छत्तीसगढ़ के राजमुकुट पर चमकते हीरे-सा बस्तर / संतोष श्रीवास्तव

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बस्तर बेल मेटल या डोकरा, वुड कार्विंग, आयरन वर्क, टेराकोटा और क्ले आर्ट के लिए समय-समय पर राष्ट्रीय पुरस्कार पाता रहा है। इन कलाओं के कलाकार ठेठ ग्रामीण हैं जिनका जीवन सुविधाओं से वंचित है। महँगे कोसा और मूँगा सिल्क के निर्यात के बावजूद बस्तर ग़रीब जनपद माना जाता है। जहाँ एक ओर अपने शिल्प के लिए मशहूर है बस्तर वहीँ नक्सलियों को लेकर हमेशा सुर्ख़ियों में रहता है बस्तर...खासकर अबूझमाड़ के जंगल जिन्हें देखने की चाह मेरे मन में धीरे-धीरे अंकुरित हो रही थी...अवसर मिला जगदलपुर की साहित्यिक संस्था कादम्बरी के आमंत्रण का। कादम्बरी की अध्यक्ष उर्मिला आचार्य और हिन्दी साहित्य परिषद् की अध्यक्ष मोहिनी ठाकुर ने फ़ोन पर बताया कि दोनों संस्थाएँ मिलकर लोकार्पण समारोह और मुशायरे का आयोजन कर रही हैं जिसमें मुझे बतौर मुख्य अतिथि शामिल होना है और मुशायरे की अध्यक्षता भी करनी है। हम 2 फ़रवरी 2014 को रायपुर से कार द्वारा जगदलपुर की ओर रवाना हुए। मेरे साथ थीं मेरी अंतरंग दोस्त मधु सक्सेना (रायपुर) अनीता सक्सेना (भोपाल) तथा तिलोत्तमा वाघ (दिल्ली)

अनूठे प्राकृतिक सौंदर्य से युक्त बस्तर के प्रदूषण मुक्त शांत शहर जगदलपुर की ओर जाते हुए मुझे लग रहा था जैसे मैं जंगलों, गुफाओं, जलप्रपातों और आदिवासी जनजातियों से युक्त एक नये विश्व की खोज करने जा रही हूँ। कार हरे-भरे जंगलों के बीच बलखाती डामर की सड़क से गुज़र रही थी। सड़क के किनारे के पेड़ों ने एक आर्च-सा बना दिया था। कहीं-कहीं सड़क से सटे तालाब थे जिनकी स्थिर जल सतह पर सूरज की किरनों के बिछावन में पेड़ों की परछाइयाँ आराम कर रही थीं। कहीं-कहीं धान के सिलसिलेवार खेत थे...पगडंडी विहीन जंगलों में सागौन, साल, सिरसा, आँवला, महुआ और गोंद के दरख़्तों पर कूदते लंगूरों की लम्बी-लम्बी पूँछें बल खा रही थीं और डालियों पर चहचहाते परिंदों की टोली...मैं उन परिंदों में बस्तर के जंगलों की प्रतीक बन चुकी पहाड़ी मैना जो अन्य मैना से बहुत अधिक स्पष्ट बोलती है, ढूँढने की कोशिश करने लगी जो अब लगभग लुप्तप्राय है। जंगल की सघनता जहाँ थोड़ी कम थी वहाँ दस-पंद्रह फूस के छप्पर वाले घर थे। कुछ आदिवासी औरतें कमर में अपने बच्चों को उठाये और सिर पर टोकना रखे एक कतार में चली जा रही थीं।

"सुना है अबूझमाड़ के जंगल बहुत ज़्यादा घने और नक्सलवाद के कारण खतरनाक हैं।" मैंने आसपास के सघन जंगलों की ओर देखते हुए कहा।

