चौथा अध्याय / बयान 3 / चंद्रकांता
यह तो मालूम हुआ कि कुमारी चंद्रकान्ता जीती है, मगर कहां है और उस खोह में से क्योंकर निकल गई, वनकन्या कौन है, योगीजी कहां से आये,तेजसिंह को उन्होंने क्या दिखाया इत्यादि बातों को सोचते और ख्याल दौड़ाते कुमार ने सुबह कर दी, एक घड़ी भी नींद न आई। अभी सबेरा नहीं हुआ कि पलंग से उतर जल्दी के मारे खुद तेजसिंह के डेरे में गए। वे अभी तक सोये थे, उन्हें जगाया।
तेजसिंह ने उठकर कुमार को सलाम किया। जी में तो समझ ही गए थे कि वही बात पूछने के लिए कुमार बेताब हैं और इसी से इन्होंने आकर मुझे इतनी जल्दी उठाया है मगर फिर भी पूछा, “कहिए क्या है जो इतने सबेरे आप उठे हैं?”
कुमार – रातभर नींद नहीं आई,अब जो कुछ कहना हो, जल्दी कहो, जी बेचैनहै।
तेज - अच्छा आप बैठ जाइये, मैं कहता हूं।
कुमार बैठ गये और देवीसिंह तथा ज्योतिषीजी को भी उसी जगह बुलवा भेजा। जब वे आ गये, तेजसिंह ने कहना शुरू किया, “यह तो मुझे अभी तक मालूम नहीं हुआ कि कुमारी चंद्रकान्ता को कौन ले गया या वह योगी कौन थे और वनकन्या की मदद क्यों करने लगे, मगर उन्होंने जो कुछ मुझे दिखाया वह इतने ताज्जुब की बात थी कि मैं उसे देखने में ही इतना डूबा कि योगीजी से कुछ पूछ न सका और वे भी बिना कुछ खुलासा हाल कहे चलते बने। उस दिन पहले पहल जब मैं आपको खोह में ले गया, तब वहां का हाल जो कुछ मैंने अपने गुरुजी से सुना था आपसे कहा था, याद है?”
कुमार - बखूबी याद है।
तेज - मैंने क्या कहा था?
कुमार - तुमने यही कहा था कि उसमें बड़ा भारी खजाना है, मगर उस पर एक छोटा - सा तिलिस्म भी बंधा हुआ है जो बहुत सहज में टूट सकेगा,क्योंकि उसके तोड़ने की तरकीब तुम्हारे ओस्ताद तुम्हें कुछ बता गये हैं।
तेज - हां ठीक है, मैंने यही कहा था। उस खोह में मैंने आपको एक दरवाजा दो पहाड़ियों के बीच में दिखाया था, जिसे योगी ने मुझे इशारे से बताया था। उस दरवाजे को खुला देख मुझे मालूम हो गया कि उस तिलिस्म को किसी ने तोड़ डाला और वहां का खजाना ले लिया, उसी वक्त मुझे यह ख्यालआया कि योगी ने उस दरवाजे की तरफ इसीलिए इशारा किया कि जिसने तिलिस्म तोड़कर वह खजाना लिया है, वही कुमारी चंद्रकान्ता को भी ले गया होगा। इसी सोच और तरद्दुत में डूबा हुआ मैं एकटक उस दरवाजे की तरफ देखता रह गया और योगी महाराज चलते बने।
तेजसिंह की इतनी बात सुनकर बड़ी देर तक कुमार चुप बैठे रहे, बदहवासी - सी छा गई, इसके बाद सम्हलकर बैठे और फिर बोले :
कुमार - तो कुमारी चंद्रकान्ता फिर एक नई बला में फंस गई?
तेज - मालूम तो ऐसा ही पड़ता है।
कुमार - तब इसका पता कैसे लगे? अब क्या करना चाहिए?
तेज - पहले हम लोगों को उस खोह में चलना चाहिए। वहां चलकर उस तिलिस्म को देखें जिसे तोड़कर कोई दूसरा वह खजाना ले गया है। शायद वहां कुछ मिले या कोई निशान पाया जाय, इसके बाद जो कुछ सलाह होगी किया जायगा।
कुमार - अच्छा चलो, मगर इस वक्त एक बात का ख्याल और मेरे जी में आता है।
तेज - वह क्या?
कुमार - जब बद्रीनाथ को कैद करने उस खोह में गये थे और दरवाजा न खुलने पर वापस आए, उस वक्त भी शायद उस दरवाजे को भीतर से उसी ने बंद कर लिया हो जिसने उस तिलिस्म को तोड़ा है। वह उस वक्त उसके अंदर रहा होगा।
तेज - आपका ख्याल ठीक है, जरूर यही बात है, इसमें कोई शक नहीं बल्कि उसी ने शिवदत्त को भी छुड़ाया होगा।
कुमार - हो सकता है, मगर जब छूटने पर शिवदत्त ने बेईमानी पर कमर बांधी और पीछे मेरे लश्कर पर धावा मारा तो क्या उसी ने फिर शिवदत्त को गिरफ्तार करके उस खोह में डाल दिया? और क्या वह पुर्जा भी उसी का लिखा था जो शिवदत्त के गायब होने के बाद उसके पलंग पर मिला था?
तेज - हो सकता है।
कुमार - तो इससे मालूम होता है कि वह हमारा दोस्त भी है, मगर दोस्त है तो फिर कुमारी को क्यों ले गया?
