छाती के अंधे कुंए में राजनैतिक मेंढक / जयप्रकाश चौकसे

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छाती के अंधे कुंए में राजनैतिक मेंढक
प्रकाशन तिथि :07 फरवरी 2015


गूंगे व्यक्तिके मन में बोलने की इच्छा इतनी तीव्र होती है कि वह रोम-राेम से शक्ति बटोरकर बोलना चाहता है परन्तु गले की बेजान दीवारों से टकराकर वह घुटी हुई अनअभिव्यक आवाज उसके सीने में घरघराती है जैसे अंधे बंद सूखे कुएं से भांय-भांय की आवाज आती है। ईश्वरीय कमतरी के शिकार व्यक्तियों के मन में सारी सामान्य भावनाएं और वासनाएं होती हैं, और उनके दबे रहने को हम सामान्य व्यक्ति समझ नहीं पाते। कल्कि कोचलिन को लेकर एक फिल्म बनी है जिसमें वह अपंग लड़की जवानी की वय में पहुंचकर सामान्य व्यक्तियों की तरह प्यार और सेक्स की इच्छा रखती है परन्तु उसकी मां इस इच्छा का दमन करना चाहती है, क्योंकि ऊपरवाला ऐसे लोगों के जोड़े लगभग नहीं बनाता। मनुष्य मन की अंधेरी कंदरा में इच्छाओं का रहस्यमय संसार होता है और शारीरिक अपंगता इस संसार को पनपने से रोक नहीं पाती। इन बातों पर विचार- विमर्श को भी हतोत्साहित किया जाता है क्योंकि सामान्य व्यक्तियों की वैचारिक अपंगता शारीरिक रूप से अपंग लोगों से कहीं अधिक विराट है।

आर. बाल्की की शमिताभ एक गूंगे और दूसरे उस व्यक्ति की कथा है जिसकी वाणी काे कभी सम्मान नहीं मिला और इस मायने में दोनों ही अपंग हैं। एक लंगड़ा है, दूसरा अंधा है और अंधा लंगड़े को कंधे पर उठाए तो वे चल सकते हैं। इसी तरह का प्रयास अक्षरा करती है। इस गूंगे युवा का जन्म एक छोटे कस्बे में हुआ है और दूसरा महानगर में असफलता भोगता सनकी होकर कब्रस्तान में रहता है, जहां उसने अपने लिए एक कब्र स्वयं खोद कर रखी है जिसे वह अपने भोजन के टेबल की तरह इस्तेमाल करता है अत: एक पात्र पैदाइशी कमतरी का शिकार है तो महानगर में रहने वाले की आवाज का इस्तेमाल ही नहीं हुआ। हम इस महत्वपूर्ण बात को नहीं भूलें कि आर. बाल्की ने 'शमिताभ' को सिनेमा माध्यम के प्रति आदरांजली की तरह रचा है। इस संदर्भ में गौरतलब यह है कि सिनेमा अपने प्रारांभिक दशकों में बिना आवाज के था और मूक फिल्मों के दौर में ही चार्ली चैपलिन, इस माध्यम के पहले कवि ने महान फिल्में रचीं। सवाक होने के बाद फिल्मों ने अपनी राह खो दी और इसके विरोध में चार्ली चैपलिन और दादा फाल्के ने सवाक युग में मूक फिल्में बनाई। अब इस संदर्भ में बाल्की का जीनियस है कि उसका सितारा बनने की महत्वकांक्षा रखने वाला कस्बाई युवा गूंगा है और दूसरा बाेल सकने वाले पात्र को सिनेमा ने अस्वीकृत किया है जिसका अर्थ है कि सवाक होते ही फिल्मों ने सामाजिक प्रतिबद्धता को कमोबेश अस्वीकृत ही किया है। इसी फिल्म के घटनाक्रम में गूंगा एक मूक फिल्म बनाता है और बोल सकने वाला पात्र एक मसाला अर्थ-हीन फिल्म के लिए आवाज देने को बाध्य है। दोनों ही फिल्में असफल होती है।

इस तरह से आर. बाल्की की 'शमिताभ' को देखिए तो आप इसे सिने शताब्दी के प्रति सर्वाेत्तम आदर की तरह पाएंगे। सतह के नीचे अर्थ की एक परत और है, वह यह कि स्वतंत्रता के बाद हमारे गांव और कस्बे अनसुने ही रह गए गोयाकि यह गूंगा पात्र भारत है और दूसरा बोल सकने वाले पात्र अर्थात महानगर के संवेदनशील व्यक्ति फिल्म के अमिताभ सिन्हा की तरह अस्वीकृत होकर कब्रस्तान में जीते हुए मरने के लिए बाध्य हैं। इसी संवेदनशील बआवाज नागरिक ने अपने लिए जो कब्र खोदी है और जिस कब्र पर गूंगे ने अपनी टीम का प्रतीक नाम 'शमिताभ' लिखा था, उसी कब्र में गूंगे को दफनाया जाता है और फिल्म के अंतिम दृश्य में बोल सकने वाला संवेदनशील महानगरीय व्यक्ति अपनी लाश को अपने कंधे पर उठाए चला जा रहा है। यह दृश्य मनुष्य की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर होने वाले ताजे हमलों का प्रतीक है। इस अर्थ में आर. बाल्की की 'शमिताभ' एक राष्ट्रीय फिल्म बन जाती है। फिल्म के एक दृश्य में सृजन की बात के कारण बाल्की ने ध्वनि बंद कर दी है जो सृजन के बांझ होने का प्रतीक है। यह फिल्म एक तरह से उस शृंखला की फिल्म है जिसमें चुनिंदे फिल्मकारों ने सार्थक फिल्में गढ़ी हैं अर्थात दादा फाल्के, शांताराम, महबूब खान, राजकपूर, बिमल राय, गुरुदत्त से लेकर राजकुमार हीरानी तक जाने वाल श्रंखला का हिस्सा है 'शमिताभ'।

कोई भी फिल्मकार किसी भी तरह की फिल्म बनाए उसमें राजनीति शामिल रहती है चाहे वह सतह के नीचे ही प्रवाहित हो। भारतीय फिल्ममय जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा राजनीति और क्रिकेट है।