चौरस / सौरभ कुमार वाचस्पति
1.
“अरे ओ सुन्दर की अम्मा, कहाँ मर गई? प्यास से मरा जा रहा हूँ और ये औरत सुनती ही नहीं।” राघव रंदे से लकड़ी चौरस करता हुआ चिल्लाया था।
गाँव के लोग कहते हैं की राघव जैसा लकड़ी का कारीगर आस - पास के दस गाँव में भी नहीं मिलेगा। चार दिन पहले निरंजन साहू ने उसे एक लक्ष्मी - गणेश की मूर्ति बनाने का काम सौंपा था। घर में इतनी तंगी थी की बमुश्किल एक वक्त के खाने का इंतज़ाम हो पाता था। दो घरों का कच्चा मकान था उसका। बाहर आँगन में ठेहे पर बैठा वह एक उबड - खाबड़ लकड़ी को चौरस कर रहा था। घर में कुल चार जने थे। वह खुद, पत्नी पारवती, बेटी चंदा और बेटा सुन्दर। जेठ की धूप सीधे सर पर सवार थी। माथे से पसीना टप्प - टप्प चू रहा था।
"आती हूँ जी!” अन्दर से पारवती की आवाज आई।” चिल्ला तो इतने जोर से रहे हो जैसे भूत देख लिया हो। गाँव के इस छोर पर चिल्लाओगे तो उस छोर का आदमी सुन लेगा। जरा धीरे नहीं बोल सकते?"
बड़बड़ाती हुई पारवती बाहर आकर उसके पास खड़ी हो गई। "बोलो ; क्या है, काहे बुलाया?"
"अरे काहे बुलाऊंगा, बुढौती आ गई अब काहे बुलाऊंगा? "
"हाँ - हाँ, बुढौती आ गई मगर मज़ाक करना नहीं गया।”
"अरे सुन्दर की अम्मा, बस यही तो शिकायत है भगवान से की इतनी जल्दी हमलोगों को बूढा क्यों कर दिया। अभी उमर ही कितनी होगी तुम्हारी ; येही कोई चालीस। पर लगती हो साठ की।” तो क्या बीस की लगूं? और अब फायदा क्या है बीस की लगकर? "
"सुन्दर की अम्मा।” राघव बड़े ही प्यार से बोला -" याद है, जब हमारी शादी हुई थी ; गाँव भर में तुझ से सुन्दर किसी की मेहरिया नहीं थी। और मैं, मैं तो पगलाया सा घूमता था तुम्हारे पीछे। हरदम तुम्हारे पास ही बैठा रहता था। सब कहते थे की जोरू का गुलाम हो गया है।"
"याद है, याद है। “ पारवती शरमाती हुई बोली” लो, पहले पानी पी लो।"
लोटा लेकर राघव एक ही सांस में आधा पानी पी गया।
"अब क्या याद करूँ उन दिनों को? अब तो बस घर - गिरस्ती से छुटकारा नहीं मिलता। अच्छा सुनो जी, अपना सुन्दर कह रहा था की उसे चार हजार रुपयों की जरूरत है।”
"चार ...... हजार.........रुपये .......!" राघव की आँखें फ़ैल गई।
"जानती हो सुन्दर की अम्मा की अभी खाने तक के लाले पड़े हुए हैं! चार हजार रूपये कहाँ से लाऊंगा?"
"नहीं ला सकते तो मेरी पढाई बंद क्यों नहीं करवा देते? " दरवाजे पर सुन्दर खड़ा था। गेहुआं रंग, लम्बा तगड़ा शरीर। पिता के विपरीत वह नौकरी करना चाहता था। अपने पुश्तैनी पेशे में उसका मन नहीं लगता था। अभी बारहवीं का छात्र था।
"पर तुम इतने रुपयों का करोगे क्या? "
"मुझे शहर जाना है।” सुन्दर थोडा नरम होकर बोला।
"शहर जाकर क्या करोगे?"
