चौथा अध्याय / बयान 15 / चंद्रकांता

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दो घंटे बाद दरबार के बाहर से शोरगुल की आवाज आने लगी। सबों का ख्याल उसी तरफ गया। एक चोबदार ने आकर अर्ज किया कि पंडित बद्रीनाथ उस खूनी को पकड़े लिए आ रहे हैं।

उस खूनी को कमंद से बांधो साथ लिए हुए पंडित बद्रीनाथ आ पहुंचे।

महा - बद्रीनाथ, कुछ यह भी मालूम हुआ कि यह कौन है?

बद्री - कुछ नहीं बताता कि कौन है और न बताएगा।

महा - फिर?

बद्री - फिर क्या? मुझे तो मालूम होता हेै कि इसने अपनी सूरत बदल रखी है।

पानी मंगवाकर उसका चेहरा धुलवाया गया, अब तो उसकी दूसरी ही सूरत निकल आई।

भीड़ लगी थी, सबों में खलबली पड़ गई, मालूम होता था कि इसे सब कोई पहचानते हैं। महाराज चौंक पड़े और तेजसिंह की तरफ देखकर बोले, “बस - बस मालूम हो गया, यह तो नाज़िम का साला है, मैं ख्याल करता हूं कि जालिमखां वगैरह जो कैद हैं वे भी नाज़िम और अहमद के रिश्तेदार ही होंगे। उन लोगों को फिर यहां लाना चाहिए।”

महाराज के हुक्म से जालिमखां वगैरह भी दरबार में लाए गए।

बद्री - (जालिमखां की तरफ देखकर) अब तुम लोग पहचाने गये कि नाज़िम और अहमद के रिश्तेदार हो, तुम्हारे साथी ने बता दिया।

जालिमखां इसका कुछ जवाब दिया ही चाहता था कि वह खूनी (जिसे बद्रीनाथ अभी गिरफ्तार करके लाए थे) बोल उठा, “जालिमखां, तुम बद्रीनाथ के फेर में मत पड़ना। यह झूठे हैं, तुम्हारे साथी को हमने कुछ कहने का मौका नहीं दिया, वह बड़ा ही डरपोक था, मैंने उसे दोजख में पहुंचा दिया। हम लोगों की जान चाहे जिस दुर्दशा से जाय मगर अपने मुंह से अपना कुछ हाल कभी न कहना चाहिए।”

जालिम - (जोर से) ऐसा ही होगा।

इन दोनों की बातचीत से महाराज को बड़ा क्रोध आया। आंखें लाल हो गईं, बदन कांपने लगा। तेजसिंह और बद्रीनाथ की तरफ देखकर बोले, “बस हमको इन लोगों का हाल मालूम करने की कोई जरूरत नहीं, चाहे जो हो, अभी, इसी वक्त, इसी जगह, मेरे सामने इन लोगों का सिर धाड़ से अलग कर दिया जाये।

हुक्म की देर थी, तमाम शहर इन डाकुओं के खून का प्यासा हो रहा था, उछल - उछलकर लोगों ने अपने - अपने हाथों की सफाई दिखाई। सबों की लाशें उठाकर फेंक दी गईं। महाराज उठ खड़े हुए। तेजसिंह ने हाथ जोड़कर अर्ज किया -

“महाराज, मुझे अभी तक कहने का मौका नहीं मिला कि यहां किस काम के लिए आया था और न अभी बात कहने का वक्त है।”

महा - अगर कोई जरूरी बात हो तो मेरे साथ महल में चलो!

तेज - बात तो बहुत जरूरी है मगर इस समय कहने को जी नहीं चाहता, क्योंकि महाराज को अभी तक गुस्सा चढ़ा हुआ है और मेरी भी तबीयत खराब हो रही है, मगर इस वक्त इतना कह देना मुनासिब समझता हूं कि जिस बात के सुनने से आपको बेहद खुशी होगी मैं वही बात कहूंगा।

तेजसिंह की आखिरी बात ने महाराज का गुस्सा एकदम ठंडा कर दिया और उनके चेहरे पर खुशी झलकने लगी। तेजसिंह का हाथ पकड़ लिया और महल में ले चले, बद्रीनाथ भी तेजसिंह के इशारे से साथ हुए।

तेजसिंह और बद्रीनाथ को साथ लिए हुए महाराज अपने खास कमरे में गए और कुछ देर बैठने के बाद तेजसिंह के आने का कारण पूछा।

सब हाल खुलासा कहने के बाद तेजसिंह ने कहा - ”अब आप और महाराज सुरेन्द्रसिंह खोह में चलें और सिद्धनाथ योगी की कृपा से कुमारी को साथ लेकर खुशी - खुशी लौट आवें।”

तेजसिंह की बात से महाराज को कितनी खुशी हुई इसका हाल लिखना मुश्किल है। लपककर तेजसिंह को गले लगा लिया और कहा, “तुम अभी बाहर जाकर हरदयालसिंह को हमारे सफर की तैयारी करने का हुक्म दो और तुम लोग भी स्नान - पूजा करके कुछ खाओ - पीओ। मैं जाकर कुमारी की मां को यह खुशखबरी सुनाताहूं।

आज के दिन का तीन हिस्सा तरद्दुद - रंज, गुस्से और खुशी में गुजर गया, किसी के मुंह में एक दाना अन्न नहीं गया था।

तेजसिंह और बद्रीनाथ महाराज से बिदा हो दीवान हरदयालसिंह के मकान पर गये और महाराज ने महल में जाकर कुमारी चंद्रकान्ता की मां को कुमारी से मिलने की उम्मीद दिलाई।

अभी घंटे भर पहले वह महल और ही हालत में था और अब सबों के चेहरे पर हंसी दिखाई देने लगी। होते - होते यह बात हजारों घरों में फैल गयी कि महाराज कुमारी चंद्रकान्ता को लाने के लिए जाते हैं।

यह भी निश्चय हो गया कि आज थोड़ी - सी रात रहते महाराज जयसिंह नौगढ़ की तरफ कूच करेंगे।