चौदहवाँ प्रकरण / विश्वप्रपंच / एर्न्स्ट हेक्केल / रामचंद्र शुक्ल

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चौदहवाँ प्रकरण -प्रकृति की अद्वैत सत्ता


परमतत्व के नियम द्वारा सिद्ध होनेवाली सबसे बड़ी बात यह है कि एक प्रकार की प्राकृतिक शक्ति परिणाम द्वारा दूसरे प्रकार की प्राकृतिक शक्ति का रूपधारणा कर सकती है। शब्द और ताप, प्रकाश और विद्युत् आदि शक्तियाँ एक दूसरे के रूप में परिवर्तित की जा सकती हैं। वे एक ही मूलशक्ति के भिन्न भिन्न रूप मात्र हैं। इस प्रकार सब प्राकृतिक शक्तियों की मौलिक एकता या अद्वैतता सिद्ध होती है। यह सिद्धांत भौतिक विज्ञान और रसायनशास्त्र में, जहाँ तक उनका सम्बन्ध जड़ पदार्थों से है, सर्वस्वीकृत है।

पर सजीव सृष्टि के सम्बन्ध में यह बात नहीं है। शरीर के बहुत से व्यापारों का तो भौतिक और रासायनिक शक्ति के द्वारा, प्रकाश और विद्युत् के प्रभाव से, होना प्रत्यक्ष रूप से बतलाया जा सकता है। ये व्यापार भौतिक और रासायनिक कारणों से होते हैं, इसमें किसी को कोई सन्देह नहीं। पर कुछ व्यापार ऐसे हैं, विशेषकर मनोव्यापार और चेतना, जिनके यदि भौतिक और रासायनिक कारण बतलाए जाते हैं तो लोग विरोध करते हैं। विरोध भी ऐसा वैसा नहीं, बड़ा गहरा। पर आधुनिक विकाससिद्धांत ने सिद्ध कर दिया है कि इन दोनों कोटि के व्यापारों में जो भेद प्रतीत होता है वह वास्तविक नहीं है। अब यह निश्चित हो गया है कि शरीर के समस्त व्यापार क्या चलना फिरना, क्या सोचना विचारना, उसी प्रकार भौतिक नियमों के वशवर्ती हैं जिस प्रकार जड़ पदार्थों के व्यापार।

इस प्रकार प्रकृति की अद्वैतता सिद्ध हो गई है और द्वैतभाव का खंडन हो गया है। 'जगत् की मूल अद्वैतता', जड़ सृष्टि और चेतन सृष्टि की वास्तविक अभिन्नता, उनके व्यापारों का द्रव्य और गतिशक्ति के विविध रूपों में अन्तर्भाव दिखाकर, अपने कई ग्रन्थों में मैं सिद्ध कर चुका हूँ। अधिकांश वैज्ञानिकों ने इसे स्वीकार कर लिया है, पर कई तरफ से इसके विरोध का भी प्रयत्न किया गया है और सृष्टि के इन दोनों विभागों जड़ और चेतन में तत्वभेद सिद्ध करने की प्रवृत्ति दिखाई गई है। इस द्वैतभाव के बड़े भारी समर्थकों में से उदि्भद्वेता रेन्के है जिसने कहा है कि 'जड़सृष्टि में तो केवल भौतिक और रासायनिक शक्तियों ही के द्वारा सब व्यापार होते हैं पर सजीव सृष्टि में चेतन शक्तियाँ कार्य करती हैं।' उनके अनुसार जड़ सृष्टि द्रव्य और भौतिक गतिशक्ति के नियमाधीन है पर चेतन सृष्टि नहीं। इस कथन पर विचार करने के पहले दूसरे दो सिध्दान्तों का उल्लेख कर देना चाहिए जो वैज्ञानिकों ने सजीव सृष्टि के सम्बन्ध में स्थिर किए हैं। इनमें एक है अंगारक (कार्बन) सिद्धांत और दूसरा है स्वत: उत्पत्ति का सिद्धांत।

शारीरिक रसायन ने अनेक विश्लेषणों के उपरान्त ये पाँच बातें स्थिर की हैं-

1- सजीव पिंडों में वे ही मूल द्रव्य पाए जाते हैं जो जड़ सृष्टि में पाए जाते हैं।

2- मूलद्रव्यों के जिन मिश्रणों से सजीव पिंड बनते हैं और जिनके कारण अनेक प्रकार के सजीव व्यापार होते हैं वे शरीर धातुओं के कललरसरूप यौगिक द्रव्य हैं।

3- शरीरव्यापार एक भौतिक और रासायनिक क्रिया है जो इन कलल धातुओं के द्रव्यों के गुण और परिणाम के आधार पर होती हैं।

4- अंगारक या कार्बन ही वह मूल द्रव्य है जिसमें कुछ और मूलद्रव्यों अम्लजन, उद्जन, नत्राजन और गन्धक आदि के विशेष मात्र में मिश्रित होने से यौगिक कललधातुएँ बनती हैं।

5- अंगारक या कार्बन से बनी हुई इन यौगिक कलल धातुओं में और मूलद्रव्यों के रासायनिक संयोग से बने दूसरे यौगिक द्रव्यों में यह विशेषता होती है कि इनके अणुओं का मेल अत्यंत जटिल होता है और ये अस्थिर तथा मधु की तरह गाढ़े रस की होती हैं।

