चौथा कौन / अचला बंसल
अब हुआ यूँ कि अमावस्या की एक घुप्प अंधेरी रात में दुबे जी के घर चोर घुस आए। एक दो नहीं, पूरे चार। खिड़की का शीशा और लोहे की ग्रिल काट, पहुँच गए सीधे अम्माजी के कमरे में। अब अम्माजी तो परलोक सिधार चुकी थीं। उनकी स्टील की अलमारी जिस पर उन्हें बहुत नाज़ था-होता भी न कैसे, आख़िर उनके मायके से जो आई थी-खड़ी थी मुँह लटकाए उस वीरान कमरे में।
चोरों की आँखों में बिजली कौंध गई। यह खुल जाए तो समझो लॉटरी लग गई। कोई मार-पीट नहीं, बस माल लो और निकल लो पतली गली से। चौकीदार तो पहले ही अपना हिस्सा ले, अपने घर सोया पड़ा होगा। नौकरी भी न जाएगी भट्टे में, बल्कि उसकी अहमियत समझेंगे कॉलोनी के घोड़े बेच सोते लोग। एक वही तो है जो रातों रात जगकर कॉलोनी को चोर-उच्चकों से बचाए रखता है, बिल्लू ने उसे समझाया था। अपनी तारीफ़ सुन, भले चोर से सही, चौकीदार खुश हो लिया था। ऊपर से चैन की नींद, भला ठुकराता तो कैसे।
एक चोर ने बढ़कर अल्मारी का हैंडल ऐंठा, दूसरे ने औज़ार निकाले, तीसरे ने टॉर्च दिखलाई।
'कछु न चाहिए, खुली पड़ी है, ' पहला चोर हँसा, 'खा-पीकर सोए पड़े हैं साले, लॉक करना ही भूल गए। ए.सी. की ठंड़ी हवा हो तो कौन भला चोर-डाकू की सोचे, ' वह बड़बड़ाया।
'यहाँ भी तो लगा है, चलाएं क्या?' गिरोह में नए आए चोर ने पसीना पोंछते हुए पूछा।
बिल्लू, जो खुली अल्मारी के बंद लॉकर को परख रहा था, गुर्राया, 'पगला गया है क्या?’
‘पंखा चला लेते हैं फिर,’कह नए चोर ने हाथ बढ़ाया ही था कि बिल्लू ने डंडा उठा दे मारा। ‘हाय मैया, ‘ चोर का रोना छूट गया।
‘अरे, कौन उठा लाया इस गीदड़ को?‘ बिल्लू बौखलाया, ‘निकाल बाहर करो। ‘
‘भाई धीरे। हमें जल्द से जल्द निकलना चाहिए, पौ फटने वाली है। आपने चौथे की ज़िद न पकड़ी होती तो अभी तक फूट लिए होते यहाँ से। भाई लोग जाग गए तो?’ बिरजू ने त्यौरी चढ़ाकर पूछा।
‘लोग?’ नया चोर लगभग चीख पड़ा। ‘तुम तो बोले थे खाली घर में चोरी करनी है, मुझे सिर्फ़ चौकसी रखनी है, दारू, खाना भी मिलेगा। यहाँ तो लोग...’ वह खिड़की की तरफ़ लपका।
‘अरे जाता कहाँ है चुगलखोर, पुलिस में रपट लिखवाने?’ बिरजू ने उसे दबोच लिया। ‘जाएंगे तो सब साथ-बाहर या फिर जेल में। ’
‘जेल?’ नौसिखिये का गला रुंध गया। उसकी आँखें फटी पड़ रही थीं। ‘मेरी तो अभी शादी भी नहीं हुई,’ वह मिमियाया।
‘अबे, हो जावेगी घबराता क्यों है? माल मिल जाए तो बैंड बाजा बारात भी निकलवा देंगे, क्यों भाई?’मोन्टू ने ठिठोली की।
‘जुबान पर लगाम दे, कैंची की तरह चले है। ’
‘तो पहले कैंची ही तो चलाता था मैं, मोन्टू टेलर, हर कोई...’
