चौथा प्रकरण / विश्वप्रपंच / एर्न्स्ट हेक्केल / रामचंद्र शुक्ल

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चौथा प्रकरण - गर्भ विधान

तारतम्यिक गर्भ विधान विद्या की उत्पत्ति भी उन्नीसवीं शताब्दी में ही हुई है। माता के गर्भ में बच्चा किस प्रकार बनता है? गर्भांड से जीव कैसे उत्पन्न हो जाते हैं? बीज से वृक्ष कैसे पैदा होता है? इन प्रश्नों पर हजारों वर्षों से लोग विचार करते आए पर इनका ठीक ठीक समाधान तभी हुआ जब गर्भविज्ञानविद् बेयर ने गर्भ विधान के रहस्यों को जानने का उचित मार्ग दिखलाया। बेयर से 30 वर्ष पीछे डारविन ने अपने उत्पत्ति सिद्धांत के प्रतिपादन द्वारा गर्भ विधान के परिज्ञान की प्रणाली एक प्रकार से स्थिर कर दी। यहाँ पर मैं गर्भसम्बन्धी मुख्य मुख्य सिध्दान्तों पर ही विचार करूँगा। इस विचार के पहले गर्भवृद्धि सम्बन्धी प्राचीन सिध्दान्तों का उल्लेख आवश्यकहै।

प्राचीनों का विचार था कि जीवों के गर्भांड में पूरा शरीर अपने सम्पूर्ण अवयवों के साथ पहले से निहित रहता है, पर वह इतना सूक्ष्म होता है कि दिखाई नहीं पड़ सकता1, अत: गर्भ का सारा विकास या वृद्धि अन्तर्मुख अंगों का प्रस्तार मात्र है। इसी भ्रान्त विचार का नाम 'पूर्वकृत' या 'युगपत्' सिद्धांत है। सन् 1759 में उल्फ नामक एक नवयुवक डॉक्टर ने अनेक श्रमसाध्य और कठिन परीक्षाओं के उपरान्त इस सिद्धांत का पूर्णरूप से खंडन किया। अंडे को यदि हम देखें तो उसके भीतर बच्चे या उसके अंगों का कोई चिन्ह पहले नहीं रहता, केवल एक छोटा चक्र जरदी के सिरे पर होता है। यह बीजचक्र धीरे धीरे वर्तुलाकार हो जाता है और फिर फूट कर चार झिल्लियों के रूप में हो जाता है। ये ही चार झिल्लियाँ शरीर के चार प्रधान

1 सुश्रुत ने कई ऋषियों के नाम देकर लिखा है कि कोई कहता है कि गर्भ में पहले बच्चे का सिर पैदा होता है, कोई कहता है कि हृदय, कोई कहता है नाभि, कोई कहता है हाथ पाँव, सुभूति गौतम कहते हैं जड़ जिससे सब अंग सन्निबद्ध रहते हैं, पर धान्वंतरि जी कहते हैं कि इनमें से किसी का मत ठीक नहीं, बच्चों के सब अंग एक साथ ही पैदा हो जाते हैं, बाँस के कल्ले या आम के फल के समान-'सर्वांगप्रत्यंगानि युगपत्संभवतीत्याह धान्वंतरि, गर्भस्य सूक्ष्मत्वान्नोपलभ्यते, वंशांकुरवच्चूतलबच्च।' -सुश्रूत, शरीरस्थान।

विभागों के मूलरूप हैं। चार विभाग या विधान ये हैं - ऊपर संवेदन विधान जिससे समस्त संवेदनात्मक और चेतन व्यापार होते हैं, नीचे पेशी विधान, फिर नाड़ीघट1 हृदय नाड़ी आदि विधान, और अन्त्रा विधान। इससे प्रकट है कि गर्भविकास पूरे अंगों का प्रस्तार मात्र नहीं है बल्कि नवीन रचनाओं का क्रम है। इस सिद्धांत का नाम 'नव विधानवाद' है। 50 वर्ष तक उल्फ की सच्ची बात की ओर किसी ने ध्यान नहीं दिया क्योंकि प्रसिद्ध वैज्ञानिक हालर बराबर उसका विरोध करता गया। हालर ने कहा-'गर्भ में नए विधानों की योजना नहीं होती। प्राणी के अंग एक दूसरे के आगे पीछे नहीं बनते सब एक साथ बने बनाए रहते हैं।'