"मुझे नौकरी करनी है।”
"नौकरी? " राघव के चेहरे पर जमाने भर का आश्चर्य जमा हो गया। “ ये क्या कह रहे हो सुन्दर? नौकरी करोगे और वो भी शहर जाकर? तुमको इतना समझाया पर तुम्हारे दिमाग में मेरी बात घुसे तब ना। अरे ... अपना काम इतना अच्छा है। कहता हूँ सीख लो। कभी भूखों नहीं मरोगे। पर तुम्हारी समझ में मेरी बात कभी आएगी भी की नहीं ; पता नहीं। अरे सुन्दर की अम्मा, तुम्ही समझाओ इसे।”
"मां क्या समझाएगी मुझे? देख तो रहा हूँ, जिंदगी भर से ये लकड़ी छील रहे हो, कभी भर पेट खाना नसीब हुआ। घर की हालत देख नहीं रहे। मैंने कह दिया शहर जाऊँगा, तो जाऊँगा। आपको रूपये देना हो तो दीजिए।” सुन्दर फट पड़ा।
"कहाँ से दे दूँ रूपये? रूपये हो तब ना। दिनभर काम करता हूँ तो रात को खाना मिलता है। ऊपर से तुम्हारी पढाई के नाज़- नखरे। चंदा जवान हो गई है। उसकी शादी की भी चिंता है। किसी तरह जोड़ -जाड कर चार गहने बनवा दिए हैं उसके लिए। कहाँ से लाऊं रूपये ......? देखो बेटा नौकरी वोकरी का चक्कर छोडो, लकड़ी का काम भी कोई बुरा नहीं होता। मन लगाकर मेरी विद्या सीख लो। मेरी जैसी कारीगरी इस गाँव में तो क्या पास के पांच गाँवों में भी किसी के पास नहीं होगी। बेटे कला, कला होती है। हम बढई हैं। लकड़ी को चौरस करते हैं। उबड़ - खाबड़ लकड़ी को छील - छील कर उसे देवताओं का आकर दे देते हैं। ज़िन्दगी भी उबड़ -खाबड़ होती है बेटे। इस पर सीधा जीने की कोशिस करो। शहर की जिंदगी बड़ी टेढ़ी होती है। मान जा मेरा कहना। “ राघव बड़ी ही ही दर्द भरी आवाज में अपने बेटे को समझा रहा था पर सुन्दर बुत बना हुआ था। पारवती की आँखों से अनवरत आंसू बह रहे थे।
शाम ढलने लगी। सूर्यदेव बांसों के झुरमुट में आँख मिचौली खेल रहे थे। आसमान एक सुनहरी आभा से भरा हुआ था। पर सुन्दर की आँखें शहर के चकाचौंध के सपने देख रही थीं। उसके सामने शहर जाने के सारे रस्ते बंद पड़े थे। पास रुपया नहीं था - मिलने की उम्मीद भी नहीं थी। अजीब कशमकश में फंसा हुआ था। अचानक उसे एक उपाय सूझ गया उसकी आँखें चमक उठीं। अब वह आराम से रात गुजार सकता था। उसके शहर जाने का सपना जो पूरा होने वाला था।
सुबह जब राघव की आँख खुली तो सुन्दर अपने बिस्तर पर नहीं था। राघव का माथा ठनका। आज से पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था। सुन्दर को सुबह उठने की आदत नहीं थी। एक अजीब सी आशंका राघव के मस्तिष्क में फ़ैल गई। वह उठ गया। पारवती को जाकर बताया की सुन्दर घर में नहीं है। और बस, पारवती पागलों की तरह दौड़ पड़ी घर के बाहर - सुन्दर को ढूँढने। जो भी मिलता बस उसी से सुन्दर के बारे में पूछने लगती। किसी को पता होता तब तो बताता। वह घर लौट आई। यहाँ एक नया तूफ़ान खड़ा था। जेवरों का बक्सा खुला था और उसके सारे जेवर गायब थे। पारवती सर पीटकर रह गई। राघव के सारे मंसूबे टूट गए। चंदा की शादी की चिंता उसके सामने मुह बाए खड़ी थी। दिन बीतने लगे पर सुन्दर नहीं आया।
2.
