छप्पन छुरी, बहत्तर पेंच / रणेन्द्र

Gadya Kosh से
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”ए मुन्नू बाबू”

…………’

”मुन्नुआ”

”जी भैया”

”ही ही ही……..”

”अच्छा ई बताव कि तोर नानीघर भी शामगंज अउर दादीघर भी शामगंज, है कि नय?”

”हाँ, है”

”तब तो तोर बाबूजी वियाह के पहले ही तोर अम्मा के देखलतुन होत” (तब तो तुम्हारे बांबूजी ने ब्याह के पहले ही तुम्हारी अम्मा को देखा होगा)

”नहीं मालूम’

’लभ मैरेज हलो का जी?”

…………

हा-हा-ही-ही-

”छीह! आप लोग गन्दे हो’

लेकिन मेरी चिल्लाहट नुक्कड़ के ठहाकों में खो जाती, मैं ठिसुआया हुआ, रूआँसा घर की ओर भागता। इन सबको चिढ़ाने की आदत हो गयी थी। गन्दे लफुआ सब । वे सब के सब मुझसे बहुत बड़े थे। हाई स्कूल, कॉलेज में पढ़नेवाले, काम करनेवाले। मैं तब छोटा था, कोई छह-साल का विद्यार्थी। मन करता सबको भगा-भगा कर दम भर पीहूँ। मुँह नोच लूँ। मुहल्ले में जैसे सब गालियाँ देते हैं, वैसो ही गन्दी गन्दी गालियाँ दूँ। लेकिन सब बदमाश-गुंडे लोग। दिनभर हा-हा- ही-ही करने वाले, खैनी खाकर पिच-पिच थूकने वाले, गन्दे लफुआ सब । अभी छोटा हूँ सो मन मसोसकर रह जाता। घर में भी कुछ बता नहीं पाता। लेकिन उनकी चिढ़ाने की आदत जाती नहीं थी। कभी कुछ, तो कभी कुछ। कभी चिढ़ाते कि ’तोर अम्मा बाबूजी के उमर में ढेर अन्तर हो जी! का बात हो” कभी,’तोर अम्मा बड़ी गोर हथुन (है) और बाबूजी साँवर, इन्टरका यात चक्कर हो का जी” उसके बाद ठहाका। ये ठहाके मेरे बदन में आग लगा देते। घर में घुसते उतरा मुँह देखकर अम्मा बिना टोके कहाँ मानती?

’क्या हुआ?”

’नहीं, कुछ नहीं,’

’कुछ तो हुआ है,’

’वे नुक्कड़ पर जो भैया लोग अड्डा लगाये रहते हैं, वो बड़े गन्दे हैं’

”गन्दे हैं तो वहाँ तुम जाते क्यों हो? कितनी बार कहा है कि गली में मत निकलो चुपचाप पढ़ने में मन लगाओ। लेकिन मानो तब न.....’

अम्मा को मनपसन्द विषय मिल जाता। वो शुरू हो जातीं। बात मुझसे शुरू होकर बाबूजी तक पहुँचती। उनकी भुनभुनाहटों का लब्बोलुआब यह होता कि बाबूजी ने उन्हें और उनके बच्चों को इस गन्दे मुहल्ले में लाकर फँसा दिया है। कोई ढंग का आदमी नहीं है इस मुहल्ले में जिससे बात की जाए। सब्जी-मछली बेचनेवाली, ट्रक ड्राइवर, बीड़ी वर्कर, लेबर ये ही लोग तो रहते हैं मुहल्ले में। यहाँ रहने का क्या फायदा? बच्चों पर कितना खराब संस्कार पड़ रहा है? स्कूल नजदीक होने से क्या होता है? दो ही किलोमीटर दूर तो शहर है, वहाँ से भी बाबूजी स्कूल आ सकते हैं। हेडमास्टर क्या हैं, समझते हैं कलक्टर हैं। दिन-रात स्कूल-स्कूल। स्कूल के चक्कर में बाल-बच्चा सबको भूले रहते हैं। आग लगे ऐसे स्कूल को जिसके फेरा में फँसकर रह गये हैं। बच्चा सब बड़ा हो रहा है। इस मुहल्ले में रहकर गुंडा बनने की तो गारंटी है...... आदि-आदि।

मुहल्ले के बाद किराये के इस घर को कोसने का नम्बर आता। यह कच्चा- पक्का, आधा छप्परपोश और आधी छतवाला मकान उन्हें कभी पसन्द नहीं आया। उन्हें हमेशा अपने मैके का तीन मंजिला मकान याद आता रहता। उसी से इसकी तुलना कर कोसने का कार्यक्रम लम्बा चलता। कम से कम आधा घंटा। चिल्लाहट के बाद, भुनभुनाहट, उसके बाद बरतनों की झनर-मनर। लेकिन हमें वह घर बहुत अच्छा लगता। कितना बड़ा तो आँगन था? गाय बंधी रहती तब भी हम भाई-बहन भरपूर उछल कूद कर लेते। छप्पर पर कोहड़ा-भतुआ के लत्तर भी चढ़ा लेते। भतुआ-पेठे का मुरब्बा, अम्मा के हाथ का कोई जोड़ नहीं, बेजोड़ बनता।

मुहल्ले में केवल गन्दे भैया लोग ही थोड़े थे, अच्छे लोग भी बहुत थे। कोने पर डॉक्टर साहब भी तो थे। घर के एकदम सामने वाले बखौरी मैया कितने अच्छे? कितना मानते थे हम लोगों को। बगल वाली दइया भी, कितनी अच्छी। जब देखिये तब कुछ न कुछ अच्छा खिलाना-पिलाना चाहतीं। मुहल्ले के और लोग भी कितना तो हमें मानते थे। सबको हमारी चिन्ता। दलान पर बैठ बीड़ी बनाती या नल पर बर्तन माँजती-पानी भरतीं मुहल्ले की चाची-काकी-दीदी लोग भी हम पर एक नजर रखतीं।

”हे, एतना जोर से मत दौड़िये, गिर जाइयेगा’’

’’आज अम्मा का पकाई है?”

”आज पढ़ने नयँ गये, मुन्नू बाबू”

किसी न किसी बहाने दुलारती रहती। सो इस मुहल्ले को अम्मा भला-बुरा कहती तो अच्छा नहीं लगता। नुक्कड़ के भैया लोग गन्दे हैं तो हैं। बड़े होकर उनसे भी समझ लेंगे। अम्मा बड़ा शहर-शहर किया करतीं। अपना वह छोटा-सा कस्बा कोई कम थोड़े ही था। बाजार छोटा-सा ही सही लेकिन हर तरह की दुकानें तो थीं। हाँ! बाटा कम्पनी की दुकान नहीं थी लेकिन कौन रोज जूते खरीदता है। बैंक, पोस्ट ऑफिस, सिनेमा हॉल, को डस्टोरेज और बाबूजी का हाईस्कूल सब तो था। क्या कमी थी?

