छठा अध्याय / गीता हृदय: दूसरा भाग / सहजानन्द सरस्वती

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पाँचवें अध्यायय में जिस संन्यास का विशेष निरूपण आया है और सच्चे संन्यासी की मनोवृत्तियों का जो विशेष विवरण दिया गया है उसी को कुछ आचार्यों ने प्रकृतिगर्भ या प्राकृतिक अवस्था भी कहा है। काम-क्रोध, राग-द्वेषादि का सर्वथा त्याग, भीतर ही मस्ती का अनुभव, सबके हित की कामना आदि बहुत से लक्षण पूर्ण संन्यासी के बताए गए हैं। माया-ममता का तो उनमें नाम भी नहीं होता है। मिट्टी से लेकर हीरे तक एवं कुत्ते से लेकर विद्या-सदाचार-संपन्न ब्राह्मण तक में उन्हें कोई विभेद नजर नहीं आ के सर्वत्र एक रस आत्मा और ब्रह्म का ही दर्शन होता है, यही नजारा दीखता है। यह तो आसान बात है नहीं, ऐसा खयाल किसी को भी हो सकता है जिसने गौर से सारी बातें सुनी हों। इसीलिए उसके मन में स्वभावत: यह जिज्ञासा पैदा हो सकती है कि ऐसा आदर्श संन्यास कैसे प्राप्त होगा? वह यह बात जरूर ही जानना चाहेगा।

अंत के 27-28 श्लोकों में जो दिग्दर्शन के रूप में इस संन्यासावस्था की प्राप्ति के साधनों का वर्णन आया है उससे यह जिज्ञासा और भी तेज हो सकती है, न कि शांत होगी। एक तो यह बात अत्यंत संक्षिप्त रह गई। दूसरे बहुत ही कठिन है। प्राणायाम या दृष्टि को टिकाने की बात कहने में जितनी आसान है समझने और करने में उतनी ही कठिन। जब तक इसका पूरा ब्योरा न मालूम हो जाए और यह भी ज्ञात न हो जाए कि इस साधन में सफलता होने की पहचान क्या है, तब तक काम चल सकता भी नहीं। यह काम, कब कहाँ, कैसे किया जाए और करनेवालों की रहन-सहन वगैरह कैसी हो, आदि बातें भी जानना निहायत जरूरी है। इन्हीं के साथ यह भी जानना आवश्यक है कि आया किसी भी दशा में कर्मों का स्वरूपत: त्याग या संन्यास भी जरूरी है या नहीं। यह इसलिए कि छठे में सभी साधनों के बताने के समय यदि उन्हीं के साथ नित्य-नैमित्तिक कर्मों के बंद कर देने - संन्यास लेने - की बात न आए तो समझेंगे कि यह कोई वैसी जरूरी चीज नहीं है। कर्मों के स्वरूपत: त्याग की जरूरत किस दशा में कैसे है, यह बात ब्योरे के रूप में पाँचवें अध्या य में आई भी नहीं है। परंतु कर्म-अकर्म के इस महान झमेले में है यह निहायत जरूरी चीज। इसलिए इसकी भी जिज्ञासा का अर्जुन के मन में पैदा होना जरूरी था।

किंतु अर्जुन प्रश्न करे यह मौका खुद कृष्ण देना नहीं चाहते थे। क्योंकि ये बातें कुछ ऐसी-वैसी तो नहीं हैं कि ध्याशन में न आएँ। जिस चीज का उपदेश वह कर रहे थे ये बातें उसके प्राणस्वरूप ही कही जाएँ तो भी कोई अत्युक्ति नहीं हो सकती है। जब तक इन पर पूरा प्रकाश न डाला जाए, आत्मब्रह्मदर्शन, आदि का निरूपण अधूरे का अधूरा ही रह जाएगा। इसीलिए कृष्ण ने बिना पूछे ही स्वयमेव इनकी सख्त जरूरत महसूस करके इन्हें उपदेश करना शुरू कर दिया। फलत: यदि छठे अध्याेय का विषय ध्यासनयोग माना गया है तो ठीक ही है। समूचे का समूचा अध्यादय हरेक पहलू से इसी चीज पर प्रकाश डालता है। पातंजल योग और समाधि भी ध्यातन के भीतर ही आ जाने वाली चीजें हैं। लेकिन कृष्ण यह अनुभव भी कर रहे थे कि यदि अथ से इति तक इसी ध्याेन और स्वरूपत: कर्मत्याग की ही बात करेंगे तो लोगों को धोखा हो सकता है। परिणामस्वरूप इसके सामने कर्म करने की महत्ता वे भूल सकते हैं। क्योंकि ध्या न-वान के बारे में लोगों की कुछ ऐसी ही ऊँची धारणा पाई जाती है कि और बातें इसके सामने तुच्छ मानते हैं। इसीलिए शुरू में कर्मों के करने पर जोर दे के ही आगे बढ़ते हैं। इस तरह बहुत बड़े धोखे तथा खतरे से जनसाधारण को बचा लेते हैं। इन्हीं सब विचारों से -

श्रीभगवानुवाच

अनाश्रित: कर्मफलं कार्यं कर्म करोति य:।

स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्नचाक्रिय:॥ 1 ॥

श्रीभगवान बोले - जो कोई भी कर्मों और उनके फलों की परवाह न करके (केवल) कर्तव्य समझ उन्हें करता रहता है वही संन्यासी भी है और योगी भी। (न कि कर्मों के साधन) अग्नि (आदि) को और (खुद) कर्मों को ही छोड़ देनेवाला। 1।

यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पांडव।

न ह्यसंन्यस्तसंकल्पो योगी भवति कश्चन॥ 2 ॥

हे पांडव, जिसे संन्यास कहा गया है उसे योग ही जानो। क्योंकि जो कोई सभी संकल्पों को त्याग न दे वह योगी हो नहीं सकता है। 2।

यहाँ कुछ बातें जान लेने की हैं। इन दोनों श्लोकों में जो संन्यास और योग को एक कह दिया है वह ठीक वैसा ही है जैसा कि इसी अध्याइय में आगे 'तं विद्याद्दु:खसंयोगं योगसंज्ञितम्' (6। 23) में वस्तुत: वियोग को योग कहा है। सिर्फ इसीलिए यह बात है कि यद्यपि नाम तो उसका योग ही है, तथापि काम उसका उलटा है, वियोग है। क्योंकि वह दु:खों के संबंध का वियोग कर देता है, दु:खों को कभी पास में फटकने नहीं देता है। यहाँ भी संन्यास और योग हैं तो दो चीजें और हैं परस्पर विपरीत भी। मगर इनका काम मिल जाता है, एक हो जाता है। इसीलिए नाम से नहीं, किंतु काम से ही, दोनों की एकता बताई गई है। इसका प्रयोजन कही चुके हैं कि जनसाधारण कहीं कर्मों से विमुख न हो जाएँ, इसीलिए कह दिया है कि भई, तुम तो कर्म करते हुए भी संन्यासी ही हो। फिर चिंता क्या?

इसी के साथ एक निहायत जरूरी बात भी कर्म करने वालों के सामने बड़ी ही कुशलता से रख दी गई है। जहाँ यह कहा गया है कि तुम तो योगी के योगी और संन्यासी के संन्यासी हो और इस तरह दुहरा फायदा उठाते हुए 'आम के आम गुठली के दाम' को चरितार्थ करते हो। फिर परवाह नाहक ही किसकी करते हो? तहाँ उन्हें चढ़ाने-बढ़ाने के साथ ही धीरे से यह भी कह दिया गया है कि हाँ, योगी बनने के लिए भी इतना तो करना ही होगा कि सभी संकल्पों को त्याग दिया जाए। इसके बिना तो काम चली नहीं सकता। इस तरह ठीक-ठीक योगी बनने की शर्तें भी रख दी गईं और जल्दबाजी के खतरे से भी बचा लिया गया। इसी के साथ यह भी ज्ञात हो गया कि सच्चे संन्यासी बनने के लिए संकल्पों का त्याग आवश्यक है। यह न हो, तो सिर्फ कर्मों को या उनके साधन अग्नि आदि को ही छोड़ देने से कोई भी संन्यासी नहीं बन जाता। ऐसे लोग तो वंचक ही होते हैं। यहाँ सब संकल्पों का त्याग और कर्मफल की परवाह न करना ये दोनों एक ही चीज हैं। दोनों में जरा भी फर्क नहीं है। इसीलिए हमने 'कर्मफल' शब्द का कर्म और उनके फल यह दोनों ही अर्थ माना है और लिखा भी है। इसके लिए या तो कर्म और फल को दो जुदे - असमस्त - पद मान लें, या अगर दोनों का समास मानें तो समुच्चय द्वन्द्व मान के काम चलाएँ, जैसे करपादम आदि में होता है। संकल्प कर्मों और उनके फलों - दोनों - का ही होता है, और जब तक दोनों के बारे में बेफिक्र न हो जाएँ संकल्पत्याग असंभव है।

