छाँह / वंदना मुकेश
बात बहुत पुरानी, लगभग 1948 के आस-पास की है। जेठ का महीना था। तपती दोपहरी में जहाँ भीषण गरमी की प्रचंडता से भयभीत होकर पत्ते भी सहमकर सरसराना नहीं चाहते थे। पशु-पक्षी, इंसान सभी सुट्ट पड़ गए थे। ज़मीन और आसमान आग उगल रहे थे। ऐसे में चट्टानों को काटकर बने और बसे शहर ग्वालियर से मध्य प्रदेश राज्य परिवहन निगम की एक नयी-नवेली बस कच्ची, पथरीली सड़क पर धुँआ और धूल उड़ाती थकी-सी चली जा रही थी कि कंडक्टर की उकताई हुई आवाज़ के साथ बस कराहती-सी एक सूखे पपड़ाए पेड़ के पास चरचराती हुई रुक गई। 'पिपरौआ-पिपरौआ' की हाँक लगाते हुए कंडक्टर एक बड़े संभ्रांत से य़ात्री की तरफ़ मुखातिब होकर एकदम से स्वर बदलकर बड़े सम्मान से बोला, 'काय लंबरदार दद्दू, लिवा लाए का लली ए' सासरे ते? कोऊ झाँ लैबे आएगो का? (क्यों नंबरदार भैया, बिटिया को ससुराल से ले आए, कोई यहाँ लेने आएगा क्या) बैलगाड़ी-फैलगाड़ी?
'कह तो दई हती, दयापस्साद गाड़ी लैकें आत होगो' (कह तो दिया था दयाप्रसाद गाड़ी लेकर आता होगा) , फिर वे सज्जन पलटकर लड़की से बोले, 'चल-चल बेटा लच्छमी, ठाड़ी है जा'। (चल-चल बेटा लक्ष्मी, खड़ी हो जा) लड़की झट से उतर गई। उतरने पर तेज गरम हवा भी उसे जीवनदायिनी लगी क्योंकि बस ठसाठस भरी थी और यात्रियों के पसीने की मिली-जुली गंध से उसे उबकाई आ रही थी।
लड़की ने सस्ती-सी काली किनारवाली सफ़ेद सूती धोती पहनी थी। किंतु उसने एक सफ़ेद रंग की कढ़ाईदार सुंदर-सी चादर भी ओढ़ रखी थी। चेहरा घूँघट से पूरा ढँका, लेकिन एक हाथ की दो अँगुलियों से उसने आँख के पास देखने की जगह बना ली थी और उसी से देख रही थी। उसका एक हाथ ही दिखाई देता था। एकदम गोरा...हल्दी की तरह पीला...बल्कि धूप से सुनहरा ही दिख रहा था।
लंबरदार कहकर सम्बोधित किए गए इस व्यक्ति की उम्र लगभग 40-45 के दरम्यान होगी। लंबा कद, गठा, कसरती बदन और पके गेँहू-सा रंग। सफ़ेद झक धोती-कुर्ता धूप से और भी उजला लगता था। कंधे पर लाल-सफ़ेद चौकड़ी का गमछा, जो गले के इर्द-गिर्द सावधानीपूर्वक लिपटा था। सर पर चमचमाता सफ़ेद साफा था और पैरों में चमड़े के जूते। कंधे पर एक पोटलीनुमा बिस्तरबंद, एक हाथ में कपड़े की थैली-जिस पर कुछ बेल-बूटे कढ़े थे। बस यही सामान था दोनों के बीच। बस धूल उड़ाती फिर चल पड़ी।
पंचमहल क्षेत्र के लिए एक ही बस थी। सुबह नौ बजे चलनेवाली इस बस-सेवा से अनेक गाँव काफ़ी हद तक ग्वालियर से जुड़ गए थे। यह बस अक्सर मुख्य सड़क से सात-आठ मील दूर, किसी गाँव के पास भीतरी कच्ची सड़क पर छोड़ दिया करती थी, जहाँ से मुकाम गाँव दो से तीन कोस तक की दूरी पर होता था। यात्रियों से ठसाठस भरी इस बस की छत तक पर यात्री सवार होते थे। ग्वालियर से पिपरौआ तक की यात्रा में तीन घंटे बस द्वारा और फ़िर लगभग डेढ़ घंटा की ही पैदल यात्रा यानी कि तीन से चार घंटा और कभी-कभी पाँच घंटे तक लग जाया करते थे। क्योंकि जगह-जगह सवारियाँ उतारते-चढ़ाते डेढ़ घंटे के सफ़र में तीन घंटे लग जाते थे। लेकिन पहले तो पूरा-पूरा दिन ही लग जाया करता था।
