चौथी, पाँचवी और छठवीं कसम / पंकज सुबीर

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तो चलो आज वह कहानी आपको सुना ही देते हैं। हालाँकि कहानी में कुछ सुनाने-फुनाने जैसा है नहीं, लेकिन कहते हैं ना कि नहीं मामा से काना मामा भला? तो इसे भी काना मामा ही समझ कर सुन लिया जाये। अब आप ये भी फरमा सकते हैं कि भई इतनी तो कहानियाँ हैं, तो फिर ये नहीं मामा कि स्थिति निर्मित कैसे हो रही है। तो दरअसल में ये नहीं मामा कि स्थिति आप की नहीं है, ये तो सुनाने वाले की है। सुनाने वाले के पास कुछ है ही नहीं, इसलिये वह सहेज कर रखे गये काने मामा को ही आपके सामने प्रस्तुत कर रहा है। यूँ कहानी ऐसी भी कानी नहीं है कि प्रस्तुत करने योग्य ही नहीं हो। कहानी में वह सब कुछ है जो आप चाहते हैं। बस सुनाने वाले की मजबूरी है कि वह इन बातों को खुल कर नहीं कह पायेगा। जहाँ भी कहीं गूढ़ टाइप के प्रतीक या बिम्ब आ जाएँ, मसलन बर्फ की ठंडक रूह में घुसकर गजगजाती हुई गुज़र गई, तो समझ लीजियेगा कि कही कुछ भारतीय दंड संहिता कि धारा तीन सौ छिहत्तर या सतत्तर टाइप का घटनाक्रम हो चुका है। कुछ लोग आपत्ति उठा सकते हैं कि बर्फ, ठंड और रूह जैसे कोमलकांत पदावली के शब्दों में ये गजगजाती जैसा कठोर शब्द कहाँ से आया। तो आपत्ति इस तरह से ख़ारिज हो जाएगी कि देशज शब्दों का प्रयोग कहानी के सौंदर्य को बढ़ाता है और जो नहीं भी बढ़ाता हो तो काना मामा हक़ीक़त में है किसका? सुनाने वाले का। तो इतना अत्याचार करना तो उसके संवैधानिक अधिकारों में शामिल है। वैसे कहानी में कुछ ख़ास बड़ा घटनाक्रम है नहीं, हुड़ से शुरू होकर फुड़ से ख़त्म हो जाती है। हो सकता है कि पूरी कहानी सुन लेने के बाद भी आप मुँह फाड़ कर इस बात का भेट करते मिलें कि इन्ट्रोडक्शन ख़त्म हुआ और अब कहानी शुरू होने को है। अगर ऐसा होता है तो वह आपकी समझ का फेर है उसमें सुनाने वाले का कोई दोष नहीं है।

'ढप्पू' , देखा जाये तो महान भारतीय परंपरा के अंत में ऊ से समाप्त होने वाले कई नामों में ये भी एक नाम है। नाम कुछ कम यूज होता है आजकल, लेकिन फिर भी इतना भी अनजाना नहीं है। ये नाम दरअसल में हमारी कहानी के नायक का नाम है। वैसे तो उसका एक असल नाम भी है 'प्रह्लाद सिंह वल्द दशरथ सिंह विश्वकर्मा'। मगर ये नाम केवल स्कूल कॉलेज की अंकसूचियों में साल में एक बार टंकित होता है और बिसरा दिया जाता है। रह जाता है 'ढप्पू' । प्रह्लाद सिंह वल्द दशरथ सिंह विश्वकर्मा अभी तक बिताये गये अपने जीवन में रह-रह कर इस बात पर आश्चर्य चकित होते रहते हैं कि प्रह्लाद को कहाँ से छोटा करके ये शब्द 'ढप्पू' निकाला गया। प्रह्लाद सिंह वल्द दशरथ सिंह विश्वकर्मा जब गहन चिंतन के चरम पर होते हैं तो वे अक्सर इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि देश का प्रधानमंत्री बनने के बाद सबसे पहला काम ये करना है कि हिन्दी की वर्णमाला से पूरे के पूरे 'ट, ठ, ड, ढ, ण' को ही हटाना है। ताकि आगे से ये दुख किसी और को न भोगना पड़े। प्रह्लाद सिंह वल्द दशरथ सिंह विश्वकर्मा (बस एक बार और पूरा नाम झेल लें, क्योंकि अभी उनकी सोच के बारे में बताया जा रहा है, ना कि ढप्पू की।) अपने साथ हुए अन्याय की परंपरा को यहीं समाप्त करना चाहते हैं और अन्याय को समाप्त करने का उनको सबसे आसान तरीक़ा यही लगता था कि टठडढ को ही ख़तम कर दो। उनको लगता था कि ये जो ढप्पू है ये ढपोरशंख जैसे किसी नाम का लघु संस्करण है, प्रह्लाद सिंह का कतई नहीं। बहरहाल लब्बो लुआब ये कि कम से कम इस जीवन में उनको ढप्पू से तथा वर्णमाला को टठडढ से मुक्ति की कोई गुँजाइश नहीं थी। इसीलिये वे ढप्पू थे।

ढप्पू जब पैदा हुए तो देवताओं ने बादलों के किनारों पर आकर फूल बरसाये हों, या अपसराओं ने हर्ष और उल्लास के साथ नृत्य-वूत्य किया हो इस प्रकार के कोई प्रमाण नहीं मिलते। लेकिन ढप्पू कई मामलों में विशिष्ट प्राणी ठहरते थे। कहावत है कि 'होनहार बिरवान के होत चीकने पात' , इस कहावत का मूल अर्थ क्या है, मूल व्याख्या क्या है इसको यदि कुछ देर के लिये भूला भी जाये तो दो शब्द तो हैं ही 'बिरवा' और 'चिकना' । अर्थात अच्छे पौधे के पत्ते चिकने होते हैं। कहावत पर चलें तो ढप्पू के भी गात चीकने ही थे। जब ढप्पू चौदह पन्द्रह की उमर से होकर गुज़र रहे थे तो उनके चिकनेपन के सामने शहर की सारी कन्याएँ पानी भरती थीं। शहर के कई सारे आशिकों के सपनों में उन दिनों कन्याओं की जगह ढप्पू ही आया करते थे। उन दिनों ढप्पू के इन तथाकथित एक तरफा आशिकों ने उनके कई सारे नाम भी दिये हुए थे। इन नामों का कुल मिलाकर सार ये निकलता था कि ढप्पू में नमक की मात्रा कुछ अधिक है। एक कुछ दबंग टाइप के आशिक थे विनोद त्रिवेदी। कुछ समय पहले ही किसी हत्या के प्रयास के मामले में जेल से छूट कर आये थे। वे इन्सान कुछ 'दूसरे टाइप' के थे। चूँकि हत्या के प्रयास के मामले में जेल काट कर आये थे इसलिये कुछ धाक-शाक टाइप की भी थी उनकी। जैसा कहा गया कि वे 'दूसरे टाइप' के थे, तो हमेशा वे अधिक नमक वाले बालकों की तलाश में रहते थे। इन बालकों के वे प्यार से मुन्ना कह कर बुलाते थे। वैसे उनका नाम विनोद त्रिवेदी था लेकिन क़स्बा उनको विनोद दादा कह कर बुलाता था और उनके मुन्ना लोग उनको केवल दादा कहते थे (आगे हम भी उनको केवल दादा ही कहेंगे) ।

सत्ताईस-अट्ठाईस की उम्र के दादा इस बात पर पैनी नज़र रखते थे कि कहाँ किस नई उछेर (नई पौध) में नमक की मात्रा आवश्यकता के लेवल तक आ चुकी है। साथ ही यह भी कि आस-पास के गाँवों से इस वर्ष कितने नये लड़के पढ़ने के लिये क़स्बे में आए हैं और उनमें से कितने 'मुन्ना' की उपाधि प्राप्त करने की योग्यता रखते हैं। दादा के पिताजी के पास अच्छी ख़ासी खेती बाड़ी थी, सो उन्हें कुछ करने धरने की ज़रूरत नहीं थी। दिन भर वे क़स्बे के एकमात्र हायर सेकेण्ड्री स्कूल के पास स्थित अपने मित्र की चाय तथा पान की दुकान पर बैठकर स्कूल आते-जाते लड़कों में नमक की मात्रा का अध्ययन करते रहते थे। गाँव से आने वाले लड़के उनका साफ़्ट टारगेट होते थे। परीक्षाओं में पास होने की लालच में ये लड़के देर-अबेर 'मुन्ना' की उपाधि प्राप्त कर अपने नमक का समर्पण कर देते थे। परीक्षा में पास होना यूँ कि क़स्बे के उस एकमात्र हायर सेकेण्ड्री स्कूल में परीक्षाओं के दौरान दादा के कुशल नेतृत्व में सामूहिक नक़ल का कार्य संपन्न होता था। परीक्षा शुरू होने के ठीक पन्द्रह मिनिट बाद दादा का एक आदमी जाकर सभी मुन्नाओं से प्रश्नपत्र ले आता था। फिर चाय-पान की संयुक्त दुकान पर विषय विशेषज्ञ प्रश्ननों के उत्तर तैयार करते और उत्तरों की फोटोकॉपी प्रश्नपत्रों के साथ पुनः मुन्नाओं तक पहुँच जाती थी। इन उत्तरों को वे भक्ति भाव के साथ अपनी-अपनी कॉपियों में उतार देते थे। इस पूरे काम को दादा पूरी ज़िम्मेदारी के साथ अंजाम देते थे॥ कुल मिलाकर ये कि दादा मुन्नाओं के साथ कभी 'नमक' हरामी नहीं करते थे। कारण भी साफ़ था कि यदि मुन्नाओं को पास करवाने की व्यवस्था नहीं की तो आगे से कौन आयेगा मुन्ना बनने। धौंस-धपट से ज़्यादा कारगर हथियार है लालच, पास होने का लालच। 'तुम मुझे नमक दो मैं तुम्हें...'।