सबसे अच्छा स्कूल के पिछवाड़े से शुरू होकर दूर तक फैले हरे-भरे खेत लगते। सालों भर हरे-भरे। आलू की दो-दो फसलें। तभी तो बगल के गाँव के बारे में कहावत प्रसिद्ध थी कि वहाँ रोज सवा सेर सोना बरसता है। दक्षिण कोने - पर मील भर की दूरी पर सत्रह नम्बर। सरकारी सिंचाई केन्द्र। मोटे पम्प से भल-भल बहता पानी। दो बड़े हौदों को भरता नहर से होता, नालियों से खेतों तक पहुँचता । इतवार को हम वहाँ नहाने जाते। नहाना कम, हौदों में कूद-कूदकर हुड़दंग ज्यादा।

सब्ज़ी लदे खेतों की पगडंडियों पर दौड़ते-गिरते वापस आते। अपने खेत के लदे पौधों को दुलार से निहारते, निकौनी करते, खुरपियाते, लोग हमें डपटते रहते। हमारी उछल कूद से कहीं पौधे नहीं खराब हों। हालाँकि उनके फसल प्रेम का बाजार के लोग मजाक उड़ाया करते कि ’ई किसान लोग बैंगन को तो बड़ी इज्जत देते हैं, लेकिन बूढ़े बाप के लिए मन में कोई आदर नहीं है। कहेंगे कि ”वैगनवा फरअ हथिन’ (बैंगन फल रहे हैं) और ”बप्पा जा ह’(बाप जा रहा है)”| लेकिन इन चुटकलों का उन पर कोई असर नहीं पड़ता। बैंगन-आलू फलते रहे। आशानगर, सोहडीह, सहोखर जैसे गाँवों में दो मंजिले-तीन मंजिल मकान खड़े होते रहे। बाजार के आलू आइतों के सामने रातों में ट्रकों की लम्बी कतार खड़ी होती रही। भले इन गाँवों के दामादों को दिक्कत होती रही हो। इस पर भी कई चुटकले। इन गाँवों के नये दामादों की सबेरे-सबेरे नींद खुलती तो पाते कि घर में कोई है ही नहीं। बच्चे बाहर गली में और बूढ़ा-बूढ़ी दालान के कोने में हुक्के गुड़गुड़ा रहे हैं। चाय तक पूछने वाला कोई नहीं। बेचारा मन मार या तो फिर सो जाता या मटियाये पड़ा रहता। जब धूप निकलती, घर के लोग खेतों से कुदाल- खुरपी-टोकरी संग वापस आते। तब जाकर कुढ़ते दामाद बाबू को चाय नसीब होती। तब तक भूख से पेट कुकुआता रहता, बेचारा दामाद माथा पीट लेता कि कौन मुहर्त में यहाँ शादी की और काहे ससुराल आये?

यहाँ की बेटियाँ बहुत जब्बर, बहुत मेहनती, बहुत खटनेवाली। खेती- खलिहानी की तो पंडिताइन। किन्तु जोर-जबरदस्ती, हुकुम के आगे नहीं दबने वाली। बारह चौदह घंटा खटती हैं, जांगर चलाती है तो खाती हैं। दबेंगी काहे। हाथ-पैर चलाइयेगा तो सब फेंक-फाक कर नैहर। अब टापते रहिये। माथा पीटते रहिये। नयें झुके, घमंड में फूले रहे तो मान कर चलि, दूसरा घर बसा लेंगीं। दबती तो हमारे मुहल्लों की भी लड़कियाँ नहीं थीं। अगर गाँव-देहात में शादी हो गयी और वहाँ मार-पीट हुई तो सीधे नैहरा। बाजार में सब्जी की दौरी- टोकरी लेकर बैठेंगी, आलू गोदाम में खटेंगी। पेटे न भरना है। सास-ससुर, मरद का बोल-कुबोल काहे सहें। मार-पीट का तो नामे मत लीजिये।

हमारे मुहल्ले में समय लुढ़कता रहता। रोज सुबह-शाम नल पर एकाध झगड़ा। एकाध झोंटा-झोंटी होती। मुहल्ले की जीवन्तता बनी रहती। उस समय अम्मा की पूरी कोशिश होती कि हम बाहर नहीं निकलें। निकलते ही गाली- गालौज के कीचड़ से सनते। बिगड़ने और गुंडा बनने की पूरी आशंका। गालियों के दो तरफा बात बरसा में खानदान का पोल खोल भी चलता रहता। वहीं पोल खोल की झूठी-सच्ची कहानियाँ नुक्कड़ का टाइम-पास बनीं ।

लेकिन दशहरे के समय संगत-मैदान में रामलीला मंडली के आते मुहल्ले का माहौल ही बदल जाता। दिन-रात राम-लीला की गप्प। छप्पन छुरी की गप्प। कौन छप्पन छुरी वही लीला के बीच-बीच में नाचने वाली। इंद्र दरबार, दशरथ दरबार, रावण दरबार को गुलजार करने वाली। उसके मंच पर आते ही शोर उठने लगता, ’छप्पन छुरी बहत्तर पेंच, जब लागे तो पेंचे पेंच”। शोर और सीटियों से उत्साहित होकर वह ज्यादा ही उछल-उछलकर नाचती। एक से एक गीत। "पोरे-पोरे उठत है दरदिया, ननदिया रतिया कैसे कटतई’। एक और गीत याद है, ’चुनरी में लागत है हवा, बलम बेलबाटम सिआ दऽ जी’ । होंगे राजेश खन्ना फिल्मों के सुपर स्टार और शर्मिला-मुमताज सुपर स्टारिन। लेकिन उस समय कस्बे की सुपर स्टारिन वह छप्पन छुरी ही थी। होंगे बिनाका गीत माला में ’कटी पतंग’, ’रोटी’ के गीत छाये। लेकिन यहाँ तो सारे कस्बे के पोरे-पोर में दरद उठ रहा था और चुनरी को हवा लग रही थी।

