छात्र असंतोष की लहरों से अछूता द्वीप! / जयप्रकाश चौकसे

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छात्र असंतोष की लहरों से अछूता द्वीप!
प्रकाशन तिथि :23 फरवरी 2016


देश की अनेेक शिक्षण संस्थाओं में छात्र आंदोलन चल रहे हैं। हैदराबाद के दलित छात्र ने आत्महत्या की और दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय का एक छात्र नेता जेल भेज दिया गया है। सरकारी पक्ष यह है कि ये छात्र देशद्रोह के आरोपी हैं और इनसे सख्ती से निपटा जाएगा। छात्र नेताओं ने इस आरोप से इनकार किया है। देश के अनेक वर्गों में गहरा अंसतोष है और सरकार असंतोष के कारणों को खोजने और उपचार की बजाय दमन की नीति अपना रही है। वे भूल रहे हैं कि हुकूमते बरतानिया ने भी यही भूल की थी। यह काम शोलों को हवा देने की तरह है। यह गौरतलब है कि इस समय विरोधी पक्ष कांग्रेस मरणासन्न है और कम्युनिस्ट नेताओं में किसी के पास अखिल भारतीय नेता होने की क्षमता नहीं है, इसलिए छात्र आंदोलन का महत्व बढ़ जाता है और इसे सरकार मात्र अकारण आक्रोश मानकर खारिज कर रही है- यह उसकी भूल है। समुद्र की सामान्य-सी दिखने वाली लहरों में कहां आने वाले तूफान का संकेत है, इसे चतुर मछुआरे समझ लेते हैं और अपने अभियान को स्थगित कर देते हैं। समाज में असंतोष को पढ़ना कठिन काम है और अलमस्त सरकार अजीबोगरीब आत्मतुष्टि के भाव से प्राय: अपने जलसाघर में मस्त रहती है। अंग्रेजों ने शिमला में एक संस्था स्थापित की थी, जिसके जासूस साधुओं का भेष धारण करके मंदिरों में और सूफियों के लिबास में मस्जिदों में जाकर जनता के आक्रोश का आकलन करने का प्रयास करते थे।

आज इसी काम के लिए शिक्षा संस्थानों में सरकार अपने आदमी भेजे तो उन्हें चौंकाने वाले सच मालूम पड़ेंगे। चुनावों के नतीजों से मुतमइन होना गुमराह कर सकता है, क्योंकि इतने दशक बाद भी चुनाव में जातिवाद निर्णायक होता है परंतु सामाजिक असंतोष का जाति या धर्म से कोई संबंध नहीं है। यह गौरतलब है कि शिक्षा जगत में असंतोष पुणे फिल्म संस्थान में एक धार्मिक सीरियल में काम करने वाले को महत्वपूर्ण पद देने से प्रारंभ हुआ था और उसे सफलता से कुचलने को सरकार अपनी विजय मान रही है।

महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन के समय भी सारे शिक्षा केंद्रों में चिंगारी भड़की थी। चीन में युवा आंदोलन को दबा दिया गया परंतु अब तानाशाही चीन में भी असंतोष के कई छोटे द्वीप बन गए हैं। छात्र आंदोलन के राजनीतिक कारण सतही लक्षण मात्र हैं, असल असंतोष तो यह है कि युवा वर्ग का स्वप्न भंग हुआ है। उन्हें लगता था कि विगत चुनाव के बाद नई सुबह होगी परंतु एेसा हुआ नहीं। वह दौर कुछ और था। तब के कलकत्ता के श्रेष्ठि वर्ग के युवा देवकी बोस ने असहयोग आंदोलन के कारण अपनी पढ़ाई छोड़ दी थी और धीरेन गांगुली की संगत में उन्हें फिल्म बनाने की प्रेरणा मिली और उनकी पटकथा 'चंडीदास' पर न्यू थिएटर्स ने सफल फिल्म बनाई। देवकी बोस पहले निर्देशक थे, जिन्होंने यह सिद्ध किया कि मनुष्य के मन की सारी भावनाओं को फिल्म के माध्यम से व्यक्त किया जा सकता है। 'चंडीदास' एक क्रांतिकारी फिल्म थी, जिसमें रामी धोबन और उच्च कुल के बामन युवा की प्रेम कथा प्रस्तुत की गई थी।

आज मीडिया में छात्र असंतोष का सच्चा स्वरूप प्रस्तुत नहीं हो पा रहा है। उन छात्रों में से कुछ लोगों को अपने असंतोष पर फिल्में बनानी चाहिए, क्योंकि आज भी भारत का अवाम फिल्म देखता है। संचार के अन्य माध्यमों पर सरकारी दबाव काम कर सकता है। गोविंद निहलानी और उनकी तरह जागरूक फिल्मकारों को छात्र आंदोलन से जुड़ना चाहिए और उस पर प्रभावोत्पादक फिल्में बनानी चाहिए या आंदोलनकारी छात्रों में से ही किसी देवकी बोस का उदय होना चाहिए। आज के समाज और जीवन में इतने नए और अभिनव काम हो रहे हैं कि फिल्म माध्यम की इस क्षेत्र में उदासीनता चौंकाने वाली है। स्वयं सरकार में समझबूझ हो तो इस छात्र ऊर्जा से देश का नव-निर्माण कर सकती है। दिनकरजी की पंक्तियां इस तरह हैं, 'समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध, जो तटस्थ है, समय लिखेगा उनके भी अपराध।'