‘शटअप,’ बिल्लू झल्लाया।
‘आहिस्ता भाई, लोग सुन लेंगे... सुन तो नहीं लिया?’ बिरजू अलमारी की जांच-पड़ताल छोड़ दरवाज़े के पास कान लगा खड़ा हो गया।
‘अबे, तेरे भी दस्त लग गए क्या? जाग भी गए तो क्या? कुण्डा लगाया न दोनों कमरों का। फ़ोन का तार तो हम पहले ही काट दिए। पर मोबाईल?’ वह सोच में पड़ गया।
‘कहें तो मोबाइल हम उड़ा लाएँ, इस सफ़ाई से कि सोने वाले के सिरहाने से उठ जाए और किसी को कानोंकान खबर न होए। ’ उसके हाथ ख़ुद-ब-ख़ुद चलने लगे जैसे वाकई में कान कतर रहा हो।
‘चीख चिल्लाकर मोहल्ला सर पर उठा लिया तो?’ नौसिखिए ने घबराकर पूछा।
‘पहले बेहाशी का रूमाल सुँघाएँगे फिर न... या डंडा घुमाकर जमा देंगे खोपड़ी पर। दूसरा डर के मारे चूँ न करेगा। ’
‘मर गया तो?’
‘तो तू भी मरा,’ बिल्लू ने उसकी गरदन पकड़ ली। ‘तुझे तो रेलगाड़ी की पटरी से उठा लाए थे, हमें तीन से चार करने को। नाम क्या है तेरा?’
‘चौथा,’ बिरजू फटाक से बोला।
‘क्या? यह कैसे किसी का नाम हो सकता है? इस भोंदू का भी नहीं। ’
‘है, भाई ! इसका कहना है कि जब पहली, दूसरी, तीसरी लड़कियों के बाद यह पैदा हुआ तो उसकी माँ उसे चौथा कहती फिरती। लोगों ने उसे ही नाम समझ लिया। ‘
मेरे पास माँ नहीं है, पर नाम तो है। बिल्लू ने गर्व से गरदन ऊंची की। ख़ुद अपना दिया हुआ। रही तो होगी माँ भी; पेड़ पर से तो टपक नहीं सकता। मन्दिर की सीढ़ियों पर कीमती कम्बल में लिपटा पाया गया था वह। पुजारी भले मानस थे, ईश्वर का वरदान मान उसकी देख-रेख की, राम अवतार नाम से उसका नामकरण किया। चौदह साल का बनवास उसने राम भजन जपते काटा और फिर तिजोरी तोड़, छिपते-छिपाते, कभी रेलगाड़ी में तो कभी किसी ट्रक ड्राईवर के ट्रक के पिछवाड़े छुपकर, पराठों के साथ ठर्रा उड़ाते, वह कानपुर से दिल्ली आ पहुँचा।
मन्दिर में न सही, मन्दिरों के बाहर उसने अपना कारोबार जमाया। हाथ की सफ़ाई सीखी; कभी ज़ेबें काटकर, तो कभी आरती की थाली सजाए मन्दिर की सीढ़ियाँ चढ़ती महिला की सोने की चेन हथिया कर। देखते ही देखते उसने तीन का गिरोह बना लिया। एक आने-जाने वालों पर निगरानी रखता, दूसरा हाथ मारता और तीसरा यानी वह, बिल्लू, माल लेकर रफ़ूचक्कर हो जाता। चोर अगर पकड़ा भी जाता तो निर्दोष साबित होने पर उसको प्रसाद ही नहीं, चन्द पैसे भी पकड़ा दिए जाते। बेचारा फालतू में थप्पड़ खा गया।
‘आप तो, जी, बिना देखे भाले आपा खो बैठते हो,’पत्नी ने झिड़का।
‘कोई तुम्हारी गरदन पर हाथ डाले...’ पति बुदबदाया। हाथ डालने का क्या, कमबख़्त चेन तो न ले जाता, पत्नी ने मन ही मन कोसा।
