रिया’ कहना पड़ेगा। भाषाप्रभाकर में दिए हुए लक्षण में जो काल, पुरुष और वचन की विशेषता बताई गई है, वह क्रिया का असाधारण धर्म नहीं है और वह लक्षण एक प्रकार का वर्णन है। क्रिया का जो लक्षण यहाँ लिखा गया है उस पर भी यह आक्षेप हो सकता है कि कोई कोई क्रियाएँ अकेली विधान नहीं कर सकतींμजैसेμ‘राजा दयालु है।’ ‘पक्षी घोंसले बनाते हैं।’ इन उदाहरणों में ‘है’ और ‘बनाते हैं’ क्रियाएँ अकेली विधान नहीं कर सकतीं। इनके साथ क्रमशः ‘दयालु’ और ‘घोंसले’ शब्द रखने की आवश्यकता हुई है। इस आक्षेप का उत्तर यह है कि इन वाक्यों में ‘है’ और ‘बनाते हैं’ विधान करने वाले मुख्य शब्द हैं और उनके बिना काम नहीं चल सकता चाहे उनके साथ हिंदी व्याकरण ध् 113 कोई शब्द रहे या न रहे। क्रिया के साथ किसी दूसरे शब्द का रहना या न रहना उसके अर्थ की विशेषता है।) 189. धातु मुख्यतः दो प्रकार के होते हैंμ(1) सकर्मक और (2) अकर्मक। 190. जिस धातु से सूचित होनेवाले व्यापार का फल कर्ता से निकलकर किसी दूसरी वस्तु पर पड़ता है, उसे सकर्मक धातु कहते हैं; जैसेμ‘सिपाही चोर को पकड़ता है।’ ‘नौकर चिट्ठी लाया।’ पहले वाक्य में ‘पकड़ता है’, क्रिया के व्यापार का फल ‘सिपाही’ कर्ता से निकलकर ‘चोर’ पर पड़ता है; इसलिए ‘पकड़ता है’ क्रिया (अथवा ‘पकड़’ धातु) सकर्मक है; दूसरे वाक्य में ‘लाया’ क्रिया (अथवा ‘ला’ धातु) सकर्मक है, क्योंकि उसका फल ‘नौकर’ कर्ता से निकलकर ‘चिट्ठी’ कर्म पर पड़ता है। (अ) कर्ता का अर्थ ‘करनेवाला’ है। क्रिया के व्यापार को करनेवाला (प्राणी वा पदार्थ) ‘कर्ता’ कहलाता है। जिस शब्द से इस करनेवाले का बोध होता है, उसे भी (व्याकरण में) ‘कर्ता’ कहते हैं, पर यथार्थ में शब्द कर्ता नहीं हो सकता। शब्द को कर्ताकारक अथवा कर्तृपद कहना चाहिए। जिन क्रियाओं से स्थिति वा विषय का बोध होता है उनका कर्ता वह पदार्थ है जिसकी स्थिति वा विकार के विषय में विधान किया जाता है, जैसेμ‘स्त्राी चतुर है।’ ‘ मंत्राी राजा हो गया।’ (आ) धातु से सूचित होनेवाले व्यापार का फल कर्ता से निकलकर जिस वस्तु पर पड़ता है, उसे कर्म कहते हैं; जैसेμ‘सिपाही चोर को पकड़ता है।’ ‘नौकर चिट्ठी लाया।’ पहले वाक्य में पकड़ता है’ क्रिया का फल कर्ता से निकलकर चोर पर पड़ता है, इसलिए ‘चोर’ कर्म है। दूसरे वाक्य में ‘लाया’ क्रिया का फल चिट्ठी पर पड़ता है; इसलिए ‘चिट्ठी’ कर्म है। ‘सकर्मक’ का अर्थ है ‘कर्म के सहित’ और कर्म के साथ आने ही से क्रिया ‘सकर्मक’ कहलाती है। 191. जिस धातु से सूचित होनेवाला व्यापार और उसका फल कर्ता ही पर पड़े उसे अकर्मक धातु कहते हैं; जैसेμ‘गाड़ी चली।’ ‘लड़का सोता है।’ पहले वाक्य में ‘चली’ क्रिया का व्यापार और उसका फल ‘गाड़ी’ कर्ता ही पर पड़ता है; इसलिए ‘चली’ क्रिया अकर्मक है। दूसरे वाक्य में ‘सोता है’ क्रिया भी अकर्मक है, क्योंकि उसका व्यापार और फल ‘लड़का’ कर्ता ही पर पड़ता है। ‘अकर्मक’ शब्द का अर्थ ‘कर्मरहित’ और कर्म के न होने से क्रिया ‘अकर्मक’ कहाती है। (अ) ‘लड़का अपने को सुधार रहा हैμइस वाक्य में यद्यपि क्रिया के व्यापार का फल कर्ता ही पर पड़ता है, तथापि ‘सुधार रहा है’ क्रिया सकर्मक है; क्योंकि इस क्रिया के कर्ता और कर्म एक ही व्यक्ति के वाचक होने पर भी अलग अलग शब्द हैं। इस वाक्य में ‘लड़का’ कर्ता और ‘अपने को’ कर्म है, यद्यपि ये दोनों शब्द एक ही व्यक्ति के वाचक हैं। 192. कोई कोई धातु प्रयोग के अनुसार सकर्मक और अकर्मक दोनों होते हैं; जैसेμखुजलाना, भरना, लजाना, भूलना, बदलना, ऐंठना, ललचाना, घबराना 114 ध् हिंदी व्याकरण इत्यादि। उदाहरणμ‘मेरे हाथ खुजलाते हैं।’ (अ.) (शकु.)। ‘उसका बदन खुजलाकर उसकी सेवा करने में उसने कोई कसर नहीं की।’ (स.)। (रघु.)। ‘खेल तमाशे की चीजें देखकर भोले भाले आदमियों का जी ललचाता है’ (अ)। (परी.)। ‘ब्राइट अपने असबाब की खरीदारी के लिए मदनमोहन को ललचाता है (स.)। तथा ‘बूँद-बूँद करके तालाब भरता है’ (अ.)। (कहा.)। ‘प्यारी ने आँखें भर के कहा’ (स.)। (शकु.) इनको उभयविध धातु कहते हैं। 193. जब सकर्मक क्रिया के व्यापार का फल किसी विशेष पदार्थ पर न पड़कर सभी पदार्थों पर पड़ता है, तब उसका कर्म प्रकट करने की आवश्यकता नहीं होती; जैसेμ‘ईश्वर की कृपा से बहरा सुनता है और गूँगा बोलता है।’ ‘इस पाठशाला में कितने लड़के पढ़ते हैं?’ 194. कुछ अकर्मक धातु ऐसे हैं, जिनका आशय कभी कभी अकेले कर्ता से पूर्णतया प्रकट नहीं होता। कर्ता के विषय में पूर्ण विधान होने के लिए इन धातुओं के साथ कोई संज्ञा या विशेषण आता है। इन क्रियाओं को अपूर्ण अकर्मक क्रिया कहते हैं और जो शब्द इनका आशय पूरा करने के लिए आते हैं उन्हें पूर्ति कहते हैं। ‘होता’, ‘रहना’, ‘बनना’, ‘दिखाना’, ‘निकलना’, ‘ठहरना’ इत्यादि अपूर्ण क्रियाएँ हैं। उदाहरणμ‘लड़का चतुर है।’ ‘साधु चोर निकला।’ ‘नौकर बीमार रहा। ‘आप मेरे मित्रा ठहरे।’ ‘यह मनुष्य विदेशी दिखता है।’ इन वाक्यों में ‘चतुर’, ‘चोर’, ‘बीमार’ आदि शब्द पूर्ति हैं। (अ) पदार्थों के स्वाभाविक धर्म और प्रकृति के नियमों को प्रकट करने के लिए बहुधा ‘है’ या ‘होता है’ क्रिया के साथ संज्ञा या विशेषण का उपयोग किया जाता है; जैसेμ‘सोना भारी धातु है।’ ‘घोड़ा चैपाया है।’ ‘चाँदी सफेद होती है।’ ‘हाथी के कान बड़े होते हैं।’ (आ) अपूर्ण क्रियाओं से साधारण अर्थ में पूरा आशय भी पाया जाता है; जैसेμ‘ईश्वर हैं’, ‘सबेरा हुआ’, ‘सूरज निकला’, ‘गाड़ी दिखाई देती है’ इत्यादि। (इ) सकर्मक क्रियाएँ भी एक प्रकार की अपूर्ण क्रियाएँ हैं; क्योंकि उनसे कर्म के बिना पूरा आशय नहीं पाया जाता। तथापि अपूर्ण अकर्मक और सकर्मक क्रियाओं में यह अंतर है कि अपूर्ण क्रिया की पूर्ति से उसके कर्ता ही की स्थिति वा विकार सूचित होता है और सकर्मक क्रिया की पूर्ति (कर्म) कर्ता से भिन्न होती है; जैसेμ‘ मन्त्राी राजा बन गया’, ‘मन्त्राी ने राजा को बुलाया।’ सकर्मक क्रिया की पूर्ति (कर्म) को बहुधा पूरक कहते हैं। 195. देना, बतलाना, कहना, सुनाना और इन्हीं अर्थों के दूसरे कई सकर्मक धातुओं के साथ दो-दो कर्म रहते हैं। एक कर्म से बहुधा पदार्थ का बोध होता है और उसे मुख्य कर्म कहते हैं, और दूसरा कर्म जो बहुधा प्राणिवाचक होता है, गौण कर्म कहलाता है; जैसेμ‘गुरु ने शिष्य को (गौण कर्म) पोथी (मुख्य कर्म) दी।’ ‘मैं तुम्हें उपाय बतलाता हूँ’ इत्यादि। हिंदी व्याकरण ध् 115 (अ) गौण कर्म कभी लुप्त रहता है; जैसेμ‘राजा ने दान दिया।’ ‘पंडित कथा सुनाते हैं।’ 196. कभी कभी करना, बनाना, समझना, पाना, मानना आदि सकर्मक धातुओं का आशय कर्म के रहते भी पूरा नहीं होता, इसलिए उनके साथ कोई संज्ञा या विशेषण पूर्ति के रूप में आता है; जैसेμ‘अहल्याबाई ने गंगाधर को अपना दीवान बनाया है।’ ‘मैंने चोर को साधु समझा।’ इन क्रियाओं को अपूर्ण सकर्मक क्रियाएँ कहते हैं और इनकी पूर्ति कर्मपूर्ति कहलाती है। इससे भिन्न अकर्मक अपूर्ण क्रिया की पूर्ति को उद्देश्यपूर्ति कहते हैं। (अ) साधारण अर्थ में सकर्मक अपूर्ण क्रियाओं को भी पूर्ति की आवश्यकता नहीं होती; जैसेμ‘कुम्हार घड़ा बनाता है।’ ‘लड़के पाठ समझते हैं।’ 197. किसी किसी अकर्मक और किसी किसी सकर्मक धातु के साथ उसी धातु से बनी हुई भाववाचक संज्ञा कर्म के समान प्रयुक्त होती है; जैसेμ‘लड़का अच्छी चाल चलता है।’ सिपाही कई लड़ाइयाँ लड़ा।’ ‘लड़कियाँ खेल खेल रही हैं।’ ‘पक्षी अनोखी बोली बोलते हैं।’ ‘किसान ने चोर को बड़ी मार मारी’ इस कर्म को सजातीय कर्म और क्रिया को सजातीय क्रिया कहते हैं। यौगिक धातु 198. व्युत्पत्ति के अनुसार धातुओं के दो भेद होते हैंμ(1) मूल धातु और (2) यौगिक धातु। 199. मूल धातु वे हैं जो किसी दूसरे शब्द से न बने हों; जैसेμकरना, बैठना, चलना, लेना। 