यह छप्पन छुरी वाली है कि वाला है इस पर भी बहस चलती रहती। मैया लोग का कहना था कि वह लड़का है, लौंडा। दिन में अपनी आँखों से देखा है। लेकिन हमारा मन नहीं मानता। लड़का था तो त्रिभुवन बॉस ने उसे उठाने की कोशिश क्यों की? उसी रात, जिस रात सीता स्वयंवर के पहले जनक दरबार में छप्पन छुरी ने नाचते हुए मंच वाली चौकी तोड़ डाली थी। क्या गीत था, झक्कास? ’खेतवा के आरी आरी मारे सिसकारी, गवनवा ले जा राजा जी’। घर में गुनगुनाते अम्मा का करारा थप्पड़ पड़ा था। त्रिभुवन बॉस के झंझट के मारे उस साल रामलीला पूरी नहीं हुई। पार्टी चुपके से खिसक गयी। उसी दिन हम समझ गये थे ई तिरभुवना मामूली बदमाश नहीं है। प्राण, प्रेम चोपड़ा, अजीत जैसे कम से कम आठ-दस बदमाश मरे होंगे तब यह पैदा हुआ होगा, हरामी ।

यह तो बड़े होकर बाद में समझा कि बाजार में जितने आढ़त हैं, आलू का जितना व्यापार है, ट्रकों की जितनी लम्बी कतारें हैं, कोई न कोई रंगदार तो रहेगा। और यह भी कि इलाके में जिस जाति का वर्चस्व होगा, एमपी, एमएल, होंगे, रंगदार भी उसी जाति का होगा। लोग मन मार कर यह सन्तोष किया करते कि कुत्ते और रँगदार की उम्र बस बारह साल ही होती है।

रामलीला पार्टी तो चली गयी, किन्तु छप्पन छुरी मानो वहीं बस गयी हो। नुक्कड़, गली हर कहीं। त्रिभुवन बॉस की हरकत ने उसकी ख्याति को और हवा दे दी थी। ’खेतवा के आरी आरी मारे सिसकारी’ गीत उस कस्वे का राष्ट्रीय गीत हो गया। जिधर देखिये उधर छप्पन छुरी और उसके बहत्तर पेंचों की ही गप्प । अभी छप्पन छुरी की यादों पर धूल जमने भी नहीं पाई थी कि मुहल्ले की हवा बदल गयी। नल के ठीक मामने तो खाली प्लॉट था, जिसमें मुहल्ले भर का कूड़ा फेंका जाता, उसकी दाहिनी ओर के साहू जी के खाली मकान की एक कोठरी में बुद्धदेव उर्फ बौधा अपनी बहुरिया के संग रहने आया। बीघा में कोई खास बात नहीं थी। बीस-इक्कीस साल का बौधा मुहल्ले के अन्य लोगों की तरह ही था, मेहनत-मजदूरी करने वाला। रामचन्दर साव के आढ़त में बेलदारी शुरू की थी। हाँ! यह बात थी कि बौधा साफ-सुथरे ढंग से पहनता-ओढता। करीने से रहता। यह नहीं कि एक-दो छींटदार लुंगी पहनकर अन्दर बाहर सब जगह घूम रहे हैं। बेलदारी भी करने जाता तो बाजाप्ता पैजामा-कमीज, सेंडिल पहनकर । बाल-वाल ढंग से काढ़े हुए। दाढ़ी बनी हुई। साँवला चेहरा दमकता हुआ।

यह सब नयी बहुरिया के कारण था। यह बहुरिया ही थी जिसके कारण मुहल्ला सनाका खाये हुए था। अब याद करता हूँ तो लगता है कि नयी उमर की सब बहू-बेटियाँ डाह से भक-भक जल रही थीं। दूर से ही घाह महसूस होती। जिसे देखिये वही उसे संकेत कर फिकरा पढ़ रहा है, "आयल बहुरिया फूलल गाल, फिन बहुरिया ओही हाल ।"

जहाँ तक मुझे याद है तब तक मैं हाई स्कूल में पहुँच चुका था। खूब लम्बा भी हो रहा था। आँठवीं में रामवरण भी थे। नुक्कड़ की बगल वाली गली वाले। ठीक नुक्कड़ पर के तीन मंजिला मकान वाले श्रीप्रकाश-पोका से दोस्ती हुई। अब जब भैया लोग वहाँ नुक्कड़ पर खड़े नहीं होते तो हम तीनों नीचे बरामदे की रेलिंग पर पैर लटकाये बैठे पाये जाने लगे। अम्मा के हाथों कई बार पिटने के बावजूद ।

पोका के बरामदे की रेलिंग पर पैर लटकाये हम इस बात पर बहस किया करते कि झलकारी, बौधा-बहुरिया, मुमताज जैसी लगती है कि ’जय संतोषी माँ” फिल्म की हिरोइन की तरह। रामवरण का मानना था कि हू-ब-हू, डीटो मुमताज है। जबकि मेरा मानना था कि नहीं ये ’जय संतोषी माँ’ की हिरोइन जैसे दिखती है। (दरअसल मैंने तब तक मुमताज की कोई फिल्म ही नहीं देखी थी। हाँ ! अम्मा- बाबूजी के साथ हाल-फिलहाल हम भाई-बहनों ने ’जय संतोषी माँ’ देखी थी।) पोका का अपना कोई मत नहीं था। कभी रामवरण की बात उसे सही लगती कभी मेरी। इसलिए वह तय नहीं हो पा रहा था कि वह लगती किसकी तरह है? वैसे नुक्कड़ के लफुआ लोगों ने पहले उसे नयकी छप्पन छुरी घोषित किया फिर कुछ महीने बाद जब उसका नाम जाना तो एक फिकरा ही बना डाला, "अलख दिखा दे झलक, उठा जरा पलक" ।

नई जगह! नया मुहल्ला-टोला, नये-नये लोग, झलकारी करती भी तो क्या करती? बौधा दिन भर रामचन्दर साव के आढ़त में बेलदारी करता कि उसकी रखवाली में घर में बैठा रहता। अब गृहस्थी के सी झंझट, बर-बाजार नहीं निकाले तो चूल्हा कैसे जले। तर-तरकारी, पानी-वानी के लिए उसे बाहर निकलना ही पड़ता।

आज सोचता हूँ तो यह लगता है कि छोटा घूँघट किये वह चुपके से गुजरना चाहती। किन्तु उसकी चाल में कुछ खास आत्मविश्वास, एक अनोखी ठसक थी। लगता, वह नहीं चल रही हो, बल्कि कोई राजहंसिनी मानसरोवर में तैर रही हो या कोई राजमहिषी अपनी प्रजा को अनुग्रहीत करती गुजर रही हो। लगता कि इस मुहल्ले की गलियाँ युगों से इन कदमों की प्रतीक्षा कर रही थीं। जैसे पतझड़ के बाद पेड़ की शाखाएँ नयी, कोमल, हरी सुगबुगाहट की प्रतीक्षा करती हैं या तट की रेत यह प्रतीक्षा करती हैं कि कोई लहर आये और उसे पूरी तरह भिंगोती चली जाये। वैसी ही, प्रतीक्षा। एक खास अहसास की प्रतीक्षा अब जाकर पूरी हुई हो।

लेकिन उस समय क्लास आठ के इस विद्यार्थी को भी बहुत खीझ होती कि झलकारी के गली से गुजरते, नुक्कड़ पर लफुए तब अलख झलक की क्यों रट लगाते हैं या मुहल्ले की औरतों को उसके बारे में उल्टा-पुल्टा सोचने और आँय- बाँय बक-बकाने के अलावे और कोई काम नहीं रह गया है क्या?