खी-खी करता मोन्टू भग लेता बिल्लू बॉस को क़िस्सा सुनाने और शाबाशी लेने, आख़िर असल हक़दार तो वह ही था। पहली बार चेन काट कर जेल की हवा खा चुका था वह, फिर नहीं। हाथ की सफ़ाई थी उसमें, पर दिमाग तो बिल्लू का ही चलता था, कैंची की तरह, वह जोड़ना न भूलता। जेबकतरा बनने से पहले मोन्टू जेबें जोड़ता था, नई सिली पतलूनों और कमीज़ों में। वह अपने काम और नाम, दोनों से खुश था।
‘मोन्टू को दे दो पतलून, एक दिन में तैयार,’ लोग कहते। फिर खुला सिले-सिलाए कपड़ों का शोरूम, ठीक उसकी बगल में। लोग दुकान में घुसते, देखने भर को, पर बाहर निकलते तो बड़ा सा बैग हाथ में पकड़े। ज़ाहिर है ग्राहक को लुभाने की तरकीबों से अच्छी तरह से वाकिफ़ थे, स्मार्ट कपड़ों में लैस, वहाँ के सेल्समैन। एकाध जो जाने से कतराता और अन्दर जाकर भी खाली हाथ बाहर निकल जाता, मोन्टू के पास पहुँचता, कपड़े सिलवाने और टिप्पणी करने... ‘बाहर तो ठप्पा लगा दिया भारी छूट का और अन्दर गिने-गिनाए कपड़ों पर ही? मैं तो मोन्टू देखने भर गया था,’ वह झेंपता। दगाबाज़! मोन्टू सोचता और कपड़े ले लेता।
अगर किसी को रास्ता समझाना होता, तो यही कहा जाता, अरे मोन्टू कैंचीवाले की बगल में तो है। यह बात और है कि मोन्टू ही बगल से हट गया और निकल पड़ा, अपनी बरसों की संजोयी, हाथ की सफ़ाई आज़माने। बिल्लू से क्या टकराया, कभी मुड़कर नहीं देखा। तीसरा भी आ मिला, और तीन का गिरोह निकल पड़ा, चोरी को अपना पेशा मान। छोटी-मोटी चोरी कर गुज़ारा करते। जेल जाते तो मुफ़्त की रोटी तोड़ते ही, साथ में, दूसरे चोर-डकैतों के क़िस्से सुन, चोरी करने की नई-नई तरकीबें सीख लेते। बस एक बड़ा हाथ मार लूँ-चाकू चलाना पड़ा तो वह भी चला लूँगा... बिल्लू अक़्सर सोचता। पर यह लालसा उसकी पूरी न हो पाई। इससे पहले कि चाकू की नौबत आती, वे ख़ुद भागते नज़र आते।
तीन का आंकड़ा, उसके दिमाग़ में कौंधा, ऐसी ही एक असफल चोरी के बाद, जब डकैती करने निकले थे। औज़ार भी सारे थे, चाकू की धार तेज़ करवाई गई थी। एक जंग लगी पिस्तौल भी हाथ लग गई थी। कारतूस बिना, तो क्या, चलानी थोड़ी थी। हौंसला चरम सीमा पर था। गेट पर, कुत्ते से सावधान की पट्टी देख असमंजस में पड़ गए थे। कुत्ता तो मर गया, खानसामे ने ख़ुद बतलाया था बिल्लू को। ‘मेरी बददुआ लग गई होगी-था तो साला हट्टा-कट्टा। इतना गोश्त चबा कर तो मैं क्या, मेरा पूरा कुन्बा हो जाए फिट,’ वह बड़बड़ाया था।
‘ठीक से खुराक खिलाई होती तो अभी साल दो साल और जी लेता,’ बीबीजी ने आरोप लगाया था, उसकी छुट्टी करते हुए। ‘मेरी तो अभी आधी उम्र पड़ी है,’रसोईया गिड़गिड़ाया था, ‘चार छोटे बच्चे हैं...’