दूसरे श्लोक में जो 'असंन्यस्तसंकल्प:' शब्द आया है उसमें भी एक खूबी है। संन्यास के बारे में जब विवाद ही है तो ऐसे मौके पर 'संन्यस्त' शब्द न दे के 'संत्यक्त' शब्द देना ही उचित था। क्योंकि संन्यास शब्द के अर्थ के बारे में जब झमेला ही है और यह तय नहीं हो पाया है कि उसमें किसी चीज का स्वरूपत: त्याग भी आता है या नहीं, तो ऐसी दशा में उसे लिखने से शक तो रही जाएगा और अर्थ की सफाई हो न सकेगी। इसीलिए 'संत्यक्त' शब्द देना ही ठीक था। मगर ऐसा न करके संन्यस्त शब्द देने से यह आशय टपकता है कि संन्यास के भीतर स्वरूपत: त्याग आता है। क्योंकि संकल्पों का तो स्वरूपत: त्याग ही विवक्षित है। अब बात रही यह कि वह स्वरूपत: त्याग कर्मों का है या संकल्पों का या और चीजों का। यदि यह माना जाए कि संन्यास का अर्थ केवल संकल्पों का ही स्वरूपत: त्याग है, तो 'संन्यस्तसंकल्प:' में संकल्प शब्द देने की क्या जरूरत थी? उसका काम तो संन्यस्त शब्द से ही हो जाता इससे पता चलता है कि संन्यास का अर्थ केवल संकल्पत्याग नहीं। अब यदि और चीजों का भी त्याग मानें तो वे चीजें कौन-कौन-सी हैं, यह कैसे जाना जाए? इसलिए मानना ही होगा कि सामान्यत: सभी कर्मों, संकल्पों और रागद्वेषादि के स्वरूपत: त्याग को ही संन्यास कहते हैं। इनमें संकल्पत्याग को सबसे जरूरी समझ और उसके बिना कर्मों का त्याग कोरा ढोंग मान के ही यहाँ 'संन्यस्त संकल्प:' लिखा गया है।

इसी संकल्पत्याग को ले के आगे बढ़ने में सबसे पहले यह बताना आवश्यक हो जाता है कि संकल्पत्याग के होते हुए भी कर्मों के स्वरूपत: त्याग का असली अवसर कब और किसलिए आता है। कर्म की आवश्यकता कहाँ तक है, उसका काम है क्या, तथा उसके त्याग अर्थात संन्यास की भी आवश्यकता कब और किसलिए है यही बातें आगे कहते हैं -

आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते।

योगारूढस्य तस्यैव शम: कारणमुच्यते॥ 3 ॥

(कोई भी) मननशील योग - ज्ञान या समाधि - में जाने एवं उसे प्राप्त करने की इच्छा वाला बन जाए इसका कारण कर्म है - इसी के लिए कर्म करने की जरूरत है। उसी को (आगे चल के) ज्ञान तथा समाधि में आरूढ़ - पक्का - बना देने के लिए ही कर्मों के त्याग की जरूरत है। 3।

यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते।

सर्वसंकल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते॥ 4 ॥

क्योंकि जब सभी संकल्पों का त्याग कर देने वाला मनुष्य न तो इंद्रियों के विषयों में और न कर्मों में ही चिपकता है तभी वह योगारूढ़ माना जाता है। 4।

इन श्लोकों के अर्थों के बारे में बहुत कुछ बातें पहले ही लिखी जा चुकी हैं। उन्हें जाने बिना इनका आशय समझना असंभव है। यहाँ इतना ही कहना है कि जो लोग शम का अर्थ मन की शांति मानते हैं उन्हें भी अगत्या कर्मों का स्वरूपत: त्याग मानना ही होगा। क्योंकि आखिर मन की शांति का अर्थ क्या है? यही न, कि उसकी हलचलें, क्रियाएँ बंद हो जाएँ, उसकी चंचलता जाती रहे? उसकी चंचलता का भी यही अर्थ है न, कि बिजली की तरह बड़ी तेजी से एके बाद दीगरे हजारों पदार्थों पर पहुँचता है? और अगर यह चीज बंद हो जाए तो होगा क्या? यही न, कि मन किसी एक ही पदार्थ में जम जाएगा, वहीं स्थिर हो जाएगा? एक पदार्थ भी वह कौन-सा होगा? जब योगी और योगारूढ़ की बात है तब तो मानना ही होगा कि वह एक पदार्थ आत्मा ही होगी। उसी को परमात्मा कहिए या ब्रह्म कहिए। बात एक ही है। अब जरा सोचें कि जब मनीराम आत्मा में ही रम गए, जम गए, टिक गए तो फिर संध्या-नमाज की तो बात ही नहीं, क्या कोई भी क्रिया हो सकती है? क्या पलक भी मार सकते या शरीर भी हिला सकते हैं? क्या प्राण की भी क्रिया जारी रह सकती है? यह तो मन:शास्त्र का नियम ही है कि जब तक मन किसी पदार्थ में न जुटे उसमें कोई क्रिया होई नहीं सकती। यह तो दर्शनों की मोटी और पहली बात है। फिर शम माननेवाले क्रिया कैसे करेंगे यह समझ से बाहर की चीज है। खूबी तो यह कि यह ध्याैन का ही अध्यारय है और ध्या न-समाधि के साथ नित्यनैमित्तिक क्रियाएँ भी होंगी यह तो उलटी गंगा का बहना है। यह भी नहीं कि मिनट-दो मिनट या घंटे-दो घंटे की समाधि से ही काम चल जाएगा। यहाँ तो लगातार दिनों, हफ्तों, महीनों और बरसों करने की नौबत आएगी। तब कहीं जा के सफलता की आशा कर सकते हैं। बीच में बहुत ही थोड़ा विराम कभी-कभी मिलेगा। आगे जो 'अनेकजन्मसंसिद्ध:' (6। 45) और 'यतचित्तेन्द्रियक्रिय:' (6। 12) लिखा है उसका आखिर दूसरा अर्थ है क्या? इसी छठे अध्या य को पढ़ के भी जो यह कहने की हिम्मत करें कि ध्या न और समाधि के साथ ही वर्णाश्रमादि के धर्मों का पालन भी हो सकता है उन्हें कुछ भी कहना बेकार है।

तीसरे श्लोक के पूर्वार्द्ध में ज्ञान की इच्छा और कामना की बात कही गई है। इसका पता आसान है और सबों को लग सकता है। इसीलिए इसके बारे में ज्यादा कुछ भी कहने की जरूरत नहीं। मगर योगारूढ़ होना और उसे पहचानना अत्यंत कठिन है। बल्कि एक प्रकार से यह बात असंभव ही समझिए। यही कारण है कि चौथे श्लोक में योगारूढ़ का लक्षण, उसकी पहचान बताई गई है। इसका दूसरे शब्दों में मतलब यह है कि जब तक वैसी दशा पूरी तौर से न हो जाए तब तक ध्यापन एवं समाधि करते रहना और तदर्थ सभी कर्मों का पूर्णत: संन्यास करना ही होगा। दूसरा रास्ता है नहीं। जब तक आत्मज्ञान की इच्छा या आत्मा की जिज्ञासा नहीं पैदा होती तभी तक कर्म करना होगा। उसी से वह जिज्ञासा होगी ही मगर ज्योंही यह जिज्ञासा पैदा हो के दृढ़ हो गई कि कर्मों का स्वरूपत: त्याग करके ध्याान, धारणा, समाधि के द्वारा आत्मसाक्षात्कार की सिद्धि में फौरन लग जाना होगा। साक्षात्कार पूरा-पूरा होने तक यह काम जारी रखना ही होगा, यही दोनों श्लोकों का तात्पर्य है।