कभी मुहल्ले में तैरती गरम-गरम फुसफुसाहटें यह बताने की कोशिश करतीं कि झलकारी किसी बड़े घर की बेटी है, बौधा भगाकर लाया है। चार दिनों के बाद कहानी बदल जाती । मालूम होता कि किसी दुहाजू की बीबी थी, दम्मा वाले अधेड़ मर्द की। खाँ, खाँ, से घबड़ाकर बौधा के संग निकल आयी। कुछ दिनों बाद कहानी में फिर मोड़ आता कि बड़े काश्तकार की बेटी है, बौधा उसी घर में धाँगर था। दोनों भाग आये। बाद में बौधा के घर-टोले की बड़ी दुर्गति हुई। हर हफ्ता, चार दिनों पर बदलने वाली इन कहानियों का लब्बोलुआव यही था कि झलकारी, बौधा की ब्याहता नहीं है। भगाकर लाया है या भागकर आयी है। इसलिए मुहल्ले के दरवाजे उसके लिए नहीं खुलने चाहिए। डाह की आँच, यहाँ से वहाँ तक फैली हुई थी। जलने की गंध चारों ओर छायी हुई।

लेकिन दइया और बखौरी भैया के घर क्या करते? जहाँ कोई दरवाजा ही नहीं था। चौखट ही नहीं। बस एक बड़ा-सा आँगन था। जहाँ चिरई-चुनमुन फुदकते रहते। बेरोक-टोक । इनमें झलकारी भी कब शामिल हो गई किसी को मालूम ही नहीं पड़ा। लेकिन जब उसके मगही गीतों से जाड़े की धूप-तपकर ज्यादा गुलाबी होने लगी तो मुहल्ले की फिजां बदलने लगी। आज भी उन गीतों के बोल मेरे कानों में गूंजते हैं, 'पिया बिना हिया मोरा कुँहुकई हो रामा, भोरे ही भोरे। चम्पा के फुलवा मुरझाये हो रामा, भोरे ही भोरे'। सैंयाँ की पगड़ी और अपनी चुनरी एक ही रंग में रंगने की जिद्द तो और भी गजब थी। दइया के घर और हमारे दरवाजे के बीच दूरी ही कितनी थी? बस दो कदम की। सो स्कूल में छुट्टी के बाद अपने घर के आँगन में दइया के साथ-साथ अलकारी को भी चना का साग बनाते हुए देखा तो कोई आश्चर्य तो नहीं हुआ, एक अजीब तरह की खुशी जरूर हुई।

आज जब उस सांझ को याद करता हूँ तो सबसे पहले एक उजास की याद आती है जो आँगन में चारों ओर फैली थी। सब कुछ ज्यादा ही उजला-उजला लग रहा था। वो हँसुआ जिस पर वह चना-साग को महीन-महीन कतर रही थी, उसकी छुअन से इतना दमक रहा था कि मानो चतुर्थी का चाँद हो। लतरों और क्यारियों के फूल कुछ ज्यादा ही खिलखिला रहे थे। हवा की सरसराहट और चिड़ियों की चहचहाहट सब पर उसका असर था। उस रात मेरे सपने में भी वह आयी। रामवरण ठीक कहते थे, वो एकदम मुमताज जैसी ही दिख रही थी। सपने में भी चाँद के हँसुए पर वह कुछ कतर रही थी। चाँद ही चाँद और दुधिया उजास। सपने दुधिया करते हुए।

लेकिन आठो पहर, तीन सौ पैसठों दिन हवा मद्धम-मद्धम बहती रहे, ऐसा कहाँ होता है? वह गरम भी होती है, लू भी बहती है, चक्रवात भी उठते हैं। जाड़े की उस गहरी रात में एक धमाके से मुहल्ले की नींद खुल गयी। जिन लोगों ने किवाड़ खोल झाँकने की कोशिश की उन्हें धुँधलके में त्रिभुवन बॉस दिखा। बौधा को टांगकर ले जाते हुए। गोली बौधा को लगी थी, यह तो समझ में आया किन्तु त्रिभुवन वहाँ क्या कर रहा था? वह क्यों उसे ले गया ? यह बात समझ में नहीं आ रही थी।

सवेरे मुहल्ले ने देखा कि बॉस के लोग पट्टियों में लिपटे बौघा को उतारकर चले गये। खोज-खबर लेने जब कोठरी में पहुँचे तो रोता-कलपता बौधा तो खाट पर लेटा था, किन्तु झलकारी का कहीं अता-पता नहीं था।

नदी से लौटती औरतों ने खबर दी कि झलक तो मुँह अंधेरे, चार बजे भोर से सूर्य मन्दिर के पास पानी में घुसी हुई है। न पुकारने पर सुनती है, न कुछ बोलती है। चार-पाँच घंटे से नाक तक पानी में डूबी देह गला रही है।

मुहल्ले को बिना कुछ कहे-सुने सब अहसास हो गया। बौघा-झलकारी को आये छह महीने भी नहीं हुए थे, कुत्ते को खीर की महक मिल गयी थी। रात में कुत्ता खीर जुठाने ही आया था। बौधा ने हड़काने की कोशिश की होगी तो काट खाया।

दइया पलक झपकते सूर्य मंदिर पहुँच गयी। साथ में मुहल्ले की दीदी-काकी लोग। जबरन झलक को पानी से निकाला गया। चादर-कम्बल से ढॉप-ढूंक कर, लिये दिये अम्मा की कोठरी में। बेहोश झलक। चेहरा एकदम सफेद । भंसा- रसोईयर से गरम तेल को कटोरी लेकर भाग दौड़ शुरू हुई। आधे घंटे बाद होश में आयी। लेकिन मुँह से बकार भी नहीं फूट रहा। ऐसे ताक रही जैसे किसी को पहचानती ही नहीं हो।