इन पाँच बातों के आधार पर अंगारक सिद्धांत की प्रतिष्ठा हुई जो इस प्रकार है-'अंगारक से अत्यंत जटिल मिश्रण के द्वारा बनी हुई इन यौगिक कलल धातुओं के द्रवत्व और विश्लेषणशीलत्व आदि गुण ही उन विशिष्ट गतियों के एकमात्र कारण हैं जो जीवधारियों में देखी जाती हैं।' इस अंगारक सिद्धांत का कहीं कहीं विरोध तो किया गया पर इससे अधिक उपयुक्त कोई और सिद्धांत स्थिर नहीं हुआ। ईधर मूल घटकों के जीवन व्यापार का जो अधिक अन्वीक्षण किया गया और कललरस की रासायनिक और भौतिक विशेषताओं का जो पता लगा, उससे इस सिद्धांत का समर्थन अच्छी तरह हुआ है।

अब स्वत:उत्पत्ति1 को लीजिए। 'स्वत:उत्पत्ति' से लोग कई अर्थ लेते हैं, इससे उसके सम्बन्ध में बहुत झगड़ा है। अत: इसका अर्थ विशिष्ट और स्पष्ट हो जाना चाहिए। स्वत: उत्पत्ति से अभिप्राय है जीवसृष्टि के आदि में जड़ अंगारक द्रव्यों से

1 ए बायोजेनेसिस वह उत्पत्ति जो जनक पिंड से छूटकर पृथक् होनेवाले अंश की वृद्धि द्वारा जैसा कि समस्त प्राणियों में होता है, न हो, किन्तु जड़ द्रव्य से आप से आप हो।

सजीव कललरस का प्रथम प्रादुर्भाव। जीवसृष्टि के इस आंरभ की दो अवस्थाएँ कही जा सकती हैं- प्रथम अंगारक घटित द्रव्यों से कललरस की योजना और द्वितीय कललरस का अलग अलग आदिम अणुजीवों में विभाग। इस प्रकार का स्वयं भूतवाद विकास सिद्धांत के अनुसार अवश्य मानना पड़ता है, और वैज्ञानिकों ने माना भी है। इसे न मानना जीवोत्पत्ति को 'ईश्वर की लीला' या 'खुदा की करामात' मानना है।

स्वत:उत्पत्ति मान लेने पर फिर वह मानने की आवश्यकता नहीं रह जाती कि सृष्टि की रचना किसी उद्देश्य रखनेवाले ने अपने उद्देश्य के अनुसार की है। जगत् या प्रकृति से भिन्न कोई उद्देश्य रखनेवाला है इस द्वैतभाव की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। डारविन ने अपने 'प्राकृतिक ग्रहण सिद्धांत' का एक ऐसा सूत्र हमारे हाथ में दे दिया है जिसके सहारे हम चेतन सृष्टि में जो अनेक प्रकार की क्रम व्यवस्था दिखाई पड़ती है उसके भौतिक और प्राकृतिक हेतु निरूपित कर सकते हैं। अब किसी उद्देश्य रखनेवाली अप्राकृतिक शक्ति को मानने की जरूरत बाकी नहीं है। फिर भी कुछ लोग उसे अब तक मानते चलते जाते हैं। तत्वज्ञवर कांट ने उपादान कारण और निर्मित्त कारण में जैसा गूढ़ भेद किया है वैसा और किसी दार्शनिक ने नहीं। इसी भेद के अनुसार उसने जगद्विधान की व्याख्या की है। जगत् के सम्पूर्ण विस्तारजाल की व्याख्या उसने न्यूटन के निर्धारित भौतिक नियमों के अनुसार की है। उसका ज्योतिष्क नीहारिका सिद्धांत न्यूटन के आकर्षण सिद्धांत पर स्थित है। फ्रांसीसी ज्योतिषी लाप्लेस ने कांट के सिद्धांत की पुष्टि गणित की रीति से की। फ्रांस के बादशाह ने उससे पूछा कि आपने 'अपने सृष्टि निरूपण में सृष्टि के कर्ता और पालक ईश्वर को कहाँ स्थान दिया है'? उसने बड़ी सच्चाई के साथ जवाब दिया कि 'महाराज, अपने निरूपण में मुझे उसके मानने की जरूरत नहीं पड़ी है'। अत: जगदुत्पत्ति विज्ञान में भी और दूसरे जड़ पदार्थ सम्बन्धी विज्ञानों के समान ईश्वर को मानने की आवश्यकता नहीं पड़ी है। उसकी भी वैज्ञानिक व्याख्या भौतिक नियमों के अनुसार हुई है।