शायद यह खयाल हो कि इस प्रकार जीते-जी मुर्दा बनने की क्या जरूरत है? योगारूढ़ होना और मुर्दा बन जाना तो बराबर ही है। फर्क यही है कि मुर्दे को कुछ मालूम नहीं पड़ता, चाहे जो कीजिए। मगर योगारूढ़ को तो होश होता है, ज्ञान होता है। फिर भी किसी सुख-दु:खादि को जरा भी अनुभव न करना यह असाधारण बात है जो असंभव जैसी है। इसीलिए तो जीते-जी मुर्दा बन जाना पड़ता है। फलत: दूसरे ढंग से काम चल जाए तो इस योगारूढ़ होने के मार्ग को दूर से ही सलाम कर लेना चाहिए। यह तो हो नहीं सकता कि परम कल्याण और मोक्ष का कोई दूसरा रास्ता होई न। इसीलिए दूसरे ही मार्ग का अवलंबन क्यों न किया जाए? नाहक ही इंद्रियों और मन को संकट में डाल के उन्हीं के द्वारा अपने आपको - आत्मा को - भी विपदा में डालना, संकट के अतल गर्त्त में डुबाना मुनासिब नहीं है। इस तरह के विचार जनसाधारण के लिए बहुत संभव हैं। इसीलिए इस प्रसंग को आगे बढ़ाने और योगारूढ़ की अवस्था का पूर्ण विवेचन करने के पहले दो श्लोकों में इस खयाल को हटाते हुए कहा गया है कि इसके सिवाय मोक्ष का और मार्ग हई नहीं। इसीलिए लाचारी है कि यही मार्ग अपनाया जाए। इससे आत्मा को गर्त्त में गिराने के बदले उलटे उसका उद्धार है।

उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।

आत्मैव ह्यात्मनो बंधुरात्मैव रिपुरात्मन:॥ 5 ॥

बंधुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जित:।

अनात्मनस्तु शत्रुत्वे व र्त्ते तात्मैव शत्रुवत्॥ 6 ॥

अपना उद्धार खुद-ब-खुद करना चाहिए। आत्मा को - अपने आपको - संकट में कभी न डालना - कभी नीचे न गिराना - चाहिए। क्योंकि अपना मददगार या दुश्मन स्वयं हर आदमी ही होता है। जिसने अपने मन को स्वयं जीत लिया वही अपना मददगार है। जिसने मन पर काबू नहीं किया शत्रुता के मौके पर (वही) मन (उसके) शत्रु का काम करता है। 5। 6।

जितात्मन: प्रशांतस्य परमात्मा समाहित:।

शीतोष्णसुखदु:खेषु तथा मानापमानयो:॥ 7 ॥

जिसने मन को जीत लिया है (और इसीलिए) जिसका अंत:करण अत्यंत शांत है, उसे शीत-उष्ण, सुख-दु:ख और मान-अपमान की दशा में (भी) बराबर समाधि में परमात्मा का ही साक्षात्कार होता रहता है - उसकी मस्ती बराबर बनी रहती है, चाहे कुछ हो। 7।

ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रिय:।

युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकाञ्चन:॥ 8 ॥

ज्ञान और विज्ञान की प्राप्ति से जिसका मन तृप्त है - मस्त है, जो किसी भी दशा में विचलित नहीं होता, जिसकी (सभी) इंद्रियाँ अपने वश में हैं (और इसीलिए) जिसके लिए मिट्टी का ढेला, पत्थर (और) सोना सभी एक से ही हैं, ऐसा ही योगी युक्त या योगारूढ़ कहा जाता है। 8।

कूट नाम है लोहार की निहाई का। हजारों लोहे उस पर आके टेढ़े-सीधे और नष्ट-भ्रष्ट हो जाते हैं। मगर वह ज्यों की त्यों अचल बनी रहती है। इसीलिए विकार-शून्य और अचल को ही कूटस्थ कहते हैं - अर्थात जो कूट की तरह बना रहे। जाल-फरेब को भी कूट कहते हैं। संसार का प्रपंच ही मायाजाल है और उसमें ही आत्मा का रहना है। मगर उनसे उसका स्पर्श नहीं है।

सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यकस्थद्वेष्यबंधुषु।

साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते॥ 9 ॥

सुहृद्, मित्र, शत्रु, तटस्थ, मध्यस्थ, प्रत्यक्ष-अपकारी, संबंधी, साधु और पापी - सबों - में जिसकी समबुद्धि है - इनमें किसी की ओर जो खिंच जाता नहीं - वही श्रेष्ठ है। 9।

अकारण ही जो सबका हित चाहे वह सुहृद कहा जाता है, परिचय होने पर जो हित चाहे वह मित्र, जो बुराई करे वह अरि, जो किसी का पक्ष न ले वह उदासीन, जो दोनों का पक्ष लेकर कलह मिटाना चाहे वह मध्यीस्थ, जिसके प्रति बहुत ज्यादा जलन हो वह द्वेष्य, जो संबंध के करते ही हित चाहे वह बंधु, जो सबका उपकार करे वह साधु और बुरा काम करने वाला पापी कहाता है। उदासीन और मध्यस्थ का फर्क यही है कि जहाँ मध्यस्थ को दोनों पक्षों की परवाह होती है तथा उदासीन को किसी की भी नहीं होती। अरि और द्वेष्य में यही अंतर है कि जहाँ द्वेष्य के प्रति दिल में प्रचंड जलन होती है तहाँ अरि के प्रति इसका होना जरूरी नहीं है। इसलिए अरि शब्द व्यापक है। मित्र और बंधु में यही फर्क है कि जहाँ बंधु के साथ घनिष्ठता तयशुदा बात है तहाँ मित्र के साथ घनिष्ठता न होते हुए भी परिचय मात्र ही काफी है। सुहृद स्वभावत: परहित चाहता है, चाहे कर सके या न कर सके। मगर साधु का तो यह काम ही है। वह परहित करता ही है। ये दोनों ही बदले में कुछ नहीं चाहते।

यहाँ तक युक्त, योगारूढ़, आत्मज्ञानी या संन्यासी का स्वरूप और लक्षण बता के अप्रत्यक्ष रूप से यह भी कह दिया कि ऐसा होने के लिए किस तरह के लोहे के चने चबाने जरूरी हैं। अब अगले आठ श्लोकों में उन उपायों को विस्तार के साथ बताते हैं जिन पर अमल करने पर ही इन लोहे के चनों के चबाने की योग्यता होती है। इनमें भी शुरू के पाँच में ध्याजन और समाधि के उपाय बता के और छठे में उसी पर जोर दे के शेष दो में खतरों और नियमों के बारे में सावधान किया है। उसके बाद के छह (18-23) श्लोकों में ध्याकन और समाधि में लगे चित्त की तौल बताई है कि उसकी क्या हालत समाधि के दरम्यान रहती है। क्योंकि उसी समय उसे आसानी से पकड़ सकते और गलती सुधार सकते हैं। उस समय लोग पूरे तैयार और सतर्क भी रहते हैं। यह अभ्यास धीरे-धीरे कैसे शुरू किया जाए और यह कमजोरी और गलती कैसे चटपट पकड़ी जा के दूर की जाए, यह बात उसके बाद के तीन (24-26) श्लोकों में कह के तदनंतर छ: (27-32) श्लोकों को योगारूढ़ पुरुष का पूरा चित्र खींच दिया है और यह बताया है कि उसकी मनोवृत्ति कैसी होती है। उसके आत्मज्ञान या साक्षात्कार का स्वरूप क्या होता है यह बात पुनरपि यहाँ दूसरी बार इन्हीं श्लोकों में से दो (29-30) में कही गई है। पहली बार पाँचवें अध्यााय में आई है, यह वहीं कहा जा चुका है।

योगी युंजीत सतत मात्मानं रहसि स्थित:।

एकाकी यतचि त्ता त्मा निराशीरपरिग्रह:॥ 10 ॥

ध्याीन करने वाला संन्यासी निरंतर एकांत स्थान में अकेला ही रह के बुद्धि और मन पर कब्जा रखे हुए, बेफिक्र सारा लवाजिम छोड़ के ही मन को एकाग्र करने का यत्न करे। 10।

शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मन:।

नात्युच्छ्रिन्तं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम्॥ 11 ॥

जो न तो बहुत ऊँचा और न बहुत नीचा हो, जिसमें क्रमश: कुश, मृगचर्म और वस्त्र एक के ऊपर एक पड़े हों और जो हिले-डोले न ऐसा निजी आसन (वहाँ) किसी पवित्र स्थान पर बिछा के - । 11।