फिर उसे ढाँप-ढूंप कर सब डॉक्टर साहब के यहाँ। अम्मा भी इस बार साथ गयीं। डॉक्टर साहब मुहल्ले के, बहुत कुछ तो जानते ही थे। झलक की गरदन- बाँहों पर नोचने-खसोटने के निशान देखे तो और कुछ जानने को बाकी नहीं रहा। उन्होंने अपने काले चोंगे वाले भारी-भरकम टेलीफोन से नम्बर मिलाना शुरू किया, किर्र-किर्र की आवाज बाहर तक आ रही थी। बहुत मुश्किल से आधे घंटे बाद नम्बर मिला। शायद राँची में किसी बड़े डाक्टर से बात की। अंग्रेजी में बड़े विस्तार से। लगता है सारी कहानी सुनाई। क्लिनिक के बाहर भीड़ में रामवरण- पोका के साथ मैं भी था। डॉक्टर साहब की बात ठीक से समझ में तो नहीं आ रही थी। लेकिन शॉक और डिप्रेशन जैसे शब्द बार-बार दुहराये जा रहे थे। डॉक्टर साहब की दवा से झलक खूब सोया करती। लेकिन जागने के बाद इसकी हालत जस की तस । न बोलना न चालना। न किसी को पहचानना। वो तो दइया थी जो उसकी देह को सँभाल रही थी। बखौरी भइया भी बिना किसी के कहे बौधा के दवा-दारू, मरहम पट्टी में लगे हुए थे। खाने-पीने का प्रबन्ध 1 तो पूरा मुहल्ला देख रहा था।

बाबूजी और हमलोगों के स्कूल निकल जाने के बाद दइया बिना नागा झलक को अम्मा के पास ले आती। आँगन की धूप में सब बैठते। मुहल्ले की अन्य दीदी लोग भी अपने सिलाई-कढ़ाई लेकर आ जातीं। लेकिन झलक जस की तस, पत्थर की मूर्ति। टिफिन में हम जब घर जाते तो देखते कि अम्मा के पास बैठी झलक चुपचाप दीवार निहारे जा रही है।

बीच-बीच में दइया झड़वाने-फुंकाने की बात छेड़ती तो अम्मा जोर से डॉट देती। आखिर दवा ने असर दिखाना शुरू किया। उसकी निगाहों में हलचल दिखाई दी। फिर आँसू ढरकने लगे। लेकिन दीवार का पूरा जाना अभी बन्द नाहीं हुआ था। वही मूक भयावह विलाप। वहीं आँखों से ढरकते आँसू। जब तक कि दवा खिलाकर सुलाया नहीं जाय।

लगभग दस दिनों के बाद, शायद शनिवार था। हम टिफिन के बाद घर ही में थे। आँगन, धूप में अम्मा के पास मुहल्ले की दीदी लोग, कढ़ाई-बुनाई करती हुई। वहीं चटाई के कोने पर झलक बैठी हुई थी। तभी लगा कि उसकी जजरों में पहचान उभर रही है। वह एकाएक मुड़ी और अम्मा से लिपट, भोंकार पारकर रो पड़ी। लगा उसके सारे दुख इन्हीं चंद पलों में बाहर आने को अकुला रहे हों। रूलाई की तेज आवाज के साथ-साथ अटपटे शब्द बहुत कुछ करते हुए, 'ई परपुता बौधा हमके कहीं के नयँ छोड़लक हे चाची! हम के सतभतरा वाली बनाय देलक हे चाची! ऐकर भरोसे हम आपन दुनिया-संसार छोड़के निकल गेली। भाग के मन्दिर में विवाह करली, हे चाची! ऐही परपुता के भरोसे कोनो विधि विधान नयँ मानली, बियाह के कोनो रसम, कोनो विधि नयँ होलक, हे चाची! देवता- पितर नयँ पूजैलेंन हल्दी कुटाई, न मटकोर.....। हवा-बतास के नयँ तो न्योता पड़लक, नयँ आम-महुआ के वियाह होलक....... ....नयँ तो चौठारी पूजैलक......... नयँ आपन घर के सिराघर के कुलदेवता के सिर झुकौली..... ओकरे पाप लागलक हे चाची! जूठाबल ई देह लेके अब हम नयँ जीयब। हमके जहर-माहुर दिलाय देह, हे चाची!

लगा उसके रूलाई-गीत कभी खत्म नहीं होंगे। आँगन में सबकी आँखें डबडबा आयी थीं। झलक का गुस्सा उस गुंडे त्रिभुवन के खिलाफ नहीं, बल्कि बौधा और अपने खिलाफ ही फूट रहा था। उसे लग रहा था कि भागकर शादी कर गलती की। विवाह की रस्में, अच्छी-बुरी शक्तियों की पूजा नहीं होने से वो नाराज हो गयीं। देवता, पुरख, पितर की उपेक्षा का उससे पाप हुआ। उसकी न रूक रही रूलाई और जहर-माहुर की माँग से सबकी छाती फट रही थी। मुहल्ले ने तो बौधा और झलक के दुख को अपना दुख बना लिया था। सब बेरते। किन्तु बाजार में उनके घावों की कोई चर्चा ही नहीं थी। वहाँ तो त्रिभुवन बॉस ही छाये हुए थे, "क्या बड़प्पन ! केतना बड़ा कलेजा ! बौधा ने गाली- गालौज की, झंझट किया। अब गलती से पिएल खाएल में बॉस से गोली चल गयी। लेकिन देखिये तो उसी बौधा को बॉस खुद अपने हाथों से टाँग ट्रॅगकर डॉक्टर के यहाँ पहुँचाये। ऑपरेशन-दवा का खर्चा उठाया। मामूली बात है का। केतना बड़ा कलेजा। ठीके खाँटी सूर्यवंशी है त्रिभुवन बाबू।" सूर्यवंशी कि सुथनीवंशी! साला एक नम्बर का लम्पट और लंफगा या तिरभुवना। दो नम्बर की आमदनी दोनों-हाथों से उड़ाता रहता। ताड़ी-चास गाँजा-भाँग सरेआम पीता। कस्बे का ध्यान खींचने के लिए चित्र-विचित्र हरकतें करता। कभी घोड़ा दौड़ाते हुए नजर आता। कभी बुल्लेट मोटर साइकिल फटफटाता। करूणाबाग से हमारे मुहल्ले से गुजरता अड्डे पर, वहाँ से सहोखर- जीटी रोड से करूणाबाग। रोज-रोज नयी-नयी नौटंकी। कभी माथे पर देवानन्द की तरह आगे की ओर बालों का फुग्गा और पीछे से खलवाट मूड़ा हुआ एकदम चिकना। कभी आगे के बाल मूड़े हुए पीछे पड़ोसन फिल्म के महमूद की तरह मोटी चोटी। जहाँ-तहाँ मुँह मारने वाला गुंडा और जोकर का गजब मिक्सचर था तिरभुवना।