आपसे आप होनेवाले भौतिक विधानों के द्वारा ही हम प्राकृतिक व्यापारों के यथार्थ कारणों अर्थात समवायिकारणों का निरूपण कर सकते हैं और यह बतला सकते हैं कि सब व्यापार द्रव्य की अचेतन और अन्धा प्रवृत्तियों के द्वारा होते हैं। कांट ने भी एक जगह साफ कहा है कि 'भूतों के इस स्वत:प्रेरित विधान की व्याख्या के बिना कोई विज्ञान को विज्ञान नहीं कहा जा सकता। मनुष्य बुद्धि में व्यापारों के भौतिक हेतु निरूपित करने की अपार सामर्थ्य है।' पर पीछे जब कांट सजीव सृष्टि के जटिल व्यापारों की ओर आया तब उसने कह दिया कि भौतिक हेतु पर्याप्त नहीं है, इन व्यापारों की व्याख्या के लिए हमें निमित्त कारणों का सहारा लेना पड़ता है और यह मानने के लिए विवश होना पड़ता है कि ये व्यापार किसी उद्देश्य रखनेवाली विधायिनी शक्ति की प्रेरणा से होते हैं। बुद्धि की भौतिक हेतु निरूपण की शक्ति वहाँ परिमित हो जाती है। जीवधारियों के विविध व्यापारों की व्याख्या करने में कुछ दूर तक तो वह चलती है पर बहुत से व्यापार, विशेषत: मानसिक, ऐसे हैं जिनके लिए हमें निमित्त कारणों का आरोप करना पड़ता है; यह मानना पड़ता है कि वे व्यापार उद्देश्य रखने वाली स्वतन्त्र शक्ति के द्वारा होते हैं। किसी पदार्थ के प्राकृतिक उद्देश्य को समझने के लिए स्वयंभू भौतिक विधान को उद्दिष्ट विधान के अधीन मानना पड़ता है, कांट ने अन्त में यही प्रतिपादन किया। जीवधारियों के विलक्षण कौशल के साथ बने हुए अवयवों और उनके व्यापारों की व्यवस्था को देख कांट को उनका 'शुद्ध और भौतिक हेतु निरूपित करना असम्भव प्रतीत हुआ। उसने कहा कि शुद्ध भौतिक और प्राकृतिक सिध्दान्तों के आधार पर ही किसी सजीव पिंड और उसकी अन्तर्वृत्ति अर्थात अन्त:करण व्यापार का वास्तविक तत्व समझाना तो दूर रहा, समाधान पूर्वक समझना भी कठिन है। किसी मनुष्य की यह आशा दुराशामात्र है कि प्राणिविज्ञान में भी कोई न्यूटन पैदा होगा जो एक क्षुद्र तृण तक की उत्पत्ति को जड़ प्रकृति का ही कार्य सिद्ध कर देगा; जो यह प्रमाणित कर देगा कि भिन्न भिन्न जीवों की रचना एक सोचे समझे हुए ढाँचे के अनुसार नहीं बल्कि आप से आप भौतिक नियमों के अनुसार होती है'। बतलाने की जरूरत नहीं कि कांट के 70 वर्ष पीछे डारविन के रूप में 'सजीवसृष्टि विज्ञान का न्यूटन' पैदा हुआ और उसने उस बात को कर दिखाया जिसे कांट ने असम्भव बतलाया था।

जबसे न्यूटन ने आकर्षण सिद्धांत का प्रतिपादन किया और कांट, लाप्लेस आदि ने जगत् की योजना और उत्पत्ति को स्वत: क्रियामाण भूतों का विधान सिद्ध कर दिया तबसे जड़सृष्टि सम्बन्धी समस्त विज्ञान शुद्ध भौतिक हो गए और उनमें ईश्वर या भूतातीत शक्ति मानने की आवश्यकता नहीं रह गई। ज्योतिष, जगदुत्पत्ति शास्त्र, भूगर्भशास्त्र, पदार्थविज्ञान, रसायन इत्यादि सब में व्यापारों की व्याख्या नपे-तुले भौतिक नियमों के अनुसार होती है। किसी व्यापार को ईश्वरकृत कह देने की चाल अब उनमें नहीं है। जड़ सृष्टि में जो कुछ दिखाई पड़ता है वह किसी की इच्छानुरूप रचना है ऐसा इन विज्ञानों में कहीं नहीं प्रतिपादित किया जाता। 'इच्छानुरूप रचना' का भाव ही जड़ सृष्टि सम्बन्धी विज्ञान के क्षेत्र से उठ गया। अब कोई वैज्ञानिक इस बात की जिज्ञासा करने नहीं जाता कि अमुक व्यापार जो जड़ सृष्टि में देखा जाता है उसका 'उद्देश्य' क्या है। अब कोई वैज्ञानिक यह विश्वास नहीं रखता कि ईश्वर या किसी उद्देश्य रखनेवाली शक्ति ने कभी किसी समय सृष्टि का सारा ढाँचा सोचकर जगत् का विधान करनेवाले नियमों की सृष्टि की थी और उन्हें अपनी इच्छा के अनुसार बराबर चला रहा है। इस प्रकार के पुरुषविशेष या कर्ता के स्थान पर अब 'प्रकृति के अखंड और शाश्वत नियम' ही माने जाते हैं।

