छाछ / शशिभूषण
यह उतरते क्वार और लगते कातिक के एक दिन की बात है।
मुझे अब ठीक से याद नहीं कि कौन सा दिन था। कई साल हो चुके हैं इसलिए तारीख़ और वार याद न रह जाने को समझा जा सकता है। उन दिनों खेतों में जुताई चल रही थी। धान-सोयाबीन की फसलें खलिहान में आ चुकी थीं। बारिश नहीं होने की वजह से परती हो रहे ऐसे खेतों को चने या मसूर की फसल के लिए जल्दी-जल्दी जोता जा रहा था जिन्हें किसी साधन से सींचा नहीं जा सकता। उस दिन पिताजी ने सुबह से ही बैलों को सानी खिलाने के बाद काँधे में हल्दी-तेल लगाकर उन्हें नोन-पिसान पिलाकर तैयार कर दिया था। वे यह ताक़ीद करके पहले ही खेत निकल गए थे कि “जैसे ही छोट्टे भाई आएँ बैलों को लेकर खेत आ जाना।”
गाँव में तब नहर नही आई थी। पिछले बीसेक साल से बाणसागर सिंचाई परियोजना गाँव-गाँव आ रही है। सूखे कुओं का पानी बहाल होने ही वाला है। इसे क्षेत्र की धरती का घटता जलस्तर काबू में न आ जाए तो कहना....आदि-आदि केवल सुनने में आ रहा था। हाँ इस बीच मोबाईल और केबल कनेक्शन खूब आ चुके थे। निजी ट्यूबेल अब भी कम थे। बिजली की सप्लाई अनिश्चित रूप से ऐसी न्यून थी कि खेतों की सिंचाई के बारे में सोचना ही बेवक़ूफ़ी थी। हमारे आस-पास के गाँवों में किसानों ने एक फसल को ही अपनी नियति मान लिया था। धान की फसल काट ली तो गेहूँ की आशा नहीं। गेहूँ बोना हो तो चौमास भर खेत को पानी पीने दो। एकटक दशहरे का बिहान तको।
जो इक्का-दुक्का ट्यूबवेल थे भी तो हमारी हैसियत ऐसी नहीं थी कि तीन हार्स पावर की मशीन से चालीस रुपये घंटे पर उपलब्ध पानी से खेत सिंचवा सकें। जिनके पास बाँध थे,डीजल पंप था या पलेवा करवा सकने लायक हैसियत थी वे ज़रूर इतने चिंतित नहीं होंते थे। पर हमारी औकात ट्रैक्टर से खेत जुतवा सकने लायक नहीं थी। दो सौ रुपये घंटे की दर से ट्रैक्टर का किराया हम जैसे चार एकड़ के किसानों के लिए असंभव सा था। बड़े-बड़े खेत हों तो कुछ सहूलियत भी हो जाती है पर हमारा कोई खेत आधा एकड़ से ज्यादा नहीं था। इनमें ट्रैक्टर से मुड़वाई में ही काफ़ी समय बर्बाद हो जाता है। खेतों के कोने बिनजुते ही रह जाते थे। दूसरी बात इतने छोटे खेतों की जुताई के लिए ट्रैक्टरवाले समय से तैयार हो जाएँ ऐसी उम्मीद करना खुद ही धोखा खाना।
वे तभी आते जब कहीं बड़ा काम नहीं होता था। पैसा भी काम पूरा होते ही चाहते। अब चार एकड़ के किसान के पास इतनी नगदी हर समय रहे तो सभी न खेती करना चाहें। छोटे किसानों को उधारी में ट्रैक्टर मानो मिलने ही बंद हो गए थे। इन्हीं मुश्किलों को देखते हमारे घर बैल थे। पिताजी की अतीत होती ज़िद थी कि अपना हल होगा तो जुताई का ताव भी मिलेगा और समय से काम भी हो जाएगा। सो, हमारे यहाँ हल चलता था। इसके कई फ़ायदे थे। धान,चना,सोयाबीन की समय से गहाई हो जाती थी। गोबर से ईंधन की समस्या भी दूर रहती थी।