त त्रै काग्रं मन: कृत्वा यतचि त्ते न्द्रियक्रिय:।

उपविश्यासने युंज्याद्योगमात्मविशुद्धये॥ 12 ॥

मन और इंद्रियों की बाहरी क्रियाओं को रोके हुए मन को एकाग्र करके उसे शुद्ध करने के ही लिए उसी आसन पर बैठे (तथा) ध्या1न (एवं) समाधि का अभ्यास करे। 12।

समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिर:।

संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्॥ 13 ॥

प्र शांता त्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थित:।

मन: संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्पर:॥ 14 ॥

धड़, सिर और गरदन तीनों ही सीधे - तने - और निश्चल रखे हुए घबराहट छोड़ के बैठे, अपनी नासिका के अग्र भाग पर ही दृष्टि जमाए रहे और इधर-उधर न देखे। मन की बेचैनी बिलकुल ही न हो, डर-भय जरा भी न हो, (खान-पान आदि में) ब्रह्मचारी के ही नियमों का पूरा पालन करे। मुझमें ही मन लगाए तथा मुझको ही सब कुछ समझे हुए मन को भरपूर काबू में करके समाधि में बैठे। 13-14।

यहाँ जो 10वें श्लोक में 'यतचित्तात्मा' कहके 'आत्मानं युंजीत' भी कहा है इससे दोनों में परस्पर विरोध जैसा लगता है। जब मन और बुद्धि को काबू में कर लिया तो फिर मन के एकाग्र करने का क्या सवाल? यह या तो पुनरुक्ति जैसी हो जाती है, या यों कहिए कि एक का कहना बेकार है। मगर दरअसल मन-बुद्धि को संयत कहने का यही अभिप्राय है कि पहले जैसी चंचलता और घबराहट उनमें न रह गई है। वे कुछ ठंडे पड़ गए हैं। तभी समाधि की सफलता हो सकती है। या यह कि यतचित्तात्मा का अर्थ है मन-बुद्धि की क्रिया का रोकना मात्र। उसके बाद होनेवाली एकाग्रता 'आत्मानं युंजीत' के द्वारा बताई गई। इसी तरह 12वें में मन की एकाग्रता और उसकी तथा इंद्रियों की क्रिया के रोकने की बात है। प्रश्न होता है कि मन की एकाग्रता के बाद फिर उसकी क्रिया के रोकने के क्या मानी? बात असल यह है कि पहले जब मन कहीं एक चीज में बँधेगा तभी तो उसकी तथा इंद्रियों की क्रिया भी रुकेगी। वस्तुत: क्रिया रुकने से एकाग्रता और एकाग्रता से क्रिया का रुकना ये दोनों ही एक दूसरे के आश्रित हैं, ठीक वैसे ही जैसे प्राण के रोकने से मन का रुकना और मन के रुकने से प्राण का रुक जाना। आगे 35वें श्लोक के व्याख्यान में इस पर और भी लिखा गया है।

अथवा 'यत्तचित्तेन्द्रियक्रिय:' में चित्त का अर्थ बुद्धि ही है, जैसा कि 10वें में। बुद्धि की चंचलता का भी रुकना आवश्यक है। इसीलिए जो अंत में पुनरपि 'युंज्याद्योगम्' लिखा है वह यद्यपि व्यर्थ-सा प्रतीत होता है, तथापि उसका अभिप्राय यही है कि योग की पूर्णता और स्थायित्व प्राप्त करे। ऐसा न हो कि मन की एकाग्रता चंदरोजा ही हो। 'आत्मानं युंजीत' और 'योगं युंज्यात!' का यह भी अभिप्राय है कि आत्मा में ही मन को लगाए, न कि और पदार्थ में इसीलिए आगे जो 'मच्चित:' और 'मत्पर:' में (मत्) कहा है उसका भी अर्थ आत्मा ही है। नहीं तो आत्मा से अलग परमात्मा का खयाल हो सकता था। 'मच्चित' और 'मत्पर' कहने का आशय यही है कि एक में चित्त लगा के कभी-कभी दूसरे का भी खयाल करने की बात यहाँ नहीं होगी। आत्मा के सिवाय और किसी का भी खयाल न रहेगा। इसे ही अनन्य-चिंतन भी कहते हैं।

13वें श्लोक में एक बार तो धड़, गरदन और सिर को अचल और तना हुआ रखना कहा है। फिर स्थिर होना भी बताया है। यह तो पुनरुक्ति ही हुई। इसीलिए हमने घबराहट और बेचैनी छोड़ने की बात लिखी है। ऐसी भी तो बेचैनी होती है कि शीघ्र ही काम पूरा हो जाए। वह न रहे इसी मानी में स्थिर शब्द आया है। यों भी इस मानी में बोला जाता है। इसी प्रकार जहाँ यहाँ नासिका के अग्र भाग में नजर जमाने को लिखा है तहाँ पाँचवें अध्या य के अंत में भौंहों के बीच में जमाने की बात है। असल में योगियों के यहाँ ये दोनों ही बातें पाई जाती हैं, कोई एक करता है तो कोई दूसरी। इसीलिए दोनों ही लिखी गई हैं। भौंहों की बात आगे भी 'भ्रुवोर्मध्ये' (8। 10) में आएगी। जिसकी जब जैसी रुचि, प्रवृत्ति या अनुकूलता हो तब वह वैसा ही करता है। किंतु परिणाम एक ही होता है।

युंजन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानस:। शांतिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति॥ 15 ॥

इस प्रकार निरंतर आत्मा में मन को जोड़ता हुआ उसे सोलह आने काबू में कर लेने वाला योगी उस ब्रह्मनिष्ठा रूपी शांति को प्राप्त कर लेता है, जिसका अंतिम परिणाम आवागमन से छुटकारा है। 15।

नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकांतमनश्नत:।

न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन॥ 16 ॥

हे अर्जुन, निश्चित परिणाम से अधिक खाने वाले की समाधि हो नहीं सकती, और न बिलकुल ही न खाने वाले की ही। (इसी तरह) बहुत ज्यादा सोनेवाले या अधिक जागनेवाले की भी (नहीं होती)। 16।

युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।

युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दु:खहा॥ 17 ॥

(किंतु) उचित मात्र में जो खान-पान और धूम-धाम करता है, दूसरी क्रियाएँ भी निश्चित परिमाण में ही करता है और सोता-जागता भी है नियमित रूप से ही, उसी की समाधि सब कष्टों की नाशक होती है - पूर्ण या सफल होती है। 17।

सोने-जागने वगैरह की बात तो सभी जानते हैं। हालाँकि योगी लोगों ने इनमें भी बहुत नियम-कायदे - बनाए हैं। खानपान का नियम ऐसा ही है कि पेट का आधा अन्न से और एक चौथाई जल से भर के शेष चौथाई खाली रखे, - 'अन्नेन पूरयेदर्धं चतुर्थं तु जलेन वै मारुतस्य प्रचारार्थं चतुर्थमवशेषयेत्'। नहीं तो परिपाक ठीक नहीं होता और आलस्य रोगादि बढ़ते हैं। क्या खाना, कब खाना आदि के भी नियम हैं।

यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते।

नि:स्पृह: सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा॥ 18 ॥

जब काबू में बखूबी आया हुआ मन आत्मा में ही जा के टिक जाता (तथा) अन्य सभी पदार्थों से नि:स्पृह (हो जाता है) तभी कहा जाता है कि (मनुष्य) युक्त या योगारूढ़ हो गया। 18।

यथा दीपो निवातस्थो नेंगते सोपमा स्मृता।

योगिनो यत्तचित्तस्य युंजतो योगमात्मन:॥ 19 ॥

मन को आत्मा में टिकाने का अभ्यास करने वाले योगी का मन काबू में आ जाने पर ठीक वैसे ही हिलता-डोलता नहीं जैसे बहने वाली हवा से रहित स्थान में दीया की शिखा नहीं हिलती है। 19।