‘जब गुज़ारा नहीं होता तो बच्चों की फौज क्यों तैयार कर लेते हो?’ बीबीजी ने तपाक से पूछ लिया।
वाह जी वाह! हमारे बच्चे फौज और आपके बाबा और बेबी! झोंट के झोंट, मजाल है जो अपने हाथ से पानी का गिलास भी उठा लें। रसाईये ने बदला लेने की ठान ली और बिल्लू के गिरोह में शामिल होने के सपने देखने लगा। हो ही जाता यदि दो दिन के लिए गाँव न चला गया होता।
‘तूने तो कहा था कुत्ता नहीं है, फिर कहाँ से आया, बोल?’ बिल्लू ने जेल से निकल उसे धर दबोचा था।
‘मुझे क्या पता था, खानसामे के साथ कुत्ता भी नया ले आएंगे। कम्बख्तों को मैं चोर दिखता था, अब पता चलेगा,’ उसने थूका। उसकी आँखों में पागलों सी चमक दौड़ गई। बिल्लू ने पागल देखे हैं, नज़दीक से। उनके साथ दो दिन जो बिता चुका था, जब जेल की जगह पागलखाने में भरती करा दिया था डॉक्टर ने। बिल्लू काँप उठा, बाल-बाल बचा उसे गिरोह में शामिल करके मरने से। क्रोधित हो जाए तो शायद खाने में ज़हर ही घोल दे।
‘माँ से मिलने गया था, चोर बनने से पहले,’वह झेंपा था। ‘माँ कसम, फिर न जाने का। ’ माँ, फिर माँ! बिल्लू रो दिया था। हरेक की होती है। फ़िल्मों में नहीं देखा, विलेन तक की माँ होती है। और हीरो अगर विलेनी पर उतर आए तो माँ के वास्ते। जेल भी काटनी पड़े तो माँ के लिए। और अगर वह अमिताभ बच्चन हो अपने ‘एंग्री यंग मैन’ के अवतार में... तो जेलर भी कई बार रूमाल निकालकर ज़ुकाम के बहाने, आँखें पोंछता नज़र आता।
पर जिसकी माँ ही लापता हो, वह बेचारा क्या रोता रूलाता। जेलर को तो वह शक़्ल से चोर, और नीयत से हरामखोर लगता था। ‘आ जाता है जब देखो मुँह उठाकर मुफ़्त की रोटियाँ तोड़ने। तू अकेला काफ़ी न था जो ये दो बन्दर उठा लाया। अगली बार इकला ही आइयो यहाँ, नहीं तो डंडा मार-मार कर टांगे तोड़ दूँगा,’ उसने बत्तीसी चमकाई।
इस बार नहीं। इस बार वह लम्बा हाथ मारना चाहता था। अपने साथियों को धोखा देकर नहीं, उन्हें उनका हिस्सा दे दुबई जाना चाहता था... वहाँ शायद मिल जाए-नहीं माँ नहीं, उसके सपनों की शहज़ादी। यहाँ तो कभी तीन का आंकड़ा तो कभी माँ बीच में आ जाती। हाँ नहीं है माँ, फिर भी अड़ंगी मार देती।
एक बार तो माँ और बाप दोनों के ही न होने को नज़रअंदाज़ कर, उसकी होने वाली सासू माँ ने उसके सिर पर हाथ फेरा और उचारा, ‘बेचारा!’ बिल्लू से बिल्लू बेचारा होते-होते बच गया- सगाई के दिन। अपनी एक असफल चोरी, और पकड़े जाने पर दो दिन की जेल का तजुर्बा ले, वह पहुँच गया था सगाई की रस्म निभाने।
‘तीन, केवल तीन लोग, जिसमें से एक दूल्हा?’ लड़की की माँ ने मुँह सिकोड़ा। ‘तीन तो अशुभ होवें, इतना भी न पता?’
‘कोई बात न जी, कल कर लेंगे। चार छोड़, पूरे पाँच होंगे इस बार,’उसने घोषित किया। दो भाड़े के सही, उसने मन ही मन सोचा। मुफ़्त का खाना, और कुछ तो देंगे दूल्हे को-शायद साथियों को भी...