एक दिन एकादशी को देवी थान में पूजा करते झलकारी पर देवी माँ की असवारी आ गयी। एकदम अगिन माई। खुले बालों को झटका देकर झूमती- खेलती अगिन माई। झलक की आवाज बदल गयी थी। चेहरा-मोहरा भाव बदल गया था। भर माँग सिन्दूर, ललाट पर लाल बड़ी बिन्दी। माटे-मोटे काजल से फैली आँखें और लाल भभूका होता गोरा रंग। साक्षात माई। देवी थान में पूजा की भीड़ अब अगिन माई के गीत गा रही थी। अगिन माई एक-एक का भूत-भविष्य उच्चारते बीच-बीच में तिरभुवना कुत्ते को खोजने लगती। आज उस मोछकबरा- मोछमुत्ते, देहजरौना को जिन्दा जमीन में गाड़ने का संकल्प था माई का।

देवी थान में भीड़ बढ़ती जा रही थी। लगा कि बाजार में भी खबर पहुँच गयी। अगिन माई ऐसे लोगों का भूत-भविष्य बाँच रही थी जिन्हें झलकारी ने कभी देखा भी नहीं था। लोगों का माई पर विश्वास पुख्ता, चरणों में लोटने वाले उठना ही नहीं चाहते। तभी त्रिभुवन लोट लगाता दिखा। अव्वल कि यह माई के चरण छूता माई ने लात मारकर उसे दूर ठेल दिया। भय से थरथर काँपते त्रिभुवन को उसे संगी खींचकर ले गये नहीं तो अनर्थ हो जाता।

असवारी जाने के पहले झलकारी ने या अगिन माई ने, न जाने किसने, हवा-बतास की पूजा की, आग, पानी, हवा, आँधी, चींटी-पिपरी, सबके नाम से अक्षत-सिंदूर। देवी थान के बगल में साहू जी के बगीचे में घुसकर आम-महुआ के पेड़ों में लाल धागे लपेटे। झलकारी के ब्याह में जिन-जिन देवता-पितर की पूजा बाकी रह गयी थी, सबकी पूजा अगिन माई ने सम्पन्न की, तब विदा हुई। उसी साल से बड़े नेम-धरम से झलकारी ने भी छठ व्रत की शुरूआत की। सारे लफुआ लोगों की लफुआगिरी इस पर्व में गायब हो जाती। सब एकाएक धार्मिक हो जाते। मिलजुल कर साफ-सफाई। गली-मुहल्ले सब साफ-सुथरे चिकने। यहाँ तक कि सबसे गन्दे नदी के किनारों की सफाई त्रिभुवन बॉस और टोले के लोग बड़ी श्रद्धा से करते। झलक अपने घर से सूर्य मन्दिर तट तक लेट- लेटकर साष्टांग दंडवत करती जाती। चौबीस घंटे का निर्जला उपवास । बहुत कठिन व्रत। भर रास्ता उसके पैर पूजने वालों की भीड़। त्रिभुवन बॉस ने भी बिना झिझक उसके पैर छूकर प्रणाम किया।

लेकिन अगिन माई की असवारी और छठी माई की पूजा का झलक की जिन्दगी पर कोई असर नहीं पड़ा। देहबल और दू नम्बरी पैसे के नशे पर जब दारू का नशा तारी होता तो वह कुत्ता, अगिन माई और छठ माई को भूल हँड़िया जुठाने घर में घुस ही जाता।

ठीक है कुत्ता और रंगदार की उम्र बारह साल की होती है, लेकिन न जाने वह बारहवाँ साल कब आने वाला था?

जिन्दगी राख हो गयी थी। झलक और बौधा दोनों की। एकाध ही साल में झलक इतनी बदल गयी कि नल पर लड़ती-झगड़ती मुहल्ले की अन्य औरतों और उसमें कोई फर्क ही नहीं रहा। वही लटपटाती चाल। एक पैर बायीं ओर तो दूसरा दायीं ओर जाता हुआ। राख जैसा रक्तविहीन चेहरा। लटलटाये जूँ भरे बाल। हफ्तों नहाने-धोने से दूर। बसाता देह-जांगर, बसाते कपड़े-लत्ते । अगिन माई की असवारी आनी भी कम हो गयी। दो बरस के बाद छठ पूजा भी छोड़ दी थी। घर में बच्चे भी आ गये थे। अब सपरता नहीं था। बौधा के अनमनेमन और नशापानी से आमदनी घट गयी थी। घर का खर्चा बढ़ गया था। अब मर-मजूरी, दो-चार घरों में बरतन-बासन कर बच्चों का पेट भरती कि पूजा-पाठ करती रहती। बौधा भी ऐसा थोड़े था। ताड़ी-दारू से घिनाने वाला बौधा। साफ-सुथरा, कमीज-पैजामा-सैंडल पहनने वाला बौधा। अब, जब देखिये ताड़ी-दारू के फेरा में। लुंगी-गंजी में ही भटकता रहता। उतना ही मजूरी करता जितना में चखना- ताड़ी भेंटा सके। करे भी क्या ! बाजार-आढ़त में बैठने लायक छोड़ा कहाँ था तिंरभुवना ने। जब देखिये कमरसाढू-कमरसाढू पुकारता रहता। गन्दा-सन्दा मजाक किया करता। उसके चेले-चपाटी उसे देखते, “नकवेसर कागा ते माला, सैंया अभागा नय जागा" गाने लगते।

कर भी क्या सकता था। हाथ लगाने का मतलब फिर से गोली खाना या पिटना। तिरभुवना को तो छोड़िये उसकी जाति-बिरादरी टोले के किसी बच्चे पर भी हाथ-उठाने का मतलब था मिनटों में रावण खानदान के सौ-पचास लोग लाठी, भाला, फट्टा के साथ छाती पर सवार।

अब तो उसे ताड़ीखाना ही अच्छा लगता। मुस्का-मुस्काकर ताड़ी बेचती विधवा पासिन भी नशे में परी दिखती। बेदम पीकर वहीं सोने में भी उसे अटपटा नहीं लगता। करता भी क्या? अपना घर उसे घर जैसा लगता ही नहीं। अपनी ही खटिया पर तिरभुवना बैठा दिखता। अपने बच्चे भी अपने बच्चे नहीं लगते। खूब मन से उन्हें दुलार भी नहीं पाता। बात-बेबात चिड़चिड़ाता रहता। सच तो यह कि झलक भी अब उसे अपनी झलक नहीं लगती। नशे में उसे बड़ी राहत मिलती। सब भूल जाता। डर, भय, घृणा-प्रेम सब । रात-बिरात, नुक्कड़ पर खड़े होकर तिरभुवना को गरियाने की तो उसकी रूटीन हो गयी। मुहल्ले वालों को भी नहीं बख्शता, "सब बौधा कहता है हमको बौधा.. .. बौघा हैं हम, बुद्धदेव नाम है हमारा बुद्धदेव। अब से बुद्धदेव कहकर नहीं पुकारा तो ठीक नयँ होगा। हमुओं लेहाज नयँ करेंगे। सबका माय-बहिन एक कर देंगे... ..बौधा कहता है सब बौधा.."ו दिन तो बीत ही रहे थे, किन्तु दुख की काली छाया झलकारी का पीछा नहीं छोड़ रही थी। वह अब ज्यादातर चुप्प ही रहती। गीत तो कब के गुम हो गये थे। बोल भी गुम होने के मुहाने पर। बोलती तो लगता विलाप कर रही है। विलापती तो लगता प्रार्थना कर रही है। खारे पानी के कतरों से भींगी प्रार्थना। खारे पानी के ऐसे कतरे, जिसकी हर बूँद बिलखती हुई। जिन्हें पता था कि उन्हें अब अनदेखे और अकेले ही सूख जाना है।