पर सजीव सृष्टि को देखकर 'किसी की इच्छानुरूप रचना' का भ्रम अवश्य होता है। जीवधारियों के शरीर की बनावट और अंगव्यापारों को देखने से यह प्रतीत अवश्य होता है कि उनकी रचना सोचे विचारे हुए उद्देश्य के अनुसार हुई है। जंतुओं और पेड़-पौधों के अवयव उसी प्रकार बैठाए हुए पाए जाते हैं जिस प्रकार किसी मनुष्य की बनाई हुई कल के पुरजे बैठाए हुए होते हैं। जीवित अवस्था में इन अवयवों के व्यापारों से विशेष उद्देश्यों की पूर्ति उसी प्रकार होती दिखाई पड़ती है जिस प्रकार कल के बनाए हुए पुरजों की चाल से। अत: ज्ञान की प्रारम्भिक अवस्था में यही ख्याल हो सकता था कि सृष्टि का कोई पूर्ण ज्ञानमय कर्ता है जिसने प्रत्येक पेड़-पौधो और जीव-जंतु के ढाँचे को खूब सोचसमझ कर चतुराई के साथ बनाया है। पहले तो इस सर्वशक्तिमान् सृष्टिकर्ता की भावना पुरुष विशेष के रूप में थी। जब तक वह नराकार समझा जाता था, आँखों से देखनेवाला, कानों से सुननेवाला, हाथों से करनेवाला माना जाता था, तब तक तो उसका स्वरूप थोड़ा बहुत ध्यान में आ भी जाता था। पर पीछे जब बुद्धिमान् बननेवाले लोगों ने उसको निराकार बताया और वे 'बिनु पद चलै, सुनै बिनु काना। कर बिनु कर्म करै बिधि नाना' कहने लगे तब तो उसका ध्यान में आना ही असम्भव हो गया। वैज्ञानिकों ने ईधर यह चाल पकड़ी कि वे पुरुष विशेष के स्थान पर एक 'शक्तिविशेष' कहने लगे। शरीरव्यापारविज्ञान में बहुत से लोगों ने चेतन सर्वशक्तिमान् कर्ता के स्थान पर एक अचेतन विधायिनी शक्ति का आरोप किया जो भौतिक गतिशक्ति से भिन्न और परे होने पर भी उसे अपने अधीन कार्य में नियोजित करती है। शरीरव्यापारविज्ञान में यह 'शक्तिवाद' बहुत दिनों तक चलता रहा। सन् 1833 में मूलर ने इस 'शक्तिवाद की जड़ हिलाई। उसने अनेक प्रकार की परीक्षाओं द्वारा प्रमाणित किया कि मनुष्य तथा और जीवों के शरीर के अधिकतर व्यापार भौतिक और रासायनिक नियमों के अनुसार होते हैं और उनमें बहुत से तो ऐसे हैं जिनके विषय में यह बतलाया जा सकता है कि वे किस हिसाब से होते हैं। उसने रक्तसंचालन, पाचन और खाए हुए द्रव्य के शरीर की धातु में परिणत होने की प्रक्रिया से लेकर संवेदनसूत्रों जिनसे शरीर में संवेदना होती है, और पेशियों जिनसे अंगों में गति होती है, की गति तक को भौतिक और रासायनिक क्रिया विधान सिद्ध कर दिया। प्रजनन और मानसिक व्यापार अर्थात विचार, चिन्तन आदि ये ही दो बातें ऐसी रह गईं जिनका समाधान बिना कोई शक्ति विशेष माने शुद्ध भौतिक कारणों के द्वारा न हो सका। पर मूलर की मृत्यु के उपरान्त ही डारविन का प्रसिद्ध ग्रंथ प्रकाशित हुआ जिसमें ग्रहण सिद्धांत के द्वारा यह दिखला दिया गया कि शरीरयोजना में जो व्यवस्था क्रम दिखाई पड़ता है वह भौतिक कारणों ही से उत्पन्न होता है। डारविन ने अपने ग्रहणसिद्धांत द्वारा भिन्न भिन्न ढाँचे के जीवों के बनने का प्राकृतिक विधान और कारण समझा दिया। उसने प्रतिपादित किया कि 'जीवन प्रयत्न' ही ऐसी मूल वृत्ति है जिसके अधीन एक ढाँचे के शरीर से दूसरे ढाँचे के शरीर का क्रमश: विकास होता है। जिस स्थिति या अवस्था के बीच जीव रहते हैं वह परिवर्तनशील होती है। चारों ओर की स्थिति के बदलने से कुछ जीवों में कुछ अवयवों की विशेषताएँ उत्पन्न होती हैं जो उस परिवर्तित स्थिति के उपयुक्त होती हैं। फिर उन जीवों की जो सन्तति होती है उसमें भी वे ही विशेषताएँ रहती हैं। इस प्रकार नए ढाँचे के जंतुओं का विकास होता है जो अपने पूर्वज जंतुओं से भिन्न होते हैं। इसी प्राकृतिक नियम के अनुसार एक सादे ढाँचे के मूल अणुजीव से भिन्न भिन्न ढाँचों के जीव क्रमश: उत्पन्न हुए हैं। अत: क्रिया के अनुकूल ढाँचे बिना किसी उद्देश्य रखनेवाले के केवल भूतों की जड़क्रिया से किस प्रकार उत्पन्न हो सकते हैं, लोग जो यह पूछा करते थे उसका उत्तर मिल गया। अब तो जीवों के अत्यंत जटिल और सूक्ष्म विधानों की व्याख्या 'व्यापार के अनुकूल शरीर की आपसे आप उत्पत्ति' मानकर की जाती है। अब भूतों से परे किसी उद्देष्टा या विधायिनी शक्ति को मानने की आवश्यकता नहीं है।