‘यह शादी न होने की,’ तपाक से फैसला सुना दिया था लड़की की माँ ने। लो हो गई छुट्टी माँ की। बिल्लू के सिर से माँ का फ़ितूर तो उतर गया, पर शादी का नहीं। तभी तो दुबई का रोग पकड़ लिया था।
‘खुल गया लॉकर भी,’ बिरजू ने अन्दर झांका।
‘अबे, देख क्या रहा है, निकाल सब बाहर,’ बिल्लू लगभग चीख पड़ा।
‘भाई, धीरे, लोग जाग जाएंगे,’ कैंची ने टोक लगाई।
‘बर्तन? चांदी के सही... कृष्ण कन्हैया?’ बिरजू ने खीज कर हाथ खींच लिया।
‘अरे बेवकूफ़, हाथ डालकर टटोल,’ बिल्लू ने डपटा।
‘भाई, थैली है... सोने के सिक्के। ’ वह खुशी से झूम उठा।
‘बस?’ बिल्लू मायूस हो गया।
‘एक गठरी नीचे पड़ी है, अल्मारी में, गंदे कपड़ों से ठुसी, बू मारती,’नाक सिकोड़ उसने लात मार उसे अन्दर धकेल दिया।
‘क्या कर रहा है? निकाल बाहर और खोज उसमें,’ उसने गुस्से से गठरी खींच बाहर पलट दी। खन खन करते मोटे-मोटे दो कंगन, नौलखा हार, कंधे तक झूलती झुमकियां... बिल्लू को अपना सपना साकार होता नज़र आया।
‘सोना!’ बाकी चोर एक-दूसरे से लिपट किलकारी भरने लगे। चौथे को आसपास न देख ख़ुश थे। हिस्सा जो न देना पड़ेगा।
‘गठरी बांधो और निकल पड़ो, जल्दी,’ बिल्लू ने चौकन्ना हो कर आदेश दिया।
‘रुक जाओ, जाते कहाँ हो?’ आवाज़ टूटी खिड़की के बाहर से आई थी। पुलिस... तीनों ने सोचा और अपनी जगह जड़ हो गए।
धुंधली रोशनी में खड़ी आकृति हँसी और आगे बढ़ी। ‘चौथा तू?’ बिरजू खिसियानी हँसी हँसा।
‘बात भेजे में नहीं आती क्या? मना किया था न?’ बिल्लू ने मारने को हाथ उठाया तो उठा का उठा रह गया। चाकू की धार जानलेवा है, उसने देखते ही भांप लिया था।
‘भाई चलो, निकल पड़ो, छोड़ो चौथे का लफड़ा’, बिरजू ने दबी आवाज़ कान में कहा।
‘चौथा किसको बोलता है? मेरा नाम है बजरंग... सलमान खान को देखा पिक्चर में, तो बजरंगी कर दिया। तुम लोग भाई जोड़ सकते हो, क्योंकि अब बॉस मैं हूँ, यह टिल्लू नहीं। ’
‘ओए, भाई को टिल्लू बोला...’
‘शुकर कर लल्लू नहीं बोला। अब सीधी तरह गठरी मेरे हवाले करते हो या...’ उसने चाकू तलवार की तरह घुमाया।
‘हमारे पास भी है... और हम तीन हैं,’ बिल्लू ने ललकारा।
‘तुम हो क्या, चोर-उचक्के। मैं ठहरा कातिल... उस रात मालगाड़ी से उतर भागने को हुआ तो तुम तीन पागल मुझे यहाँ घसीट लाए। खाली घर के लालच में चला आया। मैंने सोचा दो रात खाली घर में लुका रहूँगा फिर उड़ जाऊँगा दुबई। ’
बिल्लू सिहर उठा। चौथा भी दुबई में। देखता हूँ कैसे जाता है यह दुबई, उसके होंठ भिंच गए। ‘जब कातिल हो तो डरने का नाटक क्यों करे थे,’ उसने धीरे से पूछा।
‘शोर मचाकर मुझे भी अन्दर करा देते तुम तीनों... चौथा-चौथा पुकार मेरी बेइज्जती करते रहे। अरे गधो, तीन का नम्बर नहीं, चौथा अशुभ होवे है। जिसका चौथा होवे, माने वह लुढ़क चुका। अब तुम तीनों का करवाऊ या...’ उसने हाथ बढ़ाया। सहसा दूर कहीं बजता पुलिस का सायरन पास आता सुनाई पड़ा। बजरंग कब उनके बीच से खिसक लिया, किसी को पता ही नहीं चला। गठरी भी गायब थी। ऊपर से थानेदार अपनी बानर सेना लेकर चोर सिपाही खेलने चला आया, बिल्लू भुनभुनाया।
‘क्यों रे बिल्लू, तू तो सचमुच लल्लू निकला। देख-भाल कर तो सेंध लगाया कर... अब यहाँ क्या मिला? सबेरा हुआ भी नहीं, किसी सिरफिरे ने थाने का फ़ोन टनटना दिया। किस्मत देखो... यहाँ भी तू आ टपका। सत्यानाश। खड़े-खड़े तमाशा क्या देख रहे हो, लेकर आओ सब घरवालों को,’ थानेदार ने घुड़का। दो सिपाही हरकत में आए। ‘नशा करके सोए हैं या... किया क्या तुम तीनों ने? मर्डर? कोई है भी या खाली घर देख मुँह उठाए चले आए?’