जब सन् 1806 में जर्मनी के ओकेन ने उल्फ की कही हुई बातों का फिर से पता लगाया तब कई जर्मन वैज्ञानिक गर्भ विधान के ठीक ठीक अन्वेषण में तत्पर हुए। उनमें सबसे अधिक सफलता बेयर को हुई। उसने अपने ग्रंथमें गर्भबीज की रचना का पूरा ब्योरा दिखाया और बहुत से नए नए विचारों का समावेश किया। मनुष्य तथा और दूसरे स्तन्य जीवों के भ्रूण के आकार प्रकार दिखाकर उसने बिना रीढ़वाले क्षुद्र जंतुओं के उत्पत्तिक्रम पर भी विचार किया जो सर्वथा भिन्न होता है। रीढ़वाले उन्नत जीवों के गर्भबीज के गोलचक्र में पत्तो के आकार के जो दो पटल दिखाई देते हैं बेयर के कथनानुसार पहले वे दो और पटलों में विभक्त होते हैं। ये चार पटल पीछे चार कोशों के रूप में हो जाते हैं जिनसे शरीर के चार विभाग सूचित होते हैं-त्वक्कोश, पेशीकोश, नाड़ीघटकोश और लालाकोश।

बेयर का सबसे बड़ा काम मनुष्य गर्भांड का पता लगाना था। पहले लोग समझते थे कि गर्भांशय में डिम्भकोश2 के भीतर जो बहुत से सूक्ष्म सम्पुट दिखाई पड़ते हैं वे ही गर्भांड हैं। 1827 में बेयर ने पहले पहल सिद्ध किया कि वास्तविक गर्भांड इन सम्पुटों के भीतर बन्द रहते हैं और बहुत छोटे एक इंच के 120 वें भाग के बराबर होते हैं और बिन्दु के समान दिखाई देते हैं। उसने दिखलाया कि स्तन्य जीवों के इस सूक्ष्म गर्भांड से पहले एक बीजवर्तुल या कलल3 उत्पन्न होता है। यह बीजवर्तुल एक खोखला गोला होता है जिसके भीतर एक प्रकार का रस भरा रहता है। इस गोले का जो झिल्लीदार आवरण होता है उसे बीजकला कहते हैं। बेयर के इस बीजकला सिद्धांत की स्थापना के 10 वर्ष पीछे सन् 1838 में जब घटकवाद स्वीकृत हुआ तब अनेक प्रकार के नए प्रश्न उठे? गर्भांड तथा बीजकला का उन घटकों और तन्तुओं


1 जिससे रक्तसंचार होता है और जिसके अन्तर्गत रक्तवाहिनी नलियाँ और हृदय हैं।

2 ये डिम्भकोश गर्भाशय के दोनों ओर होते हैं और पुरुष के अण्डकोश के स्थान पर हैं। जिस प्रकार पुरुष के अण्डकोश के भीतर शुक्रकीटाणु रहते हैं उसी प्रकार इन कोशों के भीतर गर्भांड या रज: कीटाणु रहते हैं।

3 हारीत ने लिखा है कि प्रथम दिन शुक्र शोणित के संयोग से जिस सूक्ष्म पिंड की सृष्टि होती है उसे कलल कहते हैं।