लेकिन गाँव में हल इतनी तेज़ी से गायब हो रहे थे कि कुछ ही लोगों के घर किसी अजूबे की तरह हल-बैल थे। जिनके हल-बैल नहीं थे वे मिलने पर मज़ेदार ढंग से हल द्वारा जुताई की बड़ी तारीफ़ करते थे। कहते-“जुताई तो हल की ही होती है। ट्रैक्टर में आँतर रह जाता है। दो-तीन साल में खेत खरपतवार से भर जाता है।” लेकिन पीठ पीछे हँसते थे, “जमाना कहाँ से कहाँ पहुँच गया ये अभी भी बैल रखे हुए होठी-तता युग में जी रहे हैं” यहाँ तक कि हल से जुड़े खेती के पुराने औजारों के नाम यथा नगरा,चौंही,घुटकुल,ओइरा,बाँसा आदि लोग भूलते जा रहे थे।
अपने हल में यह सुविधा थी कि समय से काम हो जाता था। किसी की मिन्नत नहीं करनी पड़ती थी। लेकिन हलवाह मिलने में बड़ी कठिनाई थी। इस काम के लिए आदमी मिलना बहुत मुश्किल था। मजदूर छोटा-मोटा कैसा भी काम करने को तैयार थे, लेकिन हल जोतना उचित नहीं मानते थे। दूसरा सच यह था कि नये लड़कों को हल की किसानी तो दूर मूठ पकड़नी ही नहीं आती थी। हाल यह था कि गाँवों में कुछ पुराने जोतइया ही बचे थे। उनकी बहुत माँग थी। पर वे उम्र से ऐसे हो चले थे कि क्वाँर-कार्तिक के कड़े घाम में बैलों से पहले वही हाँफने लगते थे। जाँगर जवाब दे जाता था उनका। इन्हीं कारणों से हमें बड़ी मुश्किल होती थी। हम दो भाईयों में से किसी को हल चलाना नहीं आता था। ब्राह्मण घर में पैदा होने के कारण खेती का चाहे जो काम कर लें पर हल जोतने की सख्त मनाही थी।
पर हमारे पिता बड़े उपायी थे। उनकी मेहनत का कायल हर कोई था। खेती में उनकी ऐसी लगन थी कि हम दोनो भाई बुरी तरह अपने भविष्य से डर गए थे। बापराम हमारी डिग्रियों को किसानी में ही मिलाकर छोड़ेंगे। किसानी में मिला देना हमारा अपना मुहावरा था। जो हमने तब की पढ़ाई-लिखाई और लढ़ाई के बूते बनाया था। हम जिससे मिट्टी में मिला देना से बड़ा अर्थ निकालते थे। हँसते और खीझते थे। लेकिन हम पिता जितना श्रम सपने में भी नहीं कर सकते थे। न ही उतने हिकमतवाले थे। वे हर साल किसी न किसी हलवाह को मना लेते थे। नकद जुताई। दोपहर को बैलों की तकाई के एवज में खाना। सुबह खेत में बैल पहुँचाना और शाम को हाँक लाने का ज़िम्मा हमारा।
छोट्टे भाई जब आए तो मैंने देखा वे सबेरे से बिना कुछ किए ही पस्त जैसे हैं। गोया बीमारी से उठकर आ गए हों। पर हाल-चाल पूछने की मोहलत न थी। मैंने परछी से जुँआ निकालकर रख दिया। उन्होंने उसे हल में फँसा लिया। तब मैं उनसे तंबाकू खा लेने को कहकर तश्तरी ले आया। छोट्टे भाई ने अपनी डिबिया से तंबाकू-चूना निकालकर मला। सुपाड़ी काटकर लौंग के साथ मैंने उन्हें दे दी। लेकिन जैसे ही उन्होंने कंधे में हल रखने को उठाया लड़खड़ा गए। मूठ ज़मीन से टकरा गई। गिरते-गिरते बचे। “जी ठीक नहीं है क्या भाई ?” मेरे पूछने पर उन्होंने कहा “नहीं कुछ नागा नही बस थोड़ी कमज़ोरी है।” मेरी मजबूरी या क्रूरता कहिए कि मैंने उनसे ऐसी हालत में थोड़ी देर आराम कर लेने को नहीं कहा। मुझे बैल पहुँचाकर जल्द लौटना था।