यात्रोपरमते चि त्तं निरु द्धं योगसेवया।

यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति॥ 20 ॥

सुखमात्यन्तिकं यत्तद्बु द्धि ग्राह्यमतीन्द्रियम्।

वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वत:॥ 21 ॥

यं लब्धवा चा परं लाभं मन्यते नाधिकं तत:।

यस्मिन् स्थितो न दु:खेन गुरुणापि विचाल्यते॥ 22 ॥

तं विद्याद् दु:खसंयोग-वियोगं योगसंज्ञितम्॥

स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा॥ 23 ॥

जिस दशा में योग के अभ्यास के फलस्वरूप काबू में आया हुआ मन शांत और निश्चल हो जाता है, जिस दशा में अपने भीतर ही स्वयमेव अपने को देख के पूर्ण संतोष हो जाता है, इंद्रियों की पहुँच के बाहर केवल बुद्धि से अनुभव किया जाने वाला अपार सुख जिस दशा में जाना जाता है, जिस दशा में जम जाने पर मनुष्य की आपा बिसर जाती है और उस वास्तविक दशा से फिर वह च्युत भी नहीं होता है, जिसे पा जाने के बाद उससे बढ़ के दूसरा कोई भी लाभ माना नहीं जाता और जिस दशा में स्थिर हो जाने पर बड़े से बड़ा भी कष्ट मनुष्य को विचलित नहीं कर सकता, दु:ख के संबंध को सदा के लिए मिटा देने वाली उस दशा को ही योग शब्द से समझना चाहिए। जो मन कभी ऊबना जानता ही नहीं उसी के द्वारा दृढ़ निश्चय के साथ उस योग की सिद्धि का अभ्यास किया जाना चाहिए। 20। 21। 22। 23।

यहाँ मन के न ऊबने के बारे में दृष्टांत देते हुए गौडपादाचार्य ने मांडूक्योपनिषद् की कारिकाओं में लिखा है कि एक ही कुश की नोक डुबो-डुबो के बाहर छिड़कते हुए ही समुद्र को सुखा डालने की हिम्मत जिसे हो वही मन को काबू में कर सकता है, 'उत्सेकउदधेर्यद्वत्कुशाग्रेणैकविन्दुना। मनसो निग्रहस्तद्वद्भवेदपरिखेदत:।' (3। 41)। टिट्टिभ पक्षी के नर-मादे का अपनी चोंचों से ही उलीचते-उलीचते समुद्र को सुखा के अपने अंडे उसमें से बाहर निकालने के दृढ़ संकल्प का भी दृष्टांत दिया जाता है।

संकल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषत:।

मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य स मंत त:॥ 24 ॥

शनै: शनैरुपरमेद्बु द्ध या धृ तिगृहीतया।

आत्मसंस्थं मन:कृत्वा न किंचिदपि चिंत येत्॥ 25 ।

यतो यतो निश्चरित मनश्चंचलमस्थिरम्।

ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वंश न ये त्॥ 26 ॥

संकल्प से पैदा होने वाली सभी कामनाओं को निर्मूल करके तथा मन से ही सभी इंद्रियों को चारों ओर से रोक के धैर्य-सहकृत बुद्धि के बल से धीरे-धीरे हर चीज से मन को हटाए और आत्मा में टिका के दूसरा कोई खयाल न करे। चंचल होने के कारण कहीं भी टिक न सकने वाला मन जिस-जिस चीज को ले के बाहर भागे उस-उससे उसे हटाते हुए केवल आत्मा में ही लगा के काबू में करे। 24। 25। 26।

यहाँ धीरे-धीरे सब ओर से हटाना और फिर भी यदि मन उधर भागे तो वहाँ से बार-बार लौटाना बताया गया है। असल में समाधि के लिए यही बुनियादी बात है। जो ऊबना जानता ही नहीं वही यह काम कर सकता है, ऐसा कहने की जरूरत इसी से स्पष्ट हो जाती है। एकाएक न तो अन्य चीजों से यह मनीराम हटी सकते और न हटने पर भी फिर उनमें जाने से बाज आई सकते हैं। यह तो नटखट बंदर हैं। बड़ी हिम्मत और बड़े भारी दृढ़ संकल्प से ही इन्हें काबू में किया जा सकता है। इसीलिए 'स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा' कहा है।

प्रशांतमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम्।

उपैति शांतरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम्॥ 27 ॥

क्योंकि बिलकुल ही शांत मनवाले, शांत या दबे-दबाए रजोगुण वाले, निर्दोष (और इसीलिए) ब्रह्म स्वरूप हो जाने वाले इस योगी के पास सर्वोत्तम सुख - आत्मानंद - खुद आ जाता है। 27।

युंजन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मष:।

सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते॥ 28 ॥

इस प्रकार सदा आत्मा में मन को लगाता हुआ (उसके फलस्वरूप) पापशून्य योगी आसानी से ही ब्रह्मरूपी अखंड सुख - निरतिशय ब्रह्मानंद - प्राप्त करता है। 28।

यदि गौर से देखा जाए तो पूर्व के 'शनै:-शनैरुपरमेद्' श्लोक का ही एक तरह का व्याख्यान बाद के इन तीन श्लोकों में है। इसमें भी उसके पूर्वार्द्ध का 'यतोयत:' में, उत्तरार्द्ध के पहले आधे का 'प्रशांतमनसं' में और शेष चतुर्थांश का 'युंजन्नेवं' में स्पष्टीकरण है।

आगे के चार श्लोक उस आत्मसाक्षात्कार के बाद की हालत बताते हैं। खासकर पहले दो तो उस साक्षात्कार का रूप स्पष्ट करते हैं शेष दो ज्ञानी की व्यावहारिक दशा बताते हैं कि संसार के साथ उसका सलूक कैसा होता है। इन आखिरी दो में भी पहला है दूसरे की एक तरह की भूमिका ही। दूसरा - 32वाँ - ही उसका बाहरी व्यवहार चित्रित करता है।

सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।

ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शन:॥ 29 ॥

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।

तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥ 30 ॥

जिसका मन पूर्ण योगयुक्त हो गया है उसकी सर्वत्र समदृष्टि - ब्रह्म या आत्म दृष्टि - होती है। (इसीलिए वह) सभी पदार्थों में अपने आप को और अपने में सब पदार्थों को देखता है। (इसी तरह) जो मुझ परमात्मा को (भी) सबों में और सबों को मुझ परमात्मा में देखता है उससे जुदा न तो कभी मैं होता हूँ और न वह मुझसे अलग होता है। 29। 30।

ये दोनों ही श्लोक 'येनभूतान्यशेषेण' (4। 35) से एकदम मिल जाते। फलत: उसी के विवरण रूप ही हैं। इन दोनों ने अद्वैत या जीव, ब्रह्म और जगत की एकता का चित्र खींच दिया है।

सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थित:।

सर्वथा वर्त्तमानोऽपि स योगी मयि वर्त्तते। 31 ॥

सभी पदार्थों में ओत-प्रोत - मौजूद - मुझ परमात्मा को जो योगी इस प्रकार - की एकता की दृष्टि से देखता है वह चाहे किसी भी दशा में रहने पर भी बराबर मुझमें ही डूबा रहता है। 31।

आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन।

सुखं वा यदि वा दु:खं स योगी परमो मत:॥ 32 ॥

हे अर्जुन, चाहे सुख हो या दु:ख, (दोनों को ही) सभी पदार्थों में जो अपने जैसा ही अनुभव करता है - जो अपने सुख-दु:ख, जैसे ही दूसरों के सुख-दु:ख का अनुभव करता रहता है - वही परले दर्जे का योगी माना जाता है। 32।

अब अर्जुन ने देखा कि ओ बाबा, यह तो बीहड़ बात है - यह संन्यास तो आसान नहीं है। क्योंकि संन्यास का जो असली प्रयोजन ध्या न और समाधि की सिद्धि है वह मेरे पहुँच के बाहर की चीज है। मेरे मनीराम तो ऐसे भयंकर हैं; चंचल हैं कि न तो कहीं टिकना ही जानते और न आत्मा में जुटना ही चाहते। फिर यह साम्यबुद्धि और समदर्शन रूपी समाधि पूर्ण होगी कैसे? ऊँहूँ। यह नहीं होने की, असंभव है। इसी भाव से वह -