गर्मी के मारे सुन्दर का बुरा हाल था। आज पूरे दस दिन हो गए थे उसे शहर आए मगर कही नौकरी नहीं मिली थी। बहन के कान की बाली उसने बेच दी थी। उसी पैसे से अबतक गुजरा हो रहा था। जहाँ रात होती वहीँ फूटपाथ पर सो जाता। भूख लग आई थी सो एक होटल के सामने वह रूक गया। थोडा झिझका फिर अन्दर जाकर एक खाली कुर्सी पर बैठ गया। वह चुपचाप खाना खाने लगा। कोने वाली कुर्सी पर बैठा एक बूढा बड़ी विचित्र नजरों से उसे घूर रहा था। सुन्दर चुपचाप खाना खा रहा था। सन्नाटे के बीच उस बूढ़े ने सुन्दर के उड़ते हुए दिमाग को विराम दिया और पूछा -" बेटे, कहाँ जा रहे हो? "
"पता नहीं।” सुन्दर ने संक्षिप्त सा जवाब दिया।
"पता नहीं? ये क्या जवाब हुआ? क्या घरवालों ने घर से निकल दिया है, या खुद ही घर से भाग आए?", उस बूढ़े की तीर सी तेज आँखों में एक चमक कौंध गई थी।
"हाँ।” सपाट स्वर।
"नौकरी करोगे?"
"हाँ।”
"ठीक है, जल्दी -जल्दी खाओ और चलो मेरे साथ।”
सुन्दर की आँखों के सामने आशा की किरण चमक उठी। वह जल्दी - जल्दी खाने लगा। खाना ख़त्म कर वह उस बूढ़े के साथ चल पड़ा। बूढ़े ने सुन्दर से उसके घर परिवार के बारे में भी पुछा। सुन्दर ने सबकुछ साफ़ - साफ़ बता दिया।
"बाबा, काम क्या करना होगा? "
"कुछ खास नहीं बेटे। पढ़े -लिखे हो, हिसाब लगाना तो जानते ही होगे। बस दिनभर हिसाब ही लगाना है। जहाँ मैं काम करता हूँ वहां लाखों का लें -दें होता है। बस इमानदारी से काम करोगे तो नाम के साथ दाम भी कमाओगे। “
"अब और कितनी दूर है बाबा आपके मालिक का घर? "
"बस पहुँच ही गए समझो बेटा। ज्यादा दूर नहीं है। अगर धूप लग रही हो तो चलो रिक्सा कर लेते हैं। “
बूढ़े ने एक रिक्से वाले को आवाज दी। सुन्दर ने अपनी पोटली खोल दस रूपये निकल कर रिक्से वाले को दिए। बूढ़े की आँखें पोटली पर ही गडी हुई थी। उसके चेहरे पर मंद मुस्कान फ़ैल गई। जेवरों की खनखनाहट उसके कानों में अमृत घोल रही थी।
बूढा रिक्से वाले को रास्ता समझाता जा रहा था। रिक्सा अब एक संकरी गली की ओर मुड़ गई। कुछ दूर चलने के बाद बूढ़े ने रिक्से वाले को रुकने को कहा। रिक्से से उतर वे लोग पास के एक घर के अन्दर घुस गए।
"क्यों लाला? फाँस लाए नया मुर्गा? " कमरे में बैठे एक दढ़ियल ने बूढ़े से कहा।
राशिद बेटे, इस कला में आजतक मैं कभी फेल नहीं हुआ। अब टुकुर -टुकुर मेरा मुह क्या देख रहे हो अपना हुनर भी तो दिखाओ।”
बूढ़े ने राशिद को इशारा किया। इशारा भांपते ही राशिद ने सुन्दर के हाथो से पोटली छीन ली। अब सुन्दर की समझ में आया की वह गलत लोगों के चंगुल में फाँस गया है। पर अब वह चीखने और चिल्लाने के अलावा और कर ही क्या सकता था। राशिद और उस बूढ़े ने मिलकर सुन्दर को बहुत मारा।
बेचारा सुन्दर तब तक उनलोगों से मार खाता रहा जबतक होश में रहा। बेहोश होते होते उसने देखा की वे लोग उसे उठाकर घर से बाहर फेंक रहे हैं। जब उसे होश आया तो ना वह बूढा वहां पर था ना ही वह दढ़ियल। वह कंगाल हो चूका था। ना घर का था ना घाट का। कुछ समझ में नहीं आ रहा था की क्या करे, कहाँ जाए। हार - थककर उसने वापस घर लौटने का मान बनाया। दुखते जिस्म को साथ लेकर वह बस स्टॉप की ओर चल पड़ा।
3.