अब तो वह चेहरा ही गुम हो गया था जो कभी साक्षात् अगिन माई, कभी छठ माई और दुर्गा पूजा में दुर्गा माई जैसा दिखता था। याद है कि तीन-चार साल पहले जब झलक नयी-नयी आयी थी, तो रामचरण एवं अन्य दोस्तों से बहस ही हो गयी थी कि दुर्गा जी की मूर्ति झलकारी जैसी दिख रही है कि झलकारी दुर्गा माई जैसी। इस बात पर हम सब राजी थे कि राक्षस, डीटो तिरभुवना जैसा था। वही करेड़ देह-हाथ, ऐंठ-ऐंठे हुए। वही बिच्छू जैसी मूंछें यहाँ तक कि चुरकी-बाल भी हू-ब-हू वैसे ही। दशहरा के दिनों में कई रात सपने में हम दुर्गाजी की सवारी शेर बनते और दानव-राक्षस बने तिरभुवना की गरदन में अपने दाँत गड़ाते रहते।

समय तेजी से बदल रहा था। यह बदलाव दिख भी रहा था। त्रिभुवन बॉस और बौधा में गाढ़ी छनने लगी थी। बौधा सब देख सुनकर बहुत पहले ही शरण में आ गया था। लेकिन दोस्ती इधर ही गाढ़ी हुई थी। दरअसल, अब त्रिभुवन बॉस विधायकी का ख्याब देख रहे थे। लेकिन सबसे बड़ा अड़ंगा उनका खुद का भतीजा बल्ली बना हुआ था। वही बल्ली जो कल तक उनको अपना चाचा नहीं बाप कहते नहीं अघाता था, अब विधायकी के टिकट के लिए गोतियागीरी दिखा रहा था। अब बौधा त्रिभुवन बॉस का दाहिना हाथ बन गया। कट्टा-बट्टा रखने लगा। अब दोनों हर जगह साथ देखे जाते। दोपहर को तड़बन्ना में ताड़ी पीने से लेकर रात में विलायती टानने तक।

लेकिन बौधा नहीं, बुद्धदेव बॉस की रंगदारी और आमदनी का कोई असर झलकारी पर नहीं दिख रहा था। दाग-धब्बों, असमय झुर्रियों से भरती वह राख की चलती-फिरती-घिसटती गठरी की तरह दिखती। एक-एक साल उस पर दस- दस साल से भी भारी थे। मुझसे मुश्किल से छह-सात साल बड़ी झलक, अब अम्मा की उम्र की दिखने लगी थी। राख की चलती-फिरती गठरी, कमर और पीठ पर राख की छोटी-छोटी पोटलियाँ-बच्चे बाँधे। हड़ियल बच्चे, स्याह चेहरे, कींच भरी आँखे, सतत बहती नाक वाले। न जाने क्यूँ ऐसा लगता, झलक के साथ-साथ एक काली छाया चल रही हो और देह से हर कदम पर राख झरती हो। दुख की राख, मूक विलाप की राख, अफलित प्रार्थना की राख । बारहीं में पहुँचते मेरी लम्बाई पाँच फुट दस इंच हो गयी। त्रिवभुन बॉस से दो इंच ज्यादा। सीने की चौड़ाई उससे चार ईंच ज्यादा और बाहों की मछलियाँ भी ज्यादा मोटी- मोटी। आँगन में खड़ी दो-दो गायें, शाम की कबड्डी-फुटबाल और गरू के लिए रामवरण के साथ आसपास एकाध मील के दायरे के आलू खेतों से लत्तर का बोझा पीठ-काँधे पर ढो-ढोकर जिस्म लोहा जैसा हो गया था। बाहों की मछलियाँ जब-जब फड़फड़ातीं तो इच्छा होती उस राकसवा तिरभुवना को अखाड़े में पटक-पटककर रगडूं।

छठ पूजा में आखिरी अर्ध्य के बाद सूर्य मन्दिर के पास ही खेतों में मेला लगता और कुश्ती होती। बचपन से देखता आ रहा था कि हर कुश्ती में छल-बल से आखिर में वह तिरभुवना ही अपना लंगोट फहराता। हर बार शील्ड उसी के हाथ लगती। अगर गलती से आसपास के पहलवान कुश्ती जीत भी जाते तो तुरन्त ही उनको अपनी गलती का अहसास करवा दिया जाता। तिरभुवना और उसके टोले की लंगटई-थेथरई से कौन जीतता? आखिर में उन्हें हार माननी पड़ती। बचपन से ही मेरा सपना था कि एक बार उसे उस अखाड़े में दबीहूँ और खूब रगहूँ। बाद में जो होगा देखा जाएगा।

हालांकि इधर नशाखोरी और अय्याशी से उसके कस-बल सब टूट गए थे। छाती पिचक गयी थी। लद-लद करता लेद बाहर लटक गया था। चेहरा भी भरभराया, सूजा-सूजा सा। जब भी देखता तो सोचता इस बार छठ मेले के अखाड़े में कहीं भर अँकवारी पकड़ में आया तो कचकचा कर रह जायेगा। साला, सारी बॉसगीरी धरी रह जायेगी।