पर ईधर कुछ दिनों से भूतातीत 'विधायिनी शक्ति' का भूत फिर कुछ लोगों के सिर पर सवार हुआ है। कई एक जीवविज्ञानियों ने उसकी चर्चा नए ढंग से चलाई है। उदि्भद्वेता रेनके ने इस विषय में विशेष प्रयत्न किया है। उसने सजीव सृष्टि के विधान को प्रेरणा करनेवाली एक शक्ति का कार्य बतलाया है और पौराणिक (बाइबिल की) सृष्टिकथा आदि के मण्डन की चेष्टा की है। दूसरे नए शक्तिवादियों ने एक पुरुषविशेष या कर्ता माना है जिसने सब जीवधारियों को उनके जीवनव्यापार के अनुकूल शरीर के ढाँचे सोच समझकर प्रदान किए हैं। पर ऐसी बातों पर वैज्ञानिक लोग अब ध्यान नहीं देते।

जीवों के ढाँचों को किसी पूर्णज्ञानमय सर्वज्ञ कर्ता ने अपनी इच्छा के अनुसार सब बातों को सोच कर बनाया है; इसका कोई प्रमाण भिन्न-भिन्न जीवों के शरीर निरीक्षण से नहीं मिलता है। भिन्न-भिन्न जीवों के शरीर का यदि निरीक्षण किया जाय तो प्राय: सब में कुछ न कुछ ऐसे फालतू अवयव मिलेंगे जिनका कोई काम नहीं और जिनसे कभी कभी बड़ी हानि पहुँच जाती है। बहुत से पौधों के फूलों में स्त्री और पुरुष केसरों के अतिरिक्त जिनसे गर्भाधान होता है, बहुत से ऐसे दल होते हैं जिनका कोई प्रयोजन नहीं। उड़नेवाले फतिंगों और पक्षियों में बहुत से ऐसे होते हैं जिनके पर बेकाम होते हैं, जो उड़ नहीं सकते। बहुत से ऐसे जंतु होते हैं जो अंधेरे में रहते हैं, जिन्हें आँखें तो होती हैं पर वे देखने के काम की नहीं होतीं, निरर्थक होती हैं। मनुष्य के शरीर में बहुत से अवयव ऐसे हैं जो निरर्थक हैं, जो मूल पूर्वज अवस्था के अवशिष्ट चिन्ह मात्र हैं। कान की मांसपेशियाँ, पुरुषों के स्तनचिन्ह, चुचुक आदि इसी प्रकार के अवयव हैं। बन्द बड़ी आँत निरर्थक ही नहीं भयंकर भी है। इसकी सूजन से प्रतिवर्ष न जाने कितने मनुष्य मरते हैं1A

इन निरर्थक विधानों का आधुनिक शक्तिवाद कोई हेतु नहीं दे सकता, पर विकास द्वारा उत्पति क्रिया का जो सिद्धांत है उसकी दृष्टि से विचार करने पर इनके

1 इस बन्द आँत को युरोप में अब कुछ लोग निकलवा देते हैं और कष्ट तथा प्राणभय से बच जाते हैं।

रहने का कारण सहज में समझ में आ जाता है। विकास की दृष्टि से यदि देखा जाय तो पता लग जाता है कि ये अवयव प्रयोग के अभाव से क्षीण और बेकाम हो गए हैं। जिस प्रकार हमारी इन्द्रियाँ, पेशियाँ और नाड़ियाँ इत्यादि अधिक प्रयोग के द्वारा सबल और पुष्ट होती हैं, उसी प्रकार व्यवहार में न आने या कम आने से वे विकल और बेकाम हो जाती हैं। प्रयोग के अभाव से अवयव क्षीण और बेकाम तो हो जाते हैं पर उनके चिन्ह एक बारही में नहीं मिट जाते, वंशपरम्परा के नियमानुसार वे बहुत पीढ़ियों तक बने रहते हैं, धीरे-धीरे बहुत काल बीतने पर वे लुप्त होते हैं। भिन्न भिन्न अवयवों के बीच भी स्थिति के लिए जो अन्धाप्रयत्न चलता रहता है उसी के अनुसार कुछ अवयवों की वृद्धि और कुछ का ह्रास आप से आप होता है। इसमें किसी उद्देश्य रखनेवाले का कोई और भीतरी मतलब नहीं है।