दादा के पिताजी को जब शुरू में दादा कि इस 'भिन्न प्रवृत्ति' का पता चला तब दादा इकईस के थे। पिताजी ने तुरंत हर समझदार पिता कि तरह दादा कि शादी कर दी। मगर 'भिन्न प्रवृत्ति' को नहीं बदलना था सो नहीं बदली। शादी के बाद दादा कि पत्नी एक दो साल रही, इसी बीच जाने किस ग़लतफ़हमी में एक बेटा भी हो गया। लेकिन उसके बाद वह अपने बेटे को लेकर मायके चली गई, ऐसी कि फिर वापस नहीं लौटी। दादा ने सोचा 'फंद कटा' और वे और अधिक ज़ोरों-शोरों से नमक यात्रा में जुट गये। पिताजी ने भी सर पीट कर उन्हें उनकी 'भिन्न प्रवृत्ति' के हवाले छोड़ दिया। इस बीच दादा ने ख़ूब उन्नति की। पहले शराब को चखा, फिर पिया और फिर पक्के शराबी हो गये। इतने कि अपने ईष्ट देव शिव जी के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने के लिये रखे जाने वाले सोमवार के उपवास के दिन साबूदाने की खिचड़ी तथा काला नमक लगी ककड़ियों के साथ पीते थे।

उन्नती के ही तहत उन्होंने पहले छोटी मोटी दादागिरी की और फिर उल्टी कुल्हाड़ी मार कर अपने एक दुश्मन की खोपड़ी को थोड़ा-सा खोल दिया। हत्या के प्रयास में अंदर गये। रो-गा के पिता ने बचाने के लिये पैसा बहाया, मगर फिर भी दो साल की लग गई। वापस आये तो व्यक्तित्व का समग्र विकास सलाखों के पीछे से करके ही लौटे। ढप्पू की चर्चा के बीच दादा कि चर्चा इसलिये कि ढप्पू द्वारा खाई गई पहली क़सम जिसे हमने चौथी क़सम कहा है, का तअल्लुक दादा से है। पहली को चौथी इसलिये कहा जा रहा है कि पहली, दूसरी तथा तीसरी क़समें तो बरसों पहले खाई जा चुकी हैं। भले ही बरसों का अंतराल हो मगर तीसरी के बाद यदि कोई क़सम खाई जायेगी तो वह चौथी ही कहलायेगी, पहली नहीं। ख़ैर आइये चलते हैं ढप्पू जी की उस क़सम की तरफ़ जो चौथी क़सम के नाम से जानी जाती है।

चौथी क़सम

तो, ढप्पू उस समय कई-कई के सपनों में आते थे। यदि कई-कई के सपनों में आते थे, तो दादा के सपने क्यों पीछे रहते। बल्कि दादा के सपनों का तो प्रथम तथा आख़िरी अधिकार था ढप्पू पर। मगर दादा कि कुछ समस्याएँ थीं, जो ढप्पू को लेकर थीं? पहली महत्त्वपूर्ण समस्या ये थी कि ढप्पू पढ़ने लिखने में होशियार थे तथा हमेशा क्लास में अव्वल आते थे। इसलिये दादा का परीक्षा में पास करवाने का ब्रह्मास्त्र भी यहाँ आकर ख़ुद ही फेल हो जाता था। धौंस-धपट की यदि बात करें तो ढप्पू के पिता सरकारी अफ़सर थे और जेल में रहकर दादा ने एक बात सीखी थी कि कभी भूल के भी किसी भी प्रकार के सरकारी अफ़सर से बिगाड़ मत करो। ये कब, कहाँ आपको कैसे निबटा देगा, आपको पता ही नहीं चलेगा।

दादा, दुकान पर बैठे-बैठे रोज़ ढप्पू को सुबह स्कूल जाते हुए तथा शाम को वहाँ से लौटते हुए ताकते रहते थे (ताकते रहते तुझको साँझ सबेरे) । एकाध बार यदि ढप्पू स्कूल जाते हुए पान की दुकान पर बॉल पैन की रिफिल बदलवाने आते तो दादा कि धड़कनें बढ़ जातीं। दादा तुरंत बातों का सूत्र जोड़ते 'साहब (ढप्पू के पापा) ठीक हैं? कहाँ घर पर ही हैं?'। बातों के पीछे छिपे उसे गोपन सूत्र से अनभिज्ञ ढप्पू शालीनता पूर्वक उत्तर देते। लेकिन दादा को भी पता था कि इन छोटी मोटी बातों से वह सरोकार क़तई प्राप्त नहीं हो सकता जो अभीष्ट है। ढप्पू को ब्रांच दो स्कूल की सैर करवाने का कोई भी तरीक़ा दादा को नहीं सूझ रहा था। ब्रांच दो स्कूल...? अच्छा ... इस बारे में अभी नहीं बताया गया है? दरअसल में क़स्बे में भले ही हायर सेकेण्ड्री स्कूल एक था, लेकिन मिडिल स्कूल तीन थे। उस समय तक राजनीतिक दलों को अपने राजनीतिक बापों और माँओं के नाम पर स्कूल कॉलेजों के नाम रखने का शौक़ नहीं चर्राया था। इसलिये तीनों स्कूलों के नाम क्रमशः ब्रांच एक, दो तथा तीन थे। उनमें से जो ब्रांच दो था उसका भवन दादा के पिताजी का ही था। जो उन्होंने किराये पर स्कूल के लिये दे रखा था। दिन में यहाँ स्कूल लगता था और शाम को दादा अपने मित्रो के साथ परिसर में शूटिंग बॉल (व्हाली बॉल) खेलते थे। रात को दादा अपने मुन्नाओं का यज्ञोपवीत संस्कार भी यहीं संपन्न करते थे। तो उसी ब्रांच दो स्कूल तक ढप्पू को लाने का कोई तरीक़ा दादा को सूझ नहीं रहा था।

अब्र है, या ग़ुबार है, क्या है?

ये तो ख़ैर शाहरुख ख़ान ने बहुत बरसों बाद किसी फ़िल्म में कहा कि 'यदि आप सच्चे दिल से किसी चीज़ को पाना चाहते हैं तो सारी कायनात उस चीज़ को आपकी तरफ़ धकेलने में जुट जाती है।' , लेकिन दादा के साथ तो अक्सर उस दौर में यही होता था। ढप्पू वाले प्रकरण में भी दादा को कायनात के उसी धक्के की प्रतीक्षा थी। धक्का पड़ा और सही समय पर पड़ा। उन दिनों ढप्पू की देह अँखुआने लगी थी और काया के अंधेरे कोने कुचालों में एक विचित्र-सी सलबलाहट होने लगी थी। सलबलाहट, जिसके बारे में ढप्पू को बहुत ज़्यादा कुछ नहीं पता था। लेकिन जितना पता था, वह और पता करने की उत्सुकता जगाता था। अब इन सबमें वह कायनात का धक्का लगने वाली बात ये हुई कि ढप्पू ने इस सब को अपनी ही क्लास में पढ़ने वाले एक दोस्त के साथ शेयर किया। हालाँकि ऐसा भी कहा जा सकता है कि धक्का-वक्का कुछ नहीं था, दरअसल में तो दादा ने ही उस लड़के को, जो उनका ख़ास मुन्ना था, ढप्पू के पीछे लगाया था और उसी मुन्ने ने कुरेद-कुरेद कर ढप्पू की देह के अँखुओं को फूटने की राह दिखाई और वह सलबलाहट पैदा की। कहने वाले तो कुछ भी कह सकते हैं, लेकिन हम लौटते हैं कहानी के मूल ट्रेक पर। तो ढप्पू ने धीरे-धीरे अपना मन उस मुन्ने से साझा करना शुरू कर दिया था और फिर एक दिन कायनात ने अपना फाइनल धक्का लगा दिया।

ब्रांच दो स्कूल का काम्पाउण्ड अंधेरे में डूबा हुआ था। उसी अंधेरे का कोई कोना पकड़ कर दादा बैठे हुए थे। सोमवार होने के कारण फलाहारी नमक को ककड़ियों पर लगा-लगा कर उसके साथ पी रहे थे। स्कूल कम्पाउण्ड का लकड़ी का गेट एक बार चर्रर से खुला और थोड़ी ही देर में मर्रर के साथ बंद हो गया। दादा निस्पृह भाव से पीते रहे, हाँ ककड़ी चबाना उन्होंने बंद कर दी थी। दादा जहाँ बैठे थे वह जगह उस अंग्रेज़ी के यू अक्षर के आकार के बरामदे का एक घुप अंधेरे में डूबा सिरा था। चर्रर और मर्रर के बाद दो अंधेरे साये यू के बीच वाले डंडे पर आकर बैठ गये। क़रीब दस पन्द्रह मिनिट तक दोनों साये उसी प्रकार बैठे रहे। दादा कि निगाहें वहीं ज़मीं थीं। साथ ही घूँट दर घूँट मदिरा को भौतिक जगत से अनुपस्थित करते हुए दैहिक जगत में उपस्थित भी कर रहे थे।