से क्या सम्बन्ध है जिनसे मनुष्य का पूर्ण शरीर बना है। इस प्रश्न का ठीक ठीक उत्तर रेमक और कालिकर नामक मूलर के दो शिष्यों ने दिया। उन्होंने दिखलाया कि गर्भांड पहले एक सूक्ष्म घटक मात्र रहता है। गर्भित होने पर उत्तरोत्तर विभाग द्वारा उसी से जो अनेक जीववर्तुल या कलल होते जाते हैं वे भी शुद्ध घटक ही हैं। उनके शहतूत की तरह के गुच्छे से पहले कलाओं या झिल्लियों की रचना होती है, फिर विभेद या कार्यविभाग क्रम द्वारा भिन्न भिन्न अवयवों की सृष्टि होती है। कालिकर ने यह भी स्पष्ट किया कि नरजीवों का वीर्य भी सूक्ष्म घटकों ही का समूह है। उसमें आलपीन के आकार के जो अत्यंत सूक्ष्म वीर्यकीटाणु होते हैं वे रोईंदार घटक मात्र हैं जैसा कि मैंने 1866 में स्पंज (मुरदा बादल) की बीजकलाओं को लेकर निर्धारित किया था। इस प्रकार जीवोत्पत्ति के दोनों उपादानों पुरुष के वीर्य कीटाणु और स्त्री के गर्भांड-का सामंजस्य घटकसिद्धांत के साथ पूर्णतया हो गया। इस आविष्कार का दार्शनिक महत्व कुछ दिनों पीछे स्वीकार किया गया।

गर्भसम्बन्धी विधानों की जाँच पहले पक्षियों के अंडों की परीक्षा द्वारा की गई थी। इस प्रकार की परीक्षा द्वारा हम देख सकते हैं कि किस प्रकार तीन सप्ताहों के बीच एक के उपरान्त दूसरी रचना उत्तरोत्तर होती है। इस परीक्षा द्वारा बेयर को केवल इतना ही पता लगा कि बीजकलाओं की आकृति और अवयवों की सृष्टि का क्रम सब मेरुदंड; रीढ़वाले जीवों में एक प्रकार का है, पर बिना रीढ़वाले असंख्य कीटों की गर्भवृद्धि दूसरे ही ढंग से होती है; अधिकांश में बीज कलाओं के कोई चिन्ह दिखाई ही नहीं पड़ते। थोड़े दिन पीछे कुछ बिना रीढ़वाले कीटों में भी - जैसे कई प्रकार के सामुद्रिक घोंघों और उदि्भदाकार कृमियों में - ये बीज कलाएँ पाई गईं। 1886 में कोवालुस्की नामक एक वैज्ञानिक ने एक बड़ी भारी बात का पता लगाया। उसने दिखलाया कि सबसे क्षुद्र रीढ़वाले जंतु अकरोटी मत्स्य1 का गर्भस्फुरण भी उसी प्रकार होता है जिस प्रकार बिना रीढ़वाले जीवों का। मैं उन दिनों स्पंजों, मूँगों तथा उदि्भदाकार कृमियों के गर्भस्फुरण विधान का अन्वेषण कर रहा था। जब मैंने इन समस्त जीवों में इन दो बीजकलाओं को पाया तब मैंने निश्चित किया कि गर्भ का यह लक्षण समस्त जीवधारियों में पाया जाता है। विशेष ध्यान देने की बात मुझे यह प्रतीत हुई कि स्पंजों और छत्राक2 आदि कुछ उदि्भदाकार कृमियों का शरीर बहुत दिनों तक-और किसी किसी का तो आयुभर घटकों के दो पटल या कलाओं के


1 जोंक के आकार की चार पाँच अंगुली की लम्बी एक प्रकार की मछली जो समुद्र के किनारे बालू में बिल बनाकर रहती है। इसे कड़ी रीढ़ नहीं होती, नरम लचीली हड्डीयों का तरुणास्थिदंड होता है। कपाल भी इसे नहीं होता। इसी से यह अकरोटी अक्रानिया वर्ग में समझी जाती है।

2 यह जंतु खुमी या छत्राक के आकार का होता है पर इसमें एक मध्यदंड के स्थान पर किनारे को और कई पैर सूत की तरह के होते हैं जिनसे वह समुद्र पर तैरा करता है।


रूप में ही रहता है। इन सब परीक्षाओं के आधार पर मैंने 1872 में गर्भस्फुरण सम्बन्धी अपना द्विकलघट सिद्धांत प्रकाशित किया जिसकी मुख्य मुख्य बातें ये हैं-