जिस प्रकार मनुष्य के शरीर विधान में कुछ अपूर्णता रहती है उसी प्रकार और जंतुओं और पौधों के शरीर विधान में भी पाई जाती है। बात यह है कि प्रकृति नित्य परिणामी है। वह सदा परिणाम की अवस्था में रहती है, उसमें बराबर फेरफार होता रहता है। जहाँ तक हमारे इस भूग्रह की सजीव सृष्टि को देखने से पता लगता है, विकास की गति द्वारा सजीव पिंड सादे से जटिल, क्षुद्र से उन्नत और अपूर्ण से पूर्ण होते रहते हैं। पूर्णता प्राप्ति का यह विधान प्राकृतिक ग्रहणवृत्ति द्वारा होता है, किसी सोची समझी हुई युक्ति के अनुसार नहीं। इसका प्रमाण यह है कि कोई सजीव पिंड सर्वांगपूर्ण नहीं रहता है। यदि किसी समय वह स्थिति के सर्वथा अनुकूल घटित होकर पूर्णता प्राप्त भी करता है तो भी यह पूर्णता बहुत काल तक नहीं चलती, क्योंकि स्थिति में बराबर परिवर्तन होता रहता है। सन् 1876 में प्रसिद्ध जीवविज्ञानी बेयर ने उद्देश्यवाद का जो नए ढंग से समर्थन किया वह शक्तिवादियों और दैववादियों को बहुत भाया, उसकी बातों को लेकर अब तक लोग उछला कूदा करते हैं। यद्यपि बेयर अत्यंत उच्च कोटि का विज्ञानवेत्ता था पर ज्यों ज्यों वह बुङ्ढा होने लगा उसके तात्त्विक विचार क्षीण होने लगे यहाँ तक कि अन्त में वह शरीर और आत्मा, द्रव्य और शक्ति को परस्पर भिन्न माननेवाला पूरा द्वैतवादी हो गया। गर्भांड के वृद्धिक्रम का सूक्ष्म निरीक्षण करके उसने उन उत्तरोत्तर होनेवाले परिवर्तनों को दिखलाया जिनसे वह अंडे से रीढ़वाले जीव के रूप में आता है। उसने उन परिवर्तनों के कारणों और नियमों का भी पता लगाया और यह सिद्धांत स्थिर किया कि व्यक्ति के विकास का जो यह क्रम है वही व्यक्तित्व मात्र के विकास का क्रम है। इस सिद्धांत से उसने यह तत्व निकाला कि 'वह परमभाव जिसके अनुसार अनेक रूपों में जंतुओं का विकास होता है वही है जिसके अनुसार अन्तरिक्ष के विकीर्ण खंड लोकपिंडों के रूप में बने और सौरब्रह्मांड का विधान हुआ। वह परमभाव ही जीवन है। विविध प्रकार के जीव ही वे वर्ण और शब्द हैं जिनमें वह परमभाव व्यक्त होता है। बेयर का यह उद्देश्यरूप परमभाव प्लेटो1 और अरस्तू के 'नित्यभाव' की पुनरुक्ति मात्र है।

बतलाने की आवश्यकता नहीं कि बेयर ने सृष्टि के उत्पत्तिक्रम के एक ही अंग पर दृष्टि डाली थी, उसने गर्भ से लेकर एक एक जीव के उत्पत्तिक्रम का ही विचार किया था। इसी क्रम से जीवों की भिन्न भिन्न योनियों और जातियों की भी उत्पत्ति हुई है, यह बात उसे नहीं सूझी थी यद्यपि सन् 1809 में ही लामार्क ने इस बात की ओर ध्यान दिलाया था। अत: जब सन् 1859 में डारविन ने इसे सिद्धांत रूप में प्रकट किया और अपने ग्रहण सिद्धांत की स्थापना की तब बेयर इसे स्वीकार न कर सका। वह इसका विरोध ही करता रहा। जीवोत्पत्ति की यह बात बेयर की समझ में न आई कि गर्भावस्था से लेकर जिस क्रम से किसी एक जीव (व्यक्ति) का उत्तरोत्तर विकास होता है उसी क्रम से आदिम अणुजीवों से भिन्न भिन्न जीववर्गों का भी विकास हुआ है।

इतिहास के क्षेत्र में न्यायपूर्ण दैवी विधान दिखाने की चाल बहुत अधिक है। इतिहास लेखक किसी देश के निवासियों के अभ्युदय, पतन, वृद्धि, दुर्दशा इत्यादि को ईश्वर की न्यायव्यवस्था के अनुसार बतलाने का प्रयत्न करते हैं। वे यह दिखाना चाहते हैं कि एक जाति जो दूसरी जाति के ऊपर विजयी होकर शासन करती है उसमें पूर्णज्ञानमय ईश्वर का कुछ परम उद्देश्य रहता है। जड़ सृष्टि के सम्बन्ध में तो 'न्यायपूर्ण व्यवस्था' की बात नहीं उठती। अब रहा जीवविज्ञान, उसमें भी यदि हम मनुष्य को थोड़ी देर के लिए छोड़ दें तो कहीं इस प्रकार की व्यवस्था नहीं दिखाई पड़ती जो चैतन्य रूप ईश्वर की कृति कही जा सके। डारविन ने अपने प्राकृतिक ग्रहणसिद्धांत द्वारा यह अच्छी तरह दिखा दिया है कि जंतुओं और पौधों की शरीररचना और जीवनवृत्ति में जो व्यवस्थित विधान दिखाई पड़ता है वह भौतिक नियमों के अनुसार उत्पन्न हुआ है, किसी पहले से सोची समझी हुई युक्ति के अनुसार नहीं। उसने यह भी सिद्ध कर दिया है कि 'जीवनप्रयत्न' ही वह प्रबल प्राकृतिक शक्ति है जिसके वशवर्ती होकर भिन्न भिन्न जीवों का विकास और स्थिति विधान हुआ है। 'जीवप्रयत्न' का अर्थ यह है कि जीवों के बीच स्थिति के लिए जो घोर समर चलता रहता है उसमें वे ही जीव विजयी होते या रह जाते हैं जो सबसे अधिक योग्य या