कुछ ही देर में यू के डंडे पर बैठे दोनों साये क्रमशः झुके, फिर कुछ देर अधलेटे हुए और फिर लेटे हो गये। उसके साथ ही दूरस्थ सिरे पर बैठे दादा ने टटोल कर टार्च को अपने हाथ में ले लिया। कुछ देर तक सब कुछ वैसा ही रहा। लगभग पाँच मिनिट बाद दादा उठे और दबे क़दमों से चलते हुए यू अक्षर के सिरे से यू के डंडे तक आ गये। जैसे ही टार्च चली तो ढप्पू की उजली काया चमक उठी। ढप्पू को ऐसा लगा कि चाँद, सितारे, पृथ्वी, सूरज सभी रुक गये हैं और रौशनी के उस गोल घेरे की तरफ़ देख रहे हैं जो टार्च के जलने से बना है। रौशनी का वह गोल घेरा जिसके पीछे कौन खड़ा है अभी तो यह भी पता नहीं था। दादा ने टार्च को बंद किया और धीरे क़दमों से चलते हुए बरामदे में लगे हुए लकड़ी के खम्बे से टिक कर इतमिनान के साथ बैठ गये, इस प्रकार मानो कुछ देखा ही नहीं है।

किसको आती है मसीहाई किसे आवाज़ दूँ

कुछ देर तक एक सनाके वाला मौन छाया रहा और उस कुछ देर के मौन के बाद बहुत कुछ वहाँ हुआ। वहाँ, अर्थात अंधेरे में डूबे हुए ब्रांच दो स्कूल के यू आकार के बरामदे के ठीक बीच के डंडे पर। बहुत कुछ हुआ, रोना, गिड़गिड़ाना, शिकायत, इल्तिजा, प्रार्थना वग़ैरह वग़ैरह। ढप्पू को सबसे बड़ा संकट जो दिख रहा था वह इस सूचना का घर तथा स्कूल में प्रचार प्रसार था, दादा के मुन्ने को इस बात का कोई डर नहीं था। ढप्पू जब हिलक-हिलक कर रो रहे थे तभी। दादा कि विशेषता ये थी कि वे यज्ञोपवीत संस्कार करते समय मंत्र-वंत्र पढ़ने में ज़्यादा समय नहीं बरबाद करते थे। वे उसे समय की बरबादी मानते थे तथा हमेशा उदाहरण देते थे चिड़िया कि आँख पर निशाना साधने वाले अर्जुन का और फिर यहाँ तो वैसे भी मंत्र-वंत्र पढ़ने की गुंजाइश थी ही नहीं। समय की कमी के चलते दादा ने आनन-फानन में यज्ञोपवीत संस्कार किया और ढप्पू की पीठ ठोंकते हुए बोले 'जाओ मुन्ना, घर जाओ, घर वाले परेशान हो रहे होंगे।' ढप्पू भी अब मुन्ना हो चुके थे। मुन्ना बने ढप्पू उस यू आकार के बरामदे से लकड़ी के गेट की तरफ़ बढ़े, आँखें आँसुओं से भरीं थीं और। गेट को खोलकर बाहर आते ही ढप्पू को नानी की वह कहावत याद आई जो वे बात-बात पर कहतीं थीं कि 'लेने गई पूत, दे आई खसम'। ढप्पू ने गेट पर खड़े-खड़े ही पहली क़सम खाई जो कि चौथी क़सम कहलाई 'शेर भूखा मर जायेगा लेकिन' दूसरा तरीका'कभी नहीं, कभी नहीं, कभी नहीं'।

कोई पौराणित आख्यान होता तो ढप्पू के क़सम लेते ही आसमान में बिजली कौंध उठती 'कड़ड़धम' । हवा तेज़ी से चल उठती और अंधेरे में बैठे दादा का मन काँप उठता। ढप्पू ने भी जब उस लकड़ी के गेट को छूकर क़सम खाई तब कुछ ऐसा ही सोचा था और आशा भरी नज़रों से आसमान की तरफ़ देखा भी था, लेकिन फरवरी के महीने में साफ़ और खुले आसमान के नीचे क़सम खाओगे तो ऊपर वाला भी क्या करेगा। ढप्पू ने गहरी निगाहों से उस अंधेरे बरामदे को देखा जहाँ कुछ देर पहले। कुछ देर ठिठक कर वे उसे अंधेरे को देखते रहे, फिर एक ठंडी साँस छोड़ कर मुड़ गये। पीर के पर्वत को अपनी पृष्ठभूमि पर संभाले हुए धीमे-धीमे क़दमों से ढप्पू घर की ओर लौट रहे थे। चौथी क़सम (पहली) ली जा चुकी थी।

जैसे हर शैः में किसी शैः की कमी पाता हूँ मैं

ख़ैर जैसा कि होता है समय हर घाव को भर देता है। कुछ साल बीते और ढप्पू के जेहन में ब्रांच दो स्कूल का अँधेरा बरामदा धुँधला होता चला गया। हाँ वह क़सम अलबत्ता इस प्रकार से दिमाग़ में बैठी कि ढप्पू ने दूसरे तरीके की कभी सोची नहीं। मगर इस मरी देह को क्या करें, ये तो अपने सवाल लेकर रोज़ खड़ी होती है। ढप्पू अभी उन्नीस-बीस के आसपास थे और लगभग पच्चीस छब्बीस साल की उम्र में विवाह होना था। पच्चीस छब्बीस? पाँच छः साल बाद? ढप्पू सोचते तो कलेजा मुँह को आ जाता था। समय धीरे-धीरे बीत रहा था। देह के किनारों और कोनों से लोबान फूटने लगा था। इस लोबान का धुँआ ढप्पू को हर समय अपनी साँसों में मेहसूस होता था। ढप्पू का शारीरिक विकास तो हो चुका था, लेकिन एक भिन्न प्रकार की कमनीयता उनके व्यक्तित्व में आ गई थी। इस कमनीयता के बारे में लोगों का कहना था कि यह दादा के स्पर्श का पारस स्पर्श (मिडास टच) पा लेने के बाद हर मुन्ने में आ जाती है तथा उम्र भर रहती है। ढप्पू का मानना था कि ये जो कमनीयता है यह तात्कालिक है, इसे ख़त्म करने का एक माक़ूल इलाज़ है जो हो नहीं पा रहा है, या जिसे होने नहीं दिया जा रहा है। ढप्पू इस बात पर हैरत में रहते थे कि जिस काम के लिये समाज क़दम-क़दम पर अड़ंगे डालात है, बाधाएँ पैदा करता है, शादी नाम की घटना के बाद वही समाज एक फुल डेकोरेटेड कमरे में धकेल कर बाहर से कुण्डी लगा देता है।

पाँचवी क़सम

इसी बीच ढप्पू के पक्ष में एक महत्त्वपूर्ण घटनाक्रम ये हुआ कि उनको उच्च शिक्षा के लिये क़स्बे से शहर जाना पड़ा। पढ़ना भी वहीं था और रहना भी वहीं था। इसमें ढप्पू को पढ़ने से भी ज़्यादा महत्त्वपूर्ण लग रहा था रहना। जैसा कि उन्होंने सुना था कि शहर में तो । बहरहाल मामा और चाचा टाइप के कुछ व्यक्ति ढप्पू के साथ शहर आये और वहाँ ढप्पू की सारी व्यवस्था करके, ढेर समझाइशें और नसीहतें देकर लौट गये। अब ढप्पू थे और शहर था। शहर, जहाँ ढप्पू के पास बाक़ायदा अपना एक कमरा था। जहाँ वे कुछ भी कर सकते थे... कुछ भी। दिन बीत रहे थे और 'कुछ भी' नाम के इस कार्यक्रम का उचित सहयोगी अभी भी पहुँच के बहुत दूर था। क़स्बाई संस्कार अभी ख़ून में मलेरिया के कीटाणुओं की तरह फैले हुए थे, सो किसी से पूछ ताछ भी नहीं कर सकते थे। तो एक नितांत सूना कमरा, जिसमें बीतने वाली वह रातें जिनमें अमूमन नौ से दस घंटे होते हैं, जिनका पूर्ण सदुपयोग होने की भरपूर संभावना थी, फिलहाल सम्पूर्ण दुरुपयोग की तरह बीत रहे थे। हर बीती हुई रात, ढप्पू को एक बीत हुई संभावना कि तरह लगत, जिसका स्यापा वे पूरा दिन करते, अगली संभावना (रात) के आने तक। ढप्पू को लगने लगा था कि एक-एक बीतती हुई रात, वास्तव में जवानी नाम की उस परम विशिष्ट अवस्था से टूट कर गिरता एक-एक मोती है। जब सारे मोती टूट जाएँगे तो शेष बचा रह जायेगा धागा। जवानी बीत जाने पर इस धागे को दोनों हाथों में पकड़ कर रस्सी कूदते रहो, कोई रोकने टोकने वाला नहीं होगा। ढप्पू यज्ञोपवीत संस्कार हो जाने के बाद बहुत आगे की, बहुत दूर की सोचने लगे थे। दादा ने उनकी 'कुडलिनी शक्ति' जागृत कर दी थी।