1. समस्त जीवसृष्टि दो भिन्न वर्गों में विभक्त है-एक घटक आदिम अणुजीव1 तथा अनेकघटक समष्टिजीव। अणुजीव का सारा शरीर आयुभर एक घटक के रूप में, अथवा घटकों के ऐसे समूह के रूप में जो तन्तुओं द्वारा सम्बद्ध वा एकीकृत नहीं होता, रहता है। समष्टिजीव का शरीर आंरभ में तो एक घटक रहता है पर पीछे अनेक ऐसे घटकों का हो जाता है जो मिलकर जाल के रूप में गुछ जाते हैं।

2. अत: इन दोनों जीववर्गों के प्रजनन और गर्भस्फुरण का क्रम भी अत्यंत भिन्न होता है। अणुजीवों की वृद्धि अमैथुनीय विधान से अर्थात विभागपरम्परा2 द्वारा होती है; उनमें गर्भकीटाणु और वीर्यकीटाणु नहीं होते। पर समष्टिजीवों में पुरुष और स्त्री का भेद होता है। उनका प्रजनन मैथुन विधान से अर्थात गर्भकीटाणु से होता है जो शुक्रकीटाणु द्वारा गर्भित होता है।

3. अत: वास्तविक बीजकलाएँ और उनसे बने हुए तन्तु केवल समष्टिजीवों में होते हैं, अणुजीवों में नहीं।

4. सारे समष्टिजीवों के गर्भकाल में पहले ये ही दो कलाएँ-आवरण या झिल्लियाँ प्रकट होती हैं। ऊपरी कला से बाहरी त्वचा और संवेदनसूत्रों का विधान होता है, भीतरी कला से अन्त्रा तथा ओर अवयव उत्पन्न होते हैं।

5. गर्भाशय में स्थित बीज को, जो गर्भित रज:कीटाणु से पहले पहल निकलता है और दो कलाओं के रूप में ही होता है, द्विकलघट कह सकते हैं। इसका आकार कटोरे का सा होता है। आंरभ में इसके भीतर केवल वह खोखला स्थान होता है जिसे आदिम जठराशय कह सकते हैं और बाहर की ओर एक छिद्र होता है जिसे आदिम मुख कह सकते हैं। समष्टिजीवों के शरीर के ये ही सबसे पहले उत्पन्न होने वाले अवयव हैं। ऊपर लिखी दोनों कलाएँ या झिल्लियाँ ही आदि तन्तुजाल हैं, उन्हीं से पीछे और सब अवयवों की उत्पत्ति होती है।

6. सारे समष्टिजीवों के गर्भ विधान में इस द्विकलघट को पाकर मैंने सिद्धांत निकाला कि सारे समष्टिजीव आदि में मूल द्विकलात्मक जीवों से उत्पन्न हुए हैं और मूल जीवों का यह रूप अब तक बड़े जीवों की गर्भावस्था में पितृपरम्परा के धर्मानुसार पाया जाता है।

7. वर्गोत्पत्तिविषयक इस सिद्धांत की पुष्टि इस बात से पूर्णतया होती है


1 ये अणुजीव जल में पाए जाते हैं और अच्छे खुर्दबीन के द्वारा ही देखे जा सकते हैं।

2 ऐसे जीवों की वंशवृद्धि विभाग द्वारा इस प्रकार होती है। एक अणुजीव जब बढ़ते बढ़ते बहुत बढ़ जाता है तब उसकी गुठली के दो विभाग हो जाते हैं। क्रमश: उस जीव का शरीर मध्य भाग से पतला पड़ने लगता है और अन्त में उस जीव के दो विभाग हो जाते हैं।

कि अब भी ऐसे द्विकलात्मक जीव पाए जाते हैं। यहीं तक नहीं है, ऐसे भी जीव; स्पंज, मूँगा आदि सामुद्रिक जीव, मिलते हैं जिनकी बनावट इन द्विकलात्मक जीवों से थोड़ी ही उन्नत होती है।

