छवियों को गढ़ना और खंडित करना / जयप्रकाश चौकसे

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छवियों को गढ़ना और खंडित करना
प्रकाशन तिथि :07 जनवरी 2018


खबर है कि भारतीय जनता पार्टी ने त्रिपुरा के वामपंथी मुख्यमंत्री मणिक सरकार की लोकप्रिय छवि को तोड़ने के लिए एक कथा फिल्म बनाई है। इस तरह राजनीतिक प्रचार में कथा फिल्म शामिल हो रही है। अनुराग कश्यप ने 'ब्लैक फ्रायडे' में अपने राजनीतिक रुझान को अभिव्यक्त किया था। उनकी फिल्म 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' में एक कस्बे में रहने वाले लोगों के चरित्र को प्रस्तुत किया था। सारे पात्र इस्लाम को मानने वाले हैं और सारे ही अपराधी हैं। अनुराग कश्यप न केवल प्रतिक्रियावादी विचारधारा के हामी हैं वरन उन्होंने अपनी फिल्म 'गुलाल' में सामंतवाद की भी पैरवी की है। फिल्म में सामंतवादी लोग एक मंच पर एकत्रित होकर एक फौज का निर्माण करना चाहते हैं, जो नई दिल्ली पर आक्रमण करने का मंसूबा रखती है। विचारणीय यह है कि अनुराग कश्यप को पूंजी निवेश हमेशा उपलब्ध रहा है गोयाकि कुछ साधन संपन्न लोग अराजकता लाना चाहते हैं और सिनेमा माध्यम की लोकप्रियता का लाभ उठाना चाहते हैं। अनुराग कश्यप फिल्म की भाषा और ग्रामर की गहरी जानकारी रखते हैं। नीयत सही होने पर ही ज्ञान का लाभ मिलता है।

यह गौरतलब है कि जर्मनी की फिल्मकार लेनी रोजन्थाल ने हिटलर की छवि को महिमा-मंडित करने के लिए एक वृत्तचित्र बनाया था, जिसमें हिटलर का प्रवेश कुछ ऐसा दिखाया गया मानो वह सूर्य से जन्मा है। लेनी रोजन्थाल ने ही 1936 के बर्लिन ओलिंपिक पर आर्य जाति की श्रेष्ठता दिखाने वाला वृत्त चित्र 'ओलम्पिया' बनाया था। यह भी हमें याद रखना होगा कि हिटलर ने हॉकी खिलाड़ी मेजर ध्यानचंद पर दबाव बनाया था कि वे जर्मन नागरिकता ग्रहण करें और उन अंग्रेजों के खिलाफ खेलें, जिन्होंने भारत को गुलाम बनाया है। मेजर ध्यानचंद ने सारे लोभ-लालच को मात देते हुए भारत को हॉकी में लगातार गोल्ड मेडल जीतने में प्रमुख भूमिका निभाई। विगत पांच वर्षों से मनमोहन शेट्‌टी की पुत्रियां पूजा एवं आरती मेजर ध्यानचंद्र बायोपिक के सितारों से मिलती रहीं परंतु अक्षय कुमार अभिनीत 'गोल्ड' बन चुकी है, जो मेजर ध्यानचंद के जीवन से प्रेरित नहीं है। यह भी गौरतलब है कि प्रतिक्रियावादी ताकतें ही सिनेमा माध्यम का राजनीतिक लाभ उठाती रही हैं परंतु गणतांत्रिक मूल्यों में भरोसा रखने वाले राजनीतिक दल इस माध्यम की उपेक्षा ही करते रहे हैं। हिटलर के प्रचार मंत्री गोेएबल्स का मत था कि एक झूठ सौ बार दोहराने पर आवाम उसे सच मानने लगता है। इसी तर्ज पर मुद्रा में परिवर्तन और जीएसटी को सफल सिद्ध ही कर दिया। बैंकों के सामने लगी कतारों में शहीद हुए सौ से अधिक लोग अब 'बाकी इतिहास' हो चुके हैं। विकास का रोड रोलर ऐसे ही कुचलता हुआ चलता है। भारत में छवि को धूमिल करने के मुकदमे इतना समय लेते हैं कि मृत्यु के बाद भी फैसला नहीं आता। इसलिए लोग मिथ्या बदनामी को सहन कर लेते हैं। कुछ वर्ष पूर्व अमेरिका के एक लोकप्रिय व्यक्ति को गवाहों के अभाव में अदालत दंडित नहीं कर पाई परंतु अवाम ने उसे इस तरह दंडित किया कि उसके सारे वेतनभोगी सेवक उसकी नौकरी से त्यागपत्र देकर चले गए। कोई भी रेस्तरां उसके लिए स्थान आरक्षित नहीं करता था। इस तरह हम देखते हैं कि जन अदालत न्यायालय के परे जाकर अपने दंड विधान का पालन करती है।

उपन्यास 'क्यूबी सेवन' में कथा इस तरह है कि एक पत्रकार लंदन में बसे एक डॉक्टर पर आरोप लगाता है कि इसने हिटलर के कार्यकाल में हजारों यहूदियों को शल्यक्रिया द्वारा नपुंसक बना दिया और महिलाओं के गर्भाशय निकाल दिए। वह डॉक्टर पत्रकार पर मानहानि का मुकदमा दायर करता है। कोई चश्मदीद गवाह नहीं है परंतु जज महोदय यह जान चुके हैं कि डॉक्टर ने अपराध किए हैं। अत: जज को डॉक्टर के पक्ष में ही फैसला देना है। वह अपने अभूतपूर्व फैसले में पत्रकार पर केवल एक पैनी का दंड देता है यानी एक दुअन्नी भर पैसा देना है, जिसका अर्थ है कि डॉक्टर साहब की इज्जत महज इतनी है। इस तरह दंड विधान के दायरे में रहते हुए भी जज न्याय करता है।

विचारणीय मुद्‌दा यह है कि प्रचार माध्यमों द्वारा छवि महिला मंडित करने या छवि खंडित करने के प्रयास होते हैं परंतु क्या अवाम इतना भोला है कि आसानी से ठगा जाता है या उसके अपने पूर्वग्रह उसे पहले ही से ही भ्रमित होने के लिए मानसिक तौर पर तैयार कर चुके हैं? वह पूरे होशोहवास में प्रचार के बहाने अपने पूर्वग्रह और अंधविश्वास के पथ पर चलता है। कहते हैं कि सोए हुए व्यक्ति को जगाया जा सकता है परंतु जागा हुआ व्यक्ति सोने का ढोंग कर रहा हो तो उसे कैसे जागरूक करेंगे? अदालत के कठघरे में हर व्यक्ति शपथ लेता है कि सत्य बोलेगा परंतु बोलता झूठ ही है। यह सब जहां घटित होता है, वहां लिखा होता है, 'सत्य मेव जयते।'