मुद्दत में वह फिर ताज़ा मुलाक़ात का आलम

कहते हैं ना कि यदि कोई घटना घटनी हो तो उसके सारे सूत्र ख़ुद ब ख़ुद जुड़ने लगते हैं। तो वही हुआ। यदि ऐसा नहीं होता तो ढप्पू जैसे समाचार पत्रों, पत्रिकाओं से सम्मानजनक दूरी बना कर रखने वाले प्राणी के जीवन में समाचार पत्र का वह टुकड़ा आता ही क्यों। अख़बार का वह टुकड़ा जो उन समोसों और जलेबियों से लिपटा था, जिनको ढप्पू सुब्ह के नाश्ते के लिये लाए थे। इसी समाचार पत्र के टुकड़े को बाद में ढप्पू ने 'ऊपर वाले का षडयंत्र' नाम दिया। बिस्तर पर ही अधलेटी अवस्था में रखे हुए ढप्पू उन समोसों तथा जलेबियों को धीरे-धीरे टूँग रहे थे। रविवार का दिन था सो और कुछ करना भी नहीं था। अख़बार के टुकड़े पर से जब ढप्पू ने समोसे का अंतिम टुकड़ा उठाया तो नज़र उस टुकड़े पर पड़ी। वहाँ लिखा था 'मज़ेदार बातें करें'। नीचे कुछ नंबर लिखे हुए थे। ढप्पू ने काग़ज़ के उस टुकड़े को उठाकर नीचे झटकारा और पढ़ने लगे। जैसे-जैसे पढ़ते जा रहे थे वैसे-वैसे मानो दिव्य चक्षु टाइप की कोई चीज़ खुलती जा रही थी। एक-एक शब्द आनंद की रस वर्षा करता हुआ देह के कोने-कोने को भिंजाता (ढप्पू जहाँ से थे वहाँ भीगने को भींजना ही कहते हैं।) जा रहा था। लब्बो लुआब ये था उस टुकड़े पर लिखा था कि यदि आप भी 'मस्ती भरी मज़ेदार बातें' करना चाहते हैं तो नीचे दिये गये नंबरों पर फ़ोन लगाइये। जी भर के कीजिये 'मस्ती भरी मज़ेदार बातें'। ढप्पू की लगभग जवान देह एक बारगी सरापा सलबला के रह गई। काँपते हाथों से ढप्पू ने सारे नंबर अपनी कॉपी में उतार लिये।

उस दिन तो ढप्पू ने नंबर नहीं लगाया लेकिन अब ये ज़रूर हो गया था कि ढप्पू नियमित रूप से अख़बार ख़रीदने लगे थे। उन्हें लगा कि यही वह रास्ता है जो उनको मंज़िल तक पहुँचा देगा। धीरे-धीरे उनकी कॉपी में इस प्रकार के कई नंबर आते जा रहे थे। इन नंबरों के शीर्षक कुछ इस प्रकार थे 'दोस्त बनाएँ' , 'बातें करें' , 'मज़ेदार बातें करें' आदि आदि। मगर अभी भी ये सिलसिला केवल कॉपी में नंबर उतारने तक ही सीमित था। अपने मोबाइल पर कई बार नंबरों को डायल करने का अभ्यास करने के इलावा ढप्पू आगे नहीं बढ़ पाये थे। अब मज़ेदार बातों तथा ढप्पू के बीच केवल और केवल हौसले की ही बाधा थी।

हज़ार बार ज़माना इधर से गुज़रा है

ख़ैर आख़िर वह दिन भी आ गया कि ढप्पू ने एक नंबर लगा ही दिया। दरअसल उस दिन अख़बार में विज्ञापन के नीचे लिखा था 'यदि आपने आज तक इस प्रकार की बातें नहीं की हैं तो नीचे दिये गये नंदर पर फ़ोन लगाएँ, ये केवल नये लोगों के लिये शुरू की गई नई लाइन है।' ढप्पू को लगा कि ये बात तो सिर्फ़ और सिर्फ़ उनके ही लिये लिखी गई है। सिर्फ़ उनके लिये इसलिये कि वे ही तो हौसला नहीं कर पा रहे हैं। यदि ढप्पू भी कोई अवतारी पुरुष होते तो अवश्य कहीं न कहीं लिखा जाता कि 'शुक्ल पक्षे, भोमवासरे, तृतीया तिथिः, जम्बूद्वीपे, भारत वर्षे, प्रह्लाद सिंह पुत्र दशरथ सिंह विश्वकर्मा, प्रथम मधुर वार्ता'। लेकिन चूँकि वैसा नहीं था इसलिये इस बात का ज़िक्र कहीं नहीं मिलता कि वह दिन कौन-सा था। मगर सच यही है कि नंबर मिलाया गया और बाक़ायदा लग भी गया। उधर घंटी बज रही थी और इधर ढप्पू का दिल हर घंटी के साथ कभी गले में तो कभी शरीर के दूरस्थ द्वार तक आना-जाना कर रहा था।

'हलो' एक बहुत ही सुरीला स्वर उधर से आया। ढप्पू कुछ देर तक सनाका खाये रहे। सर से पसीना चू रहा था, हाथ काँप रहे थे और गला रेगिस्तान हो रहा था। दिल शरीर के दूरस्थ द्वार में जाकर फँस गया था। 'हलो' इस बार उस सुरीले स्वर ने कुछ मादक अंदाज़ में फिर कहा। ढप्पू अभी भी दिल के वापस अपने स्थान पर आने की प्रतीक्षा कर रहे थे। एक बार उन्होंने कमरे की तरफ़ देखा, दरवाज़े खिड़की सब पूरी तरह से बंद थे। कहीं से कसेई आवाज़ बाहर जाने की संभावना नहीं थी। 'बात करिये ना, चुप क्यों हैं? डरने की कोई बात नहीं है, आपकी और मेरी बात कोई नहीं सुन रहा है। बिंदास होकर बात कीजिये।' उधर से एक बार फिर से खनकता हुआ स्वर आया। ढप्पू कुछ-कुछ सामान्य हो रहे थे। सर का पसीना कुछ कम हो गया था, गला भी कुछ बोलने लायक हो चला था। 'देखिये हमें पता है कि आपने पहली बार फ़ोन लगाया है, इसलिये थोड़ी घबराहट तो होनी है, लेकिन बिल्कुल मत घबराइये, हम हैं ना।' उधर से आने वाला स्वर बार-बार उत्साहित करने में लगा था और उसका असर भी हो रहा था। ढप्पू अब पूरी तरह से सामान्य हो चुके थे। उन्होंने अपने माथे पर बचे हुए पसीने को पोंछा और कुछ काँपते हुए से स्वर में, मोबाइल से मुँह लगभग सटाते हुए धीमे से कहा 'हलो' ।

इसके बाद बातें हुईं और ख़ूब बातें हुईं। बातें, जो ज़ाहिर-सी बात है यहाँ पर नहीं लिखी जा सकती हैं। बीच-बीच में ढप्पू यदि शर्मा के अटक जाते थे तो सामने से प्रोत्साहित करके ढप्पू को पुनः मैदान में उतार लिया जाता था। वह सब कुछ जो ढप्पू के दिमाग़ में था, वह बातों में फैला हुआ था। अंतर केवल ये था कि ढप्पू किसी नये बल्लेबाज की तरह हर बॉल को रक्षात्मक तरीके से खेल रहे थे, जबकि सामने वाला पक्ष हर बाल को आक्रामक अंदाज़ में खेल रहा था। कभी-कभी तो सामने वाला पक्ष इतना आक्रामक हो जाता था कि ढप्पू के कानों की लवें सुलग जाती थीं और गाल कुछ लाल टाइप के हो जाते थे। लगभग एक घंटे की बातचीत के बाद जब ढप्पू ने अगली बार जल्दी बात करने के वादे के साथ फ़ोन काटा तब वे लगभग हाँफ रहे थे। शरीर मलेरिया के मरीज़ की तरह फुरफुरी खा रहा था, और..., ़ ख़ैर छोड़िये।

उस दिन ढप्पू को बहुत सुक़ून भरी नींद आई। भले ही सुक़ून का ये स्तर अभी मन तक ही सीमित था किन्तु तन ये सोच कर सुक़ून में था कि यदि मन की बारी आ गई है तो आज नहीं तो कल उसकी भी आयेगी। ढप्पू के कानों में अभी भी वह सारी बातें अटकीं हुई थीं और वही रह-रह कर गूँज रहीं थीं। सामने वाले पक्ष ने जिस प्रकार से सारी क्रिया-प्रक्रिया कि तफ़सील से नुक़्ता दर नुक़्ता चर्चा कि थी उससे ढप्पू अभी तक हैरत में थे।

उस दिन के बाद फ़ोन पर बात लगभग रोज़ का ही काम हो गया। कभी सुब्ह तो कभी देर रात गये। जब भी ढप्पू को समय मिलता वे लम्बी-लम्बी बातें करके अपने को रिचार्ज कर लेते। धीरे-धीरे ढप्पू भी एक्सपर्ट होते जा रहे थे। भले ही उन्हें इस पूरे विषय का प्रेक्टिकल अनुभव नहीं था, लेकिन थ्योरेटिकल ज्ञान तो था ही। उसी थ्योरेटिकल ज्ञान के आधार पर वे अब उस ज्ञान चर्चा में खुलकर हिस्सा लेने लगे थे। अब न तो उनके कानों की लवें सुलगती थीं और ना ही उनका दिल शरीर के दूरस्थ द्वार में जाकर गुड़ुप से उतरत ा था। ढप्पू खुलकर बतियाते थे। कई सारे मुद्दों पर जब दोनों पक्ष अपने-अपने तर्कों तथा दावों के साथ जब बाक़ायदा सारगर्भित बहस करते तो ऐसा लगता कि बस। ढप्पू इस पूरी प्रक्रिया में इस बात पर ही सबसे ज़्यादा प्रसन्न थे कि इस रचना प्रक्रिया में उनके ज्ञान कोष में उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही है। साथ ही इस बात की भी संभावना बनी हुई है कि यदि आज थ्योरी क्लासेस चल रही हैं तो आगे प्रेक्टिकल तो होंगे ही।

