छल-1 / प्रताप नारायण मिश्र

Gadya Kosh से
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पुराने लोगों ने इस गुण को बुरा बतलाया है पर विचार कर देखिए तो जबकि लकार वर्णमाला भर का अमृत है, जिस शब्‍द में यह आता है उसे ललित लावन्‍यमय प्रलोभनपूर्ण बना देता है। संस्‍कृत में जयदेवजी का गीतगोविंद सबसे सलोना समझा जाता है, क्‍यों? जहाँ बहुत-से कारण हैं वहाँ एक यह भी है कि उसमें यह अक्षर बहुतायत के साथ लगाया गया - 'ललित लवंग लता परिशीलन कोमल मलय समीरे' इत्‍यादि, यों ही भाषा कविता में भी, - लामें लकुचन लगि लमकि लुनाई लिए लतिका लवंगनि की लहकि लहकि उठै' इत्‍यादि पद बहुत ही सुहावने समझे जाते हैं। यही नहीं अंग्रेजी में लव लेडी, लैड, फारसी में लबे लाली लही लअब गुले लाला इत्‍यादि शब्‍द जीवित प्रमाण देते हैं कि यह अक्षर मनोहारिता का मूल है, तो फिर जिस शब्‍द में एक के स्‍थान पर छ: लकार हो वुह त्‍याज्‍य या अग्राह्य क्‍योंकर हो सकता है? अग्राह्य कहने वाले बनवासी उदासी मुनि लोग थे। उनकी दृष्टि में सारा संसार ही बरंच स्‍वर्ग सुख भी तुच्‍छ था।

इसी से सभी मजेदार बातों को त्‍यागने योग्‍य समझ बैठते थे और उनकी सब महाराजा लोग प्रतिष्‍ठा करते थे। अतः उनके बचन अथवा लेख पर आक्षेप करने में कोई साहसमान न होता था। इसी से से जो चाहा लिख दिया, नहीं तो सुरापान, सुंदरी समागम, द्यूतक्रीड़ा, मांस भोजन जितनी बातें उन्‍होंने निषिद्ध ठहराई हैं सबकी सब प्रत्‍यक्ष और तत्‍क्षण आंनद देने वाली हैं। यहाँ तक कि जिन्‍हें इनका स्‍वादु पड़ जाता है वे न लोकनिंदा को डरते हैं, न धनहानि की चिंता करते हैं, न राजदंड को भटकते हैं न परलोक भय से अटकते हैं। अस्‍मात् इनके स्‍वादिष्‍ट होने के लिए प्रमाण ढूँढ़ने की आवश्‍यकता नहीं है। जिस अनुभवी से पूछोगे कह देगा कि "गरचे एक तरह की बला है इश्‍क। तौ भी देता अजब मजा है इश्‍क।"

यदि कोई शास्‍त्रार्थ का अभिमानी यह सिद्ध कर दे कि इन कामों का परिणाम अच्‍छा नहीं है तो भी हम पूछेंगे परिणाम का क्‍या ठिकाना। वह तो सभी बातों का यों ही हुवा करता है। ईश्‍वरभक्ति, देशभक्ति और सदगुणभक्ति का परिणाम यह है कि मनुष्‍य घर-बाहर के काम को न रह के दिन-रात अपनी कल्पित आशा ही में रक्‍त सुखाया करता है, वीरता को परिणाम यह है कि आठों पहर मृत्‍यु का सामना बना रहता है, फिर परिणाम का सोच क्‍यों? भगवान बाल्मिीकि कही गये हैं कि 'नाशांता संचयाः सर्वे पतनांताः समुच्‍छ्याः। संयोगा विप्रयोगांता मरणांतंतु जीवितम्।'

इसी भाँति के परिणाम सोचने ही वाले तो घर-बार, जाति-परिवार, संबंधी, सुख-संपत्ति छोड़-छोड़ बन में जा बैठते हैं और षटरस भोजन छोड़-छोड़ सूखे पत्तों से पेट भरते हैं। ऐसों की बातें मानना उनके पक्ष में क्‍योंकर हितकर हो सकता है जो संसार में रहकर अपना तथा अपने लोगों का जीवन आनंद में बिताया चाहते हों। ऐसों को तो सबके उपदेश छोड़ के हमारी ही शिक्षा माननी चाहिए अथवा स्‍वयं विचार करना उचित है कि छल कोई बुरी बात नहीं है। क्‍योंकि उसका लक्षण यह है कि अपने आंतरिक भाव को पूर्ण रूप से छिपाना, दूसरे की दृष्टि में कुछ का कुछ बतलाना और येन केन प्रकारेण अपना काम बना लेना, दूसरा चाहे भट्ठी में जाय चाहे भाड़ में।

