छल-2 / प्रताप नारायण मिश्र
दो लेखों में हम यह दिखला चुके हैं कि छल बहुत अच्छा और मजेदार गुण है तथा ऐसे-वैसे साधारण लोगों से हो भी नहीं सकता! अतः इसके सीखने में यत्न करना चाहिए। इस पर हमारे कई मित्रों ने पूछा है कि सीखें तो क्योंकर और कहाँ पर सीखें। उनके लिए हम आज बतलाते हैं कि सीखना किसी बात का चित्त की एकाग्रता के बिना नहीं हो सकता हौर चित्त तभी एकाग्र होता है जब उसे भय अथवा लालच का सामना करना पड़ता है। इसी से जो बालक पढ़ने में मन नहीं लगाते और भैया राजा कहने पर भी राह पर नहीं आते उनके लिए प्राचीनों की आज्ञा है कि 'लालने बहवोदोषास्ताड़ने बहवो गुणाः' किंतु इस गुण के सीखने की इच्छा रखने वाले बालक नहीं होते, न सीखने से जी ही चुराते हैं अस्मात् भय अथवा ताड़ना के पात्र नहीं हैं।
यों अकस्मात् किसी कपटी के मायाजाल में पड़ के डर व कष्ट उठाना पड़े तो और बात है, पर बुद्धिमानी यह है कि उस प्रकार के डर और कष्ट को अपने ऊपर न आने दें, किसी दूसरे ही को उसमें फँसा कर कपटकारक के हथखंडों और कापट्यजालबद्ध गावदीराम की दशाओं का तमाशा देखता हुवा शिक्षा लाभ करें। जिससे इतना न हो सकेगा वह कपट कालेज का अयोग्य विद्याथी हैं और अपने आप ताड़ना पात्र बनता है। हमें संदेह है कि कष्ट एवं हानि सहने पर वह छलविद्या में कोई डिग्री पास कर सके वा न भी कर सके।
बहुत लोग कहते हैं कि आदमी कुछ खो के सीखता है पर हमारी समझ में इस विद्या को भी जिसने कुछ खो के सीखा उसने क्या सीखा। यद्यपि सीखना अच्छा ही है चाहे जैसा सीखा सही किंतु सुयोग्य कहलाने के योग्य वह है जो कुछ ले के सीखे। अधिक नहीं तो जिसके पास सीखता हो उसका मन ही अंटी में कर ले। मिष्ट भाषण एवं मिथ्या प्रेमप्रदर्शन को यहाँ तक पहुँचा दे कि उसे पूरा विश्वास हो जाय कि हमारा सच्चा विश्वासी है हमारे भेद अपने बाप के आगे भी न खोलेगा।
साथ ही यह भी स्मरण रखना चाहिए कि शिक्षक महाशय पर अपना भेद न प्रकट होने पावै और बड़ी ही भारी स्वार्थसिद्धि की आशा तथा आवश्यकता के बिना उनका भेद भी दूसरा न जानने पावे। बस फिर विद्या आ जाना असंभव न होगा। पर यह उन्हीं का साध्य है जिन्हें एकाग्रचित्तता का अभ्यास हो और चित्त की एकाग्रता के लिए हम लिख चुके हैं कि भय अथवा प्रलोभन की आवश्यकता है। उसमें भय तो भाग्य ही के वश कभी आ जाय तो खैर नहीं तो काल्पनिक भय को कभी पास न फटकने देना चाहिए। बरंच उत्तम तो यह है कि सचमुच हानि अथच कष्ट की संभावना हो तौ भी चित्त को इन मंत्रों से धैर्य प्रदान करता रहे कि - होगा सो देखा जाएगा, दुनिया में सुख-दुःख सभी को हुआ करते हैं, दूसरे का चार हाथ थोड़ी हैं।
विपक्षी धन बल दिखावै तो हम छल-बल से काम लेंगे - इत्यादि और जब भय आ ही पड़े तो उसे भय न समझकर उसके दूर करने के उपाय को मुख्य कर्तव्य समझना चाहिए। फिर बस परमेश्वर चाहे तो भय का भय नहीं ही रहेगा। और यदि आ पड़े तो खैर छल सीखने वा अभ्यास में लाने का अवसर मिला सही। किंतु परमेश्वर ऐसे अवसर न दिखावे यह अच्छा है। हमारे पाठक कहते होंगे कि छल की शिक्षा और बार-बार परमेश्वर-परमेश्वर! यह क्या बात है!