"हाँ...हम वहाँ नहीं जायेंगे...बहुत खतरा है वहाँ कभी भी नक्सली हमला कर सकते हैं। तुम्हें नक्सलियों से मिलना हो तो हम जगदलपुर जेल की सैर करा देंगे तुम्हें। जेल अधीक्षक राजेंद्र गायकवाड़ खुद भी कविता लिखते हैं।" कहते हुए मधु ने ड्राइवर से गाड़ी दाहिने मोड़ने को कहा। मधु जगदलपुर में कई साल रह चुकी है और उन्हें यहाँ की काफ़ी जानकारी है। दाहिने मुड़ते ही अपनी खूबसूरत घाटी के लिए मशहूर केशकाल सामने था। घाटी में पंचवटी, गढ़धनोरा, बड़े डोंगर एवं भोंगापाल इतिहास पुरातत्व महत्त्व के केंद्र हैं। केशकाल के बहुत बड़े लोहे के प्रवेश द्वार पर मिलिट्री यूनिफॉर्म में बंदूक हाथ में लिए सिक्यूरिटी गार्ड ने बताया कि जब से नक्सलियों ने आतंक का रूप ले लिया है प्रवेश निषेध है।

गाड़ी के मोड़ पर आते ही देवी माँ का मंदिर था और आगे ख़तरनाक घुमावदार रास्ता। केशकाल घाटी के इन रास्तों का सफ़र खुशनुमा हो, सलामती से भरा हो ऐसी प्रार्थना करते हुए देवी माँ के चरणों में माथा टेकना ज़रूरी था। मैं निरी नास्तिक...सो मंदिर के अंदर नहीं गई। बाकी सबने प्रसाद चढ़ाकर चरण वंदना की। अब हम कोण्डागाँव की ओर थे जो अमरावती माकड़ी का वन क्षेत्र है और जो अपने शिल्प के लिए मशहूर है। यहाँ शिल्पग्राम है जो वनवासी शिल्पकला प्रशिक्षण का केंद्र है। कोण्डागाँव में सड़क के किनारे ही कुछ शोरूम हैं जिनमें हमने इन शिल्प कलाकृतियों को देखा। घंटियों से सजे हाथी, सजावटी बर्तन तथा मेज पर रखी जाने वाली आकर्षक वस्तुओं में से कोण्डागाँव के कलाकारों का बेजोड़ शिल्प स्पष्ट दिखाई दे रहा था। पहले ये शिल्पकार सैलानियों को अपनी कलाकृति का डिमाँस्ट्रेशन दिखाते थे। अब वैसा नहीं था। वजह कोई भी हो हम कला के इस नमूने से वंचित रह गए।

जगदलपुर पहुँचते-पहुँचते लंच का समय निकल गया था और भूख ज़ोरों से लगी थी। होटल दशांश में हमारे रहने का इंतज़ाम किया गया था। मोहिनी ठाकुर अपने पति सुकुमार ठाकुर के साथ मिलने आईं। आते ही गले लगीं-"संतोष, मैं तुम्हारे लिए गरम कपड़े लेकर आई हूँ, तुमने कहा था न कि तुम्हें ठण्ड बहुत लगती है।" उनका आत्मीयता से भरा वाक्य सुनकर मुझे याद आया कि जब मैं मुम्बई से बस्तर के लिए रवाना हो रही थी तब मैंने फ़ोन पर उन्हें बताया था। इतनी छोटी-छोटी बातों का ध्यान रखने वाली मोहिनी दी मुझे बहुत अपनी-सी लगीं।

लंच के बाद मोहिनी दी हमें रायपुर से निकलने वाले दैनिक अखबार देशबंधु के जगदलपुर ब्यूरो प्रमुख देवशरण तिवारी के घर ले गईं क्योंकि उन्हें आसपास के उन शिल्पकारों की जानकारी है जिनसे हम मिलना चाहते थे। देवशरणजी बहुत अच्छे ग़ज़ल गायक भी हैं। कच्चे धूल भरे रास्ते से वह हमें टेराकोटा शिल्पकारों के घर ले गए। टेराकोटा के शिल्पकार मिट्टी से घंटियों वाला हाथी, लैंप, मुखौटे और कई तरह का सजावटी सामान बनाते हैं। घंटियों से सजा हाथी इस कला की ख़ास पहचान है। इतने सुंदर पशु पक्षी, जानवरों को गढ़ने वाले कलाकारों के गोबर मिट्टी से बने कच्चे घर और फूस का छप्पर देख मन भर आया। इन शिल्पकारों का शिल्प न केवल भारतीय बल्कि विदेशी पर्यटकों के मन को भी लुभाता है। सभी ने कुछ न कुछ ख़रीदा।