हाँ तो बात तो लंबरदार की हो रही थी। सरकारी कर्मचारी थे। उनके अंग्रेज़ साहब डॉडसन ने प्रसन्न होकर नंबरदार की उपाधि से नवाज़ा था। पंडित घनश्यामदासजी नंबरदार-इसी नाम से जाने जाते थे वे। किंतु जब से नंबरदार की उपाधि मिली, लोग उन्हें पंडितजी से लंबरदार कहने लगे थे। उनका परिवार पंचमहल के प्रतिष्ठित परिवारों में से एक था। दो भाई थे वे। छोटे मनमोहनदास-जिनकी बड़ी बेटी लक्ष्मी को ससुराल से विदा कराकर घर ले जा रहे थे। मनमोहनदास उनका बहुत सम्मान करते थे। घनश्यामदासजी की अपनी कोई संतान न थी और लक्ष्मी पर उनका और उनकी पत्नी भगवतीदेवी का अत्यधिक स्नेह था। लक्ष्मी का विवाह उन्होंने ग्वालियर में रहनेवाले पंडित नरोत्तमजी के इकलौते सुपुत्र विष्णुप्रसाद के साथ डेढ़ वर्ष पूर्व कर दिया था। नरोत्तमजी संत स्वभाव के व्यक्ति थे। उनकी पत्नी का देहांत विष्णु के बचपन में ही हो गया था। परिवार में उनके छोटे भाई राधेश्याम, उनकी पत्नी कौशल्या थीं। विष्णुप्रसाद कॉलेज में पढ़ रहे थे। घनश्यामदासजी को नरोत्तमजी का परिवार अपनी लाड़ली बेटी के एकदम उपयुक्त लगा। हालाँकि नरोत्तमजी और राधेश्याम की आर्थिक स्थिति उनके मुकाबले में तो काफ़ी कमज़ोर थी लेकिन घनश्यामदासजी आदमी की परख करना जानते थे।
'ताऊ हम रुकंगे नईं, ताई और अम्मा निन्नेई रस्ता देख रई होंगी' (ताऊ हम रुकेंगे नहीं, ताई और अम्मा भूखी-प्यासी राह देख रही होंगी) लक्ष्मी धीरे से बोली। फिर घूँघट को थोड़ा पीछे सरकाया, आँखें क्षण भर को दिखीं फिर घूँघट नाक तक खींच लिया। उसकी आँखें नीली... नीली...सच..., वह लड़की इतनी गोरी और सुंदर थी कि कल्पना लोक की सुनहरी परी याद आ गई। उसकी उम्र लगभग 12-13 वर्ष रही होगी।
ताऊ को बात जँच गई और वैसे भी दयाप्रसाद आने ही वाला था। पितृव्य और पुत्री चल पड़े। ताऊ आगे बिटिया पीछे। लड़की की चाल में अनोखा उल्लास टपक रहा था। वह लगभग कूदती हुई ताऊ के पीछे-पीछे भागी जा रही थी। थोड़ी देर में उसका उछल-उछल कर चलना कुछ विचित्र लगने लगा मानो धरती पर पैर ही न धरना चाहती हो। ताऊ पलभर को मुड़े और उन्होंने भी अनुभव किया इस विचित्र-सी चाल को। नज़र पैरों पर गई, यह क्या देखा ताऊ की आँखों ने! हे राम! यह लड़की नंगे पैर! चप्पलें नहीं हैं इसके पाँव में। चिलचिलाती धूप से धरती तप रही थी। गरम हवा के थप्पड़ों से साँस ले पाना दूभर हो रहा था। हवा आग की लपटों की तरह भून रही थी। तपन ऐसी कि कपड़ों से शरीर ढँका न हो तो झुलस जाए। ... तो यह भट्टी पर चल रही थी नंगे पाँव। ताऊ काँप गए, अपने अंजाने अपराध से। परमेसुर, कभऊँ छमा नईं करैगो (परमेश्वर कभी भी क्षमा नहीं करेंगे) । कदम जम गए। पोटली उतार फेंकी, कुछ समझ पाती उससे पहले बिटिया को गोद में लेकर पोटली पर बैठाया। गमछा दोहरा कर के लक्ष्मी के पैरों के नीचे लगा दिया।