इसके उत्तर में हमें कहना पड़ता है कि संसार में नास्तिक बहुत थोड़े हैं और जो हैं उन पर श्रद्धा बहुत थोड़े लोगों की होती है। इस कारण उन्हें कोई मुँह नहीं लगाता। इससे उन्हें छल करने के लिए पात्र नहीं मिलते और पात्रभाव से अपनी मर्यादा के रक्षणार्थ निष्कपटता का पुतला बनना पड़ता है। अस्मात् छलियों को अवश्य चाहिए कि ईश्वर और धर्म के गीत गाकर संसार में प्रतिष्ठित बने रहें। बरंच जिनके साथ छल करना हो उनके सामने तो इन्हीं की रुचि के अनुसार परमेश्वर का मानने वाला औ धर्मतत्व का जानने वाला बनना पड़े तभी सुभीते को हिकमत है। फिर क्यों मानिए परमेश्वर नहीं है तो लोगों के ठगने को एक शब्द ही सही। और यदि है तो छल जनित पापों को दूर करैगा। इस रीति से न लोक का भय रहेगा न परलोक का।
रहा प्रलोभन, वह किसी प्रकार त्याज्य नहीं है बरंच चित्त की एकाग्रता का सहज और सुहावना उपाय है। अतः उसकी प्राप्ति के अर्थ यत्न कर्तव्य है। हमारी समझ में पंच सकार अर्थात् संगीत, साहित्य, सुरा, सौंदर्य, की सेवा का थोड़ा-बहुत अभ्यास करते रहना सहृदयता तथा एकाग्रचित्तता के उत्सुकों को अत्युत्तम है। क्योंकि यह पाँचों पदार्थ चित्त को आकर्षित करके चिंता रहित कर देने की बड़ी सामर्थ्य रखते हैं। जो इनके रस का अभ्यासी है वह कैसी ही कठिनता का सामना पड़े पर घबराता नहीं है, कैसा ही कष्ट, कैसी हानि, कैसा ही सोच क्यों न उपस्थित हो, जहाँ नियमानुसार कोई मजेदार तान अलापी अथवा सुनी, जहाँ कोई रसीला छंद लिखा वा पढ़ा, जहाँ दो पियाले चढ़ाए, जहाँ किसी सुंदरी का दर्शन स्पर्शन किया, जहाँ किसी अपने से चित्त वाले के पास बैठे वहीं सब दुःख-दरिद्र भूल जाते हैं और तबीयत में ताजगी आ जाती है जो छल साधन की बड़ी भारी सहायिनी है। जो लोग कहते हैं कि मनुष्य पंच सकार के संसर्ग से पागल हो जाता है उनका कहना ठीक नहीं है। क्योंकि पागल वह हो जाते हैं जो इनमें से किसी प्रकार के गुलाम बन जाते हैं अथवा नए-नए आ फँसते हैं। किंतु जो इनके रसास्वादन के अभ्यासी हैं तथा इन्हें परिमितिबद्ध रख के दास्य स्वीकार करने के स्थान पर मनोविनोद संपादन मात्र में इनकी सहायता समयानुसार ले लिया करते हैं वे कदापि पागल नहीं बनते बरंच पागलपन की जड़ अर्थात् चित्त की उद्विग्नता दूर करके अधिक सावधान और चातुर्यमान हो जाते हैं और बहुधा देश काल पात्र का विचार करके इन्हीं के द्वारा दूसरों को पागल बना के, हँसा, खिला मूँड लेते हैं।