अर्जुन उवाच

योऽयं योगस्त्वया प्रोक्त: साम्येन मधुसूदन।

एतस्याहं न पश्यामि चंचलत्वात स्थितिं स्थिराम॥ 33 ॥

चंचलं हि मन: कृष्ण प्रमाथि बलव द्दृ ढम।

एतस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम॥ 34 ॥

अर्जुन कहने लगा - हे मधुसूदन, यह जो समदर्शन रूपी योग आपने (अभी-अभी) बताया है, मन की चंचलता के करते इसी की मजबूती का होना मैं (संभव) नहीं समझता। क्योंकि हे कृष्ण, यह मन तो चंचल है, बुरी तरह मथ देने, बेचैन कर देने वाला है, बलवान है और बड़ा मजबूत है। (इसीलिए) मैं तो इसे बाँध रखने को हवा को बाँध रखने की ही तरह कतई नामुमकिन मानता हूँ। 33। 34।

श्रीभगवानुवाच

असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम।

अभ्यासेन तु कौंतेय वैराग्येण च गृह्यते॥ 35 ॥

श्रीभगवान बोले - हे महाबाहु, बेशक मन चंचल (और इसीलिए आमतौर से) काबू में नहीं आने वाला है। फिर भी हे कौंतेय, अभ्यास और वैराग्य के बल से ही काबू में आता है। 34।

इस श्लोक के उत्तरार्द्ध में जो कुछ लिखा है ठीक वही बात 'अभ्यासवैराग्यां तन्निरोध:' (1। 12) योगसूत्र में अक्षरश: पाई जाती है। इसका व्याख्यान करते हुए व्यास भाष्य में लिखा है कि 'चित्तनदीनामोभयतोवाहिनी, वहति कल्याणाय, वहति पापाय च। यातुकैवल्यप्राग्भारा विवेक विषयनिम्ना सा कल्याणवहा। संसार-प्राग्भाराऽविवेक विषय निम्ना पापवहा। तत्र वैराग्येण विषयस्रोत: खिलीक्रियते। विवेक दर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोतउद्धाट्यतइत्युभयाधीनश्चित्तवृत्तिनिरोध:।' इसका आशय यह है कि "निरंतर बहने वाली नदी की ही तरह मन भी नदी ही है जो कल्याण की ओर भी बहती है और पाप की ओर भी। इनमें यदि आत्म-ज्ञान के विषयों की ओर झुकाव हो के यह नदी बहे तो कैवल्य और मोक्ष की तरफ जाकर बँध जाती है। विपरीत इसके यदि विवेक शून्य विषयभोग की ओर झुकाव हो के बहे तो जन्म-मरणादि रूपी संसार की तरफ जाती और वहीं बँध जाती है। फलत: विवेक का सोता रुक जाता है। इसलिए वैराग्य का यह काम है कि पहले सांसारिक विषयों का दरवाजा बंद कर दे - ऐसा बाँध बना दे कि विषयों की ओर मन जाने ही न पाए। अनंतर विवेक का अभ्यास करते-करते विवेक के सोते को खोदकर जारी करने का काम कर डाले। फिर तो मन आसानी से उधर ही चला जाएगा।" जब तक पानी का नीचे की ओर का बहाव पहले रोक दिया न जाए उसे ऊँची जमीन या बंद सोते की ओर ले जाएँगे कैसे? वह तो बह के खत्म ही हो जाएगा। इसीलिए संसार से विरागी बनना पहला काम है, जिससे उधर बहकने से यह मन रुके तो सही। फिर जैसे-ऊँची जमीन को खोद के नाली बनाते और पानी ले जाते हैं; खोदने में भी बार-बार कुदाल चलानी होती है; वैसे ही मन को बार-बार आत्मा में लगाने का यत्न करना ही मोक्ष की ऊँची भूमि को खोदकर नाली या सोता बनाना है। इससे यह भी स्पष्ट हो गया कि जब पहले मन रुकता और एकाग्र होता है, तभी आत्मा में लगाया जा सकता है। यही बात पहले आई है। आगे इसी का स्पष्टीकरण यों है -

असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मति:।

वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायत:॥ 36 ॥

(बेशक) मैं मानता हूँ कि जिस मन पर काबू नहीं उससे यह योग सिद्ध हो नहीं सकता। (विपरीत इसके) काबू में आए मन से कोशिश करने पर (पूर्वोक्त) उपाय और हिकमत से सिद्ध हो सकता है। 36।

यहाँ उपाय तो कुछ बताए हैं नहीं। इसलिए पहले ही बताए उपाय लेने चाहिए।

हाँ, तो इतना सुनने पर अर्जुन की निराशा जाती रही जरूर। मगर इसकी कठिनाई का विचार करके उसे खयाल आया कि एक जन्म में तो यह पूरा होने का नहीं। यदि दूसरे-तीसरे आदि जन्मों में पूरा करने का खयाल करें तो ठीक नहीं। क्योंकि एक जन्म में जो कुछ भी किया-दिया और पढ़ा-लिखा होता है वह तो अगले जन्म में भूल ही जाता है। आखिर इसके पहले भी तो हमारा जन्म हुआ था मगर हमें उसकी एक भी बात कहाँ याद है? हमें तो उसका कुछ भी पता नहीं। ऐसी दशा में फिर भी वही असंभव-सी बात आ जाती है। यही ठीक है कि शायद किसी सौभाग्यशाली पुण्यात्मा की समाधि इसी जन्म में पूर्ण हो जाए। मगर आमतौर से लोग अत्यंत चंचल मनवाले ही होते हैं। फलत: उनके यत्न से इसी शरीर में सफलता होगी तो नहीं ही। फिर उनकी क्या गति होगी? वे तो दोनों ओर से गए। एक तो कर्म-धर्म छोड़ा। इसीलिए उससे जो सद्गति होती सो तो हो पाई नहीं। दूसरे योग भी पूरा हुआ ही नहीं कि इसी का मजा मिलता। इसलिए उनकी तो वही दशा हुई कि 'दोनों ओर से गए पाँड़े। न मिला हलवा न मिला माँड़े।' लेकिन फिर मन में दूसरा खयाल आया कि आखिर यह भी तो एक महान कार्य ही है। तो क्या इसके पूरा न होने पर भी इसका कुछ न कुछ सुंदर फल नहीं होना चाहिए? इसी पसोपेश और दुविधे में पड़े हुए -

अर्जुन उवाच

अयति: श्र द्ध योपेतो योगाच्चलितमानस:।

अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति॥ 37 ॥

कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति।

अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मण: पथि॥ 38 ॥

एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषत:।

त्वदन्य: संशयस्यास्य छेत्ता न ह्यु पपद्यते॥ 39 ॥

अर्जुन ने पूछा - हे कृष्ण, श्रद्धायुक्त होने पर भी पूरा यत्न न कर सकने के कारण जिसका मन (किसी भी वजह से) योग से हट गया वह मनुष्य योग-सिद्धि तो प्राप्त कर सकता नहीं। (तब) उसकी क्या दशा होती है? हे महाबाहु, कहीं ऐसा तो नहीं होता कि बादल के टुकड़े की तरह इधर-उधर भटकता हुआ, किंकर्तव्यविमूढ़ और ब्रह्म-प्राप्ति के मार्ग में टिक न सकने वाला वह मनुष्य कहीं का नहीं होता। (और यों ही) चौपट हो जाता है? हे कृष्ण, इस मेरे संशय को मिटाइए। क्योंकि आप से बढ़ के इस शक को दूर करने वाला कोई हो सकता नहीं। 37। 38। 39।

यहाँ यह बात याद रखने की है कि यत्न में पूर्णता और श्रद्धा यही दो चीजें सफलता की कुंजी हैं। इनमें श्रद्धा तो वश की चीज है और वह योगभ्रष्ट में भी है। मगर यत्न में तो हजार बाधाएँ उठ सकती हैं। इसी से इसमें पूर्णता कठिन है। ताहम श्रद्धा के रहते कभी-न कभी वह हो के ही रहेगी। यही 'अयति: श्रद्धयोपेत:' इन दो विशेषणों का मतलब है।

बादल के छींटे या टुकड़े की यह हालत होती है कि उसे हवा इधर-उधर घसीटती और भटकाती रह के गला-पचा देती है। न तो वह बरसी सकता है और न घने बादलों में जा के मिली सकता।

श्रीभगवानुवाच

पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते।

न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति। 40 ॥

श्रीभगवान ने कहा - हे पार्थ, न तो यहाँ और न परलोक में ही उसकी कोई बुरी गति होती है। क्योंकि, ओ मेरे प्यारे, कल्याण के मार्ग पर चलने वाले किसी की भी दुर्गति हो नहीं सकती। 40।