हरे राम! तैंने मोसे भईं काय नईं कही... बजार... (तूने मुझसे नहीं क्यों नहीं कहा...बाज़ार...) बुदबुदाते से ताऊ अपने शब्दों की निरर्थकता से सहम कर चुप हो गए। बिटिया के पाँव हाथ में लिए, महावर और तलवों के रंग का भेद ताऊ की डबडबाई आँखे न कर पाईं। ताऊ का कलेजा मुँह को आ गया। दो गरम बूँदें सुर्ख तलवों पर पड़ीं, लड़की बिलबिला गई।
ताऊ ने साफ़े को बीच में से फाड़ दिया। कपड़ा कुछ बड़ा लगा। आधे फाड़े कपड़े को फिर बीच में से दो किया। कपड़े की दो गद्दियाँ-सी बनाई और बड़े जतन से दोनों तलवों पर वे गद्दियाँ रखीं। साफ़े के बचे कपड़े की पतली-पतली पट्टियों से गद्दियाँ बाँध दीं। इस सारी प्रक्रिया में साफ़े का रूमाल से कुछ बड़ा टुकड़ा बचा जो ताऊ ने गमछे की जगह गले के इर्द-गिर्द लपेट लिया। गमछा सर पर बाँध लिया। धूप, क्रोध और आत्म-ग्लानि से ताऊ का चेहरा भी लाल हो रहा था। बिटिया ताऊ का सहारा लेकर जैसे-तैसे खड़ी हुई, न चाहते हुए भी उसकी सिसकारी निकल गई। एक दो कदम तो ऐसे पड़े कि अब गिरी किंतु बड़े जीवटवाली थी नन्हीं जान। फिर चल पड़ी। इस बार ताऊ साथ-साथ चल रहे थे शायद सोच रहे थे कि दयाप्रसाद कहाँ रह गया?
करीब आधे मील के फासले पर पीपल का एक बड़ा वृक्ष नज़र आ रहा था। लक्ष्मी फिर बोली, 'ताऊ हम रुकंगे नईं, ताई और अम्मा निन्नेई रस्ता देख रई होंगी'। ताऊ बोले, ' बेटा भाँ कूँआ ऊ ऐ, तैंऊ तो सकात्ते निन्नी ऐ। कछु कौरा डार लै नईं तो तेई ताई लड़ेगी मोसे (बेटा वहाँ कूँआ भी है, तू भी तो सुबह से निराहार है। कुछ कौर खा ले वरना तेरी ताई मुझसे लड़ेगी) । वह कुछ नहीं बोली, शायद ताऊ ठीक ही कह रहे थे।
वृक्ष के नीचे पँहुचते ही ताऊ ने सामान नीचे रखा और थैले में से लोटा-डोर निकालकर कुँए से पानी खीँचा। बिटिया हाथ-मुँह धोने आई और पहली बार उसका घूँघट माथे तक आया। इतनी उजली कि हाथ लगाने से मैली हो जाए। दुनिया की हलचल से बेख़बर, उजला पाक चेहरा। बिटिया ने दोनों हाथों को जोड़कर अंजुरी आगे की कि ताऊ ने लोटे से शीतल जल की धार से अंजुरी भर दी। बिटिया ने खूब छककर हाथ-मुँह धोए और गटागट-गटागट जी भरकर ठंडा पानी पिया। फिर सर हिलाकर पानी की धार रोकने का इशारा किया, मानो उसका तन और मन दोनों पानी की एक-एक बूँद का आस्वाद लेना चाहते थे। कभी-कभी लक्ष्मी को आश्चर्य होता था कि तपती धरती की छाती में से इतना ठंडा तन-मन को तृप्त करनेवाला शीतल जल कँहा से आ जाता है?
