चौथा अध्याय / बयान 8 / चंद्रकांता

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बद्रीनाथ जालिमखां की फिक्र में रवाना हुए। वह क्या करेंगे, कैसे जालिमखां को गिरफ्तार करेंगे इसका हाल किसी को मालूम नहीं। जालिमखां ने आखिरी इश्तिहार में महाराज को धामकाया था कि अब तुम्हारे महल में डाका मारूंगा।

महाराज पर इश्तिहार का बहुत कुछ असर हुआ। पहरे पर आदमी चौगुने कर दिए गए। आप भी रात भर जागने लगे, हरदम तलवार का कब्जा हाथ में रहता था। बद्रीनाथ के आने से कुछ तसल्ली हो गई थी, मगर जिस रोज वह जालिमखां को गिरफ्तार करने चले गए उसके दूसरे ही दिन फिर इश्तिहार शहर में हर चौमुहानियों और सड़कों पर चिपका हुआ लोगों की नजर पड़ा, जिसमें का एक कागज जासूस ने लाकर दरबार में महाराज के सामने पेश किया और दीवान हरदयालसिंह ने पढ़कर सुनाया - यह लिखा हुआ था :

“महाराज जयसिंह,

होशियार रहना, पंडित बद्रीनाथ की ऐयारी के भरोसे मत भूलना, वह कल का छोकड़ा क्या कर सकता है? पहले तो जालिमखां तुम्हारा दुश्मन था, अब मैं भी पहुंच गया हूं। पंद्रह दिन के अंदर इस शहर को उजाड़ कर दूंगा और आज के चौथे दिन बद्रीनाथ का सिर लेकर बारह बजे रात को तुम्हारे महल में पहुंचूंगा। होशियार! उस वक्त भी जिसका जी चाहे मुझे गिरफ्तार कर ले। देखूं तो माई का लाल कौन निकलता है? जो कोई महाराज का दुश्मन हो और मुझसे मिलना चाहे वह 'टेटी - चोटी' में बारह बजे रात को मिल सकता है।

                                 - आफतखां खूनी”

इस इश्तिहार ने तो महाराज के बचे - बचाये होश भी उड़ा दिये। बस यही जी में आता था कि इसी वक्त विजयगढ़ छोड़ के भाग जायं, मगर जवांमर्दी और हिम्मत ऐसा करने से रोकती थी।

जल्दी से दरबार बर्खास्त किया, दीवान हरदयालसिंह को साथ ले दीवानखाने में चले गये और इस नए आफतखां खूनी के बारे में बातचीत करने लगे।

महाराज - अब क्या किया जाय! एक ने तो आफत मचा ही रखी थी अब दूसरे इस आफतखां ने आकर और भी जान सुखा दी। अगर ये दोनों गिरफ्तार न हुए तो हमारे राज्य करने पर लानत है।

हरदयाल - बद्रीनाथ के आने से कुछ उम्मीद हो गई थी कि जालिमखां को गिरफ्तार करेंगे! मगर अब तो उनकी जान भी बचती नजर नहीं आती।

महाराज - किसी तरकीब से आज की यह खबर नौगढ़ पहुचती तो बेहतर होता। वहां से बद्रीनाथ की मदद के लिए कोई और ऐयार आ जाता।

हरदयाल - नौगढ़ जिस आदमी को भेजेंगे उसी की जान जायगी, हां सौ दो सौ आदमियों के पहरे में कोई खत जाय तो शायद पहुंचे।

महाराज - (गुस्से में आकर) नाम को हमारे यहां पचासों जासूस हैं, बरसों से हरामखोरों की तरह बैठे खा रहे हैं मगर आज एक काम उनके किए नहीं हो सकता। न कोई जालिमखां की खबर लाता है न कोई नौगढ़ खत पहुंचाने लायक है!

हरदयाल - एक ही जासूस के मरने से सबों के छक्के छूट गये।

महाराज - खैर आज शाम को हमारे कुल जासूसों को लेकर बाग में आओ, या तो कुछ काम ही निकालेंगे या सारे जासूस तोप के सामने रखकर उड़ा दिये जायेंगे, फिर जो कुछ होगा देखा जायगा। मैं खुद उस हरामजादे को पकड़ूंगा।

हरदयाल - जो हुक्म!

महाराज - बस अब जाओ, जो हमने कहा है उसकी फिक्र करो।

दीवान हरदयालसिंह महाराज से बिदा हो अपने मकान पर गए, मगर हैरान थे कि क्या करें, क्योंकि महाराज को बेतरह क्रोध चढ़ आया था। उम्मीद तो यही थी कि किसी जासूस के किये कुछ न होगा और वे बेचारे मुफ्त में तोप के आगे उड़ा दिये जायेंगे। फिर वे यह भी सोचते थे कि जब महाराज खुद उन दुष्टों की गिरफ्तारी की फिक्र में घर से निकलेंगे तो मेरी जान भी गई, अब जिंदगी की क्या उम्मीद है!