श्रेष्ठ होते हैं। सबसे अधिक योग्य या श्रेष्ठ वे ही हैं जो सबसे अधिक बलवान होते हैं। प्रकृति में यही नीति और यही न्याय है।

1 प्लेटो या अफलातून ईसा से 300 वर्ष पहले यूनान में हुआ है। उसने कहा है कि समस्त जगत् एक परमभाव या संवित् 'आइडिया' के अनुसार चल रहा है। सामान्य प्रत्ययों को लेकर विचार करने से मनुष्य संवित या परमभाव तक पहुँच सकता है। संसार में बहुत से लोग वीर आदि हैं पर उन सबमें जो वीरता आदि सामान्य धर्म हैं, जिनके द्वारा कौन कितना वीर है हम यह समझते हैं, वे ही वीरता के 'भाव' या वास्तव स्वरूप हैं, उन्हीं के नमूने पर सब वीर, उदार आदि बने हैं। वीरता, उदारता आदि के ये स्वरूप या 'भाव' केवल मनुष्यों के मन में ही है, ऐसा नहीं है। ये स्वयंभू और स्नातन हैं, इनकी स्थिति किसी के अधीन या आश्रित नहीं है।

मनुष्य जातियों के इतिहास में भी हम कोई दूसरी बात नहीं पाते। उसमें भी हमें कहीं शील के उन्नत आदर्श का अथवा न्यायकारी, दयालु परमेश्वर का पता नहीं लगता। हम बराबर यह नहीं देखते कि जो जातियाँ बहुत ही शीलवान्, सीधी सादी रही हैं वे ही समृद्ध और विजयी हुई हैं। इतिहासों से बराबर यही पाया जाता है कि जिन जातियों ने जितना ही अधिक जीवनप्रयत्न किया है, स्थिति और उन्नति के लिए वे जितना ही अधिक अग्रसर हुई हैं, उतना ही उनके भाग्य का उदय हुआ है। उसी 'जीवनप्रयत्न' के द्वारा उनके भाग्य का भी निबटारा हुआ है जिसके अनुसार समस्त सजीव सृष्टि में स्थिति और विनाश का क्रम करोड़ों वर्षों से चला आ रहा है।

भूगर्भवेत्ता सजीवसृष्टि के इतिहास को भूगर्भस्थ पंजरों की परीक्षा द्वारा तीन कल्पों में विभक्त करते हैं- प्रथम, द्वितीय और तृतीय। उनकी गणना के अनुसार प्रथम कल्प लगभग 34,000,000 वर्षों का, द्वितीय कल्प 11,000,000 वर्षों का और तृतीय कल्प 3000,000 वर्षों का था। इन्हीं तीन कल्पों के बीच अस्थिवाले जीवों का प्रादुर्भाव और विकास हुआ है। प्रथम कल्प में मछलियाँ हुईं जो रीढ़वाले जीवों में सबसे निम्नश्रेणी की हैं। द्वितीय कल्प में मछलियों से और उन्नत कछुए, मगर, घड़ियाल, छिपकली, साँप इत्यादि कूर्मज या सरीसृप हुए। तृतीय कल्प में दूधा पिलाने वाले स्तन्य जीव हुए जो सबसे उन्नत हैं। इन तीन प्रधान जीववर्गों के इतिहास को यदि ध्यान से देखा जाये तो पता लगेगा कि इनके अन्तर्गत जीवों की जो अनेक शाखाएँ हुईं वे भी क्रमश: अधिक पूर्णता को पहुँचती गईं। उन्नति के इस क्रमागत विधान को क्या हम किसी चैतन्य को सोचा समझा हुआ कार्य, किसी सर्वशक्तिमान् कारीगर की रचना कह सकते हैं? कभी नहीं। ग्रहणसिद्धांत की सहायता से जब हम सृष्टि के बीच उस जीवनप्रयत्न को देखते हैं जिसके द्वारा सबल जीव निर्बलों को दबाकर या नष्ट करके अग्रसर हुए हैं और बराबर उन्नति करते गए हैं तब हम न्याय, नीति और शील की कोई व्यवस्था नहीं पाते। पाँच करोड़ वर्षों के बीच जंतुओं की न जाने कितनी सुन्दर सुन्दर जातियों का कुल नष्ट हो गया और उनके स्थान पर वे ही जीव रह गए जो सबल निकले। उन सबल जीवों के विषय में यह नहीं कहा जा सकता कि वे न्याय और शील में बहुत बढ़ कर थे।

यही बात मनुष्य जातियों के सम्बन्ध में भी ठीक है। उनके इतिहासों में भी यही बात पाई जाती है। एशिया के पश्चिमी भागों में फ्रांस, अफगानिस्तान, तुर्किस्तान आदि देशों में इस्लाम धर्म का जो प्रचार हुआ वह न्याय, नीति और शील के बल से नहीं। इन बातों का उन देशों में भी अभाव नहीं था। अत्याचार और क्रूरता के बल से देखते देखते उन देशों से प्राचीन आर्यसभ्यता का, ज्ञान के संचित भंडार का, लोप हो गया। ईश्वर की न्याय नीति और दया कहीं देखने में न आई। जिन असभ्य, दरिद्र और मरभूखी जातियों को आवश्यकतावंश अधिक जीवन प्रयत्न करना पड़ा वे अग्रसर हो गईं।