8. द्विकलघट से घटकजाल के रूप में संयोजित होकर बढ़नेवाले समष्टिजीवों के भी दो प्रधान भेद हैं - एक तो आदिम रूप के जिनके शरीर में कोई आशय, मलद्वार और रक्त नहीं होता; स्पंज आदि समुद्र के जीव इसी प्रकार के हैं; दूसरे उनसे पीछे के और उन्नत शरीर वाले जिनके शरीर में आशय, मलद्वार और रक्त होता है। इन्हीं के अन्तर्गत सारे कृमि, कीट आदि हैं जिनसे क्रमश: शंबुक सीप, घोंघे आदि रज्जुदंडजीव जिनके शरीर में रीढ़ के स्थान पर रज्जु के आकार का एक लचीला दंड होता है और मेरुदंड जीव हुए हैं।

यही मेरे द्विकलघटसिद्धांत का सारांश है। पहले तो इसका चारों ओर से विरोध किया गया पर अब इसे प्राय: सब वैज्ञानिकों ने स्वीकार कर लिया है। अब देखना यह है कि इससे क्या क्या परिणाम निकलते हैं। बीज के इस विकासक्रम की ओर ध्यान देने से सृष्टि के बीच मनुष्य की क्या स्थिति निर्धारित होती है?

और जंतुओं के समान मनुष्य का रज:कीटाणु भी एक सादा घटक मात्र है। यह सूक्ष्म घटकांड जिसका व्यास 1/120 इंच के लगभग होता है, आकार प्रकार में वैसा ही होता है जैसा कि और सजीव डिम्भप्रसव करने वाले जीवों का। कलल की सूक्ष्म गोली एक झलझलाती हुई झिल्ली से आवृत रहती है। यहाँ तक कि कललरस की इस गोली के भीतर जो बीजाशय या गुठली होती है वह भी उतनी ही बड़ी और वैसी ही होती है जितनी बड़ी और जैसी और स्तन्य जीवों में। यही बात पुरुष के शुक्रकीटाणु के विषय में भी कही जा सकती है। ये शुक्रकीटाणु भी सूत या आलपीन के आकार के रोएँदार अत्यंत सूक्ष्म घटक मात्र हैं जो वीर्य के एक बूँद में न मालूम कितने लाख होते हैं। इन दोनों मैथुनीय घटकों की उत्पत्ति समस्त स्तन्य जीवों में समान रूप से अर्थात मूल बीजकलाओं से होती है।

प्रत्येक मनुष्य क्या समष्टिजीव मात्र के जीवन में वह क्षण बड़े महत्व का है जिसमें उसका व्यक्तिगत अस्तित्व आंरभ होता है। यह वही क्षण है जिसमें उसके माता पिता के पुरुष और स्त्री घटक; रज:कीटाणु और शुक्रकीटाणु परस्पर मिलकर एक घटक हो जाते हैं। इस प्रकार उत्पन्न नया घटक मूलघट कहलाता है जिसके उत्तरोत्तर विभागक्रम द्वारा ऊपर कही हुई दोनों कलाओं या झिल्लियों को बनाने वाले घटक उत्पन्न होते हैं। इसी मूलघट की स्थापना अर्थात गर्भाधान के साथ ही व्यक्ति का अस्तित्व आंरभ होता है। गर्भाधान की इस प्रक्रिया से कई बातों का निरूपण होता है। पहली बात तो यह कि मनुष्य अपनी शारीरिक और मानसिक विशेषताएँ अपने माता पिता से प्राप्त करता है। दूसरी बात है कि जो नूतन व्यक्ति इस प्रकार उद्भूत होता है वह 'अमरत्व' का दावा नहीं कर सकता।