वहाँ से हम आयरन वर्क के कलाकार के घर गए। गोबर लिपे कच्चे आँगन में भट्टी सुलगाये वह लोहे की छड़ों को पिघलाकर तरह-तरह के खूबसूरत शेप दे रहा था। बैलगाड़ी, नाचते हुए आदिवासी, लैंप वगैरह बनाना उसके बायें हाथ का खेल था। नाम था विद्याधर...वह अमेरिका में भी अपनी कला के कारण बुलाया गया था। उसे न ढंग की हिन्दी आती थी न अंग्रेज़ी। उसे अपनी कला के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला है। उसने एक अल्बम दिखाया जिसमें अमेरिका की उसकी तस्वीरें थीं। एक तस्वीर में एक विदेशी बाला उसके चौके में चूल्हे पर रोटियाँ बनाने की कोशिश कर रही थी। विद्याधर बेलमेटल जिसे डोकरा भी कहते हैं कि कला से भी वाकिफ़ है। ताम्बा और जिंक के मेल से वह तरह-तरह की आकृतियाँ गढ़ता है। यहाँ खनिज के रूप में लोहे की बहुतायत के कारण इस शिल्प का विकास हुआ। विद्याधर के आँगन में एक पालतू तोता इधर से उधर फुदक रहा था और छत्तीसगढ़ी भाषा में जाने क्या-क्या बोल रहा था। रात घिर आई थी। कच्ची सड़क पर सन्नाटा झाड़ियों में टिमकते जुगनुओं को फोकस कर रहा था। देवशरणजी के आग्रह पर हम उनके घर गए। उनकी पत्नी ने हमारी ख़ातिर तवज्जो में कोई कसर नहीं छोड़ी। चाय की चुस्कियों के संग हम उनकी और उनके बेटे की गाई ग़ज़लों का आनंद लेते रहे। डिनर राजेंद्र गायकवाड़जी के घर था। उनका फ़ोन था कि हम कब तक पहुँच रहे हैं। जब हम उनके घर जाने के लिए अपनी कार की तरफ़ चले तो आसमान में अर्धचंद्र बहुत लुभावना लग रहा था। मैंने चाँद पर लिखी अपनी कविता की दो पंक्तियाँ सुनाई... फिर क्या था चाँद पर केन्द्रित कविताओं की गंगा ही बह निकली। फ़ोन दोबारा बजा...समय काफ़ी हो रहा था। हालाँकि डिनर की बिलकुल गुँजाइश नहीं थी फिर भी जाना तो पड़ेगा ही।

बहुत बड़े हरे भरे परिसर में स्थित जेल अधीक्षक के बंगले के बाहर लॉन में बैठकर हमने चाय पी। हरियाली की वजह से मच्छर झुंड के झुंड आसपास मंडरा रहे थे इसलिए अंदर जाना पड़ा-"यहाँ कैदियों द्वारा बनाई कलाकृतियों का शोरूम भी देख लें...अगर कुछ ख़रीदना हो तो ऑर्डर कर दें... सुबह पैक किया मिल जाएगा। मेरी इच्छा है सुबह आप जेल भी देख लें...कैदियों को अपनी कविताएँ सुनाएँ। आपसे पहले अग्निशेखरजी की कैदियों से मुलाक़ात करवाई थी हमने।" मेरा लेख जो मैंने विचाराधीन महिला कैदियों पर लिखा था "ख़ामोश चीख़ों का जंगल बंदिनी प्रकोष्ठ" राजेंद्र जी ने पढ़ा था बोले-"आपको तो महिला जेल ज़रूर देखनी चाहिए... आपको अंतर समझ में आएगा यहाँ कैद महिलाओं के बारे में।"

खाने के बाद एक दौर कविताओं का चला। सभी ने अपनी एक-एक कविता सुनाई। राजेंद्रजी से विदा लेते हुए रात के ग्यारह बज चुके थे। हम जब होटल लौट रहे थे सड़कों पर लोगों की आवाजाही नहीं के बराबर थी। जगदलपुर सन्नाटे की गिरफ़्त में था।