मैं हल नँधवाकर जल्दी ही लौट आया था। घर आने के एक घंटे बाद खेत से पिताजी का संदेश आया कि छोट्टे भाई की हिम्मत जवाब दे गई। कुछ खेत कड़ा था। कुछ बैल भी गरिअरई कर रहे थे और मुख्य बात छोट्टे भाई का जी सुबह से ही लाचार था। पचपन-छप्पन की कमज़ोर देह। वे घाम सह नहीं पाए। दो बार उल्टी हुई। एक बार चक्कर सा आया और हराई पूरी होते न होते जोर का बुखार चढ़ा। फलस्वरूप हल ढील देना पड़ा। पिताजी ने छोट्टे भाई को घर जाकर सुस्ताने को कहा। इस हिदायत के साथ कि तबियत हल्की हो तो दूसरी जून थोड़ा पहले आ जाना क्योंकि खेत जितना जल्दी हो सके जुतना ज़रूरी है। दिनोंदिन ओदी जा रही है। साथ ही पिताजी ने कहलवाया था कि छोट्टे भाई के घर से कोई आए तो ताज़ा मट्ठा बनाकर अवश्य दे दिया जाए। गर्मी और पित्त बढ़ने की वजह से हुई इस बीमारी में मट्ठा रामबाण साबित होगा।
जैसा पिताजी ने कहा था वैसा ही किया गया।छोट्टे भाई के छोटे-छोटे नाती-नातिन दो लोटा मट्ठा ले गए।हम इंतज़ार करने लगे कि दोपहर बीते।मजूरी जून हो।और छोट्टे भाई ठीक होकर थोड़ा जल्दी खेत आ जाएँ।पर चार बज गए थे वे नहीं आए।
मुझ पर पिताजी दवाब डाल रहे थे कि मैं चमड़ौरी जाकर देखूँ छोट्टे भाई सचमुच बीमार ही हैं अब तक या अपनी जाति के अनुरूप ताश के फड़ में बैठकर सब भूल चुके हैं। उन्हे मज़दूरी न भी मिली तो क्या खेत तो हमारा बिगड़ेगा। मैं चमड़ौरी जाने से बचने पर ज़ोर दे रहा था, “कोई ठीक होने पर इस तरह घर में बैठेगा? वो भी छोट्टे भाई जैसा ज़िम्मेदार खेतिहर मज़दूर इंसान।” पिताजी ने इस बात पर एक बहुत ही आपत्तिजनक अतिप्रचलित सवर्ण बात कही थी कि “गँवारों का भरोसा नहीं। गगरी दाना शूद्र उताना बुजुर्ग यों ही नहीं कह गए हैं। तुम सलाह न दो जाकर देखो। और हो सके तो बुला लाओ।” मैं तिलमिला गया था। पर पिताजी से बहस करने लगने का यह वक्त नहीं था, सो चल पड़ा।
मैंने दरवाज़े से ही आवाज़ दी, “छोट्टे भाई घर में हो क्या ?” अंदर से बीमार हाँफती हुई आवाज़ आई, “कौन है ?” लगा जैसे दुआर से ही लगे कमरे में छोट्टे भाई बिल्कुल दीवार से सटे लेटे हैं। मैं दामोदर हूँ। मैंने चीखकर बताया। तब तक कई छोटे-छोटे लड़के-लड़कियाँ बाहर निकल आए थे। उनमें से एक बड़ी लड़की मुझे बता रही थी, “दद्दा जोतने नहीं जाएगा उसे बुखार चढ़ा है।” “तुम दद्दा की कौन हो ?” मेरे पूछने पर उसने कहा “नातिन।” मैंने उसे गौर से देखा। दुबली-पतली। साँवले रंग की दस बारह साल की लड़की। हरे रंग के फीते से बालों की दो चोटी किए हुए थी। मैंने उससे पूछा, “तुम्हे कैसे मालूम मैं तुम्हारे दद्दा को जोतने के लिए बुलाने आया हूँ ?” “मुझे पता है।” उसने कहा। “कैसे मैं भी तो जानू।” “तुम और किसी काम को आते ही नहीं। दद्दा भी जोतने और घर छाने के अलावा कुछ करता नहीँ।” “अच्छा ये बात है ?” “हाँ।” उसने कहा। तभी एक औरत ने जो उसकी माँ हो सकती थी उसे एक थप्पड़ मारा, यह कहकर कि “न रे इन्हें तुकारी मारती है। तुम्हें लाज नहीं आती।” वह बिना रोए मुझे शिकायत से देखती हुई भीतर चली गई। “अंदर मचिया में बैठिए बाहर क्यों खड़े हैं?” औरत ने तत्काल मुझसे आग्रह किया था।