प्राप्य पुण्यकृतां लोमानुषित्वा शाश्वती: समा:।

शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते॥ 41 ॥

योगभ्रष्ट - समाधि की सिद्धि न प्राप्त कर सकनेवाला - (मनुष्य) उत्तम कर्म करने वालों के लोकों में जाके (और वहाँ) बहुत वर्ष - मुद्दत तक - रह के पवित्राचरण वाले श्रीमानों के घर जनमता है। 41।

अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम।

एत द्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम॥ 42 ॥

या नहीं तो योगियों के ही समाज में जा पहुँचता है। असल में इस प्रकार का जो जन्म है वह संसार में अत्यंत दुर्लभ है। 42।

यहाँ श्रीमानों के घर में जन्म लेने की बात कह के फिर योगियों के कुल में जाने की बात कही गई है। ऐसे जन्म को बहुत ही दुर्लभ भी कहा है। प्रश्न यह होता है कि श्रीमान के घर और योगी के कुल में क्या फर्क है? कुछ लोगों ने उत्तर दिया कि धनियों के घर संपत्ति के चलते योगाभ्यास में बाधा होती है। वहाँ आराम में ही फँसने का मौका ज्यादा रहता है। विपरीत इसके योगी कहने का अर्थ गरीब के घर में जन्म लेना है। फलत: वहाँ अभ्यास का मौका पूरा रहता है। इसीलिए यह जन्म पहले की अपेक्षा दुर्लभ है। यह बात इस चीज पर निर्भर है कि मरने से पूर्व उसकी क्या दशा थी। यदि अभ्यास में ज्यादा प्रगति कर चुका था; तब तो उसी की चिंता करते-करते ही शरीरांत होने से 'यं यं वापि' (8। 6) के अनुसार खामख्वाह योगियों के ही घर जनमेगा। योगी से मतलब जनकादि जैसे गृहस्थ से ही है। अंतर यही है कि जनक थे श्रीमान और यहाँ वह बात न होगी। मगर प्रश्न होता है कि मंदालसा तो राजा की पत्नी थी। फिर भी उसके बच्चे आत्मज्ञानी ही होते थे। बचपन से वह यही शिक्षा देती थी। इसलिए ज्ञानी होने के लिए श्रीहीन या दरिद्र होना तो जरूरी नहीं है, अस्तु। और अगर उसकी प्रगति ऐसी ही तैसी थी, तब तो इस योग की धुन होगी नहीं। फलत: धनियों के यहाँ ही जनमेगा।

अच्छा, अब यदि श्रीमान का अर्थ 'समाधि और योग के साधनों से संपन्न' यही करें तो क्या बुरा होगा? तब श्लोक का सीधा अर्थ यही होगा कि या तो जनक, मंदालसा आदि के घर जन्म लेके वहीं अपना काम पूरा करता है; या अगर किसी वजह से वहाँ ऐसा न हो सका तो प्रह्लाद आदि की तरह वहाँ से भाग के योगियों के समाज में जा पहुँचता है और वहीं काम पूरा करता है। यहाँ कुल शब्द गुरुकुल के कुल जैसा ही मान लें तो क्या अच्छा हो - गुरुकुल और योगिकुल। क्योंकि तब योग के अभ्यास करने वालों को ही समाज होने से आसानी भी हो जाती है। इस श्लोक में 'जायते' न लिख के 'भवति' लिखा है। यहाँ इसका भी अभिप्राय 'जा पहुँचना' अच्छी तरह मेल खा जाता है। दो जन्म जुदा-जुदा मान के केवल दूसरे की बड़ाई करने की अपेक्षा एक ही जन्म मान के उसी की प्रशंसा भी ठीक ही जँचती है। क्योंकि अर्जुन का तो प्रश्न था योगभ्रष्ट के ही बारे में। अगर इसमें दो भाग करें तो पहले भाग में आनेवाले की दशा का ठीक-ठीक पता कैसे चलेगा? ऐसा होने पर उत्तर भी अधूरा ही रह जाएगा। अगर आगेवाले श्लोकों में समान तौर पर दोनों की ही बात मान लें तो बीच की यह विभिन्नता वाली बात कुछ यों ही रह जाती है। ठीक जँचती भी नहीं। यदि 44वें श्लोक पर गौर करें तो यह पता चलता है कि उसका मन पूर्व जन्म के अभ्यास के करते ही खिंच के इस जन्म में भी योग में ही जा लगता है। ऐसी दशा में तो श्रीमानों के यहाँ जनमने पर भी योग में ही लगेगा। फिर वह अपेक्षाकृत हलके दर्जे का कैसे माना जाए? बल्कि खिंच जाने का मतलब हमारे ही बताए अर्थ में यों मेल भी खा जाता है कि वहाँ गड़बड़ होने पर वहाँ से भाग के योगियों के समाज में जा पहुँचता है। समाज भी कोई बड़ा हो यह जरूरी नहीं है, जिससे विघ्न-बाधा की बात उठ खड़ी होगी। वहाँ तो ऐसे ही लोग होंगे जो योग की धुन वाले हैं और वे होंगे थोड़े ही।

यहीं पर प्रसंगवश एक बात और भी कहे देते हैं। अर्जुन के प्रश्न और उसके उत्तर हमारे ढंग से तो ठीक मिल जाते हैं। जब वर्णाश्रम के सभी कर्म-धर्म उसने छोड़ रखे हैं तो उसके उभयभ्रष्ट होने की बात स्वयं आ जाती है। कारण वे तो छूटे ही थे, अब योग भी छूट गया। परंतु जो लोग यह बात नहीं मानते और बराबर यही चिल्लाते हैं कि गीता के मत से धर्म-कर्मों को किसी भी दशा में छोड़ नहीं सकते। वे इन प्रश्नोत्तरों को कैसे ठीक कहेंगे? उनके मत के अनुसार दोनों ओर से भ्रष्ट होने या गिर जाने का सवाल आता ही कहाँ है? वह जब मानते ही हैं कि योग के अभ्यास के समय भी नित्य-नैमित्तिक आदि धर्मों को वह योगी करता ही रहता है, तो फिर उनका फल कौन रोकेगा? वह तो अवश्य ही मिलेगा। इसलिए योग का फल न भी मिला तो क्या मुज़ायक़ा? कर्मों का फल तो मिलेगा ही - एक तो मिलेगा ही। ऐसी दशा में दोनों तरफ से चौपट होने या भ्रष्ट होने का प्रश्न उठता ही नहीं। यदि मान भी लें कि अर्जुन ने भूल से ही ऐसा कह दिया था, तो कृष्ण को तो भूल सुधार लेना था। उन्हें चटपट पहले यही कहना था कि उभयभ्रष्टता की बात तो गलत है। पीछे और बातें भी कह सकते थे। मगर ऐसा न कह के उनने भी तो मान लिया कि यही बात है। इसलिए अगत्या कबूल करना ही होगा कि जो संन्यासी या योगी समाधि का अभ्यास करता है उसे धर्म-कर्म छोड़ना ही पड़ता है। उसके लिए कोई चारा हई नहीं।

तत्रतं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम्।

यतते च ततो भूय: संसिद्धौ कुरुनंदन॥ 43 ॥

हे कुरुनंदन, वहाँ उसे पूर्व जन्मवाली बुद्धि ही मिल जाती है। इसीलिए योग-सिद्धि के लिए और भी ज्यादा यत्न करता है। 43।

पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि स:।

जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्त्तते॥ 44 ॥

उस पूर्व जन्म के अभ्यास के ही फलस्वरूप वह जबर्दस्ती उधर ही खिंच जाता है। (यही कारण है कि) योग की जानकारी एवं प्राप्ति की इच्छा वाला भी शास्त्री य विधि-विधान की परवाह नहीं करता। 44।

असल में पहले श्लोक में यह कहने पर कि वह इस जन्म में और भी ज्यादा यत्न योग-सिद्धि के ही लिए करता है, यह प्रश्न स्वयमेव पैदा हो जाता है कि कैसे? दूसरे लोग ऐसा नहीं करते, वही क्यों करता है? इसका उत्तर इस श्लोक के पूर्वार्द्ध में दिया गया है कि पूर्व जन्म का वह प्रबल संस्कार ही उसे योग की ओर बलात घसीट ले जाता है। फलत: इच्छा न रहने या परिस्थितियों के विपरीत होने पर भी उसे उसी काम में लगना ही पड़ता है।

इस पर जो जबर्दस्त प्रश्न पैदा होता है वह यह कि, माना कि संस्कार जबर्दस्त है और उधर घसीटता भी है सही। मगर जब उसने कहीं जन्म लिया तो ब्रह्मचर्यादि आश्रमों से ही हो के तो संन्यासी बनेगा और समाधि का अभ्यास करेगा। यह तो संभव नहीं कि एकाएक संन्यासी ही बन जाए। क्योंकि वेदशास्त्रों के विधि-विधान इस संबंध में मौजूद ही रहते हैं, जो इन आश्रमों को क्रमश: पूरा करने पर ही पूरा जोर देते हैं। ऐसी दशा में जब ये इधर खींचेंगे और पूर्व संस्कार उधर, तो ज्यादे से ज्यादा यही हो सकता है कि दोनों की खींचतान में वह किसी ओर या तो झुके ही नहीं या थोड़ा-बहुत दोनों के अनुसार करे। वह सिर्फ पूर्व जन्म के संस्कारों के अनुसार योगाभ्यास ही करेगा, यह कैसे होगा?