कादम्बरी का समारोह शाम पाँच बजे से था। सुबह साढ़े आठ बजे ब्रेकफास्ट के बाद चित्रकोट जलप्रपात के लिए रवाना होने के पहले मोहिनी ठाकुर को उनके घर छोड़ा था। लामनी स्थित उनका बंगला खूबसूरत बगीचे से घिरा था। पेड़ के टूटे हुए तने पर तश्तरी बराबर कुकरमुत्ते उगे हुए थे। अमरुद के पेड़ पर अधपके अमरुद देख बचपन याद आ गया। सुकुमारजी ने हम सबको अमरुद तोड़कर खिलाये। लामनी हरे भरे दरख़्तों से घिरा इलाका है। बगीचे से हटने का मन ही नहीं कर रहा था लेकिन चित्रकोट के आकर्षण को भी तो नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता था।

जगदलपुर से 40 किलोमीटर दूर स्थित चित्रकोट जलप्रपात इन्द्रावती नदी के जल को ऊँची-ऊँची परतदार चट्टानों से 96 फीट नीचे तलहटी तक कई स्तरों को पार करते हुए लाता है। इसे भारत का नियाग्रा कहते हैं। इसके संपूर्ण सौंदर्य को नाव के द्वारा ही देखा जा सकता है। इसके प्रत्येक स्तर पर जाने के लिए प्राकृतिक सीढ़ियाँ हैं। यानी चौड़ी-चौड़ी प्याज़ी और सिलेटी रंग की चट्टानें सीढ़ियों की शक्ल में हैं। तलहटी के पानी पर इन्द्रधनुष ने तो मानो डेरा ही डाल रखा है। किसी भी कोण से देखो इन्द्रधनुष नज़र आता है। चित्रकोट के ऊँचाई वाले स्तर पर हम बेतरतीब सीढ़ियों से चढ़कर गये और देर तक भीगते रहे। इन्द्रावती नदी तन मन में समा गई-सी लगी...कितना अद्भुत अहसास कि हम नदी में नहीं समाये, नदी हममें समा गई। लौटते हुए गन्ने के मीठे रस ने भीगे मन को और-और भिगो दिया। एक छतनारे बरगद के नीचे बने चबूतरे पर कुछ आदिवासी महिलाएँ कई तरह के लकड़ी से बने वाद्य बेच रही थीं। बस्तर की लोक संस्कृति में वाद्यों का बहुत महत्त्व है। यहाँ लोकगायिका लछमी जगार, तीजा, बाली जगार और पंडवानी ने देश विदेश में बहुत लोकप्रियता हासिल की है। ये रोज़मर्रा में उपयोग आने वाली चीज़ों से अपने वाद्य गढ़कर गाती थीं। बरगद के नीचे बैठी आदिवासी महिलाओं के गले में विचित्र-सी माला थी। ऐसी माला मैंने कहीं नहीं देखी। लौंग के आकार के चौकोन टुकड़े जो सोने या चाँदी से बनाये जाते हैं, हर टुकड़े में तीन लौंग रहती हैं, फिर इन्हें काली पोत के संग पिरोया जाता है। आदिवासी महिलाएँ इसे सुहाग चिह्न के रूप में पहनती हैं।

शाम को कादम्बरी समारोह में जगदलपुर के साहित्यकारों से परिचय हुआ। कादम्बरी महिला संस्था है। सचमुच महिला लेखक कितना अधिक काम कर रही हैं और कितने बड़े पैमाने पर यह उनसे मिलकर ही पता चलता है। रऊफ, परवेज़, भी आये थे मुशायरे में। मेरी बस्तर के कालजयी रचनाकार लाला जगदलपुरी से मिलने की इच्छा मन में ही रह गई। अब वे नहीं हैं। साहित्यिक तीर्थ कहा जाने वाला डोकरी घाटपारा स्थित उनका कवि निवास अब सूना पड़ा है। उनके कविता संग्रह 'गीत धन्वा' को पढ़कर उनसे मिलने की मेरी चाह अधूरी ही रह गई जिन्होंने लिखा है–नहीं इच्छा कि सुलझे कंठ महफ़िल तक पहुँच जाऊँ। नहीं इच्छा कि गा-गा कर किसी दिल तक पहुँच जाऊँ। तमन्ना सिर्फ़ इतनी है कि लम्बी राह कट जाए। मज़े से गुनगुनाता गीत मंज़िल तक पहुँच जाऊँ।