200. जो धातु किसी दूसरे शब्द से बनाए जाते हैं, वे यौगिक धातु कहलाते हैं, जैसेμ‘चलना’ से ‘चलाना’, ‘रंग’ से ‘रँगना’, ‘चिकना’ के ‘चिकनाना’ इत्यादि।μ(अ) संयुक्त धातु यौगिक धातुओं का एक भेद है। (सू.μजो धातु हिंदी में मूल धातु माने जाते हैं उनमें बहुत से प्राकृत के द्वारा संस्कृत धातुओं से बने हैं; जैसेμसं.μकृ., प्रा.μकर, हिं.μकर। सं.μभू, प्रा.μहोहि. μहो। संस्कृत ‘अथवा’ प्राकृत के धातु चाहे यौगिक हों चाहे मूल, परंतु उनसे निकले हुए हिंदी धातु मूल ही माने जाते हैं, क्योंकि व्याकरण में दूसरी भाषा में आए हुए शब्दों की मूल व्युत्पत्ति का विचार नहीं किया जाता। यह विषय कोष का है। हिंदी ही के शब्दों से अथवा हिंदी प्रत्ययों के योग से जो धातु बनते हैं उन्हीं को, हिंदी में, यौगिक मानते हैं।) 201. यौगिक धातु तीन प्रकार से बनते हैंμ(1) धातु में प्रत्यय जोड़ने से सकर्मक तथा प्रेरणार्थक धातु बनते हैं, (2) दूसरे शब्दभेदों में प्रत्यय जोड़ने से नाम धातु बनते हैं और (3) एक धातु में एक या दो धातु जोड़ने से संयुक्त धातु बनते हैं। 116 ध् हिंदी व्याकरण (सू.μयद्यपि यौगिक धातुओं का विवेचन व्युपत्ति का विषय है तथापि सुभीते के लिए हम प्रेरणार्थक धातुओं का और नामधातुओं का विचार इसी अध्याय में और संयुक्त धातुओं का विचार क्रिया के रूपांतर प्रकरण में करेंगे।) प्रेरणार्थक धातु 202. मूल धातु के जिस विकृत रूप से क्रिया के व्यापार में कर्ता पर किसी की प्रेरणा समझी जाती है, उसे प्रेरणार्थक धातु कहते हैं; जैसेμ‘बाप लड़के से चिट्ठी लिखवाता है।’ इस वाक्य में मूल धातु ‘लिख’ का विकृत रूप ‘लिखवा’ है, जिससे जाना जाता है कि लड़का लिखने का व्यापार बाप की प्रेरणा से करता है; इसलिए ‘लिखवा’ प्रेरणार्थक धातु है और ‘बाप’ प्रेरक कर्ता तथा ‘लड़का’ प्रेरित कर्ता है। ‘मालिक नौकर से गाड़ी चलवाता है।’ इस वाक्य में ‘चलवाता है’ प्रेरणार्थक क्रिया, ‘मालिक’ प्रेरक कर्ता और ‘नौकर’ प्रेरित कर्ता है। 203. आना, जाना, सकना, होना, रुचना, पाना आदि धातुओं से अन्य प्रकार के धातु नहीं बनते। शेष सब धातुओं से दो दो प्रकार के प्रेरणार्थक धातु बनते हैं जिनके पहले रूप बहुधा सकर्मक क्रिया ही के अर्थ में आते हैं और दूसरे रूप में यथार्थ प्रेरणा समझी जाती है, जैसेμ‘ गिरता है’, ‘कारीगर घर गिराता है।’ ‘कारीगर नौकर से घर गिरवाता है।’ ‘लोग कथा सुनते हैं।’ ‘पंडित लोगों को कथा सुनाते हैं।’ ‘पंडित शिष्य से श्रोताओं को कथा सुनवाते हैं।’ (अ) सब प्रेरणार्थक क्रियाएँ सकर्मक होती हैं, जैसेμ दबी बिल्ली चूहों से कान कटाती है।’ ‘लड़के ने कपड़ा सिलवाया।’ पीना, खाना, देखना, समझना, देना, सुनना आदि क्रियाओं के दोनों प्रेरणार्थक रूप द्विकर्मक होते हैं, जैसेμ‘प्यासे को पानी पिलाओ।’ ‘बाप ने लड़के को कहानी सुनाई।’ ‘बच्चे को रोटी खिलवाओ।’ 204. प्रेरणार्थक क्रियाओं के बनाने के नियम नीचे दिए जाते हैंμ 1. मूल धातु के अंत में ‘आ’ जोड़ने से पहला प्रेरणार्थक और ‘वा’ जोड़ने से दूसरा प्रेरणार्थक बनता है, जैसेμ मू. धा. प. प्रे. दू. प्रेउठμना उठाμना उठवाμना औटμना औटाμना औटवाμना गिरμना गिराμना गिरवाμना चलμना चलाμना चलवाμना पढ़μना पढ़ाμना पढ़वाμना फैलμना फैलाμना फैलवाμना सुनμना सुनाμना सुनवाμना हिंदी व्याकरण ध् 117 (अ) दो अक्षरों के धातु में ‘ऐ’ वा ‘औ’ को छोड़कर आदि का अन्य दीर्घ स्वर Ðस्व हो जाता है, जैसेμ मू. धा. प. प्रे. दू. प्रेओढ़ ना उढ़ाना उढ़वाना जागना जगाना जगवाना जीतना जिताना जितवाना डूबना डुबाना डुबवाना बोलना बुलाना बुलवाना भींगना भिंगाना भिंगवाना लेटना लिटाना लिटवाना (1) ‘डूबना’ का रूप ‘डुबोना’ और ‘भींगना’ का रूप ‘भिगोना’ भी होता है। (2) प्रेरणार्थक रूपों में बोलना का अर्थ बदल जाता है। (अ) तीन अक्षर के धातु में पहले प्रेरणार्थक के दूसरे अक्षर का ‘अ’ अनुच्चारित रहता है; जैसेμ मू. धा. प. प्रे. दू. प्रेचमकμना चमकाμना चमकवाμना पिघलμना पिघलाμना पिघलवाμना बदलμना बदलाμना बदलवाμना समझμना समझाμना समझवाμना 2. एकाक्षरी धातु के अंत में ‘ला’ और ‘लवा’ लगाते हैं और दीर्घ स्वर Ðस्व कर देते हैं; जैसेμ खाना खिलाना खिलवाना छूना छुलाना छुलवाना देना दिलाना दिलवाना धोना धुलाना धुलवाना पीना पिलाना पिलवाना सीना सिलाना सिलवाना सोना सुलाना सुलवाना जीना जिलाना जिलवाना (अ) ‘खाना’ में आद्य स्वर ‘इ’ हो जाता है। इसका एक प्रेरणार्थक ‘खवाना’ भी है। ‘खिलाना’ अपने अर्थ के अनुसार ‘खिलना’ (फूलना) का भी सकर्मक रूप हो सकता है। (आ) कुछ सकर्मक धातुओं से केवल दूसरे प्रेरणार्थक रूप (1μअ नियम के अनुसार) बनते हैं; जैसेμगानाμगवाना, खेनाμखिवाना, खोनाμखोवाना, बोनाμबोआना, लेनाμलिवाना इत्यादि। 118 ध् हिंदी व्याकरण 3. कुछ धातुओं के प्रेरणार्थक रूप ‘ला’ अथवा ‘आ’ लगाने से बनते हैं परंतु दूसरे प्रेरणार्थक में ‘वा’ लगाया जाता है; जैसेμ कहना कहाना वा कहलाना कहवाना दिखना दिखाना वा दिखलाना दिखवाना सीखना सिखाना वा सिखलाना सिखवाना सूखना सुखाना वा सुखलाना सुखवाना बैठना बिठाना वा बिठलाना बिठवाना (अ) ‘कहना’ के पहले प्रेरणार्थक रूप अपूर्ण अकर्मक भी होते हैं; जैसेμ‘ऐसे ही सज्जन गं्रथकार कहलाते हैं।’ ‘विभक्ति’ सहित शब्द पद कहाता है।’ (आ) ‘कहलाना’ के अनुकरण पर दिखाना या दिखलाना को कुछ लेखक अकर्मक क्रिया के समान उपयोग में लाते हैं; जैसेμ‘बिना तुम्हारे यहाँ न कोई रक्षक अपना दिखलाता’ (क. क.)। यह प्रयोग अशुद्ध है। (इ) ‘कहवाना’ का रूप कहलवाना भी होता है। (ई) ‘बैठना’ के कई प्रेरणार्थक रूप होते हैंμजैसेμबैठाना, बैठालना, बिठालना, बैठवाना। 205. कुछ धातुओं से बने हुए दोनों प्रेरणार्थक रूप एकार्थी होते हैं; जैसेμ कटनाμकटाना वा कटवाना खुलनाμखुलाना वा खुलवाना गड़नाμगड़ाना वा गड़वाना देनाμदिलाना व दिलवाना बँधनाμबँधाना वा बँधवाना रखनाμरखाना वा रखवाना सिलनाμसिलाना वा सिलवाना 206. कोई कोई धातु स्वरूप में प्रेरणार्थक हैं, पर यथार्थ में वे मूल अकर्मक (वा सकर्मक) हैं; जैसेμकुम्हलाना, घबराना, मचलाना, इठलाना इत्यादि। (क) कुछ प्रेरणार्थक धातुओं के मूल रूप प्रचार में नहीं हैं; जैसेμ‘जताना (वा जतलाना) फुसलाना, गँवाना इत्यादि। 207. अकर्मक धातुओं से नीचे लिखे नियमों के अनुसार सकर्मक धातु बनते हैंμ 1. धातु में आद्य स्वर को दीर्घ करने से; जैसेμ कटनाμकाटना पिसनाμपीसना दबनाμदाबना लुटनाμलूटना बँधनाμबाँधना मरनाμमारना पिटनाμपीटना पटनाμपाटना (अ) ‘सिलना’ का सकर्मक रूप ‘सीना’ होता है। हिंदी व्याकरण ध् 119 2. तीन अक्षरों में धातु में दूसरे अक्षर का स्वर दीर्घ होता है; जैसेμ निकलनाμनिकालना उखड़नाμउखाड़ना सम्हलनाμसम्हालना बिगड़नाμबिगाड़ना 3. किसी किसी धातु के आद्य इ वा उ को गुण करने से; जैसेμ फिरनाμफेरना खुलनाμखोलना दिखनाμदेखना घुलनाμघोलना छिदनाμछेदना मुड़नाμमोड़ना 4. कई धातुओं के अंत्य ट के स्थान में ड़ हो जाता है; जैसेμ जुटनाμजोड़ना टूटनाμतोड़ना छूटनाμछोड़ना फटनाμफाड़ना फूटनाμफोड़ना (आ) ‘बिकना’ का सकर्मक ‘बेचना’ और ‘रहना’ का ‘रखना’ होता है। 208. कुछ धातुओं का सकर्मक और पहला प्रेरणार्थक रूप अलग-अलग होता है, और दोनों में अर्थ का अंतर रहता है; जैसेμ‘गड़ना’ का सकर्मक रूप गाड़ना, और पहला प्रेरणार्थक ‘गड़ाना’ है। गड़ाना का अर्थ ‘धरती के भीतर रखना’ है। ‘गाड़ना’ का अर्थ ‘चुभाना’ भी है। ऐसे ही ‘दाबना’ और ‘दबाना’ में अंतर है। नामधातु 209. धातु को छोड़ दूसरे शब्दों में प्रत्यय जोड़ने से जो धातु बनाए जाते हैं, उन्हें नामधातु कहते हैं। ये संज्ञा व विशेषण के अंत में ‘ना’ जोड़ने से बनते हैं। (अ) संस्कृत शब्दों से; जैसेμ उद्धारμउद्धारना, स्वीकारμस्वीकारना (व्यापार में ‘सकारना’), धिक्कार-धिकारना, अनुराग-अनुरागना इत्यादि। इस प्रकार के शब्द