इतिहासवेत्ताओं और जगत्कौतुकदर्शकों से छिपा नहीं है कि नीतिज्ञ पुरुषों ने एक वा दो ही सकारों के मायाजाल से ला के कितने ही बड़े-बड़ों का तन, मन, धन माँग लिया है और आज भी माँग लेते हैं। फिर कोई क्योंकर सिद्ध कर सकता है कि सावधान पंचसकारी पागल होता है। हाँ, जो संगीत, साहित्य और सौहार्द्र्य की पूँजी को सौगुना प्रसिद्ध करना तथा सुरा एवं सौंदर्य संपर्क को पूर्ण रूप से गुप्त रखना नहीं जानता वह अवश्य पागल है। किंतु ऐसे पागल भला कपट्यशास्त्र क्या सीखेंगे। अतः उनकी चर्चा इस स्थल व्यर्थ है। हमारा लेख तो केवल उनके उपदेशार्थ है जो छल विद्या सीखना चाहते हों। उनसे हम अवश्य कहेंगे कि पंच सकार का उचित रीति से सेवन करते रहिए तो यह पूछने की आवश्यकता न रहेगी कि क्योंकर सीखें। रहा दूसरा प्रश्न, अर्थात् कहाँ पर सीखें। इसका साधारण उत्तर तो यही है कि कपटी के कोई बाह्य चिह्न नहीं होते। जैसे सब मनुष्य हैं वैसे ही वे भी हुवा करते हैं। अतः जिस पुरुष में कपटकारिता देखो उसी के चरित्रों से संथा ले लिया करो और दूसरों के प्रति उसी की चाल-ढाल का अनुसरण किया करो। किंतु इस मंत्र को सदा स्मरण करते रहो कि जो कोई जान लेगा कि हम क्या करते हैं तो बुरा होगा।
बस यों ही करते-करते अच्छे-खासे कपटी हो जाओगे। पर विशेष उत्तर सुनने की लालसा हो और शास्त्र का प्रमाण पाए बिना जी न भरता हो तो इस श्लोक को कंठस्थ कर रखिए कि "देशाटन पंडितमित्रता च बारांगना राजसभा प्रवेशः। अनेक शास्त्रावलोकनं चातुर्यमूलानि वदंति संताः।।" लो लोग द्रव्योपार्जनादि के लिए देश-विदेश फिरा करते हैं अथवा बड़े नगरों में रह के नाना देश के लोगों की रीति-व्यवहार देखा करते हैं उनसे छिपा नहीं है कि कई जाति के लोगों को ईश्वर ने ऐसा स्वाभाविक गुण दे रक्खा है कि उनमें के यदि हजार पाँच सौ जन एकत्र किये जायँ तो कदाचित् एक ही दो ऐसे मिलेंगे जो शुद्ध 'छल के रूप कपट की मूरति मिथ्यावाद जहाज' न हों। हम उन जातियों का नाम बतला के सेंत का झगड़ा मोल लेना नहीं चाहते किंतु बाहिरी लक्षण बतलाए देते हैं कि बहुधा रंग गोरा, चेहरा खूबसूरत, शरीर निर्बल, स्वर मृदुल, मांस-मदिरा से सच्ची घृणा नहीं, ईश्वर और धर्म का आग्रह नहीं, मित्रता-शत्रुता का क्षण भर भरोसा नहीं, स्वार्थपरता से कोई बात खाली नहीं। उनका काम हो तो चाहे जैसी खुशामद करा लीजिए किंतु तुम्हारा प्रयोजन आ लगे तो मानो कभी की जान-पहिचान ही नहीं।
ऐसे लक्षण वालों से संसर्ग रखना छलविद्या सीखने में बड़ा सहारा देता है। किंतु ऐसे लोग इस देश के केवल बड़े नगरों में तथा अपने ही भूभाग में मिलते हैं। इसी से शास्त्रकारों ने देशाटन की आज्ञा दी है और पंडितमित्रता अर्थात् नीतिबेत्ता, स्वार्थसाधनतत्पर, बेद-शास्त्रादि के बचनों में अपने मतलब का अर्थ निकाल लेने में समर्थ, अपनी कही हुई बात को नाना रूप से पलट देने के अभ्यासियों की संगति भी इसी निमित्त बतलाई है कि देश-विदेश घूमने वा नाना देशवासियों का रंग-ढंग देखने तथा छँटे लोगों से हेल-मेल रखने से मनुष्य की आँखें खुल जाती हैं और झूठ बोलना पाप नहीं जान पड़ता। जैसा कि फारस के विद्वानों का वाक्य है कि 'जहाँ दीदा बियार गोयद दरोगा'। फिर क्या, जहाँ झूठ बोलने की हिचक