शायद लाला जगदलपुरी की प्रेरणा हो कि मुशायरे में मेरी ग़ज़ल सुनकर कोण्डागाँव के कवि चित्तरंजनजी ने कहा-"मैं आपको कोण्डागाँव कवि सम्मेलन में अगर बुलाऊँ तो आयेंगी?" और मेरी स्वीकृति पर वे गद्गद् हो गए।

कार्यक्रम के बाद मोहिनी दी हमें कोसा सिल्क मार्केट ले गईं। बस्तर के कोसा की प्रसिद्धि अब देश-विदेश, महाद्वीप के बाद अंतर्राष्ट्रीय ट्रेड फेयर तक पहुँच गई है। जर्मनी में तो एक ऐसी प्रदर्शनी आयोजित होने जा रही है जो बस्तर के रैली तथा मूँगा कोसा के बारे में विस्तृत जानकारियाँ देगी। कोसा सिल्क के कीड़े अर्जुन के पेड़ की पत्तियाँ खाकर पनपते हैं और मूँगा सिल्क के कीड़ों का आहार सोम नामक पेड़ की पत्तियाँ हैं। अर्जुन और सोम बस्तर के जंगलों में बहुतायत से पाये जाते हैं। कोसा और मूँगा सिल्क भी रेशम की तरह तैयार किया जाता है। बहुत महँगा होता है कोसा सिल्क। मधु ने बताया कि रायपुर में थोड़ा सस्ता मिलेगा इसलिए ख़रीदारी न करते हुए हम खुदेजा ख़ान के घर की ओर रवाना हुए। खुदेजा कवयित्री और शायरा हैं और उनका विशेष आग्रह था कि हम उनसे मिले बिना न लौटें। बेहद खुशमिज़ाज़ खुदेजा ख़ान मुझे देखते ही मुस्कुराते हुए बोलीं-"ज़हेनसीब, आप हमारे घर आईं। आपकी बहुत बड़ी फैन हूँ मैं। समरलोक में तो आपका स्तंभ अंगना पिछले दस सालों से पढ़ती आ रही हूँ।"

फिर देर तक अपनी कविताएँ सुनाती रहीं। बिदा होते समय उन्होंने अपनी पुस्तकें 'संगत' और 'सपना-सा लगे' मुझे भेंट कीं-"सचमुच सपना-सा लगता था कि आपसे भेंट हो पाएगी कभी।"

"लेखक तो पूरे विश्व का होता है जो अपनी रचनाओं के ज़रिए आपस में मिलता रहता है। मेरी रचनाएँ मुझे आपसे मिलाती रही हैं, मिलाती रहेंगी।"

खुदेजा ख़ान ने बहुत आत्मीयता से गले लगकर कहा-"हमारी दुआ है आप इसी तरह लिखती रहें।"

मोहिनी दी को डॉक्टर के क्लिनिक पर उतरना था। तय हुआ कि सुबह नाश्ते के बाद हम उन्हें उनके घर से लेते हुए पहले जेल देखेंगे और फिर कुटुमसर की गुफाएँ और तीरथगढ़ जलप्रपात देखेंगे।

केंद्रीय जेल के गेट में प्रवेश करने के पहले हमारे मोबाइल ले लिए गए। बहुत बड़े मज़बूत गेट में बने एक छोटे से गेट से हम राजेन्द्रजी के केबिन में गए। उनकी पत्नी सरोजजी भी आ गई थीं। हमें राजेन्द्रजी ने एक महिला अधिकारी के साथ जेल के विभिन्न प्रकोष्ठों में भेजा। ऊँची-ऊँची दीवारों से घिरे जेल में आजीवन कारावास झेल रहे कैदी जिनमें से कुछ खूँख्वार नक्सली, आतंकवादी थे तो कोई खूनी। खून की वजहें भी छोटी-छोटी थीं। खाने में नमक ठीक मिक़दार में नहीं है या चावल जल गए हैं तो पति ने पत्नी का खून कर दिया या ज़मीन-जायदाद, खेत-खलिहान के झगड़े, आपसी रंजिश। सभी कैदी अलग-अलग वर्कशॉप में कार्यरत थे। लोहे, लकड़ी का फर्नीचर बनाने के कारखाने थे। मसाले कूटना, छानना, दरियाँ बुनना, बस्तर की मशहूर कलाकृतियाँ बनाना, जेल की यूनिफॉर्म सीना आदि सभी काम ये कैदी करते हैं। इनके मेहनताने में से आधा इनके परिवार को दिया जाता है और आधा उस परिवार को जो इनके ज़ुल्म का शिकार है। महिला प्रकोष्ठ में अधिकतर महिला कैदी खाना पकाती हैं, साग सब्ज़ी के बाग में काम करती हैं। जो विचाराधीन हैं, वे जेल की यूनिफॉर्म में नहीं थी बाकी लाल किनारीवाली नीली साड़ी पहने थीं। एक महिला कैदी से मैंने पूछा-"किस बात की सज़ा मिली है तुम्हें?"