अब घर वीरान होता तो कैसे? दूबे जी ठहरे गृहस्थी वाले। घरवाली परलोक सिधार गई तो क्या, घर में बेटा, बहू, पोता, बिन ब्याही बेटी और बरेली से आई बहन भी थी। इकलौती बहन, चार भाईयों की दुलारी। दूबे जी तो उस पर जान छिड़कते थे। अब तो कुछ ज़्यादा ही। घरवाली भी न थी टीका-टिप्पणी करने को। किसी की क्या मजाल जो मुँह खोले। सारा दिन जिज्जी-जिज्जी की गुहार सुन जैसे पगला गए थे। ऊपर से दिल्ली की जानलेवा गर्मी। ‘अरे मैं लुट गई, ‘ फुग्गा मार रोती अधेड़ उम्र की औरत को देख इंस्पेक्टर भी उठ खड़ा हुआ।
‘पोटली कहाँ है?’ वह चीखी।
‘ये रही पोटली,’ तीनों ने सिक्कों की थैली पकड़ा चैन की साँस ली।
‘अरे मरदूदो, ये नहीं, गठरी कहाँ गई?’
‘गठरी? गठरी में तो गंदे कपड़े ठुसे थे, और कछु न,’ बिरजू ने सफ़ाई दी।
‘अबे तुझे कैसे पता?’ इंस्पेक्टर ने लपक कर कान ऐंठा।
'कछु होता तो खुली छोड़ देते क्या?' उसने चतुराई से कहा।
'क्या? खुली! जिज्जी का कलेजा मुँह में आ गया। 'क्यों री, पूजा का सामान रखने को
चाबी दी थी न तुझे?' उन्होंने बहू को घूरा, 'मैं घुटनों के दर्द से अधमरी पड़ी थी और ये आ खड़ी हुई सिर पर चाबी माँगने ! तनिक तेल गर्म करके तो मला न गया तुझपे; अलमारी भी न बन्द की गई। ' वे रो पड़ीं।
'रह गई होगी, ' बहू ने लापरवाही से कहा।
‘क्या था माँजी उसमें?’ इंस्पेक्टर ने नम्रता से पूछा।
‘अब ज़्यादा कुछ नहीं-रज्जो की कान की बालियाँ, हाथों की चार घिसी-पिटी तार सी चूड़ियाँ और एक चेन। बस इत्ता भर। पर थीं तो उसकी निशानी, रखवा गई थी हमारे पास...’ वे सुबकीं।
‘बस जिज्जी, और कितना रोओगी,’ दूबे जी लगे कंधा थपथपाने।
‘क्यों, बस, यही था न?’ इंस्पेक्टर ने अपनी पैनी नज़र बिल्लू पर डाली।
मक्कार औरत ! झूठी कहीं की ! बिल्लू ने गुस्से से सोचा। फिर सम्भल कर बोला, ‘जी, बस, यही सरकार। ’
‘बस, यही कैसे हो सकता है?’ बहू की त्यौरी चढ़ गई। ‘क्यों जिज्जी! कहाँ गए मेरे हाथ के कंगन? खरे सोने के थे। मेरी माँ ने ख़ुद बैठकर बनवाए थे मेरे ब्याह पर। और मेरा नौलखा हार, कान की झुमकियाँ?’