ताऊ ने फिर पानी खीँचा, खूब हाथ-मुँह धोए और खुद भी छककर पानी पिया। एक बार और पानी खीँचकर लोटा भरकर रख लिया। थैले में से कलेउ की पोटली निकाली तो मिर्च के अचार की गंध से एकाएक लक्ष्मी को ऐसा लगा कि वह कई दिनों से भूखी है।
हाँ ...भूखी ही तो थी...मायके जाने की खुशी में भूख भाग गई थी...कल सारा आँगन लीपा। गौशाला साफ़ की, कंडे थापे। आज सुबह तीन बजे ही उठ गई थी वह। पाँच-सात किलो अनाज पीसने का तो रोज़ का नियम था, नींद तो बहुत आती लेकिन चचिया सास बाल पकड़कर झकझोर देती। ऐसे में लक्ष्मी को अक्सर ताई नानी, माँई और अम्मा-सबकी याद आ जाती थी, उसके आँसू आँखों तक आ जाते थे। अचानक लक्ष्मी को याद आया कि आज जब चचिया सास ने बाल पकड़कर झकझोरा तब वह उनींदी नहीं थी तो क्या चाची की आदत बन गई थी उसके बाल पकड़कर झकझोरना...और आज उसे दर्द भी तो नहीं हुआ। ...पूड़ियाँ सेकते हुए उसे भूख-सी महसूस तो हुई थी लेकिन चाची खातीं तभी तो वह खाती।
ताऊ ने उसे अपनी पोटली में से चार मोटे परांठे और उस पर एक मोटी-सी मसाला भरी मिर्च उसे थमाई और स्वयं भी चार परांठे लेकर खाने बैठ गए। जब दोनों खा-पीकर तृप्त हुए तो सहसा लक्ष्मी को महसूस हुआ कि उसके तलवे भीषण रूप से जल रहे थे। वह धीरे से बोली, 'ताऊ मेए तरुआ बर रए ऐं, आग पर रई ऐ, जे पट्टिन नै नैक खोल कैं पाँय धोय लऊँ' (ताऊ मेरे तलवे जल रहे हैं, जलन हो रही है, इन पट्टियों को खोलकर पैर धो लूँ?) ।
ताऊ बड़े सनेह से पट्टी खोलने लगे। तलवे देखते ही ताऊ रो पड़े। लक्ष्मी फिर बोली, 'ताऊ, बहोत आग पर रई ऐ,' (बहुत जलन हो रही है) ।
ताऊ ने फिर पानी खीँचा। लक्ष्मी ने पैर आगे कर दिए। शीतल जल से पैर धोकर क्षणभर को लक्ष्मी भीतर तक शीतल हो गई। किंतु यह क्या? पानी के रुकते ही जलन दुगनी हो गई, 'ताऊ और पाँईं डारौ' लक्ष्मी का चेहरा दर्द से और सफ़ेद पड़ गया बिलबिलाहट उसकी आँखों में उतर आई, दर्द से होठ नीले-जामुनी हो गए पर वह दर्द जज़्ब किए थी। ताऊ घबरा गए, उन्होंने चार-पाँच लोटा पानी उढ़ेल दिया, लेकिन हर बार पानी की धार थमते ही लक्ष्मी का चेहरा और मलिन पड़ जाता।
ताऊ को दयाप्रसाद पर जमकर गुस्सा आ रहा था। वे हताश से कभी गाँव की दिशा में देखते कभी लक्ष्मी के पैर। यह क्या? देखते-देखते लक्ष्मी के तलवों पर बड़े-बड़े फफोले फूट पड़े थे। दर्द से होठ टेढ़े हो आए, सिसकारी भरती वह कह रही थी, 'ताऊ हम रुकंगे नईं, नईं तो संझा है जागी, पट्टी बाँध देओ मैं चलउँगी तौ ठीक है जांगे' (ताऊ हम रुकेंगे नहीं, नहीं तो शाम हो जाएगी, पट्टी बाँध दो मैं चलूँगी तो ठीक हो जाएँगे) ।
ताऊ सोच रहे थे कि यह नन्ही-सी जान इन तलवों से कैसे चल सकेगी? ताऊ ने सारा सामान पीठ पर बाँध लिया और यह सोचने लगे कि बिटिया को गोद में उठा लूँ। दयाप्रसाद की लट्ठ से पिटाई करने का दिल कर रहा था। ताऊ ने फिर नज़र घुमाई। दूर...शहर की तरफ़ से एक धुँधली-सी आकृति साइकिल पर आती दिखाई दी। ताऊ ने सोचा, ज़रूर कोई सरकारी कारिंदा आ रहा है...आकृति पास आती गई... अरे यह तो विष्णुप्रसाद है। दामाद को देख ताऊ का माथा ठनका। क्या कारण हो सकता है? आज सुबह से तो नदारद थे जनाब, अब भर लू-लपट भरी दोपहरी में दस कोस साइकिल पर...न सर पर कोई कपड़ा है न टोपी... ये नई पौध...अक्ल। तो क्या यह मुझसे भी पहले यहाँ पँहुचने के लिए रवाना हो गए थे? लक्ष्मी ने देखा तो झट घूँघट लंबा किया और पीठ फेर कर सिमटकर बैठ गई।
विष्णुप्रसाद साइकिल से उतरे, ताऊ से राम-राम हुई, वे हाँफ रहे थे।
ताऊ ने पूछा, सब कुसल तो है?