उसने आसमान की ओर इशारा किया-"भगवान जाने, पाँच साल से क्यों जेल में हूँ।"

"छूटने पर घर जाना चाहोगी?"

"हाँ जायेंगे बाई, पर हमें पता है वे गाँव से हकाल देंगे हमें। औरत जात कांच की मूरत...ज़रा-सी ठेस लगी कि चूर-चूर..."

उसकी सूनी, उजाड़ आँखों ने मुझे सोचने पर मजबूर किया। चाहे घर की कैद हो या सरकारी जेल की, औरत को कहीं से आज़ादी मयस्सर नहीं। मन भारी हो गया।

राजेन्द्रजी से विदा ले हम दो गाड़ियों में बँट गये। सरोजजी भी साथ थीं।

"कैसा लगा जेल?" सरोजजी ने पूछा...फिर राजेन्द्रजी के कैदियों के लिए किये गए कामों के बारे में बताने लगीं।

"यह तो तय है कि नक्सलवादियों पर पुलिस काबू नहीं कर पाई। अभी दस दिन पहले दो पत्रकारों की हत्या नक्सलियों ने की जिसके विरोध में मशहूर लेखक, संपादक गिरीश पंकज 16 पत्रकारों का दल लेकर अबूझमाड़ के घने जंगलों में गये। सौ किलोमीटर तक की पदयात्रा की उन्होंने पर नक्सलवाद पर रोक कहाँ लग पाई?"

सरोजजी को शायद इस पर कोई तर्क नहीं देना था। उन्होंने ताड़ जैसे दिख रहे पेड़ की ओर इशारा किया। जिसके तने पर मिट्टी की हँडिया लटक रही थीं-"इन हँडियों में रात भर पेड़ का रस इकठ्ठा होता है जिसे सल्फ़ी कहते हैं। ये सूर्योदय के समय पिया जाता है वरना दिन चढ़ते ही ये नशीला हो जाता है।"

अरे...ऐसा ही पेय तो नीरा के नाम से महाराष्ट्र में मिलता है। पेड़ के पत्ते भी इसी तरह के होते हैं। शाम होते ही नीरा ताड़ी बन जाता है।