एक-एक मनुष्य के जीवन को लेकर यदि हम ध्यानपूर्वक विचार करते हैं तो उसकी दशा भी मनुष्यजातियों की दशा के समान किसी चेतन शक्ति के अधीन नहीं जान पड़ती। उसकी गति का विधान भी भौतिक कार्यकारण परम्परा के अनुसार होता है। मनुष्य के जीवन में जो-जो बातें होती हैं सब का सम्बन्ध कुछ पूर्ववर्ती कारणों से होता है। ये कारण प्रकृति की अन्धापरम्परा के अनुसार ही खड़े होते रहते हैं, किसी सोची समझी हुई न्याय व्यवस्था के अनुसार नहीं। भावी प्रबल होती है, पर यह भावी कार्यकारण भाव के अतिरिक्त और कुछ नहीं। हानि, लाभ, जीवन, मरण, यश, अपयश किसी विधाता के हाथ में नहीं। विधाता और दयानिधान परमेश्वर तभी अधिक सूझता है जब किसी की कोई कामना पूरी होती है, किसी अनर्थ से रक्षा होती है। जब कोई आपत्ति आती है, कोई प्यारा मनोरथ पूरा नहीं होता तब प्राय: मुँह से यही निकलता है- 'ईश्वर न जाने कहाँ है?' ईधर विज्ञान और व्यापार की जो अपूर्व वृद्धि हुई है उसके कारण प्रतिवर्ष अनेक दुर्घटनाएँ होती रहती हैं, हजारों जानें रेल लड़ने से, पुल टूटने से, जहाज डूबने से जाती हैं। सहों निरअपराध मनुष्यों के प्राण युद्ध में लिए जाते हैं, इतने पर भी ईश्वर के न्याय और नीति की चर्चा बराबर चली चलती है।

जगत् के विकासक्रम का मनन करने से उसमें किसी विशेष उद्देश्य का पता नहीं लगता। प्रकृति के जितने व्यापार हैं सब कारण इकट्ठे होने से होते हैं। संसार में जितनी बातें होती हैं सब संयोग से, किसी संकल्प के अनुसार नहीं। प्रकृति के गुण या अन्धाप्रवृत्ति के अनुसार जब जैसा संयोग उपस्थित होता है तब वैसी बात होती है। अत: विकासवादियों के सिद्धांत पर लोग यह आक्षेप करते हैं कि उसमें सब बातें 'संयोग' के अधीन बतलाई जाती हैं। शक्तिवादियों की समझ में यह नहीं आता कि सृष्टि का इतना बड़ा चरखा बिना किसी के सोचसमझ कर चलाए कैसे चल रहा है। इसी बात को लेकर दार्शनिकों के दो भिन्न दल हो गए हैं। द्वैतवादी दल अपनी भावना के अनुसार यही कहता जाता है कि सम्पूर्ण जगत् ज्ञानकृत व्यवस्था के अनुसार चल रहा है, छोटी से छोटी बात भी जो होती है उसका कोई न कोई उद्देश्य होता है, संयोग कोई चीज नहीं। हेतुवादियों का दल कहता है कि जगत् का विकास एक भौतिक या प्राकृतिक विधान है जिसमें कोई उद्देश्य या ज्ञानकृत व्यवस्था नहीं है। सजीव सृष्टि में जो व्यवस्था दिखाई पड़ती है वह शरीरद्रव्य की प्रवृत्तियों के योग का परिणाम है। न तो और लोकपिंडों के विकास में न पृथ्वी के नाना तलों के विकास में किसी चैतन्य की कोई करतूत प्रकट होती है; सब बातें


1 राज समाज कुसाज कोटि कटु कल्पत कलुष कुचाल नई है।

नीति, प्रतीति, प्रीति, परिमिति, पति हेतुवाद हठि हेरि हई है। -तुलसी।

2 पुराणों में पृथ्वी तल के तल, वितल, सुतल, रसातल आदि सात भाग किए गए हैं।


संयोग पाकर होती हैं। 'संयोग' शब्द का अर्थ यहाँ स्पष्ट कर देना चाहिए। 'संयोग' पहले से निश्चित अदृष्ट व्यवस्था का नाम नहीं है, कारणों के समाहार का नाम है। संयोग से कोई बात हो गई इसका यह मतलब नहीं कि बिना कारण कोई बात हो गई। प्रकृति में जो कुछ व्यापार होता है सबका भौतिक कारण होता है। यदि कहीं जाने पर कोई किसी आपदा में पड़ता है तो लोग प्राय: कहते हैं कि 'संयोग उसे ले गया'। 'संयोग' नहीं ले गया, उसके जाने से ऐसा संयोग उपस्थित हुआ कि वह आपदा में पड़ गया। 'संयोग' का अर्थ है कई भिन्न भिन्न बातों का भिन्न भिन्न कारणों से एक साथ घटित होना।