इश्क के शोले को भड़काओ कि कुछ रात कटे

और फिर एक दिन ढप्पू के फ़ोन लगाने के बजाय ढप्पू के पास फ़ोन आया। स्वर पुरुष का था। इधर उधर की कुछ बातें हुईं। जिनमें इस बात के लिये धन्यवाद दिया गया कि ढप्पू ने उनकी योजन की सफलता में अपने बहुमूल्य कॉल करके बहुत योगदान दिया है। यह भी सूचित किया गया कि ढप्पू अब उनकी संस्था के गोल्डन मेम्बर बनने की पात्रता प्राप्त कर चुके हैं। ये भी बताया गया कि वे पवहले मेम्बर हैं जिनको मात्र पन्द्रह दिनों में ही गोल्डन मेम्बरशिप प्रदान की गई है। गोल्डन मेम्बर्स के लिये संस्था ने एक नई योजना लान्च की है। योजना ये है कि संस्था से बहुत-सी इस प्रकार की महिलाएँ जुड़ी हैं जिनके पति व्यवसाय के चलते अक्सर बाहर रहते हैं और जिनके पास अपनी पत्नियों के पास बिल्कुल समय नहीं है। ढप्पू तथा ढप्पू जैसे अन्य गोल्डन कार्ड धारकों को उस समय, उन दिनों में पति नामक रिक्त स्थान की पूर्ती करनी होगी जब वह व्यवसाय के कारण बाहर रहेगा। इसके लिये इन महिलाओं की तरफ़ से गोल्डन कार्ड धारकों को बाक़ायदा पैसा दिया जायेगा। कितना, ये इस बात पर निर्भर करता है कि ये उस रिक्त स्थान की पूर्ती कितने अच्छे तरीके से करते हैं। चूँकि इन महिलाओं के पास पैसे की कोई कमी नहीं है, इसलिये मिलने वाले पैसे की अधिकतम सीमा कुछ भी हो सकती है।

'आम के आम और गुठलियों के दाम' ढप्पू के मन में प्रस्ताव को सुनकर सबसे पहली कहावत यही गूँजी थी। कहाँ तो आम ही खाने को नहीं मिल रहे थे और अब जब मिल रहे हैं तो खाने के बाद उसको खाने के भी पैसे मिल रहे हैं। सारी बातें बता चुकने के बाद ढप्पू को एक बहुत ही मामूली सी, छोटी, तुच्छ-सी बात ये बताई गई कि ढप्पू को गोल्डन कार्ड मेम्बर शिप की फीस मात्र पाँच हज़ार रुपया जमा करवानी होगी, तथा एक हज़ार रुपये प्रोसेसिंग फीस। पाँच हज़ार रुपया सिक्योरिटी की तरह होगा और रिफण्डेबल होगा। जब भी कोई मेम्बर अपनी मेम्बरशिप ख़त्म करना चाहेगा तब यह पैसा वापस कर दिया जायेगा। यह छोटी-सी बात जो अंत में बताई गई थी यह परेशानी में डालने वाली तो थी लेकिन उतनी परेशान करने वाली भी नहीं थी। अभी तो ढप्पू के पास दस हज़ार रुपये पड़े ही थे जो फीस जमा करने के लिये घर से आये थे। फीस जमा करने की अंतिम तारीख़ तो अभी पन्द्रह दिन दूर थी और तब तो महिलाओं की तरफ़ से पैसा आना शुरू हो ही जायेगा। ढप्पू ने जानना चाहा कि इस सब में कंपनी का क्या फायदा है, तो बताया गया कि हर बार किसी बंदे को रिक्त स्थान की पूर्ती करने भेजने पर महिलाओं की ओर से कंपनी को भी एक तय रक़म मिलेगी। फ़ोन करने वाले ने ढप्पू को बधाई-शधाई देकर ढप्पू से प्रस्ताव पर स्वीकृति चाही। ढप्पू ने विचार करने की बात कह कर फ़ोन काट दिया।

अगले दिन जब फ़ोन फिर से आया तो ढप्पू गोल्डन कार्ड के मेम्बर बन चुके थे। उन्हें एक बैंक एकाउंट नंबर दिया गया था जिसमें पाँच हज़ार मेम्बरशिप के तथा एक हज़ार प्रोसेसिंग फीस के डालने को कहा गया था। छः हज़ार डलते ही ढप्पू गोल्डन कार्ड मेम्बर हो चुके थे। जब ढप्पू ने पुनः फ़ोन लगाकर पैसा जमा करवा देने की सूचना तो दी तो उधर से बाक़ायदा बधाई दी गई तथा कहा गया कि अब आप प्रतीक्षा कीजिये, जल्द ही आपके पास फ़ोन आयेगा कि आपको कहाँ जाना है। शुरू के एक दो दिन तो ढप्पू मानो आसमान पर थे। ऐसा लग रहा था मानो काँख में हाथ की जगह पर पंख लग गये हैं। वे कल्पना में डूबे रहते, उन सारी बातों की कल्पना में ही रिहर्सल करते रहते। मोबाइल बजता तो धड़कते दिल से उस डिस्प्ले होने वाला नाम देखते। डिस्प्ले होने वाला नाम गोल्डन कार्ड (इसी नाम से सेव किया था वह नंबर) नहीं होता तो मायूस हो जाते।

पाँच दिन, सात दिन, दस दिन, जब प्रतीक्षा लम्बी होने लगी तो उन्हें चिंता हुई। फीस का जो पैसा गोल्डन कार्ड में लगा चुके थे उसके भरने की तारीख़ पास आ रही थी। दसवें दिन से उन्होंने फ़ोन लगाना शुरू कर दिया। हर बार यही उत्तर मिलता कि अभी कस्टमर की कोई कॉल नहीं है, जैसे ही कोई कॉल होगी उनको तुरंत भेजा जायेगा। मगर फिर बात वहीं की वहीं रह जाती। आख़िरकार पानी सर से ऊपर हो गया। गोल्डन कार्ड धारक प्रह्लाद सिंह दशरथ सिंह विश्वकर्मा उर्फ ढप्पू ने इस बार जब फ़ोन लगाया तो आर पार की लड़ाई के लिये लगाया। जिसके तहत उन्होंने कहा कि उनकी गोल्डन कार्ड मेम्बरशिप को तुरंत ख़त्म करके उनका पैसा लौटाया जाये, नहीं तो वे इस पूरे मामले को पुलिस के पास ले जाएँगे। उस तरफ़ से उत्तर दिया गया कि ढप्पू को आज ही एक स्थान पर कॉल हेतु भेजने के लिये नाम दिया गया है। फिर भी यदि वे चाहते हैं तो अपना पैसा वापस ले सकते हैं। ढप्पू कुछ नरम पड़े। ढप्पू को नरम पड़ता देख उधर से कहा गया कि निश्चिंत रहिये एक दो दिन में आपको कॉल पर जाना है। आपका नाम तथा आपकी डिटेल्स जा चुकी है और आपकी डिटेल्स पार्टी को पसंद भी आ गईं हैं। ढप्पू पूरी तरह से हथियार डाल चुके थे।

अगले ही दिन ढप्पू के पास फ़ोन आ गया, जिसमें उनको स्थान तथा समय की सूचना दी गई। फ़ोन करने वाले ने इस बात के लिये क्षमा भी माँगी कि ढप्पू को कॉल देने में कम्पनी की तरफ़ से कुछ देर हो गई। ढप्पू ने भी अपना दिल बड़ा करते हुए मुआफ़ी प्रदान कर दी। ढप्पू को बताया गया कि जहाँ ढप्पू को जाना है वहाँ से उनको काफ़ी अच्छा पारीश्रमिक मिलने की संभावना है, उसके बाद यदि वे चाहें तो अपने गोल्डन कार्ड को डायमंड कार्ड में बदल सकते हैं।

एक शीशा हूँ के हर पत्थर से टकराता हूँ मैं

निश्चित समय पर ढप्पू तय स्थान पर पहुँच गये। धड़कते दिल से डोरबेल बजाई। दरवाज़ा एक युवती ने खोला तथा मुस्कुरा कर ढप्पू को अंदर आने को कहा। ढप्पू को कमरे में बिठाकर वह अंदर चली गई। ढप्पू वहीं रखी हुई एक पत्रिका के पन्ने पलटने लगे। अचानक ही अंदर से पाँच नक़ाबपोश प्रकट हुए, जब तक ढप्पू कुछ समझते तब एक धारदार चाकू उनकी गरदन पर, एक देसी कट्टा सर पर और एक मज़बूत हाथ उनके मुँह पर आ चुका था। पाँचों नक़ाबपोश घसीटते हुए ढप्पू को अंदर ले गये। अंदर लगभग किसी फ़िल्मी स्टूडियो जैसी व्यवस्था थी। हैलाजन लाइट, ट्राइपॉड पर लगा स्टिल डिजिटल कैमरा, एक अन्य ट्राइपॉड पर वीडियो कैमरा, सब तैयार थे। बात की बात में ढप्पू का अनावरण कर दिया गया, साथ के दो नक़ाबपोश भी उसी अवस्था में आ गये। दो नक़ाबपोशों ने दोनों कैमरे संभाल लिये तथा पाँचवा देसी कट्टा तथा चाकू लिये सर पर खड़ा हो गया। लगभग दो घंटे बाद जब फ़िल्म की शूटिंग समाप्त हुई तो ढप्पू को ससम्मान विदा किया गया। जिस प्रकार ससुराल को विदा होती बेटी को नसीहतें दी जाती हैं उसी प्रकार ढप्पू को भी अनेक नसीहतें दी गईं। हर नसीहत का कुल मिलाकर अर्थ यही हुआ कि ज़ुबान को बंद रखना नहीं तो ।

ढप्पू भारी क़दमों से उस घर के बाहर आये। ढप्पू को विश्वास ही नहीं हो रहा था कि 'सेम टू सेम कहानी रिपिटेड दूसरी बार'। उन्होंने एक बार ऊपर मुँह करके ऊपर वाले को भी कोसा जिसने समोसे तथा जलेबियों पर लपेट कर अपना षडयंत्र उनके पास भेजा था। एक बार फिर से ढप्पू मकान के गेट पर थे। एक बार फिर से उनको नानी की कहावत 'लेने गई पूत, दे आई खसम' याद आ रही थी। एक बार फिर से क़सम खाने का समय आ चुका था। आसमान पर बादल गरज कर 'कड़ड़धम' करने के लिये तैयार थे। बल्कि कर ही रहे थे, बरसात का समय जो था। पानी गिर रहा था, हवा भी चल रही थी। कुल मिलाकर फ़िल्मी दृष्टि से देखा जाये से देखा जाये तो क़सम खाने के लिये मुफ़ीद वातावरण बना हुआ था। ढप्पू ने गेट को पकड़ा और पाँचवी (दूसरी) क़सम खाई 'अन्जान तथा अज्ञात के साथ, अन्जान स्थान पर, कभी नहीं, कभी नहीं, कभी नहीं।' संयोग से बिजली भी चमक गई, पाँचवी क़सम ली जा चुकी थी।

इस किनारे नोच लूँ और उस किनारे नोच लूँ ...