कुटुमसर की गुफाएँ कांकेर वैली में हैं। कांकेर दूधनदी के तट पर गढ़िया पहाड़ की तलहटी में है वहाँ जिला मुख्यालय भी है। घुमावदार पहाड़ी रास्ता था जो सघन वृक्षों से गुज़रता था। जंगल के सन्नाटे को एक झाड़ से दूसरे झाड़ पर कूदते लंगूर मुखर कर रहे थे। बेहद खूबसूरत रास्ता जैसे हरियाली के समंदर में तैरता हमारा जहाज हो। कुटुमसर की गुफाओं की खोज सन 1900 में की गई और 1951 से इसे पर्यटकों के लिए खोला गया। घुप्प अँधेरे में लोहे की सँकरी घुमावदार सीढ़ियों से हमें 72 फीट नीचे उतरना था। गुफाएँ 330 मीटर लम्बी थीं। दो गाइड सर्चलाइट सहित हमारे साथ थे फिर भी जहाँ सर्चलाइट का उजाला नहीं पड़ता पाँव लड़खड़ा जाते। स्टेलेग्माइट और स्टेलेक्टाइट (चूने के स्तंभ) सर्चलाइट में दिपदिपा रहे थे। लाइमस्टोन से टपकता पानी झाड़फानूस की शक्ल में वहीँ का वहीँ जम गया था। गुफाओं की दीवार पर लाइमस्टोन ने तरह-तरह की आकृतियाँ गढ़ दी थीं। लगभग एक घंटे तक हम इन गुफाओं के अंदर जैसे एक तिलस्म से गुज़रे। गुफ़ा से बाहर आते ही हमें अपने कपड़ों, चेहरे और हथेलियों पर नमी महसूस हुई। जिसे रूमाल से सुखाते हुए मेरी नज़र कुछ आदिवासी महिलाओं की ओर गई जो दोने में जंगली बेर, इमली आदि बेच रही थीं। मैंने उनकी फोटो खींची तो उन्होंने शरमाकर चेहरा हथेलियों में छुपाने की कोशिश की। हँसते हुए उनके दाँत बेहद सफ़ेद और ठोड़ी का गोदना बड़ा लुभावना लग रहा था। बस्तर की जनसँख्या में तीन चौथाई तो इन्हीं जनजातियों और आदिवासियों की है। गोंड, मड़िया, मुरिया, धुरवा (परजा) दोरला, भतरा, हल्वा, अबूझमाड़ी आदि जनजातियों के अपने अलग कबीले हैं और हर एक कबीले की अपनी मौलिक संस्कृति, मान्यताएँ, बोलियाँ, रीतिरिवाज़ एवं खान-पान की आदतें हैं। अबूझमाड़ी शर्मीले व संकोची होते हैं और एकांतवास करते हुए वे घने जंगलों में शिकार करते हैं। ये सारी जनजातियाँ जंगलों से लकड़ी, लाख, मोम, शहद, चमड़ा साफ़ करने और रंगने के पदार्थ इकठ्ठा करते हैं। अपनी छोटी-छोटी खुशियों में जीने वाले ये आदिवासी जहाँ मुर्गे की लड़ाई के लिए मशहूर हैं वहीँ सींगों से सजे मुकुट पहनकर उत्सवों में ढोल बजा-बजा कर नाचते हैं। मुझे तो इनकी घोटुल परंपरा ने बहुत प्रभावित किया। घोटुल जैसे अंग्रेजों का क्लब हो। घोटुल में अविवाहित युवक युवतियाँ मिलते हैं वहाँ उनके माता पिता या सगे-सम्बन्धियों का कोई दख़ल नहीं होता। वे वहाँ नाचते, गाते, खाते, पीते, मौज मज़ा करते हुए एक दूसरे को पसंद कर लेते हैं और फिर धूमधाम से उनके सम्बन्धी उनका विवाह करते हैं। यह प्रथा इतनी गोपनीय होती है कि यहाँ गाँव या शहर का कोई व्यक्ति प्रवेश नहीं कर सकता।

दंतेवाड़ा में शक्तिपीठ मंदिर है। देवी के नाम से प्रसिद्ध यह मंदिर बस्तर का आराध्य मंदिर है। कहते हैं यहाँ सती का दाँत गिरा था। यहाँ का दशहरा भी इन्हीं पर केन्द्रित होता है। जो जगन्नाथजी की रथयात्रा के साथ शुरू होता है और विजयादशमी तक चलता है। दंतेश्वरी देवी का छत्र रथ में रखकर घुमाया जाता है। उसे कुम्हड़ाकोट ले जाते हैं और विजयादशमी के दिन पूजा करके उसे मंदिर में वापस ले आते हैं। यहाँ रावण नहीं जलाया जाता। यहाँ दण्डकारण्य भी है जिसे ये राम के वनवासकाल का दंडकवन मानते हैं।

तीरथगढ़ जलप्रपात आ गया था। जो जगदलपुर से 35 कि।मी। दूर है। जलप्रपात तो सौ फीट की ऊँचाई से गिर रहा था लेकिन हमें बहुत सारी सीढ़ियाँ उतरकर जलकुंड तक जाना था जो परतदार चट्टानों के कारण अनूठा लग रहा था। सीढ़ियाँ लोहे की रेलिंग वाली थीं और रेलिंग से सटे हरे भरे दरख़्तों पर बंदर धमाचौकड़ी मचाए थे। जलकुंड से फिर नीचे उतरता है जलप्रपात एक खूबसूरत आकार में। वहीँ शिवमंदिर भी था। सीढ़ियाँ चढ़ने-उतरने की कवाय़त की वजह से भूख़ लग आई थी। सरोजजी पुलाव और सलाद घर से लेकर आई थीं। चाय के टपरे में बैंचों पर बैठकर हमने पुलाव और चाय वाले की बनाई गरम भजिया का आनंद लिया। कांकेर वैली राष्ट्रीय उद्यान सामने था जिसका गेट बंद था। खुला भी होता तो समय कहाँ था उसे देखने का।