विष्णुप्रसाद ने मानो, सुना ही नहीं हाँफते हुए बोले, 'ताऊ, दोस्त के पिताजी की साइकिल है, पाँच बजे तक लौटानी है...फिर कुछ रुके... मानो हिम्मत जुटा रहे हों...फिर कुछ सकुचाते हुए बोले,' क्षमा माँगने आया हूँ '।
विष्णुप्रसाद ने साइकिल के कैरियर में दबी अख़बार के कागज़ में लिपटी कोई चीज़ उन्हें थमाई और साइकिल पर सवार हो ही रहे थे कि ताऊ ने कहा, 'ठहरो मेहमान, लोटा-डोर निकारूँ, नेक सिराय लेते' (ठहरो मेहमान, लोटा-डोर निकालूँ, थोड़ा आराम कर लेते) ।
विष्णुप्रसाद इन्कार नहीं कर सके। पता नहीं... लक्ष्मी की एक झलक देखने को...या पानी पीने को।
लक्ष्मी ने मानो घूँघट में भी यह जान लिया, वह और भी ज़्यादा सिमट गई, किसी गठरी की तरह। उसने अपने फफोलेवाले पैरों को भी छुपा लिया। वह संकोच से गढ़ी जा रही थी।
विष्णुप्रसाद भी गहरे संकोच में बैठे थे। ताऊ सामने थे। कोई कुछ नहीं बोला। लेकिन कितना कुछ कह दिया गया था। ताऊ ने पानी पिलाया। दो लोटा पानी पिया विष्णु ने, किंतु सुस्ताने का व़क्त नहीं था। तीन बज रहे थे। विष्णुप्रसाद उठ खड़े हुए। चलते समय उन्होंने ताऊ से धीरे से कुछ कहा जिसे लक्ष्मी न सुन सकी।
लक्ष्मी की साँस धौंकनी-सी धक-धक चल रही थी। घूँघट के भीतर उसका चेहरा लाज से लाल हो रहा था और स्वेद कण ऐसे मानो अभी-अभी ढेर सारे पानी से मुँह धोया हो। उसने तो कभी कल्पना भी नहीं की थी कि विष्णु किसी कारण से उनके पीछे-पीछे इतनी दूर तक चले आएँगे। क्या कारण हो सकता है ।? ताऊ से तो पूछ नहीं सकती थी।
तब तक ताऊ ने कागज़ का पुलिंदा लक्ष्मी की तरफ़ बढ़ा दिय़ा और गहरी साँस छोड़ते हुए बोले, भला हो उसका!
लक्ष्मी के हाथ कई मन भारी हो गए थे। क्या होगा इसमें... हाथ जड़ हो गए थे। ताऊ की आवाज़ भी दूर से आती प्रतीत हो रही थी। वे कह रहे थे, खोल ले। लगता है दयाप्रसाद आ रहा है।
लक्ष्मी ने थरथराते हाथों से धीरे से एक कोने से कागज़ हटाया-उसमें नई चमचमाती काली, चमड़े की एक जोड़ी चप्पलें दिखाई दी। एकाएक लक्ष्मी को लगा कि न सिर्फ़ उसके पैरों के फफोलों में पड़ती भीषण जलन बल्कि सारे वज़ूद में जल से भी ठंडी, एकदम ठंडी, बर्फ की शीतल लहर-सी दौड़ गयी है।
अचानक बादल गड़गड़ा उठे। दूर, दयाप्रसाद की बैलगाड़ी की घंटियाँ सुनाई दे रही थीं।