सच पूछो तो यह काम ऐसे वैसों से हो भी नहीं सकता, उन्‍हीं से हो सकता है जो चतुरता व्‍यवहारकुशलता, अनुभशीलता और कार्यदक्षता में पूरे पक्‍के हों। फिर भला ऐसे बुद्धिमानों के करने योग्‍य काम को बुरा समझना कौन-सी समझदारी है। यदि मुनियों ने छल-कपट को वर्जित किया है तो अवतारों ने उसे आश्रय दिया है और यह मानने में किसी आस्तिक को भी आपत्ति न होगी कि ऋषियों की अपेक्षा अवतार श्रेष्‍ठतर होते हैं। सो अवतारों का नाम ही मायाबपुधारी होता है, जिसका पर्याय 'छल का पुतला' है। अर्थात् वास्‍तव में निराकार निर्विकार पर जगत के दिखाने को और अपने भक्‍तों को सुखित करने तथा अपनी सृष्टि के दुखदायकों के भार मिटाने को कभी मछली बन जाते हैं, कभी कछुआ के रूप में दृष्टि आते हैं, कभी बराह रूप की राह से जादूगर का काम चलाते हैं, यहाँ तक कि सर्वोपरि षोडष कला विशिष्‍ट पूर्णावतार में छहों ऋतु बारहों मास श्री गोपीजन के साथ छल ही करने में समय बिताते हैं और 'छल के रूप कपट की मूरति मिथ्‍या वाद जहाज। आउ मेरे झूठन के सिरताज! कहलाने ही में मगन रहते हैं।

अब बिचारने का स्‍थल है कि जिसे ऐसे परम पुरुषोत्तम आदर दें उसका निरादर करना कादरपन है कि नहीं? यदि इन बातों को पुराने अनसिविलाइज्‍ड हिंदुओं की कहानियाँ समझिए तो कोई प्रामाणिक इतिहास के प्रमाण से बतला दीजिए कि किस देश के, किस जाति के बड़े-बड़ों ने इसका अवलंबन नहीं किया। बड़े-बड़े राज्‍य बहुधा इसी के प्रभाव से स्‍थापित हुए हैं। फिर इसे बुरा समझना कहाँ की भलाई है। सच पूछो तो निर्बलों का बल यही है। जहाँ बल से काम न चले वहाँ इसके द्वारा सौ विश्‍वा चली जाती है। बलवानों को भी इसका आश्रय लेने से अपना पूर्ण बल नहीं व्‍यय करना पड़ता।

इसी से नीति शास्‍त्र के आचार्यों ने इसे राजकीय कर्तव्‍यों में सर्वोपरि माना है। जब विपक्षी प्रबल हो और साम अर्थात् मित्रता और दान अर्थात् धन तथा दंड अर्थात् मारधाड़ से वश में न आवै तब भेद अर्थात् उसके गृह, कुटुंब, इष्‍ट, मित्रादि में तोड़-फोड़, जोड़-तोड़ लगाने अथवा छल का पूर्ण प्रयोग करने से कार्य सिद्धि की संभावना हो जाती है। फिर हम-तुम ऐसे छोटे-मोटे गृहस्‍थों के पक्ष में छल की निंदा करना मानो अपने तईं प्राचीन एवं अर्वाचीन सम्राटों बरंच ईश्‍वरावतारों से श्रेष्‍ठ समझना है।

यों तर्कशास्‍त्र में बड़ी सामर्थ्‍य है, अच्‍छी से अच्‍छी वस्‍तु को बुरा और बुरे से बुरे पदार्थ को अच्‍छा सिद्ध कर देने में व्‍यय केवल बातों ही का और श्रम अकेली जीभ ही को होता है। किंतु सूक्ष्‍म दृष्टि से प्रत्‍यक्षवाद का विचार रख के विचारिए तो अवगत हो जाएगा कि छल में यदि केवल इतनी बुराई है कि धर्मशास्‍त्र की अवज्ञा होती है तो भलाई भी प्रत्‍यक्ष तथा इतनी ही है कि इसके द्वारा निर्धन दूसरों के धन का, निर्बल दूसरों के बल का, अविद्य दूसरों की विद्या का, अप्रतिष्ठित दूसरों की प्रतिष्‍ठा का भोग कर सकते हैं। यदि इतने पर भी कोई हठी इसका अवलंबन करने वालों को बुरा ही समझे तो उसकी मूर्खता है। क्‍योंकि एक तो संसार के किसी गुण वा किसी वस्‍तु के परमाणु का वस्‍तुतः अभाव हो नहीं सकता, सब बातें और सभी चीजें किसी न किसी दशा में सदा ही से चली जायँगी। इस न्‍याय से छल भी सदा ही से होता आया है और होता रहेगा और जो बात अपने दूर किये दूर न हो सके उसे दुर-दुर करना अदूरर्शिता है। दूसरे यदि छल करना बुरा है तो दूसरों के छल में फँस जाना भी बज्र मूर्खता है। एवं इस कलंक से बचने का एकमात्र उपाय यही है कि छल के तत्‍व को इतना समझता हो कि उसकी आँच अपने ऊपर किसी प्रकार न आने दे। इस रीति से भी छल का सीखना एक आवश्‍यक कर्तव्‍य है। नहीं तो यदि हम छली कहलाने से बचे भी रहेंगे तो प्रत्‍येक छली के छल में आ जाने वाले निरे मूर्ख कहलाने से नहीं बच सकते। अस्‍मात् छल का सीखना अवश्‍य है चाहे दूसरों के साथ करने को चाहे दूसरों के हाथ से बचने को! हाँ सीखने बैठे तो थोड़ा सीखना और करने बैठे तो थोड़ा करना वाहियात है क्‍योंकि खुल जाने पर बना-बनाया खेल बिगड़ जाता है।