मोहिनी दी को लामनी में अपने घर उतरना था। हम कार से नहीं उतरे। मोहिनी दी ही झटपट अंदर जाकर मेरे लिए महुआ का अचार ले आईं। सुकुमारजी श्याम तुलसी के ढेर सारे पत्ते एक पैकेट में भरकर ले आये। इतनी काली श्याम तुलसी मुम्बई में नहीं मिलती... "खाँसी की मुफ़ीद दवा और ये महुआ का अचार...नया स्वाद देगा।"

उनकी आत्मीयता से बँधी मैं पल भर को भूल गई कि अभी दो दिन पहले ही तो उनसे मुलाक़ात हुई थी।

हमें कैदियों की बनाई वुड कार्विंग कलाकृतियाँ ख़रीदनी थीं...राजेन्द्रजी के घर के बगल में ही शोरूम था। राजेन्द्रजी ने ढेर सारी इमली और तेजपात के पत्ते पेड़ पर से तुड़वाकर दिये। ये सौगातें मेरे लिए अनमोल थीं। जगदलपुर से विदा लेकर हम रायपुर की ओर हो लिए।

न जाने अब कब दुबारा आना हो जगदलपुर...जगदलपुर जो पहले जगदूगुड़ा नाम से जाना जाता था। जहाँ का इतिहास गवाह है राजवंश घरानों का और यह भी कि यहाँ नलवंश, नागवंश, गंग, चालुक्य तथा काकतीयों का आधिपत्य था। यहाँ के अंतिम महाराजा प्रवीरचंद भंजदेव थे जिनकी 1996 में गोली मारकर हत्या कर दी गई।

रास्ते में तमाम गाँवों से गुज़रते हुए हमने उन हाटों (साप्ताहिक बाज़ार) को भी देखा जिससे बस्तर के स्थानीय स्वरुप को समझा जा सकता है। पूरे बस्तर में तीन सौ हाट हैं जिनमें आदिवासी जंगल से इकट्ठी की गई वस्तुओं के बदले नमक, तम्बाखू, कपड़े एवं अन्य दैनिक उपभोग की वस्तुएँ खरीदते हैं। हाट में मैंने दोने में लाल चीटियों को बिकते देखा। यहाँ की लाल चींटी से बनी चटनी और सल्फी देश विदेश में मशहूर है। लाल चींटियाँ मैंने कम्बोडिया के बाज़ारों में भी बिकते देखी थीं। वहाँ तो सभी प्रकार के कीड़े-मकोड़े खाये जाते हैं।

बस्तर अब पीछे छूट रहा था। छूट रहे थे बस्तर के आदिवासी जो अपनी तमाम रूढ़िवादिता, अंधविश्वास, अनोखे रीतिरिवाजों, मान्यताओं, शकुन-अपशकुन, भूतप्रेत, झाड़फूँक, जादूटोना, टोटका के बावजूद बस्तर के जंगलों की धरोहर हैं। जहाँ सूखे की स्थिति में इंद्रदेवता को प्रसन्न करने के लिए मेढ़क-मेढ़की का विवाह करने की अनूठी परंपरा है। मान्यता यह है कि इस विवाह से प्रसन्न हो इंद्रदेवता बारिश करेंगे।

छत्तीसगढ़ राज्य के राजमुकुट पर चमकते हीरे-सा खूबसूरत बस्तर चार दिन में घूम लेने वाली चीज़ नहीं है। लेकिन ज़िन्दगी इससे ज़्यादा की फुरसत भी तो नहीं देती। लौटते हुए एक जंगली सुगंध रायपुर तक पीछा करती रही जैसे पाहुनों को गाँव के छोर तक जाकर विदा करने की परंपरा का निर्वाह कर रही हो।