इस बार ये ज़ोर का झटका ढप्पू को ज़ोर से लगा था। इसके चलते वे काफ़ी दिनों तक बदहवास रहे। शरीर के कोनों से उठने वाला लोबान बुझ चुका था। फीस का संकट माथे पर था सो क़स्बे की वापसी ज़ुरूरी हो ही चुकी थी। क़स्बे पहुँच कर एक दो दिन तक तो बुझे-बुझे रहे। किसी के कुछ पूछने पर केवल ऊँ, आँ ही करते थे। घरवाले चिंता में थे कि क्या हुआ। ख़ैर एक दो दिनों में अपने को इस संकट से बाहर लाने का तात्कालिक हल निकाला और घरवालों को बताया कि जहाँ रहते हैँ वहाँ बहुत गुण्डागिर्दी है। एक गुण्डे ने कमरे पर आकर, चाकू अड़ा कर, फीस के लिये रखे दस हज़ार रुपये लूट लिये (दस हज़ार, अरे भई जब झूठ बोल ही रहे हैं, तो कुछ अपने लिये भी न कमाएँ) और पुलिस में रपट लिखाने पर जान से मारने की धमकी भी दी। हस्बे मामूल पूरी कथा इस ख़ौफ़नाक अंदाज़ में सुनाई कि घर वालों ने भी कहानी में आने वाले अर्द्ध विराम तथा पूर्ण विराम तक पर पूर्ण विश्वास कर लिया। ढप्पू ज़ार-ज़ार रोते भी रहे और रोने के लिये अभिनय भी नहीं करना पड़ा, सच में जो रो रहे थे उस घटना को याद करके। इसको नहीं, उसको। सबने मिलकर ढप्पू को सांत्वना दी, माँ ने कहा 'चुप हो जा बेटा, पैसा तो हाथ का मैल है, चला गया तो चला गया, भगवान का लाख-लाख शुक्र है कि मेरा लाल सलामत है। चिंता मत कर कोई अला बला थी सो टल गई।' और अंत में निर्णय ये लिया गया कि ढप्पू अभी वापस नहीं जाएँगे, एक सप्ताह बाद जाएँगे। इस बीच कोई जाकर ढप्पू की फीस जमा करवा के और रहने का स्थान बदल कर आयेगा। बाद में ढप्पू अपने रहने के नये स्थान पर ही जाएँगे। साथ ही ये भी तय किया गया कि पुलिस में रपट नहीं की जायेगी, दस हज़ार का क्या है गये सो गये। कुल मिलाकर ये कि सारी बातें ढप्पू के अनुकूल हो गईं। लेकिन फिर भी जो चीज़ हरगिज़ भूलने लायक नहीं हो उसे ढप्पू कैसे भुलाते। क़स्बे में भी हर पल ये खटका लगता रहता था कि कहीं से कोई आया। मोबाइल की सिम बदल चुके थे लेकिन सिम बदल देने से क्या एक जीते जागते आदमी की टोटल आइडेण्टिटी भी कहीं बदलती है और फिर यहाँ तो उस जीते जागते आदमी की उक्त आइडेण्टिटी बाक़ायदा एक वीडियो तथा एक स्टिल कैमरे में क़ैद भी कर ली जा चुकी है। ये वह दिन थे जब ढप्पू भूल चुके थे कि वे लगभग जवान हैं तथा कुछ ही दिनों पहले इस जवानी नाम की अवस्था को एक बेहतर अंजाम तक पहुँचाने के लिये प्राण-पण से लगे हुए थे। ये उदासी के दिन थे। उदासी जो भूरा रंग लेकर सुबह में बिखरती थी और दिन भर मटमैला पीला रंग लिये घिसट-घिसट कर बहती थी। ये दिन भी ढप्पू को देखने थे।

इस बार ढप्पू की शहर वापसी से पहले एक व्यक्ति ने जाकर पहले उनकी फीस वग़ैरह जमा करवाई, फिर शहर के दूसरे छोर पर की एक लगभग सभ्राँत कॉलोनी में उनके लिये नये ठिकाने की व्यवस्था की। जब पुराने ठिकाने से सामान नये ठिकाने पर पहुँच गया, तब ढप्पू रवाना हुए। चूँकि इस बार लूट कांड तथा ढप्पू के बाल-बाल बचने (...?) की कहानी के चलते सबकी सहानुभूति ढप्पू के साथ थी इसलिये ढप्पू ने लौटने से पहले गरम तथा नरम लोहे पर चोट करना ठीक समझा। चोट सही समय पर की गई थी सो फलीभूत भी हुई। फलीभूत इस रूप में कि ढप्पू को गोदी (लैप) के ऊपर (टॉप) रखने वाले सामान की प्राप्ति हो गई है। गोदी पर रखने वाला सामान? अरे...! इतनी आसानी से? चौंकिये मत ये गोदी में रखने वाले लैपटॉप की बात हो रही है। ढप्पू की छठी क़सम की भूमिका तैयार करने के लिये ऊपर वाले को कोई न कोई षडयंत्र तो करना ही था। आख़िर को सवाल उस क़सम का था जो फाइनल टच के रूप में सामने आने वाली थी।

छठवीं क़सम

शुरूआत के कुछ दिन तो शहर में फूँक-फूँक कर काटे, मगर फिर धीरे-धीरे ढप्पू वापस फार्म में आने लगे थे। इस फार्म की वापसी में लैपटॉप तथा उसके साथ लिये गये थमचू (इंटरनेट चलाने के लिये लगाया जाने वाला छोटा-सा अंगूठे के आकार का यूएसबी यंत्र) का भरपूर योगदान रहा। इन दोनों ने मिलकर उस अवसाद को छाँटने का काम किया। मगर ज़ाहिर-सी बात है कि इस छाँटने के काम के दौरान भी कुछ न कुछ भूमिका तैयार हो ही रही थी। ढप्पू ख़ुश थे कि एक विशाल संसार उनकी उँगलियों के सिरे पर आ चुका है और ऊपर वाला भी ख़ुश था कि अब ढप्पू को निबटाने के लिये उसके पास एक बड़ा संसार खुल गया था। इंटरनेट का वह सपनीला संसार जहाँ हर कोई, हर किसी को जानने तथा पहचानने का दावा तो करता है, लेकिन जानता कुछ नहीं है। जहाँ जो कुछ भी दिख रहा है उस पर ही विश्वास करके काम चलाना पड़ता है। जहाँ कई-कई आइडेण्टिटियों (रावण के तो दस ही मुँह थे) को अलग-अलग स्वतंत्र रूप से साधा जा सकता है और यही ढप्पू ने भी किया। ढप्पू कई जगहों पर विद्यमान थे। वे ऑरकुट पर थे, फेस बुक पर थे, ट्वीटर पर थे, ब्लॉग पर थे और जाने कहाँ-कहाँ थे। कहीं वे 'डेशिंग विश' (विश्वकर्मा का लघु संस्करण) थे तो कहीं 'रॉकिंग प्रल' (प्रह्लाद का शार्ट फार्म) थे। इस प्रकार से वे शायद अपने माता पिता को बताना चाह रहे थे कि यदि प्रह्लाद सिंह विश्वकर्मा को छोटा करना था तो उसके और भी कई भद्र तरीके थे, ढप्पू के अलावा। ढप्पू जहाँ भी थे, एक छद्म फोटो के साथ थे। वैसे वे डालना तो ओरिजनल ही चाहते थे लेकिन पिछली क़सम के घटनाक्रम के कारण नहीं कर पा रहे थे। ऑरकुट, जहाँ वे 'विश द पू' के नाम से विद्यमान थे वहाँ अपने इस नाम के चलते कुछ-कुछ लोकप्रिय भी हो रहे थे।

'लोकप्रियता को गूँथ कर दो वक़्त की रोटी नहीं बनाई जा सकती है।' ये बात ढप्पू को समझ में आ रही थी। असल में लोकप्रियता का जो सिलसिला था वह किसी संभावनामूलक परिणाम में ढलता दीख नहीं रहा था। जब भी कोई नई 'टुन्न' (फ्रेंड रिक्वेस्ट) आती तो ढप्पू की उत्सुकता उफान मारने लगती, मगर बाद में फिर वही घिसा पिटा-सा सब कुछ होता। 'विश द पू' को लग रहा था कि 'आये थे हरिभजन को ओटन लगे कपास'। जस्ट पिछली क़सम के दौरान 'विश द पू' को जो दुर्दांत अनुभव हुए थे, कुछ ये भी कारण था कि वे फूँक-फूँक कर क़दम रख रहे थे। ऊपर वाले को कोसते थे कि क्यों उनके जीवन में मोबाइल से पहले लैपटॉप नहीं आया।

कुछ क़फ़स की तीलियों से छन रहा है नूर-सा

और फिर एक दिन 'विश द पू' के पास एक 'टुन्न' आई। उधर से जो नाम आया था वह था 'बी स्वीट' अब इस 'बी' का जो कि मीठी थी कुछ भी मतलब हो सकता था। बहरहाल ये जो 'बी स्वीट थी' यह प्रोफाइल के हिसाब से फीमेल ही थी और अपने ही शहर की थी। हिसाब से इसलिये कि इंटरनेट की इस दुनिया में प्रोफाइल के हिसाब से ही चलना होता है। 'बी स्वीट' का फोटो बहुत सुंदर था, जो 'विश द पू' को बहुत मन भाया था। ऑरकुट पर 'बी स्वीट' का सम्पूर्ण अध्ययन कर लेने के बाद ढप्पू ने जी टॉक पर चैट का आमंत्रण फे्रंड रिक्वेस्ट के साथ भेजा। जो तुरंत ही स्वीकार हो गया। ठीक इसी स्थान पर दो बार के दूध के जले ढप्पू के कान खड़े हो गये। ख़ैर फिर भी प्रथम चैटिंग समागम का वार्तालापीय परिणाम कुछ इस प्रकार से रहा।

'आपका घर कहाँ है?'