इसी का उत्तर इस श्लोक के उत्तरार्द्ध में है कि जब योग-सिद्धि की लगन उसमें पैदा हो गई, तो फिर वह शास्त्रीरय-विधि-विधान की परवाह क्यों करेगा? कर्मकांड का तो प्रयोजन ही यही है कि लगन, यह उत्सुकता, यह धुन और यह जिज्ञासा पैदा हो जाए। यह तो पहले ही कहा जा चुका है। यह भी बताया जा चुका है कि यह शब्द ब्रह्म का अर्थ वेदशास्त्रदि ही है। और जब यह धुन और लगन पैदा हो गई, तो फिर उन कर्मों या कर्मों के प्रतिपादक वचनों और तन्मूलक आश्रमों की परवाह वह करेगा क्यों? आत्मज्ञानी तो नहीं ही करता है। वह भी नहीं करता है यह मानी हुई बात है। यही कारण है कि उन वचनों पर अमल करने के लिए जोर देने वाले पिता, आचार्य आदि शासकों की भी परवाह वह नहीं करता। प्रह्लाद आदि के बारे में यही बात पाई जाती है। उस पूर्व-अभ्यास और उससे उत्पन्न संस्कार की यही तो अपूर्व शक्ति है।

प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्विष:।

अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम्॥ 45 ॥

(इस तरह) बहुत मुस्तैदी से योग की सिद्धि के लिए यत्न करने वाला विशुद्धान्त: करण योगी (लगातार) अनेक जन्मों के प्रयत्न से ही वह सिद्धि (और) उसके फल स्वरूप परमगति प्राप्त कर लेता है। 45।

तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिक:।

कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन॥ 46 ॥

हे अर्जुन, यह योगी तपस्वियों से भी श्रेष्ठ है, ज्ञानियों से भी बड़ा माना जाता है और कर्मियों से भी ऊँचा स्थान रखता है। इसलिए तुम (जरूर ही) योगी बनो। 46।

यहाँ बहुत गहरे पानी में उतरने की जरूरत नहीं है; हालाँकि कुछ लोगों ने इसकी बड़ी कोशिश कही है। यहाँ खींचतान की अपेक्षा सीधा अर्थ ही ठीक जँच जाता है। सत्रहवें अध्याकय के 'देवद्विजगुरुप्राज्ञ' आदि (17। 14-16) श्लोकों में जिन तीन प्रकार के तपों को गिनाया है उन्हीं के करने वाले तपस्वी हुए। ज्ञान और विज्ञान का विभेद बताते हुए पहले ही कह चुके हैं कि सिर्फ पढ़-सुन के जो जानकारी किसी बात की हो जाती है वही ज्ञान और उसे जिनने प्राप्त कर लिया वही हुए ज्ञानी। सभी प्रकार के श्रोत-स्मार्त्त या दूसरे ही सत्कर्मों के करने वाले हो गए कर्मी। मगर इन तीनों से ही तो काम पूरा होता नहीं। आत्मा के साक्षात्कार के लिए, जिसे विज्ञान भी कहते हैं, कुछ और भी विशेष यत्न और उपाय करने होते हैं, जिन्हें निदिध्यारसन, ध्यामन, योग या समाधि कहते हैं। इन्हें करने वाले ही योगी कहे गए हैं। इससे साफ है कि योगी का काम है इन तीनों की कमियों को पूरा करना। ये तीनों योगी के लिए मार्ग साफ करते हैं, योग की तैयारी करते हैं। यह तो योगी ही का काम है कि उस योग को पूरा करे। वही आखिरी सीढ़ी है। उस पर चढ़ना ही होगा। तभी लक्ष्य स्थान पर पहुँच सकेंगे। इसलिए योगी को सबों से श्रेष्ठ कहना सर्वथा युक्तिसंगत एवं उचित है।

इस तरह कहने के लिए तो योगी को सबसे ऊँचा बना दिया। मगर आखिर योगी भी तो सभी प्रकार के होते हैं। पूर्णयोग या योग की सिद्धि के पहले जानें कितनी ही छोटी-मोटी सीढ़ियों से उसी योग की दशा में ही गुजरना पड़ता है, जैसा कि 'शनै:-शनै:' और 'अनेकजन्मसंसिद्ध:' से स्पष्ट है। इसलिए इन सब हालतों से सफलतापूर्वक गुजरते हुए यदि ब्रह्मानंद में गोते लगाने हैं तो दो बातें अनिवार्य रूप से आवश्यक हैं। एक तो अपने लक्ष्य की प्राप्ति में अटल विश्वास, जिसे श्रद्धा कहते हैं। यह विश्वास जब किसी भी हालत में जरा भी डिग न सके तभी लक्ष्य-सिद्धि हो सकती है। यही बात पहले 'योगोऽनिर्विण्णचेतसा' में कही गई है। दूसरी यह कि वह लक्ष्य अद्वैत ब्रह्म का साक्षात्कार ही है, अपनी ही आत्मा को सबमें ओत-प्रोत देखना ही है, इसी निश्चय के साथ शुरू से ही पूरी लगन और धुन के साथ मन को उसी में लगाया जाए। इसी को भजन कहते हैं। मन को ही अंतरात्मा भी कहते हैं। जो ऐसा करता है वही योगारूढ़ है, वही योगियों में भी सबसे ऊँचे दर्जे का है, वही युक्ततम है। यही बात अंतिम श्लोक यों कहता है -

योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना।

श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मत:॥ 47 ॥

सभी योगियों में भी जो मुझ आत्मारूपी परमात्मा में श्रद्धा के साथ मन को जमा के उसी में डूबा रहता है मेरे मत से वही युक्ततम है। 47।

इस अध्यामय में छ: बार सम शब्द का प्रयोग आया है और वह है 8, 9, 13, 29, 32, 33 श्लोकों में। इनमें 13वें में तो एक सीध में या तने रखने के अर्थ में ही है। शेष पाँच में से 8, 9 और 29 में अद्वैत-आत्मज्ञान वाला समदर्शन ही इसका अभिप्राय है। उस दर्शन का जो परिणाम व्यवहार में होना चाहिए वही 32वें में आया है। फलत: उससे भिन्न अर्थवाला यह भी नहीं है। इसी का उल्लेख मात्र 33वें में आया है। इससे स्पष्ट है कि कर्मयोगवाला


'सिद्धयसिद्धयो: समो भूत्वा' इनमें एक भी नहीं है। यह ठीक है कि यह समदर्शन उसका आधार जरूर है। इसके बिना वह होई नहीं सकता।

इस अध्या य का मुख्य प्रतिपाद्य विषय ध्यासन या समाधि है यह तो हम पहले ही अच्छी तरह लिख चुके हैं। इसी समाधि के सिलसिले में इस अध्यायय में भी 'ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा' में एक बार तीसरे अध्याहय की ही तरह ज्ञान-विज्ञान शब्द भी आ गया है।

इतिश्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशा स्त्रे श्रीकृष्णार्जुन संवादे ध्यालनयोगो नाम षष्ठोऽ ध्या य:॥ 6 ॥

श्रीमद्भगवद्गीता के रूप में उपनिषद् रूपी ब्रह्मज्ञान प्रतिपादक योग शास्त्र में जो श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद है उसका ध्याूनयोग नामक छठा अध्याञय यही है।