जाती रही वहाँ छल सीखने का ढर्रा खुला हुआ ही समझिए। और यदि इन दोनों रीतियों अर्थात् देशाटन और गुरूघटालों के संग से पूर्ण शिक्षा ग्रहण कर सकिए तो बरांगना देवी की चरणसेवा स्वीकार कीजिए, वे पक्का कर देंगी। क्योंकि ऊपर हम जितने कपटी वालों के लक्षण बतला चुके हैं वे इनमें प्रायः सभी विद्यमान होते हैं। ऊपर भोली-भाली सूरत और मीठी-मीठी बातें बना के परधन हरण का उन्हें दिन-रात अभ्यास चढ़ा रहता है।
श्री तुलसीदास गोस्वामी तक ने जिनकी महिमा में साक्षी दी है कि 'पर मन पर धन हरन को, गनिका बड़ी प्रवीन' जिनका-सा रूप धारण करके साक्षात् परमेश्वर ने भी छल ही किया है, अर्थात् समुद्रमंथन के समय मोहनी अवतार ले के आपने अपने प्यारे देवताओं को तो अमृत पिलाया था और आँखें-भौंहें मटका के राक्षसों को मदिरा पिला के पागल कर दिया था। जिन आर्यकुलकलंकों को पुराणों का नाम ही सुनते मृगी रोग आ चढ़ता है उनकी तो बात ही और है, नहीं तो मोहनी रूप की कथा से बुद्धिमान मात्र यह उपदेश लाभ कर सकते हैं कि जब भगवान् तक इस रूप में प्रगटित होकर ऐसा ही करते हैं तब दूसरे पुरुष समुदाय से संसर्ग रखने वालियों से सच्ची प्रीति और सरल व्यवहार की आशा करना निरा व्यर्थ है।
निरे भोलानाथ तो उनके दर्शन ही मात्र से लँगोटी तक गँवा बैठते हैं और केवल विषपान के योग्य रह जाते हैं निरे राक्षस अर्थात् इंद्रियों के गुलाम भी उनके हाथ से मोह मदिरा पी के मतवाले अर्थात् ज्ञानशून्य हो बैठते हैं। वहाँ तो केवल उन्हीं देवताओं को निर्वाह है जिनका लक्षण रामायण में "आए देव सदा स्वार्थी। बचन कहहिं जन परमारथी" तथा "ऊँच निवास नीच करतूती। देखि न सकहिं पराई विभूति" इत्यादि लिखा है। यदि ऐसे गुरुओं के निकट भी छल शिक्षा न प्राप्त कर सकिए तो आप का अभाग्य है। किंतु बतलाने वाले इनसे भी अधिक श्रेष्ठ शिक्षक बतला गये हैं जो राजसभा अर्थात् कचहरी, दर्बार में रह के जीवनयात्रा करते हैं। अर्थात् वकील, मुखतार, झूठे गवाह, पूरे अदालतबाज इत्यादि जिनका काम ही झूठ को सच, सच को झूठ कर दिखाना है। बस इन्हीं का सेवन और देश-देशांतर की नीति संबंधी पुस्तक तथा कुटिल नीतिज्ञों के जीवनचरित्र देखते-सुनते, समझते-बूझते रहिए तो ईश्वर चाहेगा तो बड़े अच्छे पक्के पूरे छलविद्या विशारद हो जाइएगा। पर इतना भी स्मरण रखिए कि यह महासिद्धि देवाधिदेव स्वार्थदेव की दया के बिना नहीं प्राप्त होती और वे उन्हीं अनन्य भक्तों पर दया करते हैं जो ईश्वरभक्ति, धर्म्मासक्ति, लोकलज्जा, परलोकभय इत्यादि को उन पर निछावर बरंच बलिदान करके उन्हीं के हो रहते हैं, धर्म कर्म विवेचना प्रतिष्ठादि का केवल ढकोसला मात्र रखते हैं, सो भी तभी तक जब तक स्वार्थेश्वर की आराधना में बाधा न आवे। बस यही मार्ग अवलंबन कीजिए तो देख लीजिएगा छल की कैसी महिमा है और उसकी सेवा में कैसा आनंद है।