सचमूच छठ मेले में मेरी भरपूर तैयारी थी। लंगोट-वंगोट के साथ पूरा टंच होकर पहुँचा। लेकिन शायद त्रिभुवन को अपने शरीर की औकात का अन्दाज था सो अखाड़े में उतरा ही नहीं। उतरा उसका भतीजा बल्ली, पाँच फुट चार इंच का नटुल्ला। मेरे सामने एक मिनट नहीं टिकेगा। मुझे कसमसाता देखकर रामवरण के कान खड़े हो गये। मुझे जबरन खींचकर मन्दिर के पिछवाड़े। बल्ली के बारे में उसके पास ढेरों सूचनाएँ थी। उसका कहना था कि "वह तुमसे पटका तो जायेगा लेकिन वह कितना काइयाँ, कितना शातिर है उसका कुछ अन्दाज है? त्रिभुवन जैसा भी है सब सामने है। लेकिन यह तो जितना जमीन के ऊपर है, उससे ज्यादा जमीन के अन्दर। त्रिभुवन पहलवान था यह साला प्योर क्रिमिनल है। इसके उमर और चेहरा-मोहरा पर जाने की जरूरत नहीं है? ई हरामी, इसी उमर में आसपास के इलाके और अगल-बगल के जिलों तक पैसा लेकर कितनों को ठोका है, इसकी कुछ खबर है? अभी पटका जायेगा लेकिन आज से पाँच साल के बाद तक जब भी मौका मिलेगा कनपट्टी पर कट्टा सटा देगा। टापते रह जाईयेगा। सो ज्यादा फड़फड़ाने की जरूरत नहीं है। बाबू जी सोच हथुन, बेटवा, डॉक्टर- इंजीनियर बनेगा, हिंया रंगदार बनने की तैयारी हो रही है। होश में आइए।" बल्ली की कुंडली जानने के बाद सचमुच मेरे होश ठंडे हो गये। लेकिन सपनों में त्रिभुवन और उसके खानदान को रगड़ने से मुझे कौन रोक सकता था। बड़े दिन की छुट्टी में अम्मा-बाबूजी, छोटी बहनों के साथ गाँव चले गये। ट्यूशन-परीक्षा की तैयारी, पढ़ाई के बोझ के कारण हम भाई लोग यहीं छूट गये। झलकारी पर बरतन-बासन के साथ चौका-भंसाघर का भी भार। सो लगभग दिनभर मेरे घर पर ही रहती। उसकी उपस्थिति का अहसास या उसका मौन विलाप, न जाने किसका असर था कि रोज रात सपने में तिरभुवना से भेंट होती। पटका-पटकी होती। उसकी छाती पर सवार होकर मैं उसकी धुलाई करता रहता।

उस दिन बहुत दिनों के बाद दोपहर में सत्रह नम्बर के सरकारी सिंचाई केन्द्र पर रामवरण के साथ नहाने गया। बड़े-बड़े हौदों में खूब डुबकी लगी। खूब मजा आया। यह सब तो ठीक था, लेकिन उस रात सपने में तिरभुवना वहीं सत्रह नम्बर में भेंटा गया और मैं उन्हीं पानी से भरे हौदे में पटककर रगड़ने लगा। नतीजतन पानी-पी-पीकर उसकी साँसे उखड़ गयीं। मेरे तो होश हवास गुम। मैं उसे जान से मारना नहीं चाहता था। घबड़ाहट से पसीने-पसीने। नींद खुल गयी। भोर के चार-साढ़े चार बजे थे। भोर का सपना, कहते हैं कि सच होता है। यह सोचकर और घबड़ाहट होने लगी। रजाई को खूब लपेट-लपाटकर फिर से सो गया। देर में खूब धूप निकलने पर नींद खुली।

दतवन चबाते गली में निकला तो मुहल्ले में कुछ अलग तरह की चहल-पहल दिखी। कुछ चहक-चहकार भी, कुछ चुप्प-चुप्पी भी। समझ में नहीं आया तो बखौरी भैया के दालान के पास खड़ा होकर टोहने लगा। मालूम हुआ कि तिरभुवना बॉस का मर्डर हो गया है। लाश सत्रह नम्बर के हौदा में पाया गया। कोई वहीं डुबा-डुबाकर मारा है। घबड़ाहट में मुँह का दतवन गिर पड़ा।

लेकिन लोगों के पास कई कहानियाँ थी, किसी का कहना था कि बौधा और तिरभुवना रात भर तड़बन्ना में ही थे।चखना-ताड़ी खाते-पीते बहुत रात हो गयी तो वहीं सो गये। मुँह अँधेरे बौधा दिशा-मैदान के बहाने सत्रह नम्बर की ओर तिरभुवना को फुसलाकर लाया और डुबा-डुबाकर मार दिया। इसी दिन के लिए तो बौधा इतना कुछ बर्दाश्त कर रहा था। और एतना दिन दोस्ती की नौटंकी की थी।

दूसरे की कहानी थी कि बौधा ने नहीं खुद झलकारी ने मारा है। आजकल मुँह-अँधेरे ही वह सत्रह नम्बर नहाने-धोने जाया करती है। मुन्नू के यहाँ भंसाघर में बिना नहाये नहीं घुसती है। सो जैसे वहाँ अकेले तिरभुवना को देखी कि उस पर अगिन माई की असवारी आ गयी। तिरभुवना को तो एके हाथ से ककड़ी-मुरई की तरह उठा ली और हौदे में पटक-पटक कर मार दी अगिन माई। दुइए मिनट में सब खतम। फड़फड़ाके रह गैलो गुंडवा।

तीसरे का कहना था कि तिरभुवना के रहते बल्ली को विधायकी का टिकट कभी नहीं मिलता। बल्ली को हर हाल में विधायक बनना है सो तिरभुवना को तो जाना ही था।

"एसनो बारह साल पूरा होवल हलो जी।"

सारी कहानियों को सुनने के बाद जान में जान आयी। खैरियत थी कि किसी को मेरे सपने की खबर नहीं थी।

तभी दूर से नहाई-धोई, नयी-नकोरी साड़ी पहने झलकारी आती दिखी। आज वर्षों बाद मुहल्ला उसका आना निहार रहा था। राख झाड़कर मानो अंगार फिर निकल आया हो। वही चाल, वही अनोखापन। वही ठसक। मुहल्ले ने फिर से गली में मानसरोवर की राजहंसिनी को तैरते देखा। फिर से एक राजमहिषी अपनी प्रजा को अनुग्रहीत करती गुजरी।

घर के बरामदे में मैं किताब लेकर बैठा तो था लेकिन बार-बार नजर आँगन में काम करती झलक की ओर उठ रही थी। एक उजास-सा फिर से चारों ओर बिखर रहा था। वर्षों छुपी रहने वाली उसकी मुस्कान फिर से उसकी आँखों-होठों पर काबिज थी। न जाने क्यों मुझे वर्षों पहले की अलख झलक वाली तुकबन्दी याद आयी। मैंने झलक को उसकी याद दिलाई तो वह खिलखिलाकर हँस दी, "का मुन्नु बाबू ! आप भी । इतना कहकर वह फिर खिलखिलाने लगी। हँसी की हर लहर के साथ उसके चेहरे-बाँहों की झुर्रियाँ झरझरकर गिरने लगीं। मुस्कानों की रंग-बिरंगी तितलियाँ पंख फैलाये चहुं ओर उड़ रही थीं, उस उजास के चारों ओर एक सतरंगा आभामंडल रचती हुई। हँसी की हर लहर उसे जन्म दे रही थी। उसे नया रच रही थी।

उजास भरा चाँद मेरे आँगन में हँसी की लहरों पर काँप रहा था।