'चूना भट्टी में और आपका?'

'विजय नगर में।'

'यहाँ मैं पढ़ने आई हूँ, अपने मामा के घर रहती हूँ।'

फिर कुछ देर तक इधर-उधर की बातें होती रहीं। (आप से तुम, तुम से तू होने लगे) फिर अचानक लड़के (ढप्पू) को कुछ ख़याल आया और उसने चैट बॉक्स में लिखा।

'तुम्हारी कुड़माई हो गई?'

'व्हाट कुडमाई?' चूँकि रोमन में हिन्दी लिखी गई थी जहाँ ड तथा ड़ में कोई फ़र्क नहीं होता, तो लड़की ने उसे कुडमाई समझा औश्र प्रथम दृष्टया कोई आपत्ति जनक शब्द माना।

लड़का कुछ सकपका गया। उसे लगता ग़लत प्रश्न हो गया। लड़की ने एक क्रोधित चेहरे (स्माइली) के साथ फिर से पूछा

'व्हाट कुडमाई?'

लड़के ने हिम्मत करके लिखा

'आर यू इन्गेज्ड?'

लड़की ने फिर एक आँखें चढ़ा हुआ चेहरा भेजा और उसके साथ लिखा

'शिट'

शिट कहते ही लड़की ऑफ लाइन होकर भाग गई और लड़का मुँह देखता रह गया।

इसके बाद 'विश द पू' और 'बी स्वीट' मिलते रहे, मिलते रहे जगह बदल-बदल कर। कभी जी टॉक पर, कभी ऑरकुट पर, तो कभी फ़ेसबुक पर। कभी ये उसके ब्लॉग पर टीप मारता तो कभी वह इसके ब्लॉग पर। लड़का हर बार पूछता 'आ यू इन्गेज्ड?' और उत्तर में वही 'शिट' मिलता, साथ में ऑफ लाइन का मैसेज भी।

अब मेरे पास तुम आई हो तो क्या आई हो

फिर भी एक रहस्य जो ढप्पू को संशय में डाल रहा था, वह ये था कि लड़की अभी तक 'ईओसीएन' (एक्सचेंज ऑफ सेल नंबर्स) के लिये तैयार नहीं थी और ना ही वीडियो या वाइस चैटिंग के लिये। इन सब के लिये उसका जवाब था कि वह अभी इन सबके लिये तैयार नहीं है।

'आर यू इन्गेज्ड?' चैट बॉक्स में छेड़ने के लिये फिर से लिखा लड़के ने।

उधर से मुस्कुराता हुआ स्माइली आया और साथ में लिखा हुआ आया

'यस'

और फिर ऑफ लाइन।

लड़के का दिमाग़ भन्ना गया। उसने चार पाँच ब्लॉगों पर जाकर भद्दी-भद्दी बेनामी टिप्पणियाँ कीं। एक ब्लॅाग पर चल रही साहित्यिक चर्चा के फटे में अपनी बेनामी टाँग अड़ाई। किसी के फेस बुक के स्टेटस पर एक बेफिज़ूल-सा वाहियात कमेंट किया। किसी के स्टेटस में लगी हुई कविता को घटिया और बकवास कहा। तब कहीं जाकर लैपटाप को शट डाउन किया।

अगले दिन दोनों फिर चैट बॉक्स पर थे। उसी प्रकार विरचुअल टँगड़ी में टँगड़ी डाले बतियाते हुए।

'क्या वह सच था?' विश द पू

'क्या?' बी स्वीट

'वही जो तुमने कहा था।' विश द पू

'मैंने कहा था?' बी स्वीट

'तुमने कहा था।' विश द पू

'क्या?' बी स्वीट

'दैट यू आर इन्गेज्ड।' विश द पू

'ओ.।! दैट।' एक स्माइली। बी स्वीट

'इज़ दैट सच?' विश द पू

'शिट' ऑफ लाइन की टुन-टुन। लड़की जब भी शिट कह कर भागती थी लड़के को बहुत मज़ा आता था।

यहाँ पर ढप्पू को लड़का इसलिये कहा जा रहा है दरअसल में इंटरनेट की उस दुनिया में आप एक 'एम' (मेल) या 'एफ' (फीमेल) होते हैं। चूँकि ढप्पू को अभी आदमी नहीं कह सकते इसलिये लड़का कहा जा रहा है। वहाँ पर चूँकि ढप्पू, ढप्पू न होकर एक विरचुअल 'विश द पू' हैं इसलिये उन्हें हम विरचुअल लड़का मान कर यह सम्बोधन दे रहे हैं।

वो नज़रों ही नज़रों में सवालात की दुनिया

ढप्पू के लिये कुछ-कुछ होने जैसा हो रहा था। वह कुछ-कुछ जो हर बार होते-होते हाथ से फिसल जाता था। चैटिंग धीरे-धीरे और खुली और खुली होती जा रही थी। ढप्पू आहिस्ता-आहिस्ता स्पेस जनरेट करते जा रहे थे। हालांकि बातें अभी भी टटोल-टटोल कर ही कर रहे थे। उधर से अर्थात बी स्वीट की तरफ़ से कभी-कभी अचानक कोई ऐसा बोल्ड वाक्य आता था जो चौंका जाता था।

'तुम्हारी कुड़माई हो गई?' विश द पू

'हो भी गई हो तो क्या फ़र्क़ पड़ता है? आइ बिलीव इन द एन्जायमेंट ऑफ ईच एंड एव्हरी मूमेंट ऑफ लाइफ।' बी स्वीट

'एन्जायमेंट...?' विश द पू

'यस एन्जायमेंट, प्रेम व्रेम कुछ नहीं होता, ऑल रबिश। सब फ़िज़ूल की बातें हैं। जो है वह शरीर है। आनंद शरीर देता है, प्रेम नहीं।' बी स्वीट

ढप्पू के माथे पर सल भी पड़ीं और होंठ भी गोल हुए। उन्होंने चैट बॉक्स में केवल एक शब्द लिखा।

'तो...?' यहाँ प्रश्नवाचक चिह्न का अपना महत्त्व था।

'तो क्या? मिलोगे तो पता चलेगा।' बी स्वीट

'क्या...?' ढप्पू प्रश्नवाचक चिह्नों से खेल रहे थे।

'आय एम ए किलर।' बी स्वीट

इसके बाद चैट थोड़ी-थोड़ी दूसरे प्रकार की होने लगी। दोनों पक्ष भाँति-भाँति के प्रतीकों के माध्यम से अपनी भड़ास निकाल रहे थे। लेकिन बात वही हो रही थी जो होनी चाहिए अर्थात 'मारो कहीं, लगे वहीं'। ढप्पू ने उत्साहित होकर वाइस चैट की रिक्वेस्ट भेजी लेकिन उधर से उत्तर आया।

'नो वाइस चैट, जो बात मुँह से कहने में संकोच होता है वह बात लिख कर बड़े आराम से हो जाती है।' बी स्वीट

'के' विश द पू

'तुम विजय नगर में कहाँ रहते हो?' बी स्वीट

'पैट्रोल पम्प के पीछे।' विश द पू

'पीछे कहाँ? कोई घर-वर भी तो होगा।' बी स्वीट

'शारदा अपार्टमेंट, सेकेंड फ्लोर, रूम नंबर फाइव।' अपना असली पता देने से पहले कुछ देर तक विचार किया ढप्पू ने, मगर चूँकि अपने घर की कोई क़सम नहीं थी सो आख़िरकार पता दे दिया।

'रूम...?' बी स्वीट

'हाँ एक रूम लैट-बाथ है, हॉस्टल की तरह से बनाया है। वैसे ये पता किसलिये पूछा जा रहा है?' विश द पू

'बताया ना, आय एम किलर, जिसका ख़ून करना है उसका पता तो मालूम होना ही चाहिये।' बी स्वीट

'तो...?' विश द पू

'तो क्या...?' बी स्वीट

'यू बैटर नो दैट व्हाट इज द मीनिंग ऑफ दिस तो।' विश द पू

'आय डोण्ट नो।' बी स्वीट

'...?' फिर प्रश्नवाचक चिह्न।

कुछ देर तक ख़ामोशी रही फिर ढप्पू ने ही लिखा।

'तो...?' विश द पू

'कहाँ ...?' बी स्वीट

'विजय नगर, मेरे रूम पर।' विश द पू

'तुम्हारे रूम पर?' बी स्वीट

'और क्या? किलर को यदि ख़ून करना है तो घर तक तो आना ही पड़ेगा।' विश द पू

'लेकिन वहाँ?' बी स्वीट

'कोई नहीं होगा, शाम पाँच के बाद पूरा फ़्लोर सुनसान हो जाता है।' विश द पू

और इसके बाद समय आदि तय होने लगा। समय तय हो जाने के बाद बी स्वीट ने एक स्माइली भेजा जिसमें गाल शर्म से लाल हो रहे थे। विश द पू ने भी तुरंत एक शैतान के सींग लगा हुआ स्माइली भेज दिया।