कभी-कभी कविता में आते हैं और ये शिष्टसम्मति से ही बनाए जाते हैं। (आ) अरबी, फारसी शब्दों से; जैसेμ गुजरμगुजरना खरीदμखरीदना बदलμबदलना दागμदागना खर्चμखर्चना आजमाμआजमाना फर्माμफर्माना इस प्रकार के शब्द अनुकरण से नए नहीं बनाए जा सकते। (इ) हिंदी शब्दों से (शब्द के अंत में ‘आ’ करके और आद्य ‘आ’ को Ðस्व करके); जैसेμ 120 ध् हिंदी व्याकरण दुखμदुखाना बातμबतियाना, बताना चिकनाμचिकनाना हाथμहथियाना अपनाμअपनाना पानीμपनियाना लाठीμलठियाना रिसμरिसाना बिलगμबिलगाना इस प्रकार के शब्दों का प्रचार अधिक नहीं है। इसके बदले बहुधा संयुक्त क्रियाओं का उपयोग होता है; जैसेμदुखानाμदुख देना, बतियानाμबात करना, अलगानाμअलग करना इत्यादि। 210. किसी पदार्थ की ध्वनि के अनुकरण पर जो धातु बनाए जाते हैं, उन्हें अनुकरणधातु कहते हैं। ये धातु ध्वनिसूचक शब्द के अंत में ‘आ’ करके ‘ना’ जोड़ने से बनते हैं; जैसेμ बड़बड़μबड़बड़ाना खटखट-खटखटाना थरथरμथरथराना टर्रμटर्राना मचमचμमचमचाना भनभनμभनभनाना (अ) नामधातु और अनुकरण धातु अकर्मक और सकर्मक दोनों होते हैं। ये धातु शिष्टसम्मति के बिना नहीं बनाए जाते। संयुक्त धातु (सू.μसंयुक्त धातु कुछ कृदंतों (धातु से बने हुए शब्दों) की सहायता से बनाए जाते हैं, इसलिए इसका विवेचन क्रिया के रूपांतर प्रकरण में किया जायगा।) (टी.μहिंदी व्याकरणों में प्रेरणार्थक धातुओं के संबंध में गड़बड़ी है। ‘हिंदी व्याकरण’ में स्वरांत धातुओं से सकर्मक बनाने का जो सर्वव्यापी नियम दिया है, उनमें कई अपवाद हैं; ‘बोआना’, ‘खोआना’, ‘गँवाना’, ‘लिखवाना’ इत्यादि। लेखक ने इनका विचार ही नहीं किया। फिर उसमें केवल ‘धुलना’, ‘चलना’ और ‘दबाना’ से दो दो सकर्मक रूप माने गए हैं; पर हिंदी में इस प्रकार के धातु अनेक हैं; जैसेμकटना, खुलना, गड़ना, लुटना, पिसना इत्यादि। यद्यपि इन धातुओं के दो दो सकर्मक रूप कहे जाते हैं, पर यथार्थ में एक रूप सकर्मक और दूसरा प्रेरणार्थक है; जैसेμघुलनाμघोलना, घुलाना, कटनाμकाटना; कटाना; पिसनाμपिसना इत्यादि। ‘भाषाभास्कर’ में इन दुहरे रूपों का नाम तक नहीं है। ‘बालबोध व्याकरण’ में कई एक प्रेरणार्थक क्रियाओं के जो रूप दिए गए हैं, वे हिंदी में प्रचलित नहीं हैं; जैसेμ‘सोलाना’ (सुलाना), ‘बोलवाना’ (बुलवाना), ‘बैठलाना’ (बिठवाना) इत्यादि। ‘भाषा चंद्रोदय’ में प्रेरणार्थक धातुओं को त्रिाकर्मक लिखा है; पर उनका जो एक उदाहरण दिया गया है, उसमें लेखक ने यह बात नहीं समझाई और न उसमें एक से अधिक कर्म ही पाए जाते हैं, जैसेμ‘देवदत्त यज्ञदत्त से पोथी लिखवाता है।’)