इससे इसका अभ्‍यास इतना कर्तव्‍य है कि कभी चूक कर 'उघरे अंत न होय निबाहू कालनेमि जिमि रावन राहू' का उदाहरण न बनना पड़े और अत्‍यंत वैकट्य वालों के साथ भी इसका आचरण पाप है। क्‍योंकि यह बड़ी भारी चतुरता और बड़े भारी अनुभव से प्राप्‍त होता है एवं बड़े ही भारी काम आता है। अतः छोटे ठौर पर इसका काम में लाना इसकी विडंबना करना है और इतने भारी महान गुण की विडंबना करके अपनी बिडंबना कराने से बचना असंभव है। जो लोग अपने कहलाते हैं, जो अपना आश्रय किए बैठे हैं, जो अपने विश्‍वास पर उसके साथ छल किया तौ तौ मानो अपने तीक्ष्‍ण एवं सुचलित शस्‍त्र को अपने ही ऊपर चला लिया।

यों ही छोटी-छोटी बातों में छोटे-छोटे अभावों की पूर्ति के अर्थ वा छोटी-छोटी वस्‍तुओं की आशा पर इसका काम में लाना भी व्‍यर्थ है। क्‍योंकि जो बात बहुधा की जाती है वह प्रगट हुए बिना नहीं रहती और इसका प्रकट होना दुःख, दुर्नाम, दुर्दशा की जड़ है। अतः बड़े से बड़े अवसरों पर दूर से दूर वालों के साथ बर्ताव में लाने के निमित्त इसका संचय कर रखना परम पांडित्‍य है। यह एक ऐसा अनोखा शस्‍त्र है जो देखने में गुलाब के फूल की भाँति सुंदर और कोमल जान पड़ा है पर काम में लाने के समय बड़ी-बड़ी और बहुत-सी तोपों को तुच्‍छ कर देता है। और इसकी प्राप्ति का उपाय यह कि इसके संचालक मात्र से मेलजोल रक्‍खे हुए उनके प्रत्‍येक रंग-ढंग देखता रहे।

बस इस रीति से इसे अपने हाथ कर लेने में अष्‍ट प्रहर संलग्‍न रहिए और चलाने के समय इतना ध्‍यान रखिए कि शतघ्नी के द्वारा मच्‍छर मारना शोभा नहीं देता तथा यदि चलाने को जी न चाहे तो दूसरों की चोट से रक्षा पाना भी अति ही श्रेयस्‍कर है। फिर हम क्‍योंकर मान लें कि छल बुरा है। यदि किसी बड़े ही विद्या बुद्धि विशारद के मुलाहिजे से मानना ही पड़े तो इतना ही मानेंगे कि कच्‍चों के लिए बुरा है, वास्‍तव में नहीं। और मान लें कि बुरा है तथापि अच्‍छी रीति से व्‍यवहृत करने पर संखिया भी अनेक रोग हरती है और शरीर के पक्ष में अमृत का काम करती है कि नहीं? यों ही सब वस्‍तुओं को भी समझ लीजिए। जैसे प्रत्‍येक भले से भले कार्य व पदार्थ में कुछ न कुछ बुरा अंश और बुरे से बुरे में भला अंश होता है वैसे ही इसमें भी उन्‍नति और रक्षा का भला भाग अधिकतर है। जिसे प्रतीति न आवैं वुह आप खोल देखै फिर देखै कैसे कहता है कि छल में बुराई ही बुराई है।