उस बेढंगी लकड़ी पर रंदा घिसते राघव की आँखों से अनवरत आंसू ढलक कर गाल पर से होते हुए नीचे जमीन पर गिर रहे थे। लकड़ी धीरे - धीरे सीधी हो रही थी। वह आसूओं को बार बार पोंछता था पर कमबख्त ऐसे थे की फिर ढलक जाते थे। पार्वती के सिसकने की आवाज राघव ने रंदा चलाना बंद कर दिया। गुस्से में बोला -" काहे को रो रही है तू? उस लफंगे के लिए जो तुझे छोड़कर घर से भाग गया। साथ में तेरे और चंदा के गहने भी ले गया। अच्छा होता यह नालायक पैदा ही ना होता। कम से कम कलंक तो ना बनता।” वह फिर से रंदा चलाने लगा। पारवती निरंतर रोए जा रही थी।
राघव से अब रहा नहीं गया। वह पारवती के पास आकर बैठ गया।
बड़े प्यार से बोला -" पारवती ...... ए पारवती....। देखो, जो होना था सो हो गया। अब रोने - धोने से क्या होगा? अब तो बस भगवन से एक ही अर्जी है की उसे जहाँ भी रखे सुखी रखे।”
और बस अब पारवती से बर्दास्त नहीं हो सका। वह फूट फूट कर रो पड़ी। बोली -" चंदा के बापू, तुम नहीं समझोगे मां का दर्द क्या होता है। कैसा भी था पर वो मेरा बेटा था। नौ महीने उसे इसी पेट में पाला है मैंने। तुम तो उसके बाप बाद में कहलाए पर मैं उसकी मां नौ महीने पहले ही बन गई थी। कलेजे से लगाकर रखा उसे। अपना खून पिलाकर बड़ा किया पर फिर भी उसे मुझपर दया नहीं आई।”
तभी ना जाने किधर से चंदा चिल्लाती हुई आई -" बापू -- बापू--, सुन्दर भैया आ गए .........सुन्दर भैया आ गए .....!"
राघव और पारवती को अपने कानो पर विश्वास नहीं हुआ।
"कहाँ है सुन्दर, कब आया, कैसा है, कोई दुर्घटना तो नहीं हुई? " तरह तरह के सवाल चक्कर काटने लगे। नजरें स्वतः राह की तरफ उठ गईं। कंधे पर कपडे की पोटली लटकाए, हताश, निराश, उदास और थके क़दमों से सुन्दर घर की तरफ बढ़ रहा था। चंदा ने दौड़कर उसके कंधे से पोटली उतार ली। दरवाजे पर पहुँचते - पहुँचते सुन्दर की आँखों से भी गंगा - जमुना बहने लगे। राघव ने सुन्दर को छाती से लगा लिया। कहा -"बेटा, जो हुआ सो हुआ। तू लौट आया यही काफी है। “
शायद राघव की उन बूढी आँखों के पीछे छिपे जिंदगी के कसैले अनुभवों ने उसे बता दिया की सुन्दर के साथ क्या हुआ है।
"बापू, आप जो कहोगे, मैं वही करूंगा।" सुन्दर बस इतना ही कह पाया। उसका गला रुंध गया।