‘हमें क्या पता,’ जिज्जी तिलमिलाई। ‘अपनी सास से न पूछा जो हमारे गले पड़ गई। ’ डरी-डरी सी वे सुबक भी न सकीं। गला जो सूखा पड़ा था। दूबे जी दुविधा में पड़े बहन को ताकने लगे।
‘और तू? तू डकार गया सारे के सारे?’ बहू फुंफकारती हुई बिल्लू की तरह बढ़ी।
‘जब थे ही नहीं, तो लेंगे कैसे?’ बिल्लू किलसा। क्या पता गुदड़ी में और क्या सिल रखा हो बुढ़िया ने... चौथे तुझे न छोड़ेंगे, उसने मन ही मन कसम ली, माँ की।
अब, कातिल से जूझने के लिए एक अदद माँ तो चाहिए न। क्या पता कातिल था या छंटा हुआ गुंडा। न कोई उसूल न शर्म।
‘चलो, थाने ले चलो तीनों को,’ इंस्पेक्टर तंग आ चुका था। दिन निकल आया लेकिन मजाल है जो किसी ने एक प्याली चाय को भी पूछा हो। बिस्कुट न सही, चाय तो पीते होंगे। दो-दो औरतें घर में हैं, फिर भी... वह लम्बे-लम्बे डग भरता बाहर जाने लगा।
‘इंस्पेक्टर साहब, आपसे विनती है, ज़ेवर मिल जाएं तो...’ दूबे जी पीछे से गिड़गिड़ाए।
अब आया रास्ते पर, इंस्पेक्टर ठिठका। अबे देना है तो दे, सबके सामने देगा क्या? उसने गला खंखारा। कोई हरकत नहीं हुई। हैरत में उसने पीछे मुड़कर देखा। दूबे जी अन्दर जा चुके थे। कंजूस! मक्खीचूस! उसने कोसा।
‘अब आ जाओ, साहब जी,’ जीप में बैठा बिल्लू शरारती मुस्कान मुस्कराया।
इस बिलौटे को तो पटरी पर लाना होगा, ज़्यादा चूँ-चपड़ करने लगा है। ‘सोना गया तो गया कहाँ? उसने पुचकार कर पूछा।
बिल्लू चुप। इतनी आसानी से न आएगा झांसे में। ‘चौथा ले गया सर, हम तो उसे रेल की पटरी से उठा लाए थे। वह तो सबका हिस्सा ले रफ़ूचक्कर हो गया,’ बिरजू रूआंसा हो आया।
‘चौथे को ढूंढ़िये साहब जी... इसी में सबकी भलाई है। मिल बाँट लेंगे,’ बिल्लू ने धीमे से सुझाया।
‘शटअप,’ इंस्पेक्टर गरजा। ‘चोर समझ रखा है क्या?’
‘नहीं, सर,’ बिल्लू ने अपने कान पकड़ कर तौबा की। ‘आपका प्रमोशन हो जाएगा, वह अपने को कातिल बतलावे था,’ उसने दाना फेंका। डाका डाल चला गया इन तीनों की नाक के नीचे से... इंस्पेक्टर ने अपनी नाक रगड़ी।
‘नाम क्या बतलाया?’