गर्भाधान के विधानों का ठीक ठीक ब्योरा 1875 में प्राप्त हुआ जब कि हर्टविग ने अपने अनुसंधान का फल प्रकाशित किया। हर्टविग ने पता लगाया कि गर्भाधान में सबसे पहली बात पुरुष और स्त्री घटक का, रज:कीटाणु और वीर्यकीटाणु का, तथा उनकी गुठलियों का परस्पर मिलकर एक हो जाना है। गर्भाशय के भीतर बहुत से शुक्रकीटाणु गर्भकीटाणु को घेरते हैं; पर उनमें से केवल एक ही उसके भीतर गुठली तक घुसता है। घुसने पर दोनों की गुठलियाँ एक अद्भुत शक्ति द्वारा, जिसे घ्राण से मिलती जुलती एक प्रकार की रासायनिक प्रवृत्ति समझना चाहिए, एक दूसरे की ओर वेग से आकर्षित होकर मिल जाती हैं। इस प्रकार पुरुष और स्त्री गुठलियों के संवेदनात्मक अनुभव द्वारा, जो एक प्रकार के रासायनिक प्रेमाकर्षण (इरोटिक केमिको ट्रापिज्म) के अनुसार होता है, एक नवीन अंकुरघटक की सृष्टि होती है जिसमें माता और पिता दोनों के गुणों का समावेश होता है।

मूलघट के उत्तरोत्तर विभाग द्वारा बीजकलाओं की रचना, द्विकलघट की उत्पत्ति तथा ओर अंगों के विधान का क्रम मनुष्यों और दूसरे उन्नत स्तन्य जीवों में एक ही सा है। स्तन्यजीवों के अन्तर्गत जरायुज जीवों में जो विशेषताएँ हैं वे गर्भ की प्रारम्भिक अवस्था में नहीं दिखाई पड़तीं। द्विकलघट के उपरान्त रज्जुदंड की उत्पत्ति समस्त मेरुदंड जीवों के भ्रूण में एक ही प्रकार से होती है। भ्रूणपिंड की लम्बाई के बल बीचोबीच एक पृष्ठरज्जु (डोर्सल कोर्ड) प्रकट होती है। फिर इस पृष्ठरज्जु के ऊपर तो बाहरी कला (झिल्ली) से मज्जा निकलकर चढ़ने लगती है और नीचे आशय; आमाशय, अन्त्रा आदि प्रकट होने लगते हैं। इसके अनन्तर पृष्ठदंड के दाहिने और बाएँ दोनों ओर उसकी शाखाओं का विधान होता है और पेशीपटल के ढाँचे बनते हैं जिनसे भिन्न भिन्न अवयवों की रचना आंरभ होती है। आशय के अग्रभाग अर्थात गलप्रदेश में गलफड़ों के दो छेद उसी प्रकार के उत्पन्न होते हैं जिस प्रकार के मछलियों में होते हैं। मछलियों में तो ये गलफड़े इसलिए होते हैं कि श्वास के लिए जो जल मुख के मार्ग से चला जाता है वह इनसे होकर बाहर निकल जाय। पर मनुष्य के भ्रूण में इनका कोई प्रयोजन नहीं होता। इनसे केवल यही बात सूचित होती है कि मनुष्य का विकास भी इन जलचर पूर्वज जीवों से ही क्रमश: हुआ है। इसी से जलचर पूर्वजों का यह लक्षण मनुष्य में अब तक गर्भावस्था में देखा जाता है। कुछ काल पीछे ये गलफड़े मनुष्य भ्रूण में नहीं रह जाते, गायब हो जाते हैं। फिर तो इस मत्स्याकार गर्भपिंड में कपाल आदि की विशेषताएँ प्रकट होने लगती हैं, हाथ पैर के अंकुर निकलने लगते हैं और आँख, कान आदि के चिन्ह दिखाई पड़ने लगते हैं। इस अवस्था में भी यदि मनुष्य भ्रूण को देखें तो उसमें और दूसरे मेरुदंड जीवों के भ्रूण में कोई विभिन्नता नहीं दिखाई देती।