तेज - इसका जवाब देना मुश्किल है, कुछ अक्ल काम नहीं करती, सिवाय इसके शिवदत्त के छूटने के बाद भी तो आपको उस खोह में जाने का मौका पड़ा था और हम लोग भी आपको खोजते हुए उस खोह में पहुंचे, उस वक्त चपला ने तो नहीं कहा कि इस खोह में कोई आया था जिसने शिवदत्त को एक दफे छुड़ा के फिर कैद कर दिया। उसने उसका कोई जिक्र नहीं किया, बल्कि उसने तो कहा था कि हम शिवदत्त को बराबर इसी खोह में देखते हैं, न उसने कोई खौफ की बात बतायी।
कुमार - मामला तो बहुत ही पेचीदा मालूम पड़ता है, मगर तुम भी कुछ गलती कर गये।
तेज - मैंने क्या गलती की?
कुमार - कल योगी ने दीवार से निकलकर मुझे कूदने से रोका, इसके बाद जमीन पर लात मारी और वहां की जमीन फट गई और वनकन्या निकल आई, तो योगी कोई देवता तो थे ही नहीं कि लात मार के जमीन फाड़ डालते। जरूर वहां पर जमीन के अंदर कोई तरकीब है। तुम्हें भी मुनासिब था कि उसी तरह लात मारकर देखते कि जमीन फटती है या नहीं।
तेज - यह आपने बहुत ठीक कहा, तो अब क्या करें?
कुमार - आज फिर चलो, शायद कुछ काम निकल जाय, अभी खोह में जाने की क्या जरूरत है?
तेज - ठीक है चलिए।
आज फिर कुमार और तीनों ऐयार उस तिलिस्म में गए। मालूमी राह से घूमते हुए उसी दलान में पहुंचे जहां योगी निकले थे। जाकर देखा तो वे दोनों सड़ी और जानवरों की खाई हुई लाशें वहां न थीं, जमीन धोई – धोई साफ मालूम पड़ती थी। थोड़ी देर तक ताज्जुब में भरे ये लोग खड़े रहे, इसके बाद तेजसिंह ने गौर करके उसी जगह जोर से लात मारी जहां योगी ने लात मारी थी।
फौरन उसी जगह से जमीन फट गई और नीचे उतरने के लिए छोटी - छोटी सीढ़ियां नजर पड़ीं। खुशी - खुशी ये चारों आदमी नीचे उतरे। वहां एकअंधेरी कोठरी में घूम - घूमकर इन लोगों को कोई दूसरा दरवाजा खोजना पड़ा मगर पता न लगा। लाचार होकर फिर बाहर निकल आए, लेकिन वह फटी हुई जमीन फिर न जुड़ी, उसी तरह खुली रह गयी। तेजसिंह ने कहा, “मालूम होता है कि भीतर से बंद करने की कोई तरकीब इसमें है जो हम लोगों को मालूम नहीं, खैर जो भी हो काम कुछ न निकला, अब बिना बाहर की राह इस खोह में आए कोई मतलब सिद्ध न होगा।”
चारों आदमी तिलिस्म के बाहर हुए। तेजसिंह ने ताला बंद कर दिया।<ref>जिस चबूतरे पर पत्थर का आदमी सोया था उसके सिरहाने की तरफ जो पत्थर रखकर ताला बंद कर देते थे वही तिलिस्म का मुंह बंद कर देना या ताला बंद कर देना था, फिर कोई खोल नहीं सकता था।</ref>
एक रोज टिककर कुंअर वीरेन्द्रसिंह ने फतहसिंह सेनापति को नायब मुकर्रर करके चुनार भेज देने के बाद नौगढ़ की तरफ कूच किया और वहां पहुंचकर अपने पिता से मुलाकात की। राजा सुरेन्द्रसिंह के इशारे से जीतसिंह ने रात को एकांत में तिलिस्म का हाल कुंअर वीरेन्द्रसिंह से पूछा। उसके जवाब में जो कुछ ठीक - ठीक हाल था कुमार ने उनसे कहा।
जीतसिंह ने उसी जगह तेजसिंह को बुलवाकर कहा, “तुम दोनों ऐयार कुमार को साथ लेकर खोह में जाओ और उस छोटे तिलिस्म को कुमार के हाथ से फतह करवाओ जिसका हाल तुम्हारे ओस्ताद ने तुमसे कहा था। जो कुछ हुआ है सब
इसी बीच में खुल जायगा। लेकिन तिलिस्म फतह करने के पहले दो काम करो, एक तो थोड़े आदमी ले जाओ और महाराज शिवदत्त को उनकी रानी समेत यहां भेजवा दो, दूसरे जब खोह के अंदर जाना तो दरवाजा भीतर से बंद कर लेना। अब महाराज से मुलाकात करने और कुछ पूछने की जरूरत नहीं, तुम लोग इसी वक्त यहां से कूच कर जाओ और रानी के वास्ते एक डोली भी साथ लिवाते जाओ।”
कुंअर वीरेन्द्रसिंह ने तीनों ऐयारों और थोड़े आदमियों को साथ ले खोह की तरफ कूच किया। सुबह होते - होते ये लोग वहां पहुंचे। सिपाहियों को कुछ दूर छोड़ चारों आदमी खोह का दरवाजा खोलकर अंदर गये।
सबेरा हो गया था, तेजसिंह ने महाराज शिवदत्त और उनकी रानी को खोह के बाहर लाकर सिपाहियों के सुपुर्द किया और महाराज शिवदत्त को पैदल और उनकी रानी को डोली पर चढ़ाकर जल्दी नौगढ़ पहुंचाने के लिए ताकीद करके फिर खोह के अंदर पहुंचे।
शब्दार्थ: <references/>