‘चौथा,’बिरजू फट पड़ा। सत्यानाश इस चौथे का। उसे ढूँढ़ पाएगा यह दरोगा? लगे तो बावला सा। उसका मन शंका में डूब गया।
‘बजरंग,’ बिल्लू ने उसे कोहनी मारी।
‘चल चेहरा खींच उसका,’ इंस्पेक्टर ने बिल्लू को पेंसिल थमा, डायरी में से पन्ना फाड़ा।
‘मैं? मैंने तो कभी कुत्ते की दुम भी न खींची। ‘
‘तो अब खींच ले,’वह हँसा।
‘मैं खींचू,’मोन्टू अचानक बोल पड़ा।
‘तू कौन? अभी तक तो लकवा मार रखा था तुझे। आइये सरकार, आप ही बना दें और न बना सके तो मार मारकर...’वह बीच में ही रूक गया और कागज़ पर उभरते चेहरे को घूरने लगा। इतनी जल्दी? आदमी काम का लगता है। कभी इससे अपना स्कैच बनवाऊँगा, उसने प्यार से अपनी उग आई दाढ़ी सहलाते हुए सोचा।
‘यही?’ इंस्पेक्टर ने सख्ती से पूछा।
‘यही, सरकार,’ बिल्लू ने सपाट स्वर में हामी भरी।
‘दयानंद गाड़ी निकालो,’ इंस्पेक्टर उठ खड़ा हुआ।
‘निकली हुई है सर,’ दयानन्द रूठा हुआ सा बोला। फिर मुस्कराया, ‘साहब जी, आपके लिए चाय मंगवाई है। कड़क, मलाई मारकर। ’
‘ईडियट, यह चाय पीने का टाइम है?’ वह दहाड़ा। ‘सिपाही लो, और जीप में बैठो। ’
‘और ये लोग सर? खतरनाक लगे हैं सर,’ वह कहने से बाज़ नहीं आया। उसके लिए थानेदार का दहाड़ना आम बात थी, बिल्लू का थाने में पसरना नहीं। बदला लेने पर उतर आया, तो उसकी ख़ैर नहीं, हर कोई जानता था।
‘जाने न पाएं, जब तक हम लौट नहीं आते, बजरंग को...और सोना लेकर,’ उसने हाथ मलते हुए कहा।
‘बिल्लू, कोई आयडिया है तेरे पास, कहाँ गया होगा?’ उसने नरमी से पूछा। बिल्लू जैसे टेढ़े इंसान को सख्ती से नहीं, प्यार से ही काबू में लाया जा सकता था, वह भली-भांति जानता था। ढ़ींग का ढ़ींग हो गया, पर जब देखो माँ का रोना ले बैठता है, हरामी! इतना ही माँ का दुलारा है तो छोड़ क्यों नहीं देता काले धंधे। अपने को हीरो जो समझे... सारी हीरोपन्थी निकाल न दी तो मैं भी अपनी माँ का पूत नहीं- चलो बाप का। माँ तो उसे भी प्यारी थी मगर बाप? उसका चेहरा कसैला हो गया।
‘ट्रेन पकड़ रहा होगा, सर। ’
इंस्पेक्टर का माथा ठनका, इसे कैसे पता? अच्छे से धुनाई करवाकर इससे उगलवाए, या फिर... ‘कहाँ के लिए? यह भी मालूम होगा तुझे,’ इंस्पेक्टर ने चुग्गा डाला।
‘वाराणसी जा रहा होगा, सर, सोचा होगा, वहाँ भला कौन जाएगा चोर को पकड़ने,’ बिरजू हँसने लगा।
बिल्लू ने चौंक कर उसे देखा, पगला गया क्या? ‘तुझसे पूछा मैंने?’ इंस्पेक्टर ने घुड़का। ‘तू बतला बिल्लू, आख़िर तू ठहरा पहुँचा हुआ चोर...’
‘आपकी मेहरबानी सर,’ बिल्लू ने हाथ जोड़े।
‘क्या मतलब इसका?’ इंस्पेक्टर के चेहरे पर लाली दौड़ गई।
‘आपको एक राज़ की बात बतलाऊँ सर,’ बिल्लू फुसफुसाया। ‘पुरानी दिल्ली के रेलवे स्टेशन पर ट्रेन से उतर दुबका बैठा था। इससे पहले कि फिर ट्रेन पकड़ता, हम पकड़ लिए। अब आप पकड़ लो,’ उसने टेढ़ी मुस्कान फेंकी।
इसे तो मैं बाद में देख लूंगा, इंस्पेक्टर खड़ा हुआ। ऐसा सुनहरा मौक़ा फिर आए न आए। वाकई गठरी में नौलखा हार था? और कंगन? जिज्जी तो चूड़ी बतलावे थीं, वह भी तार सी पतली। और यह बजरंग है कौन? कातिल, या बिल्लू के बिछाए जाल का चौथा मोहरा? गहरी सोच में डूबा वह निकल पड़ा पुरानी दिल्ली की खाक छानने।