मेरुदंड जीवों की तीनों उन्नत जातियों, सरीसृप, पक्षी और स्तन्य के भ्रूण झिल्लियों के कोश के भीतर रहते हैं जो जल से भरा रहता है। इस जल में भ्रूण पड़ा रहता है और आघात आदि से बचा रहता है। इस जलमय कोश की व्यवस्था उस युग में हुई होगी जिसमें जलस्थलचारी जीवों से स्थलचारी सरीसृप आदि के पूर्वज उत्पन्न हुए होंगे। मछलियों और मेंढकों के भ्रूण इस प्रकार की झिल्ली से रक्षित नहीं रहते।

पहले कहा जा चुका है कि मनुष्य जरायुज जीव है। पर जरायु भी एक बार ही नहीं उत्पन्न हुआ है। पहले उत्पन्न होनेवाले निम्न कोटि के जरायुजों में चक्रनालयुक्त पूर्ण जरायु का विधान नहीं होता। उनके गर्भपिंड की सारी ऊपरी झिल्ली पर छेददार रोइयाँ सी उभरी होती हैं जो गर्भाशय के त्वचा से कुछ लगी रहती हैं पर बहुत जल्दी अलग हो सकती हैं। ह्नेल आदि कुछ जलचर स्तन्य तथा घोड़े, ऊँट आदि कुछ खुरपाद इसी प्रकार के अपूर्ण जरायुज जंतु हैं। पूर्ण जरायुजों में माता के गर्भाशय की झिल्ली से लगा हुआ जरायु का भाग एक चक्र के आकार का होता है जिसके पृष्ठ भाग से एक नाल भ्रूणपिंड तक गया रहता है। यह जरायुकचक्र माता के गर्भाशय की दीवार से बिलकुल मिला रहता है जिससे प्रसव होने पर इस चक्र के साथ गर्भाशय का कुछ भाग भी उचड़ आता है और कुछ रक्तसाव भी होता है। मनुष्य के गर्भपिंड में भी एकबारगी पूर्ण जरायु का विधान नहीं हो जाता, पहले वह अपूर्ण रूप में रहता है जैसा कि अपूर्ण जरायुजों में; फिर चक्र और नाल के रूप में आता है। हाथी का जरायु बलय के आकार का होता है। चूहे, गिलहरी, खरहे आदि कुतरनेवाले जंतुओं तथा घूस, बनमानुस और मनुष्य का जरायु चक्राकार होता है।

गर्भ की प्रारम्भिक अवस्था में मनुष्य के भ्रूण और दूसरे मेरुदंड जीवों के भ्रूण के बीच यह सादृश्य ध्यान देने योग्य है। इस सादृश्य का एकमात्र कारण यही हो सकता है कि समस्त जीव एक ही आदिम जीव से उत्पन्न हुए हैं-जीवों के भिन्न भिन्न रूप एक ही आदि पुरातनरूप से प्रकट हुए हैं। गर्भ की विशेष अवस्था में हम मनुष्य, बन्दर, कुत्तो, सूअर, भेड़ इत्यादि के भ्रूणों में कोई विभेद नहीं कर सकते। इसका कारण एक मूल से उत्पत्ति के अतिरिक्त और क्या हो सकता है? विकासवाद के विरोधी बहुत दिनों तक मनुष्य भ्रूण के जरायु आदि में कुछ विशेषताएँ बतलाकर मनुष्य की स्वतन्त्र उत्पत्ति का राग अलापते रहे। पर 1890 में सेलेनका ने ओरंग नामक बनमानुस के भ्रूण में भी उन विशेषताओं को स्पष्ट दिखा दिया। फिर तो हक्सले का यह सिद्धांत और भी पुष्ट हो गया कि 'मनुष्य और उन्नत बनमानुसों के बीच उतना भेद नहीं है जितना नराकार बनमानुसों और निम्न श्रेणी के बन्दरों के बीच।'

शुद्ध विज्ञान की दृष्टि से जो मनुष्य के गर्भस्फुरण क्रम को देखेगा और उसे दूसरे स्तन्य जीवों के गर्भ विधान से मिलायेगा उसे मनुष्य की उत्पत्ति को समझने में बहुत सहायता मिलेगी।