छत से नाले में जाती प्रतिभा की बूंदें / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 28 नवम्बर 2018
केंद्र सरकार ने स्कूली बस्ते का वजन तय कर दिया है जो 1.5 किलो से पांच किलो तक होगा। भारी बस्ते उठाने वाली कौम बौनों को जन्म दे सकती हैं। बच्चे पीठ पर पहाड़ लादे हुए शिक्षा के एवरेस्ट पर चढ़ते नज़र आते हैं। क्या अब हल्के बस्ते लेकर वे उड़ने लगेंगे। कभी यह चिंता नहीं की गई कि उन बस्तों में रखी किताबें ज्ञान देती हैं या महज जानकारियां? क्या वे गूगल की गुटखा संस्करण हैं? या गूगल के पूर्व लगाया गया अनुमान? सत्य यह है कि परीक्षा में अधिकतम अंक लाने का कीमिया बताती हैं-ये पुस्तकें। गला काट प्रतियोगिता में कैसे सहपाठी की पीठ पर पैर रखकर आगे बढ़ें, यह शिक्षा का सार रह गया है। हर शहर और कस्बे की दीवारों पर कोचिंग क्लास के विज्ञापन लगे हैं। शिक्षा के कुटीर उद्योग विकसित किए गए हैं। यह विशुद्ध 'मेक इन इंडिया’ है। पाठ्यक्रम बदलने की कवायद जारी है। हमने अपने विगत को रोमेंटेसाइज किया है। एक संदिग्ध गौरव की खोज कर ली है। हुक्मरान ने इस गौरव गाथा को दोहराने वाले सवैतनिक कोरस की नियुक्ति कर दी है। अमेरिका में फिल्म बनी थी। 'हिस्ट्री ऑफ वायलेंस’। एक छात्र सहपाठी को गोली मार देता है। पकड़े जाने पर कहता है कि यह उसने अपने पिता से सीखा है।
इसके साथ ही याद आती है एक अन्य घटना। 'जंजीर’ के लिए ख्यात फिल्मकार प्रकाश मेहरा के निकटतम मित्र और भागीदार का एकमात्र सुपुत्र परीक्षा में फेल हो गया और लड़के ने आत्महत्या कर ली। जब उसकी शवयात्रा निकल रही थी तब विश्वविद्यालय के अधिकारी ने बताया कि वह प्रथम श्रेणी में पास हुआ है। परिणाम बताने वाली मशीन में दोष आ गया था। असली दोष तो व्यवस्था को संचालित करने की मशीन में है।
एक घटना में कक्षा आठवीं तक एक छात्र प्रथम आता रहा। कक्षा 9वीं में नया छात्र आया, जिसके पिता के तबादले के कारण उसने वहां प्रवेश लिया। अगले दो वर्षों की परीक्षाओं में यह छात्र प्रथम आता रहा और वह पहले वाला छात्र दूसरे नंबर पर चला गया। उसकी मां उसे निरंतर प्रथम आने की बात दोहराती थी। इस दबाव के चलते उसने अपने प्रतिद्वंदी की हत्या कर दी। याद आ रहा है कि शांताराम ने जितेंद्र अभिनीत फिल्म बनाई थी। शायद फिल्म का नाम था 'बूंद जो बन गई मोती’ कथासार कुछ इस तरह था कि नया नियुक्त शिक्षक छात्रों को कक्षा से बाहर ले जाकर पढ़ाता है। वह छात्रों को बताता है कि प्रकृति सबसे बड़ी पाठशाला है। इस फिल्म का एक गीत इस तरह था-'यह कौन चित्रकार है, ये सर्प-सी घुमावदार घाटियां, ये तपस्वी से खड़े हुए वृक्ष देवदार के, यह कौन चित्रकार है।'
आमिर खान ने अमोद गुप्ता की लिखी 'तारे जमीन पर’ बनाई थी। एक नन्हे छात्र को दृष्टि में त्रुटि के कारण ब्लैक बोर्ड पर अक्षर नृत्य करते दिखते हैं। उसे हंसी का पात्र बना दिया जाता है। एक नए संवेदनशील शिक्षक का आगमन होता है और वह छात्र की परेशानी समझ लेता है। छात्र पेंटिंग में प्रवीण है। एक लंबी प्रक्रिया द्वारा छात्र की परेशानी दूर की जाती है। वह चित्रकला प्रतियोगिता में प्रथम आता है। इस फिल्म के एक दृश्य में शिक्षक कहता है कि सोलोमन आइलैंड पर अनावश्यक वृक्ष को काटते नहीं है। उसके सामने खड़े रहकर उसे अपशब्द कहते हैं। इस काम के दोहराव का परिणाम यह होता है कि वह वृक्ष शर्मसार होकर स्वयं ही गिर जाता है। हमारे हुक्मरान कभी शर्मसार नहीं होते। अपनी योजनाओं की विफलता को स्वीकार नहीं करते। अहमदाबाद से कुछ किलोमीटर दूर सादरा नामक स्थान पर महात्मा गांधी द्वारा स्थापित नवजीवन शिक्षा संस्थान में एक पाठशाला स्थापित की गई है। जहां एक व्याख्यान के लिए मुझे निमंत्रित किया गया था। इसी अनुभव के बाद मैंने 'महात्मा गांधी और सिनेमा’ नामक किताब लिखी।
बहरहाल, गांधीजी का कथन था कि जो शिक्षा संस्थान आदर्श व्यावहारिक जीवन जीने को अपने पाठ्यक्रम में शामिल नहीं करते और मात्र परीक्षा और प्रतियोगिता केंद्रित होते हैं, वह मृत समान संस्थाएं हैं। 1921 में भालजी पेंढारकर ने एक फिल्म 'वंदे मातरम आश्रम' बनाई थी, जिसके प्रारंभ में ही गांधीजी का उक्त कथन मोटे अक्षरों में लिखा दिखाया गया था।
बस्तों के वजन से अधिक आवश्यक है सच्चा पाठ्यक्रम बनाना और सबसे भयावह यह है कि हमने अच्छे शिक्षक नहीं बनाए। हमारे सारे उपक्रम लाक्षणिक इलाज से अधिक कुछ नहीं हैं। रोग जस का तस कायम है।