देखना जज़्बे मुहब्बत का असर आज की रात

पिछली क़समों से सबक़ लेते हुए ढप्पू ने सारा कार्यक्रम अपने रूम पर ही आयोजित किया था। जिस हॉस्टल टाइप के अपार्टमेंट में वे रहते थे वह अभी नया ही बना था, इसलिये अभी अधिकांश रूम ख़ाली पड़े थे, जो धीरे-धीरे भरा रहे थे। शहर का दूसरा सिरा होने के कारण पढ़ने वाले बच्चे यहाँ रहना पसंद नहीं करते थे, क्योंकि यहाँ से आना जाना बहुत ज़्यादा समय खाता था। लेकिन पिछली क़सम ने ढप्पू को इतनी दूर मजबूरी में ला पटका था। जिस सेकेंड फ़्लोर पर ढप्पू रहते थे उस पूरे फ़्लोर पर केवल दो और रूम ही भरे हुए थे। दोनों किसी समाचार पत्र में काम करते थे, शाम पाँच बजे के गये रात दो ढाइ बजे लौटते थे। इसी कारण रात आठ बजे का तय हुआ था। वह सात से आठ कोचिंग करके सीधे यहाँ आने वाली थी और यहाँ कुल आधा घंटे रुक कर लौट जाना था। आधा घंटा...? बस ...? ढप्पू को पहले तो लगा कि बहुत कम है समय, मगर फिर सिर को झटक दिया। दादा कि याद आ गई, जो यज्ञोपवीत संस्कार करने से पहले मंत्र-वंत्र पढ़ने में विश्वास नहीं रखते थे। पलंग पर बिछे गद्दे का कोना उठाकर सुरक्षा उपकरण की जाँच की, वहीं रखा था, ताक़ि आसानी से हाथ में आ जाये।

साढ़े सात बजे ढप्पू बाथरूम में जाकर पाँचवी बार बॉडी स्प्रे, माउथ स्प्रे तथा आफ़्टर शेव लगाकर आ गये। सरापा महकते हुए कमरे में लौटे। पूरा कमरा भाँति-भाँति की कंपनियों द्वारा बनाई गई भाँति-भाँति की ख़ुश्बूओं से महमहा रहा था। घड़ी की सुइयाँ धीरे-धीरे खिसक रहीं थीं और आठ बजने की स्थिति की तरफ़ बढ़ रहीं थीं।

आठ बजने में पाँच मिनिट, ढप्पू ने दरवाज़े की कुंडी खोल दी और उसे उढ़का दिया। दिल धीरे-धीरे शरीर के दूरस्थ द्वार में उतर कर धुक-धुक कर रहा था। ये पता ही नहीं चल रहा था कि ये धुक-धुक दिल कर रहा है कि शरीर का दूरस्थ द्वार? घड़ी की सुइयाँ सरकती जा रहीं थीं, आठ बजकर पाँच मिनिट हो चुके थे। ढप्पू का गला भी सूखने लगा था, कुछ पसीना वसीना भी आ रहा था, जब आठ बजकर आठ मिनिट हो गये तो ढप्पू पर निराशा छाने लगी। वे उठ कर दरवाज़े की तरफ़ बढ़े, जैसे ही उन्होंने दरवाज़ा खोला, वैसे ही ।

ख़ुश थे हम अपनी तमन्नाओं का ख़्वाब आयेगा

वो चार लड़के थे। जिनकी नाक और मुँह पर रूमाल बँधे हुए थे। हथियार के नाम पर उनके पास एक बेसबाल का बैट था। कद काठी से बाईस-तेईस की उम्र के कॉलेज के लड़के लग रहे थे। बात की बात में उन्होंने पूरी स्थिति नियंत्रण में ले ली थी। ढप्पू जब तक चीखते चिल्लाते तब तक बहुत देर हो चुकी थी। आठ बज कर पन्द्रह मिनिट होने तक कमरे की स्थिति ये थी कि ढप्पू के मुँह पर, हाथ पर टेप चिपका था और वे पलंग पर पड़े थे। एक लड़का बेसबाल का बैट लेकर उनके सिर पर खड़ा था और बाक़ी के तीनों लड़के कमरे की तलाशी ले रहे थे। ढप्पू का लैपटॉप, मेाबइल, घड़ी, आइपॉड सहित जो कुछ भी ले जाने योग्य सामान मिल रहा था उसे वे अपने साथ लाये गये बैगों में भरते जा रहे थे। यहाँ तक की बॉडी स्प्रे, परफ़्यूम, जींस, टी शर्ट, ब्रांडेड जूते सब कुछ वे बैगों में डाल चुके थे। सब कुछ में वे सात हज़ार रुपये भी थे जो ढप्पू के पास नक़द रखे थे। आठ बजकर पच्चीस मिनिट पर हाल ये था कि पढ़ने की किताबें छोड़कर सब कुछ वे लोग बैगों में डाल चुके थे।

सारा सामान समेट कर जब वे चलने को हुए तो उनमें से एक बोला 'यार कुछ मीठा हो जाये?' (भेस में लैला के मजनूं फिर है निकला देखिये) ।

'साले, तू नहीं सुधरेगा, तेरी ये आदत फँसवा देगी किसी दिन हम सबको।' एक ने उसके कंधे पर हाथ मारते हुए कहा।

'यार, हर बार कहाँ कहता हूँ मैं? बहुत दिनों बाद तो ठीक ठाक पीस हाथ लगा है। प्लीज़ यार।' उसने कुछ मनोव्वल के अंदाज़ में कहा।

'चल-चल, सेण्टी डॉयलाग मत मार, जल्दी निबट के आ, हम दोनों बाहर खड़े हैं।' ये शायद लीडर था उनका 'और सुन, तू यहीं खड़ा रह इसके माथे पर, चूँ-चपड़ करे तो देना घुमा के सर पर।' बेसबाल का बैट लिये खड़े लड़के से कहा उसने। फिर दरवाज़े की तरफ़ बढ़ गया। अचानक वापस लौटा और ढप्पू का गाल थपथपा कर बोला 'क्यों चिकने, कैसी लगी बी स्वीट?' विश द पू कसमसा कर रह गया।

एंड द सेम टू सेम हिस्ट्री रिपिटेड, अगेन, अगेन एंड अगेन, ओ गॉड व्हाय यू आर सो क्रूअल फार दिस पुअर चाइल्ड

नौ बजने तक कमरा घोर सन्नाटे में डूब चुका था। ढप्पू ने जैसे तैसे करके हाथों को छुड़ाया, मुँह पर लगा टेप हटाया। कंधा बुरी तरह से दर्द कर रहा था, जहाँ पर बेसबाल के बैट का एक प्रहार बाद की प्रक्रिया के दौरान किया गया था, जब ढप्पू ने प्रतिरोध जनरेट करने की कोशिश की थी।

लड़खड़ाते हुए ढप्पू दरवाज़े की तरफ़ बढ़े, उसे खोलने की कोशिश की, लेकिन वह बाहर से बंद था। ढप्पू को नानी की कहावत 'लेने गई पूत, दे आई खसम' अंतिम बार याद आई। बंद दरवाज़े को पकड़ कर ढप्पू ने छठवीं (तीसरी) और फाइनल क़सम खाई 'न घर में, न बाहर, न दिन में, न रात में, न सुब्ह, न शाम, न नर, न नारी, न मोबाइल से, न लैपटॉप से, न इस तरीक़े से, न उस तरीक़े से, किसी भी हालत में, किसी भी प्रकार से, कभी नहीं, कभी नहीं, कभी नहीं ।' क़सम खाते ही ढप्पू के पैर कंपकंपाये और वे वहीं गिर पड़े। छठवीं तथा अंतिम क़सम खाई जा चुकी थी।

ग़म का फ़साना सुनने वालों अख़िर-ए-शब आराम करो

हालाँकि कहानी तो केवल तीन क़समों की है इसलिये तीनों क़समों के तुरंत बाद ख़त्म हो जानी चाहिये, लेकिन केवल जानकारी के लिये बाद की कहानी का सार ये कि इस बार पूरा मामला पुलिस तक पहुँचा। इस बार ढप्पू भी अस्पताल पहुँचे। पूरे मामले का परिणाम ये निकला कि इंजीनियरिंग कॉलेज के लड़कों की इस प्रकार की कई गैंग हैं। ये नेट पर लड़कियों के नाम से प्रोफ़ाइल तथा आइडी बनाकर लोगों को फँसाते हैं और फिर उनके साथ लूट पाट करते हैं। अभी तक किसी भी मामले में कोई भी पकड़ा नहीं गया है। मामला मसालेदार था इसलिये मीडिया में भी उछला और ख़ूब उछला। ढप्पू की बदक़िस्मती से उस दिन कोई प्रिंस गड्ढे में नहीं गिरा, कहीं सुनामी नहीं आई जिससे ढप्पू का मामला इग्नोर हो सके। एक दो चैनलों ने तो पूरी घटना का नाट्य रूपांतरण भी दिखाया। कुल मिलाकर पानी को मचा कर कीचड़ बनाने तक मीडिया मामले को मचाता रहा अपनी ही स्टाइल में। लूट का माल नहीं मिलना था नहीं मिला, लड़के पकड़ में नहीं आने थे नहीं आये, मामला धीरे-धीरे शांत होता चला गया और ढप्पू उनका क्या हुआ, वे किस हाल में हैं?

अब अक्सर चुप-चुप से रहे हैं, यूँ ही कभू लब खोले हैं

पहले फ़िराक़ को देखा होता, अब तो बहुत कम बोले हैं