मैं सकुचाते हुए भीतर पहुँचा। वहाँ लगभग अँधेरा था। चारों तरफ़ मक्खियाँ भिनभिना रहीं थीं। मेरी स्थिति से दिखनेवाले आँगन में ज़मीन पर एक गिलास लुढ़का था। एक अधखाई थाली रखी थी। पानी से भरे बाल्टी की बग़ल में अभी अभी बुझा चूल्हा था। छोट्टे भाई एक बेहद मैली कथरी ओढ़े खटिया में टाँगे समेटे लेटे थे। उन्होंने कराहते हुए कहा, “दादू खटिया में बैठो।” मैं उनकी दाहिनी तरफ़ की पाटी में बैठ गया। खटिया इतनी ढीली थी कि मैं उसमें पाँव झुलाकर नहीं बैठ सकता था। मैंने महसूस किया छोट्टे भाई को पाटी में बैठने से ऐतराज़ हुआ है। पाटी के भीतर बैठने में खटिया सुरक्षित रहती। लेकिन मैंने इसकी परवाह नहीं की। बीमार छोट्टे भाई से सटकर बैठने में मुझे अजीब लगता। “क्या हुआ भाई बुखार उतरा नही ?” “बुखार तो अब आया है तक़लीफ़ उल्टी दस्त की है। सुबह से पचीसों कै और दस्त हो चुके हैं।” “कोई दवाई ली है ?” “दवाई घर में कहाँ रहती है। पुतऊ ने किसी से मँगवाई है तो वह साँझ रात जब ले आए।” “सुबह से कुछ खाया पिया या खाली पेट ही हो?” “बेटा भूख जैसे मर गई है। अन्न देखने का मन नहीं करता।” “खिचड़ी खा लेते तो आराम होता। कमज़ोरी भी कम लगती।” “खिचड़ी खाने का मेरा भी मन हुआ पर घर में दाल हो तब तो खिचड़ी बने।”“तो दाल भी मेरे यहाँ से मँगवा लेते।” “पहले सोचा था फिर लड़कों के जाते-जाते याद ही न रहा।” “मट्ठा पिया था? उससे तो कुछ राहत मिली होगी।हो सके तो और मँगवा लो।पेट ठंडा होगा।” “मट्ठा तो नहीं पिया।” “क्यों ?” मेरे यह पूछते ही निकट खड़ी बहू झट से बोली, “मट्ठा मैंने इन्हें दिया ही नहीं कि कहीं बुखार में नुकसान न करे।” “पर इन्हें बुखार नहीं है पेट की बीमारी है। मट्ठा फायदा करता। अभी लाकर दे दो।आराम मिलेगा।” मेरी यह बात सुनकर उसका चेहरा उतर गया। उसमें ग्लानि दिखने लगी। जैसे उससे कोई बड़ा अन्याय हो गया है। वह बोली “मैंने इन्हें मना कर दिया पर बच्चों को नहीं रोक पाई। सब बारी-बारी से सारा मट्ठा पी गए। अब तो छांछ की एक बूँद भी नहीं बची।”
मैंने अचरज और सहानुभूति से छोट्टे भाई की ओर देखा। उनमें कोई शिकायत नहीं थी। उल्टे उन्होंने बहू को टोका, “क्यों नाहक ओरहन देती हो। बच्चे हैं, पी लिया तो पी लिया, अब अफसोस काहे का। मैं छाछ के बिना भी चंगा हो जाऊँगा।” फिर वे मुझसे बोले, “क्या करूँ मुझे पछतावा है कि आपका खेत मेरे कारण परती हो रहा है। पर अब लगता है मुझे दो चार दिन लग ही जाएँगे। मेरी राह देखने की बजाय किसी और को बुला लें। ठीक होने पर आगे के लिए मैं हूँ ही।” “देखता हूँ क्या किया जा सकता है। तुम चिंता मत करो। पहले कायदे से अपना इलाज़ कराओ। मैं अब चलता हूँ।”
मैं छोट्टे भाई के मौखिक पायलागी का जवाब देकर बाहर निकल आया था। उनकी बहू द्वार तक छोड़ने आई थी। उसकी नासमझी और फिर पछतावे पर मेरा मन भर आया था। तंग गली में बच्चे खुश खेल रहे थे। उन्हें देखकर मैंने सोचा इनकी आज की इस खुशी में शायद मट्टा पीने की भी बड़ी भूमिका होगी।
मेरे कदम अनायास तेज़ हो गए थे। खेत से बैल लाने होंगे।पिताजी को बताना भी है। वे रस्ता देख रहे होंगे। जिस हालत में छोट्टे भाई हैं, उसे देखते कोई दूसरा जोतइया खोजना होगा। वह जाने कौन होगा। पता नहीं किस गाँव से आएगा !
यह पिताजी जानें। खेती उन्हीं की खब्त है, मैंने सोचा।